चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Thursday, 22 December 2016

जिगर के दुश्मन और होम्योपैथी के हथियार

किसी तन्त्र की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलने के लिए उसके व्यवस्थापक का कुशल होना बेहद जरूरी है । यह शरीर और समाज दोनों के लिए सत्य है ,  कार्य के महत्व की दृष्टि से शरीर में  रेसेप्सनिस्ट और मैनेजर दोनों की भूमिका लिवर अदा करता है, इसे हिंदी में यकृत या जिगर भी कहा जाता है। यह शरीर में बाहर से आने वाले सभी खाद्य अखाद्य पदार्थों तत्वों के पाचन, उनके अवशोषण, उचित अनुपात में  विभाजन व यथास्थान संचयन, संप्रेषण, अथवा उत्सर्जन को सुनिश्चित करता है। इसीलिए पोषक तत्व हों, औषधि हो या विष सभी सबसे पहले लिवर को प्रभावित करते हैं, अत्यधिक कार्य एवं उपयोगिता के कारण ही लिवर में प्राकृतिक पुनर्निर्माण की क्षमता भी अन्य अंगो से अधिक पायी जाती है। कह सकते हैं कि शरीर के भीतर भरण पोषण की जिम्मेदारी लिवर की ही होती है जिससे अन्य अंगतंत्र व्यवस्थित कार्य कर पाते हैं इसलिए यदि किन्ही कारणों से लिवर की सामान्य क्रिया बाधित होती है तो यह अनेक तंत्रो की कार्यक्षमता पर भी असर डालता  है जिससे व्यक्ति शारीरिक मानसिक रूप से रोगग्रस्त हो जाता है।

चिकित्सकीय दृष्टि से यकृत को प्रभावित कर सकने वाले प्रमुख कारकों में व्यक्ति का आनुवंशिक कारक, कोई वाह्य विषाक्तता ; जीवाणु, विषाणु, परजीवी, संक्रमण, अथवा व्यक्ति की लंबी बीमारी व अत्यधिक दवाओं का अनावश्यक सेवन, अनियमित, असन्तुलित जीवन शैली, व तमाम मानसिक स्थितियां हैं जो लिवर को कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं।

पहचान के लिए लक्षणों के संकेत

पेट के ऊपरी, पसलियों के नीचे दाहिने भाग में दर्द , अपचऔर एसिडिटी, मिचली,या उल्टियां , भूख कम और वज़न कम,कब्ज़, या भोजन के तुरन्त बाद मलत्याग की हाजत, गहरे या, काले रंग का मल ,मूत्र  गहरा पीला, त्वचा तथा आँखों का सफ़ेद और पीला होना, त्वचा का सूखी, मोटी, छिलकेदार होना तथा उसपर खुजली वाले चकत्ते, या लिवर स्पॉट अर्थात हल्के रंग के धब्बे होना, पैरों, टखनों और त्वचा के नीचे दबने वाली सूजन, थकान ,चक्कर आना, मांसपेशियों की तथा दिमागी कमज़ोरी, याददाश्त कम होना तथा संभ्रम (कन्फ्यूज़न)हो या

पेट पर सूजन आदि में से कुछ लक्षण दिखें तो इसे कतई नजरअंदाज न करें बिना चिकित्सक की सलाह दवाई न लें।

पीलिया, लिवर में सूजन, हेपेटाइटिस,लिवर सिरोसिस, ट्यूमर, फोड़ा, आदि लिवर में होने वाले प्रमुख रोग हैं।

ब्लड एवं सेरोलॉजिकल टेस्ट,

रेडियोलॉजिकल जाँच में एक्सरे, अल्ट्रा साउंड, पी टी सी, सी टी स्केन।

लिवर बायप्सि आदि से प्राप्त रिपोर्ट एवं लक्षणों के मिलान के आधार पर बीमारी की पुष्टि एवं उपचार के लिये उचित पथ्य चयन में सहायता मिलती है।

लिवर को रोगमुक्त रखने के लिए जरूरी उपाय

संतुलित आहार, नियमित जीवन शैली योग व्यायाम और होम्योपैथी  अपनाकर अपने लिवर में सम्भावित रोगों से बचा जा सकता है या बेहतर इलाज से रोगमुक्त हो सकते हैं।

भारतीय मनीषियों ने बताया है कि हमारी जीवनी शक्ति जैविक घड़ी के अनुसार अंगतंत्रो में अलग अलग समय में अधिक सक्रिय होती है , अतः दिनचर्या को प्रकृति के अनुरूप ही ढलने का प्रयास करें। रात्रि में 12 से 2 बजे तक यही जीवनी शक्ति शरीर में नवीन कोशिकाओं के निर्माण व रिजनेरेशन में अधिक सक्रिय होती है इसलिए समयानुसार कम से कम 6 घंटे की नींद अवश्य पूरी करें और अवश्य लें।

जितना हो सके तनावमुक्त रहें क्योंकि इसका सीधा प्रभाव लिवर की कार्य क्षमता व पाचन प्रक्रिया पर होता है।

खान पान में सावधानी सबसे महत्वपूर्ण है , पर्याप्त मात्रा में ताजे मौसमी  फल और हरी पत्तेदार सब्जियां, या उनका जूस, मट्ठा, स्वच्छ या उबला हुआ पानी अवश्य लें।

भूख लगने पर ही किन्तु भूख से थोडा कम भोजन करें।

सुबह खाली पेट एक बड़ा गिलास गुनगुना नींबू पानी पिएं। 

खाना बनाने में चुटकी भर हल्दी का इस्तेमाल भी फायदेमंद है।

रोज 6-7 लहसुन की कलियां लें यह लीवर को साफ करता है।

शराब , सिगरेट, अत्यधिक  वसीय , तैलीय , ट्रांस फैट, घी, तले हुए भोजन से बचने की कोशिश करें।

इतना शारीरिक श्रम या दौड़ भाग, साइकलिंग, खेल या व्यायाम अवश्य करें कि पसीना निकले। 

इसके अतिरिक्त प्राणायाम, अर्धमत्स्येंद्रासन, मलासन, अधोमुख आसन को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए।

होम्योपैथी से उपचार

जहां प्रचलित आधुनिक चिकित्सा पद्धति में रोग की पहचान एवं पुष्टि प्रयोगशाला की जाँच पर आधारित और सीमित सम्भावनाओं वाली है, वहीं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में रोगों के उपचार में व्यक्ति को समग्र रूप से स्वस्थ करने की क्षमता है, इस क्षेत्र में होम्योपैथी सर्वोपरि है। इसमें व्यक्ति में रोग नही अपितु रोग में व्यक्ति का इलाज उसकी समलक्षणिक औषधि चयन के तरीके को अपना कर किया जाता है। इसलिए व्यक्ति दर व्यक्ति औषधियों में भिन्नता भी पायी जाती है जिसे वैयक्तिक या कांस्टिट्यूशनल औषधि चयन भी कहते हैं। यह स्वयं में बड़ी जटिल मनोवैज्ञानिक चिकित्सकीय प्रणाली है कहीं भी पढ़ सुन या देखकर नहीं प्रयोग करना जाना चाहिए, दवाये चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही लें।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

परामर्श होम्योपैथिक चिकित्सक

रा.सचिव-एच एम ए

सह सम्पादक- होम्यो मिरेकल

द प्रतिष्ठा होम्योपैथी

कृष्ण विहार कालोनी रायबरेली रोड उसरु

फैज़ाबाद 

मो. न.-8400003421

Sunday, 18 December 2016

जो मन का नहीं होता वो हज़म नही होता

कभी परामर्श भी दवा से अधिक जरूरी व कारगर उपाय है
मित्रों आपने लोगों को अक्सर कहते सुना होगा " इसके पेट में कोई बात पचती नहीं" ... इस कहावत का विज्ञान से कोई सरोकार नहीं, लेकिन इसमें जो बात है वह तर्क के रास्ते दर्शन की दृष्टि से जिस मनोविज्ञान की तरफ इशारा करती है वह जरूर महत्वपूर्ण हो जाता है। इस विषय पर अंत में विचार करेंगे अभी जिस पाचन की बात की गयी है पहले उस तन्त्र को सरल रूप में समझने  का प्रयास करते हैं-

हमारा पाचन तंत्र एक आहर नाल जिसमें मुख, मुखगुहा, ग्रसनी, ग्रसिका, आमाशय, क्षुद्रांत्र, वृहदांत्र, मलाशय और मलद्वार व सहायक पाचन ग्रंथियों लार ग्रंथि, यकृत , पित्ताशय और अग्नाशय (पैंक्रियास) से मिलकर पूर्ण होता है । 

कैसे होता है पाचन -
मुख में दांतो से भोजन को पीसा जाता है, और स्वाद की पहचान करने वाली जीभ इसे लार के साथ मिलाकर निगलने में सुगम बनाती है। लार में उपस्थित  एंजाइम, एमिलेज स्टार्च या मांड को पचाकर डाइसैकेराइड में बदल देती हैं। इसके बाद भोजन ग्रसनी से होकर बोलस के रूप में ग्रसिका में प्रवेश करता है,
और पेरिस्टलटिक या क्रमाकुंचन गति से आमाशय (stomach) तक अाता है जहां प्रोटीन, सरल शर्कराओं, अल्कोहल और दवाओं का पाचन होता है। अब तक पचे हुये भोजन को काइम कहते हैं जो क्षुद्रांत्र (small intestine) के ग्रहणी (duodenum) भाग में प्रवेश करता है जहाँ अग्नाशयी रस (pancreatic juice), पित्त और अंत में आंत्र रस के एंजाइमों द्वारा कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा का पाचन पूरा होता है। जिसके बाद भोजन छोटी आँत के जेजुनम और इलियम भाग में जाता है।पाचन की इस क्रिया में कार्बोहाइड्रट का मोनोसैकेराइड , प्रोटीन का ऐमीनो अम्लों तथा वसा का वसीय अम्लों व ग्लिसेराल के रूप में आंत की उपकला द्वारा अवशोषण कर लिया जाता है। इस प्रकार भोजन के जटिल स्वरुप को तोड़कर सरलतम रूप में पाचन और तत्वों के अवशोषण की क्रिया पूर्ण होती है।


इस क्रम में बचा हुआ पदार्थ त्याज्य होता है और उसे इलियोसीकल कपाट द्वारा बड़ी आंत  की सीकम (caecum) में भेज दिया जाता है जहां से यह वापस नहीं अा सकता। बड़ी आँत में जल का अवशोषण होता  है। इस तरह से अपचित भोजन अर्ध ठोस हो अपशिष्ट के रूप में मलाशय और गुदा नाल में पहुंचता है और अंतत: गुदा द्वारा त्याग दिया जाता है।


केस टेकिंग में महत्वपूर्ण लक्षण जिन्हें परखना जरूरी मानते हैं चिकित्सक

पेट में दर्द-
समय पर भोजन न करने वाले व्यक्तियों में सुबह के समय पेट के ऊपरी हिस्से में जलनयुक्त दर्द हो सकता है जो पीठ की तरफ भी बढ़ता है, अथवा अधिक खाने की आदत से जलन दर्द या सीने में जलन की शिकायत हो सकती है।
दर्द का स्थान, फैलाव या भ्रमण-
गुर्दे का दर्द निचले पेट तक फैलता है, पैंक्रियाज, स्प्लीन, व गाल ब्लैडर का दर्द अपने स्थान से पीठ की तरफ बढ़ता है।
सांकेतिक सामान्य लक्षण -
मुखगुहा में स्टोमेटाइटिस, भूख कम या न लगना, ज्यादा खाने की आदत, मितली, उल्टी, निगलने में दिक्कत, अधिक दस्त, या कब्ज़, खून की उल्टी, या दस्त के साथ खून आना आदि।


समझे रोग की भाषा : लक्षण
गले में किसी संक्रमण या बीमारी के कारण कोई सूजन आदि से मार्ग के संकरा हो जाने के कारण भोजन निगलने में तकलीफ को डिस्फेजिया कहते हैं।

एसोफैगस के निचले भाग के ठीक से न खुल पाने से निगले भोजन के आमाशय में जा पाने में दिक्कत या निगलने के बाद भोजन वापस आ जाता है इसे कार्डियो स्पाज्म या इसमें सूजन होने पर एसोफैजाइटिस कहते है।

आमाशय (stomach) के अंदर की आवरकझिल्ली (mucous membrane)की सूजन को गैस्ट्राइटिस कहते हैं, जो लम्बे समय तक बनी रहे तो या अम्लता निरन्तर रह जाये तो कोशिकाएं मृत होने लगती हैं या वहां कुछ स्तर हट सकता है जो हल्के या गहरे घाव जैसा हो सकता है, इसे सामान्य तौर पर अल्सर कहते हैं जो भिन्न भागों में पाया जा सकता है, इसी में से पहले तो म्युकस का स्रावण, फिर खून भी आ सकता है, यदि उक्त पैथोलॉजी ऊपरी हिस्से में है तो वमन में या निचले हिस्से में है तो दस्त में खून आ सकता है।
आमाशय (stomach) में इकट्ठा पदार्थों का मुख से बाहर निकलने की प्रतिवर्ती क्रिया उल्टी या वमन मेडुला में स्थित केंद्र से नियंत्रित होती है। इससे पहले जो बेचैनी की अनुभूति होती है वही मितली (nausea) है।

आंत्र की अपसामान्य गति की बारंबारता और मल का अत्यधिक पतला हो जाना प्रवाहिका (Diarrhoea) कहलाता है। इसमें भोजन अवशोषण की क्रिया घट जाती है।

कब्ज में, मलाशय में मल रुक जाता है और आंत्र की गतिशीलता अनियमित हो जाती है।

एंजाइमों के स्राव में कमी, व्यग्रता, खाद्य विषाक्तता, अधिक मात्रा एवं मसालेदार भोजन करने से वह पूरी तरह नहीं पचता है और पेट भरा-भरा महसूस होता है तो इसे अपच या indigestion कहते हैं। 

बड़ी आंत से जुड़ा एक छोटी ट्यूब सा अंग जिसे एपेंडिक्स कहते हैं इसके अंदर रुकावट के कारण दबाव और सूजन होती है जिसे एपेंडिसाइटिस कहते हैं।

इरिटेबल बावेल सिंड्रोम या अनियमित मलत्याग।

अचानक पेट में दर्द होना या खाने के बाद भीषण दर्द होना यह पैंक्रियाज में सूजन के कारण हो सकता है। यह सूजन पैंक्रियाटाइटिस कहलाती है।

उपरोक्त विवरण को स्पष्ट करते हुए संक्षेप में कुछ सम्बंधित केस के उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जिन्होंने होम्योपैथी में रोगी का विश्वास पुख्ता किया।


केस 1 अल्सर, महिला ,उम्र 30 वर्ष, 
द प्रतिष्ठा होम्योपैथी फैज़ाबाद-
इस महिला का 4 महीने पूर्व बच्चेदानी का आपरेशन हुआ था , किन्तु मेरे पास बेहद कमजोरी की अवस्था में आई, उसने बताया ,-" सर , साँस फूलती है, चलने की हिम्मत नही, बहुत कमजोरी है, पेट गैस से फूला हुआ लगता है, भारीपन ,जलन हर समय हल्का हल्का दर्द बना रहता है लेकिन कुछ खाते बढ़ जाता है, पीने पर कुछ आराम मिलता है। कभी कभी तो बहुत तेज दर्द होने लगता है  दवाई खाने पर भी कोई आराम नहीं होता । उल्टी तक हो जाती है। कमजोरी से हालत खराब हो जाती है सीने पर भी भारीपन सा महसूस होने लगता है, बहुत घबराहट होती है, छोटे बच्चे है सोचती हूँ मुझे कुछ हो गया तो इनका क्या होगा।" जाँच के दौरान दर्द वाली जगह पर दबाने से उसे काफी पीड़ा हुई |

उसके पति भी साथ में थे, उनसे मिली जानकारी के अनुसार " साहब यै जौन मन कहत है खात पीयथी, हमसे भी जो बन पड़ता है पूरा करे का प्रयास करते हैं लेकिन इनके दवाई में ही तबाह हावय जात हैं, जे जौन बतावत है सब उपाय दवाई करते हैं। अम्मा बाबू के साथ नाय रहित कि जेस ये हैइन सब ठीक है लेकिन इनका पता नाय काहे लागत है कि ये ठीक नाय हैइन।"
उसका हीमोग्लोबिन 6.5 था।

 इसलिए लक्षणों के आधार पर उसे आर्सेनिक की तीन खुराकें, लेसिथिन  दो टैबलेट तीन बार देकर 7 दिन बाद बुलाया गया।

उत्सुकतावश उसने स्वयं ही खून की जाँच करवाई तो पैथोलॉजी रिपोर्ट पर उसे भी भरोसा नही हुआ, दोबारा जाँच करवाई और दोनों ही रिपोर्ट में उसका हीमोग्लोबिन 12.5 हो चूका था। साथ ही अब वह पहले से बहुत ठीक दिख रही थी पेट में दर्द भी यदा कदा होता था पर कम था।बाद में काली बाईक्रोम, की कुछ खुराकें भी दी गयीं।

इस केस में महिला के लक्षणों से स्पष्ट था कि उसे अल्सर की शिकायत हो सकती है, जो कि एन्डोस्कोपी से स्पष्ट हुयी भी, इस आधार पर उसकी सन्तुष्टि ही हो सकती थी, किन्तु होम्योपैथिक दृष्टि से आकलन करने पर महत्वपूर्ण था उसका भावनात्मक स्तर , जो उसके पति ने संकेत किया था जिससे स्पष्ट होता है कि उसके अंतर में स्वयं की खूबसूरती या उपेक्षा को लेकर एक हीन भाव सा झलकता था, यह मनःस्थिति भी अल्सर जैसे रोग लक्षणों का कारण हो सकती है।


विशेष - O ब्लड ग्रुप वालों को पेप्टिक, व A ब्लड ग्रुप वालों को डुओडिनल अल्सर की सम्भावना अधिक रहती है।

केस 2 एसिडिटी - मिस्टर वी दुबे, पुरुष 42 वर्ष, व्यवसाय-नेटवर्क मार्केटिंग, 
आरोग्यनिलयम् भरतकुंड, फैज़ाबाद।वर्ष 2014

मरीज के शब्दों में - "पेट, सीने में जलन, कभी कभी मुंह में तीखापन, मतली, डकार आती है ,खाने पीने का न समय निश्चित है और न ज्यादा मन ही करता है, सुबह आधी कप चाय पीकर निकल जाता हूँ दिन में चाय से ही गुज़र जाता है या कहीं भुना चना, फल आदि ले लेता हूँ। 
रात में कुछ खट्टापन लगता है, पेट भी साफ नही होता, कुछ बायीं तरफ भारी सा लगता है।"
कुछ महीनो पहले तक उसे एक चिकत्सक ने टी बी की दवा खिलानी शुरू की थी, किन्तु जब वह कमजोर महसूस करने लगा तो उसने स्वयं बन्द कर दी, जबकि उसे टी बी नही थी। 

दुबे जी के अनुसार "परिवार की परिस्थितयों से गुस्सा भी आता है, लेकिन जिम्मेदारियों को छोड़ भी नही सकते जॉब ऐसा कि सब कुछ अनिश्चित सा है , पैसे का तनाव तो नही लेकिन दिमाग फ्री भी नहीं क्या करें।"

इन्हे नक्स की एक खुराक रात व सल्फर  की एक खुराक सुबह लेकर 10 दिन के लिए iris ver दिया गया।

मरीज के अनुसार उसे पिछले कई महीनो में पहली बार इतना लाभ महसूस हुआ, । इसके बाद उसे कुछ दिनों तक प्लेसेबो दिया जाता रहा, और नियमित रूप से परामर्श के दौरान उसकी तमाम जिज्ञासाओं का समाधान किया जाता रहा, इन्ही वार्ताओं के निश्कर्ष में यह प्रतीत हुआ कि इन्हे लाइको की आवश्यकता है इसलिए लाइकोपोडियम की तीन खुराक भी दी गयी।
तबसे लेकर आज तक वह अपने पूरे परिवार के लिए केवल होम्योपैथी ही प्रयोग करते हैं।


केस 3- इरिटेबल बावेल सिंड्रोम
श्री ए के पाण्डेय, उम्र 54 वर्ष, व्यवसाय, मुनीम
आरोग्यनिलयम् भरतकुंड फैज़ाबाद।

बकौल मरीज -"कुछ भी खाते पीते हैं थोड़ी देर में लैट्रीन जाना पड़ता है औ पेट में मरोड़ भी होती है, गुड़ गुड़ करता है, लेकिन सफा नही होता, हमको लगता है जो खाते हैं हजम नही होता..सावधानी बहुत रखते हैं, सलाद जरूर लेते हैं, ...कुछ दिन पहले हमारा एक आपरेशन हुआ था तो कमर में इंजेक्शन लगा दिया डॉक्टर, हमको लगता है कही उसी की वजह से न हो, ।
बात चीत से और भी समझने का प्रयास किया गया सभी अन्य लक्षण सामान्य ही थे जो महत्वपूर्ण मनःस्थितियां दिखी उनके अनुसार व्यक्ति बहुत आशावादी, किन्तु हालात के सामने बौना महसूस करता है, जिसके लिए जो फर्ज है उतना निभा देने का आदर्श, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर, वेश भूषा नजरिया आदि उसमे सल्फर का व्यक्तित्व दर्शा रहे थे।
इसलिए उन्हें सल्फर की एक खुराक सुबह खाली पेट खाने को दी गयी और प्रतिदिन आकर दवा पीने व रिपोर्ट करने को कहा गया।
4 दिन बाद उन्होंने कुछ आराम की बात कही लेकिन साथ में यह भी कहा की सर पैसा चाहे जितना लगे, हमको फायदा चाहिए..और अंत में कहते सर कुछ सम्भल कर दवा दीजियेगा कही नुकसान न हो उन्हें हैड्रेस्त्रिस मदर टिंचर की 15 दिन के लिए दिया गया ।आराम की रिपोर्ट की लेकिन पेट न साफ होने की कुछ शिकायत बनी रही। अतः 7 दिन के लिये उन्हें एलुमिना दी गयी, कुछ आराम फिर उन्होंने लगभग दो माह बाद सम्पर्क किया तो उन्हें पुनः एलुमिना 3 दिन खाकर बताने को कहा गया, तीसरे ही दिन उन्होंने कहा साहब ये दवा तो सबसे कारगर है यही वाली एक महीना के लिए बनाय देव। फ़िलहाल 2 महीने से जरूरी परहेज के साथ प्लेसेबो पर है ।

केस 4 इसी तरह का एक केस एक छात्र का था जिसे भोजन के तुरन्त बाद मरोड़ के साथ दस्त जाना ही पड़ता था साथ में म्युकस आती थी और वह पसीना पसीना हो जाता था। एलोस के प्रयोग से 3 महीने में अब एक वर्ष से पूर्णतः स्वस्थ है।


रोग के कारण और होम्योपैथी

सामान्यतः विज्ञान की मान्यतानुसार दूषित जल, जीवाणु, विषाणु, या परजीवी का संक्रमण या विषाक्तता ही रोग का कारण मानी जाती है। इससे इंकार न किया जाए तो उपर्युक्त केस प्रचलित पद्धतिं से ठीक हो जाने चाहिए थे, किन्तु सभी उनसे निराश होकर ही होम्योपैथी की शरण में आये। 
होम्योपैथी में उपचार के लिए रोग में "व्यक्ति "को खोजा जाता है कि उसके शरीर की जो भाषा लक्षणों में प्रकट हो रही है उसकी भूमिका आखिर लिख कौन रहा है, और यह बात व्यक्ति के दैनिक जीवन से निकालना ही होम्योपैथी की कला है, जिसमे जितनी निपुणता होगी उसे सफलता  उतना अधिक मिलेगी। 
उपचार में कई बार दैनिकचर्या नियमन या उचित परमर्श ही रोगी के लिए दवा से अधिक जरूरी और कारगर उपाय हो सकता है। 
अध्ययनों में पाया गया है कि अत्यधिक तनाव, दबाव, क्रोध आदि दबकर व्यक्ति के पाचन को बिगाड़ देते हैं। 
आप स्वयं भी आंकलन करें तो पाएंगे जिन व्यक्तियों को अस्वीकार किये जाने का डर, स्वयं से प्रेम या विश्वास का अभाव, होता है उनकी भूख सबसे पहले कम हो जाती है या नही लगती,।
जो किसी परिस्थिति को छोड़ कर जाना नहीं चाहता, उसकी पाचन क्रिया अनियमित होनी ही है,
इसी प्रकार जो क्रोध बर्दाश्त नही कर पाता उसमे जलन के लक्षण, 
किसी चीज या व्यक्ति से दूर चले जाने का भाव से डायरिया ,कोई छिपा हुआ तथ्य concern रखता है तो गैस, यदि उसे लगता है वह जीवन की धारा के साथ नही चल सकता तो कब्ज़, किसी वर्तमान पूर्व या भविष्य की चिंता से अपच,अथवा  कुपोषित महसूस करता है तो पेट सम्बन्धी विकार, या रोगिणी को लगता है देखने में बहुत खूबसूरत , आकर्षक या प्रभावी नहीं है तो अल्सर जैसे रोग लक्षणों की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं।

होम्योपैथी में कांस्टिट्यूशनल दवाओ के अलावा थेराप्यूटिक आधार पर हाईडेस्त्रिस, ईगलफालिया, कैस्केरा, कैरिका पपाया,  मैरिका, चपारो, एलो, नक्स, सल्फ, चाइना, लाइको, कार्बो, सीपिया,काली बाई, रैफेनस, असफोटिडा,कैम्फर, अर्जेन्टम,आर्सेनिक आदि दवाये बहुतायत प्रयोग की जाती हैं।


बरतें सावधानी और अपनाएं ये घरेलू उपाय -

नारियल पानी का सेवन अधिक करे।
भोजन के बाद थोडे से गुड की डली मुहं में रखकर चूसें, सुबह उठकर २-३ गिलास पानी पीयें।
तुलसी के पत्ते, आंवला,पुदिने का रस,फ़लों  खासकर केला,तरबूज,ककडी और पपीता , दूध और दूध से बने पदार्थ अम्लता नाशक माने गये हैं।
अचार,सिरका,तला हुआ भोजन,मिर्च-मसालेदार चीजें, चाय,काफ़ी , बीडी, सिगरेट का परहेज करें।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
रा सचिव-एच एम ए
द प्रतिष्ठा होम्योपैथी
कृष्ण विहार कालोनी राय बरेली रोड उसरु
फैज़ाबाद 
मोबाइल न-08400003421

Friday, 9 December 2016

हिए तराजू तौल के तब ...सोसल मीडिया पर आनि

विद्वानों का मत है राजा, मित्र, गुरु और मूर्ख से बहस नहीं करनी चाहिए
ज्यादा सन्देश मिटाते हैं और खुद पोस्ट किये सन्देश की प्रतिक्रिया ही खोजते है अधिकांश
सोसल मीडिया अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है जिसके जरिये सन्देशों का आदान प्रदान और प्रसार आसानी से हो जाता है। आधुनिक युग में तकनीक का यह प्रयोग भी "विज्ञान : वरदान या अभिशाप " विषय पर निबन्ध की तरह चिंतनयोग्य है। सुविधा के नाम पर कुछ स्वार्थी लोग अपने दूरगामी उद्देश्यों को साधने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। सन्देशों के स्वरुप, भाषा, प्रकार आदि पर लगातार सक्रिय लोग सामान्य आदमी की भावनात्मक प्रवृत्ति का फायदा बड़ी आसानी से उठा लेते हैं। स्वयं के व्यक्तित्व को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करने की ललक, प्रशंसा की चाहत, और समाज के वर्गों की स्वीकृति इन्ही मूलभवनाओं के साथ व्यक्ति संदेशों को समूहों में पोस्ट कर देता है। ऐसे में कईबार तो इतिहास, ज्ञान, समाचार, धर्म,आदि से जुडी जानकारियां भी होती हैं जिन्हें सबसे पहले पोस्ट करने की शीघ्रता में पोस्ट कर दिया जाता है । पोस्ट की गयी विषय वस्तु कैसी है, क्या है, और इसका लोगो पर क्या प्रभाव होगा इन सबका विचार भी नहीं किया जाता।
विभिन्न उद्देश्यों के साथ समूह बनाये जाते हैं किन्तु ज्यादातर लोग एक ही सामग्री सभी को पोस्ट करते हैं, इससे समूहों में अनावश्यक पोस्ट की अधिकता हो जाती है और फिर उसका उद्देश्य गौड़ होने लगता है। सदस्य भी सन्देशों को गम्भीरता से नहीं लेते सिर्फ मिटाते हैं और अपनी पोस्ट डाल देते हैं।

ज्ञान का प्रयोग सृजनात्मक न हो तो वह भ्रामक हो जाता है, सुनने या पढ़ने मात्र से ज्ञान की प्राप्ति हो जाती तो तमाम ऋषि मुनि , या किसी भी धर्म के प्रवर्तक, विद्वान ज्ञान की खोज में तपस्या न करते ।
विद्वान तार्किक शास्त्रार्थ करते हैं, और जय पराजय दोनों को समभाव से स्वीकार करते हैं, स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए कुतर्कों के सहारे विवाद को जन्म नहीं देते।
किसी भी धर्म सम्प्रदाय के प्रवर्तक ने किसी दूसरे धर्म की बुराई सम्भवतः कभी नही की, मानव कल्याण के लिए ही उनके अनुभव के अनुसार नियम बताये...यह तो समय के साथ उसका प्रचार करने वालों ने अलग अलग तरीके से उनकी व्याख्या बताई, जिसमे यथार्थ भाव का लोप सम्भव होता गया और नए नए नियम आते गए। जीवित रहते लोग जिसका सम्मान नही करते मौत के बाद उसकी आस्था का व्यापार करने लगते हैं।
यही तो मनुष्य का दोष है जो उसे निरन्तर विभक्त करता रहता है।
क्या वर्तमान सदी के किसी व्यक्ति को लोग भगवान की तरह नहीं पूजने लगते जबकि अब तो ज्यादा आधुनिक विकसित और पढ़े लिखे लोग हैं । कोई स्वयं को अंधविश्वासी नही बताता , फिर पूछिये उनसे क्यों चढ़ाते है हजारों लाखों का चढ़ावा किसी आडम्बर पर ।
कल इसे भी किसी धर्म या सम्प्रदाय का नाम देकर भविष्य की पीढियां यदि ऐसे ही तर्क रखें तो जरा सोचिये कितनी हास्यास्पद स्थिति होगी, जबकि हम आप वर्तमान से परिचित हैं।
किसी भी सन्देश को अग्रसारित करने से पहले अपने तर्कों पर तौल लेना चाहिए क्योंकि पोस्ट करने के बाद वह आपकी सहमति के तौर पर माना जा सकता है, और आपके व्यक्तित्व का मापदण्ड भी बन सकता है।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Wednesday, 7 December 2016

अंतर्द्वंद

तुझको ही जीता हूँ ऐ जिंदगी
और तुझे समझने की कोशिश भी करता हूँ।

तेरे साथ भी चलता हूँ ऐ वक्त
पर तुझसे बदलने की गुज़ारिश भी करता हूँ।

अंदर की घुटन से लड़ता हूँ
मगर ताजी हवा की सिफारिश भी करता हूँ।

एक नया उन्वान और दोनों ही गलत
जैसे भी गुज़र जाये वो आजमाईश भी करता हूँ।।

सब कुछ तो छोड़ दिया तुझपे ईश्वर
जो तू चाहे बस वही करते जाने की कोशिश ही करता हूँ...  !!!

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Wednesday, 30 November 2016

सफ़ेद सत्य : योग्य प्रतिभाशाली युवा कहाँ से लाएं सिफारिशी अर्हता

न्यायोचित हितों की रक्षा में निस्वार्थ सहयोगी बनें

सामान्यतः प्रबुद्ध और अग्रणी समझ कर वर्तमान समाजिक व्यवस्था में हासिये पर धकेले जा रहे युवा देश में या देश के बाहर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहा है तो उसका सिर्फ एक कारण उसकी अपनी बौद्धिक पूँजी है, किन्तु इसी वर्ग का दूसरा पक्ष भी है जहां आर्थिक पूँजी में पिछड़े होने के कारण उसे उपहास , तिरस्कार , तंज और उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ता है। आज जिस तरह का सामाजिक बिखराव दीखता है उसमे वर्गों में सामूहिक उन्नति और प्रभुता स्थापित करने के निहित  उद्देश्य को साधने की दृष्टि से एकजुटता दिखाई देती है और बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप से  आर्थिक रूप से कमजोर प्रबुद्ध प्रतिभाशाली युवा वर्ग को सामाजिक , प्रशासनिक, स्तरों पर उनकी समस्या का समाधान पाने के लिए निराश होना पड़ता है। जिस तरह के तन्त्र का विकास हो रहा है उसमें भूतकाल के आरोपों की दुहाई देकर प्रबुद्ध वर्ग की नैतिक जिम्मेदारी को पुख्ता किये जाने का प्रयास जारी है और इसीलिए अवसर मिलने पर उनके साथ बदला लेने की मानसिकता का प्रदर्शन देखने को मिलता है जिसे आज के बौद्धिक चिंतक उचित सिद्ध करते रहते है, इतना ही नहीं उनकी मानसिकता को खाद बीज भी हमारे समाज के ही लोग उपलब्ध करा रहे हैं ...कभी उदारवादी बनकर, तो कभी साम्यवादी, ।
हमारे समाज में वर्गो के लिए जितनी सरलता और सहजता का प्रदर्शन केवल चरण स्पर्श से होता है, उसका दशांश भी योग्यता के सहयोग में नही दिखता.... तब पक्षपाती कहलाने का भय जो रहता है। धन बल और सिफारिश की अर्हता जिन योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की फाइलों में नहीं वे नकार दिए जाते हैं..
यदि यही स्थिति मात्र 5-10 वर्ष और बनी रही न तो वर्तमान पीढ़ी की प्रभुता जाने के बाद हम अपनी पीढ़ी के लिए क्या छोड़ जायेंगे यह बताने की आवश्यकता नहीं।
विचारों की सहमति असहमति या तर्क वितर्क अलग बाते हैं किन्तु समय रहते यदि अपने समाज की उन्नति में कुछ न कर सके तो हाथ कुछ न रह जायेगा।
अक्सर ऐसे तर्को को कुंठित, संकुचित या अल्पज्ञान कुछ भी विशेषण देकर छोड़ दिया जाता है , हित बदल जाते है उद्देश्य बदल जाते हैं कायदे फायदे  के फेर में नुकसान के सौदे कर लिए जाते हैं।  समाज के अग्रणी और समर्थ लोगो से सिर्फ इतनी अपेक्षा है कि जरूरी नही कि आप अपने वर्ग का होने के नाते हर कदम पर मदद करें लेकिन इतना अवश्य हो कि आपके संज्ञान में कोई ऐसा प्रकरण हो जहाँ जायज हित आहत होता दिखे वहां अवश्य स्वार्थ को त्याग परस्पर सहयोगी बनें।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Tuesday, 29 November 2016

सफ़ेद सत्य : विविधता या असमानता प्रकृति का सिद्धांत है

अनन्त रहस्य समेटे प्रकृति स्वशाषी सत्य है विविधता जिसका एक अटल सिद्धान्त है, समय की तरह इसकी अपनी गतियां हैं , इसिलए यह स्वयं परिवर्तनशील है । जो इसके सापेक्ष गतिमान हैं वे निरन्तर हैं और रहेंगे, किंतु जिन्होंने इसे स्वेच्छा से परिवर्तन करना चाहा उन्हें इनके वांछित परिणाम नहीं मिले। मनुष्य प्रकृति का सर्वोच्च उपभोक्ता है और इसने शोध, अविष्कार, अध्यन के नाम पर इसके स्वरूप, सिद्धांतों में मनचाहा परिवर्तन करने के अनगिनत प्रयास किये, व उपलब्ध संसाधनों का दोहन भी किया। किन्तु प्राकृतिक व्यवस्था को बदल पाना कभी मनुष्य के वश की बात नही रही, वरन प्राकृतिक आपदाओं के रूप में उसे इसके विपरीत परिणाम ही भोगने पड़े।
स्वार्थ मनुष्य की ऐसी प्रवृत्ति है जिसने इसे कभी इतिहास से सीखने नही दिया।
एक सामान्य उदाहरण देखिये कि हमने पेड़ों की कई प्रजातियों को उनके प्राकृतिक वातावरण से दूर अपने घर के गमलों में उगा लिया किन्तु वह सजावट का एक सामान बनकर रह गया, संकर बीजों से उत्पादकता बढ़ा ली लेकिन पोषक गुणों में समझौता करना पड़ा, वनो को काटकर शहर बसा लिए लेकिन स्वच्छ हवा के लिए तरसना पड़ा। पशु पक्षियों की न जाने कितनी जातियों के विलुप्त होने के हम दोषी होंगे लेकिन हमारे भौतिकविकासवाद की गढ़ी गयी परिभाषा यह मानने नहीं देती कि हम प्रकृति के नियंत्रण में हैं वह हमारे नहीं।
सभ्यता के विकास के नाम पर वर्तमान पीढ़ी के पास समृद्धि, संसाधन, तकनीकी, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक उन्नति के नाम पर गिनाने के लिए तमाम दावो के साथ प्रकृति के असमानता व विविधता के सिद्धांत को झुठलाने का असफल प्रयास जारी है। हम भारतवासी यह जानते तो हैं कि सन्तुलित सञ्चालन के लिए सभी घटकों का उनके अनुपात में होना जरूरी है लेकिन अपनी सामाजिक व्यवस्था का आकलन करते समय राजनैतिक कारणों से स्वार्थी और कुतार्किक हो निष्पक्ष नहीं रह पाते।इसी लिये सत्य के अतिरिक्त अन्य कई निष्कर्ष निकालते रहते हैं।
असमानता की खाई पाटने के नाम पर आरक्षण को हथियार की तरह प्रयोग करने से इसका वास्तविक उद्देश्य तो भटकता ही है साथ ही, अयोग्यता को प्रतिष्ठित किये जाने या योग्यता को उपेक्षित, कुंठित किया जाने से भी तरह तरह के असन्तुलन का बीजारोपण होता दिखता है। परिणाम के तौर पर प्रतिभा पलायन और विकास की दिशा दशा विश्व के मानचित्र पर देख लें वास्तविकता का अंदाज लग जायेगा।

हम भारतवासी वसुधैव कुटुम्बकम के मूल मन्त्र से विस्थापित होते हुए अहम ब्रह्मास्मि तक पहुँच रहे हैं...और इसका सबसे प्रमुख कारण यह भी है कि जिस प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका समाज के मार्गदर्शक के रूप में रही उसने भी प्रतिस्पर्धा में स्वजनों से ईर्ष्या करना क्या आत्मसात किया एक दूसरे को अपमानित करने , सबक सिखाने , या स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के नाम पर जिस अयोग्यता को हथियार बनाना शुरू कर दिया और  आज वही पूरे प्रबुद्ध समाज के लिए हमलावर सी नज़र आने लगी है...लेकिन हम अब भी नही जागना चाहते...क्योंकि हमारी स्वजन की परिभाषा में या तो हमारा परिवार आता है या आर्थिक स्तर की समानता वाले समाज का कुछ वर्ग ।
हम अपने कुटुम्बियों को ही हीनता और उपेक्षा के भाव से देखते हैं, जिनका सहयोग कर आगे बढ़ने में मदद करनी चाहिए उन्ही की उपेक्षा कर निष्ठा को चन्द रुपयों में गिरवी रख देते हैं। सत्य पर निष्पक्ष मन्थन की जगह कुतार्किक हो अपनी सहमति या असहमति को सिद्ध कर जाते हैं।
और सौ बात की एक बात यह कि हम यह मानते हैं स्वजनों का निस्वार्थ सहयोग कर अपने समाज की उन्नति एकता को बनाने बढ़ाने में जुटेंगे किन्तु कुछ को छोड़कर ऐसा कर नहीं पाते।।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Sunday, 20 November 2016

नोटबन्दी : अनपेक्षित तनाव से स्वास्थ्य सम्बन्धी चुनौतियों में होम्योपैथी उपयोगी

(नोट बन्दी से स्वास्थ्य सम्बन्धी दुष्प्रभावों में होम्योपैथी विशेषज्ञ डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी के सुझाव)
कालेधन भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार द्वारा घोषित नोटबन्दी के फैसले का जहां आमजनता ने खुले दिल से स्वागत और समर्थन किया है वहीं इसके कारण अपने नोट बादलने के लिए उसे घण्टों बैंक पोस्ट ऑफिस के काउंटरों पर लाईन में खड़े अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है, धन हानि का डर ऐसा कि जानकारी के बावजूद निरन्तर अधीरता विश्वास में कमी के चलते कई तरह की स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतें भी देखने को मिल रही हैं। खबरों पर भरोसा करें तो कहीं कहीं अनहोनी का डर सदमे का सबब बन जाता है, ऐसे में लोगों को धैर्य रखने एवं अफवाहों से बचना चाहिए। लम्बे समय तक पंक्तिबद्ध खड़े रहने के कारण आमजन एवं लगातार काम निबटाने के दबाव के चलते कर्मचारी अधिकारीयों को भी मानसिक एवं शारीरिक थकान सहित स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक दिक्कतें आ सकती हैं।



कार्य का अधिक बोझ, पैसे की कमी , पुराने नोट के बदल जाने तक तनाव व्यक्ति में मानसिक अधीरता पैदा करता है, व्यापार में घाटे की आशंका, दैनिक जीवन में आर्थिक संकट का डर, भविष्य के प्रति आशंकाए , मनः स्थिति अनिश्चितता से घिरी बेचैनी व्याकुलता, व्यग्रता को बढ़ाती है,लोग अपनी अधिकतर ऊर्जा बात चीत तर्क वितर्क करने में व्यय कर रहे होते हैं, इस बजह से अधिक थकान महसूस होने लगती है।
भीड़ के कारण उम्रदराज या कुछ लोगों की दिल की धड़कन बढ़ सकती है, उन्हें घुटन महसूस होती है, घबराहट, या बेचैनी , अपराध का खुलासा होने का डर, बदनामी, का भय, बुरी खबर या समाचार की आशंका, निकट समय की अनिश्चितता,लगातार कुछ अप्रिय सा घटित होने का डर, समय पर भोजन , पानी, आदि न मिलना, अन्य आवश्यक कार्यों का रुका होना और उन्हें निबटाने का दबाव, आदि ऐसी प्रमुख स्थितियां हैं जिनसे हमारी कैलोरी अधिक खर्च होती है, इसलिए भी ऊर्जा की कमी और थकान बढ़ती है।
मनःस्थिति की अधीरता में मल मूत्र त्याग की प्रवृत्ति और मुह सूखने , प्यास लगने, भूख कम, अविश्वास, चिड़चिड़ापन, झुंझलाहट,  का लक्षण बढ़ता है किन्तु व्यक्ति उसपर बलपूर्वक नियंत्रण करता है, इससे भी शरीर में उत्सर्जी तत्वों का अनुपात सामान्य से बढ़ा हुआ मिलता है। 
सामान्य किन्तु दर्दमंद
लगातार एक ही स्थिति में खड़े रहने से मांसपेशियों में कड़कपन, रक्तसंचार धीमा होने से पैरों में रिक्त कोशीय स्थानों में द्रव जमा होने से पैरों में भारीपन, सूजन, कमर की मांसपेशियों में भी खिंचाव, कन्धों में भारीपन, पीठ में दर्द, गर्दन में दर्द आदि  भी बढ़ता है। पैरों में सुन्नपन, खिंचाव होना भी सामान्य बात है।
इसी तरह कर्मचारियों पर भी हिसाब किताब सही रखने का दबाव, कार्यबोझ की अधिकता, निरन्तरता, से तनाव, व नींद तक अनियमित हो जाती है।
इन पर अवश्य ध्यान दें
बृद्ध, बीमार, लोगों के लिए यह परिस्थितियां अधिक कष्टदायी हो सकती है।हृदय रोगियो को खास ध्यान देने की आवश्यकता होती है , जिससे किसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सके।
उक्त परिस्थितियों से बचाव के लिए  अफवाहों पर ध्यान न दें, धैर्य रखें, घर से निकलते समय कुछ मीठा या गुड़ खाकर पर्याप्त मात्रा में पानी पीकर निकलें।
लगातार पंक्ति में खड़े रहने से बचने के लिए कुछ देर आपसी सहयोग से टहल लेना चाहिए, यदि मल मूत्र की आवृत्ति हो तो इसे रोकना नहीं चाहिए ।
भीड़भाड़ से यदि किसी को तकलीफ हो तो उसे सहयोग करें। 
होम्योपैथी
इस तरह की तमाम परिस्थितियों में होम्योपैथी चिकित्सा बेहद कारगर और दुष्परिणामरहित है। होम्योपैथी में  व्यक्ति के लक्षणों के आधार पर ही एकोनाइट, अर्जेन्टम, काली फॉस,लाइको, आर्सेनिक, काफिया, रस टॉक्स, ब्रायोनिया, अर्निका, लैकेसिस,कोलोसिंथ, जेल्स, पल्स, सल्फर, नक्स वोमिका, नैफेलियम आदि दवाएं प्रयोग की जा सकती है।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
चिकित्सक , समाजसेवी

Sunday, 6 November 2016

लिवर हमारे शरीर के भरण पोषण के व्यवस्थापक की तरह है - डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

जिगर के हर हालात में होम्योपैथी का साथ
हमारे शरीर में पायी जाने वाली सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण ग्रंथि है लिवर जिसे हिंदी में यकृत या जिगर भी कहते हैं।यकृत पेट के ऊपरी दायीं तरफ पसलियों के नीचे वाले हिस्से में स्थित होता है जिसका वजन लगभग 1450 ग्राम होता है और यह बड़े दायें और छोटे बाएं भाग में बंटा होता है। इसीके नीचे पित्ताशय पाया जाता है, जिसमे वसा को पचाने में सहायक रस बाइल को एकत्र किया जाता है। कार्य के महत्व की दृष्टि से संक्षेप में कहा जाये तो यकृत शरीर में  रेसेप्सनिस्ट और मैनेजर दोनों की भूमिका अदा करता है। क्योंकि यह शरीर में बाहर से आने वाले सभी खाद्य अखाद्य पदार्थों तत्वों के पाचन, उनके अवशोषण, उचित अनुपात में  विभाजन व यथास्थान संचयन, संप्रेषण, अथवा उत्सर्जन को सुनिश्चित करता है। इसीलिए पोषक तत्व हों, औषधि हो या विष सभी सबसे पहले लिवर को प्रभावित करते हैं, अत्यधिक कार्य एवं उपयोगिता के कारण ही लिवर में प्राकृतिक पुनर्निर्माण की क्षमता भी अन्य अंगो से अधिक पायी जाती है। कह सकते हैं कि शरीर के भीतर भरण पोषण की जिम्मेदारी लिवर की ही होती है जिससे अन्य अंगतंत्र व्यवस्थित कार्य कर पाते हैं इसलिए यदि किन्ही कारणों से लिवर की सामान्य क्रिया बाधित होती है तो यह अनेक तंत्रो की कार्यक्षमता पर भी असर डालता  है जिससे व्यक्ति शारीरिक मानसिक रूप से रोगग्रस्त हो जाता है।

चिकित्सकीय दृष्टि से यकृत को प्रभावित कर सकने वाले प्रमुख कारकों में व्यक्ति का आनुवंशिक कारक, कोई वाह्य विषाक्तता ; जीवाणु, विषाणु, परजीवी, संक्रमण, अथवा व्यक्ति की लंबी बीमारी व अत्यधिक दवाओं का अनावश्यक सेवन, अनियमित, असन्तुलित जीवन शैली, व तमाम मानसिक स्थितियां हैं जो लिवर को कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं।
यकृत सम्बन्धी रोग की पहचान के लिए संकेत -
* पेट के ऊपरी, पसलियों के नीचे दाहिने भाग में दर्द होना।
* पाचन से संबंधित समस्याएं जैसे अपचन और एसिडिटी के कारण जी मिचलाना या उल्टियां होना। 
* भूख कम लगना और वज़न कम होते जाना।
* मल त्याग में  परिवर्तन जैसे कब्ज़, इरिटेबल बाउल सिंड्रोम या भोजन के तुरन्त बाद मलत्याग की हाजत,  मल के रंग में परिवर्तन, काले रंग का मल या मल में रक्त आना।
* रक्त में बिलीरूबिन से व्युत्प्नन यूरोबिलिनोजेन का स्तर बढ़ जाने के कारण मूत्र का गहरा पीला हो जाना
* त्वचा तथा आँखों का सफ़ेद और पीला होना
* त्वचा की सतह पर पाए जाने वाले द्रव्य में कमी से त्वचा का सूखी, मोटी, छिलकेदार होना तथा उसपर खुजली वाले चकत्ते, या लिवर स्पॉट अर्थात हल्के रंग के धब्बे होना । 
* शरीर के भिन्न हिस्सों जैसे पैरों, टखनों और त्वचा के नीचे दबने वाली सूजन, जिसे एडिमा कहते हैं।
   
* पुराने मामलों में थकान ,चक्कर आना, मांसपेशियों की तथा दिमागी कमज़ोरी, याददाश्त कम होना तथा संभ्रम (कन्फ्यूज़न) होना तथा अंत में कोमा जैसी अवस्था।  
* पेट पर सूजन ; सामान्यतः यह अवस्था लिवर सिरोसिस नामक गंभीर बीमारी में देखने को मिलती है जिसे असाइट्स या पेट में पानी आ जाना भी कहते हैं।
यकृत सम्बन्धी होने वाले प्रमुख रोग-
पीलिया
रक्त में पित्त वर्णक या बाइल की मात्रा सामान्य से अधिक होने पर यह त्वचा के नीचे, आँखों के सफेद हिस्से स्क्लेरा, या म्युकस मेम्ब्रेन में जमा होने लगता है, जिससे रोगी पीला सा दिखता है। यह स्थितिअत्यधिक रक्त कोशिकाओं के टूटने, लिवर कोशिकाओं के विकार, या बाइल ले जाने वाली नलिका में अवरोध के कारण उत्पन्न हो सकती है।
लिवर में सूजन या हेपेटाइटिस
सामान्यतः संक्रमित व्यक्ति या खुले में मलत्याग के जरिये संभावित विषाणु के संक्रमण से लिवर कोशिकाओं में सूजन आ जाती है, जिससे लिवर का आकार बढ़ जाता है,  व्यक्ति में पीलिया,व भूख में कमी भी मिलती है।
* लिवर सिरोसिस
आनुवंशिक कारणों , असन्तुलित जीवन भोजन शैली, अल्कोहल या अन्य कारणों से लिवर की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं जिससे पहले उनमे सूजन के कारण कुछ आकर बढ़ता है किन्तु रोगप्रगति के साथ फाइब्रोसिस होने से छोटी बड़ी गांठे बनने लगती हैं जिससे लिवर का आकार सिकुड़ जाता है। अनुपचारित मामलो में द्वितीयक संक्रमण या कैंसर आदि लक्षण उतपन्न हो सकते हैं।
* लिवर फेल्योर या हिपेटिक कोमा
यह एक प्रकार की मानसिक और तंत्रिकीय विकार जनित अवस्था है जिसमे लिवर कोशिकाएं कार्य करना बन्द कर देती हैं।
* लिवर में ट्यूमर या कैंसर
अनुमानित तौर भारत में दस फीसद मौत का कारणों में इस प्रकार के कैंसर की हिस्सेदारी भी है । किसी पुरानी अनुपचारित बीमारी, संक्रमण या अज्ञात कारणों से लिवर में गांठ बन सकती है या अनियंत्रित बृद्धि कैंसर का रूप ले सकती है।
* लिवर में फोड़ा
टायफायड, दूषित जल, पथरी, बवासीर, संक्रमित एपेंडिसाइटिस आदि के जरिये संक्रमण लिवर कोशिकाओं तक पहुँच कर यहां फोड़ा बना सकता है, जिसमे पस बनती है।
अमीबिक कोलाइटिस के कारण भी बाद में फोड़ा बनने की सम्भावना रहती है।
प्रमुख जांचें एवं पुष्टि
लिवर फंक्शन टेस्ट
यह ब्लड एवं सेरोलॉजिकल टेस्ट से बहुत सी जानकारियां जैसे  हेपेटाइटिस विषाणु, एंजाइम, पीत वर्णक या बाइल, आदि की जानकारी मिल जाती है।
रेडियोलॉजिकल जाँच में एक्सरे, अल्ट्रा साउंड, पी टी सी, सी टी स्केन।
* लिवर बायप्सि आदि से प्राप्त रिपोर्ट एवं लक्षणों के मिलान के आधार पर बीमारी की पुष्टि एवं उपचार के लिये उचित पथ्य चयन में सहायता मिलती है।
बचाव एवं उपचार के उपाय ; होम्योपैथी
* संतुलित आहार, नियमित जीवन शैली योग व्यायाम और होम्योपैथी  अपनाकर अपने लिवर में सम्भावित रोगों से बचा जा सकता है या बेहतर इलाज से रोगमुक्त हो सकते हैं।
* भारतीय मनीषियों ने बताया है कि हमारी जीवनी शक्ति जैविक घड़ी के अनुसार अंगतंत्रो में अलग अलग समय में अधिक सक्रिय होती है , अतः दिनचर्या को प्रकृति के अनुरूप ही ढलने का प्रयास करें। रात्रि में 12 से 2 बजे तक यही जीवनी शक्ति शरीर में नवीन कोशिकाओं के निर्माण व रिजनेरेशन में अधिक सक्रिय होती है इसलिए समयानुसार कम से कम 6 घंटे की नींद अवश्य पूरी करें और अवश्य लें।
* जितना हो सके तनावमुक्त रहें क्योंकि इसका सीधा प्रभाव लिवर की कार्य क्षमता व पाचन प्रक्रिया पर होता है।
* खान पान में सावधानी सबसे महत्वपूर्ण है , पर्याप्त मात्रा में ताजे मौसमी  फल और हरी पत्तेदार सब्जियां, या उनका जूस, मट्ठा, स्वच्छ या उबला हुआ पानी अवश्य लें।
* भूख लगने पर ही किन्तु भूख से थोडा कम भोजन करें।
* सुबह खाली पेट एक बड़ा गिलास गुनगुना नींबू पानी पिएं।
* खाना बनाने में चुटकी भर हल्दी का इस्तेमाल भी फायदेमंद है।
* रोज 6-7 लहसुन की कलियां लें यह लीवर को साफ करता है।
* शराब , सिगरेट, अत्यधिक  वसीय , तैलीय , ट्रांस फैट, घी, तले हुए भोजन से बचने की कोशिश करें।
* इतना शारीरिक श्रम या दौड़ भाग, साइकलिंग, खेल या व्यायाम अवश्य करें कि पसीना निकले।
* इसके अतिरिक्त प्राणायाम, अर्धमत्स्येंद्रासन, मलासन, अधोमुख आसन को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए।
होम्योपैथी
एक तरफ जहां प्रचलित आधुनिक चिकित्सा पद्धति में रोग की पहचान एवं पुष्टि प्रयोगशाला की जाँच पर आधारित और सीमित सम्भावनाओं वाली है, वहीं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में रोगों के उपचार में व्यक्ति को समग्र रूप से स्वस्थ करने की क्षमता है, इस क्षेत्र में होम्योपैथी सर्वोपरि है। इसमें व्यक्ति में रोग नही अपितु रोग में व्यक्ति का इलाज उसकी समलक्षणिक औषधि चयन के तरीके को अपना कर किया जाता है। इसलिए व्यक्ति दर व्यक्ति औषधियों में भिन्नता भी पायी जाती है जिसे वैयक्तिक या कांस्टिट्यूशनल औषधि चयन भी कहते हैं। यह स्वयं में बड़ी जटिल मनोवैज्ञानिक चिकित्सकीय प्रणाली है कहीं भी पढ़ सुन या देखकर नहीं अपनाया जा सकता। कुछ महत्वपूर्ण औषधीयां जिन्हें ऑर्गेनो स्पेसिफिक भी कहते हैं त्वरित लाभ की दृष्टि से व्यवहृत होती हैं। उपचार की दृष्टि से आर्सेनिक, ब्रायोनिया, लाइको, नक्स, चायना, कैर्दुअस, चेलिडोनियम, नेट्रम सल्फ, सल्फर, पोडोफाइलम, एन्ड्रोग्राफिस , हाईड्रैस्टिस, फिलेंथस, मायरिका, कैरिका पपाया, नेट्रम मयूर, सीपिया, पल्स, आदि औषधियों की उपयोगिता है।
केस-भरण पोषण का तनाव और लिवर
लगभग दो वर्ष पूर्व  एक  महिला उम्र लगभग 40 वर्ष , को चिकित्सकों ने लिवर कैंसर या सिरोसिस की द्वितीय अवस्था की सम्भावना बताते हुए इलाज की सलाह दी थी,किन्तु आर्थिक कारणों से वह मंहगे इलाज के लिए तैयार न थी। बेहद कमजोरी  के कारण दो यूनिट खून चढ़ाया जा चुका था,  हमारे चिकित्सक मित्र की सलाह पर मुझे होम्योपैथी के लिए बुलाया गया। रिपोर्ट्स देखने से पता चला लिवर के अधिकांश हिस्से में छोटी छोटी नोड्यूल्स थीं। महिला दुर्बल शरीर की कमजोर और बेहद उदास नजर आ रही थी, कुछ बातचीत के बाद उन्होंने बताया कि भूख नही लगती, कुछ खाती हैं तो उल्टी हो जाती है, या पेट तन जाता है, गैस बनती है, ज्यादातर कब्ज  कभी कभी दस्त आते हैं, बायीं तरफ भी दर्द होता है।मैंने उनके परिवार व पहले हुयी किसी बीमारी के बारे में पूछा तो उन्होंने बहुत सी बाते बतायीं जो दैनिक जीवन में सामान्य सी ही कही जा सकती हैं किन्तु एक महत्वपूर्ण बात जो मुझे लगी वह ये कि  "सर हमे अपनी चिंता नहीं, लेकिन बच्चों की देखभाल कौन करेगा, पति 6 साल पहले ही घर छोड़ कर चले गए, सास ससुर भी हमे दोषी मानकर साथ नही रहते, हालात यह हैं कि हमारे सामने बच्चों के पालन पोषण की चिंता बनी रहती है, इन्ही बच्चों के लिए जीना पड़ता है, सब हमे ही करना है, कोई न होता तो कोई बात न थी, जब तक बस चलता है काम से पीछे नहीं हटती, ।" इस दौरान वह कई बार रोई भी।
लक्षणों की समग्रता के आधार पर सीपिया 10 M की एक खुराक व कॉर्दूअस 6 की दिन में तीन खुराक 2 सप्ताह के लिए दी गयी। 20 दिन बाद मुझे स्वास्थ्य में सुधर की सूचना दी गयी । हमने कारडुआस को 15 दिन तक 2 बार नियमित करने की सलाह दी । इसके बाद लगभग 3 माह तक मेरे पास कोई सूचना नही आई किन्तु जिज्ञासा बनी रहती।फिर एक दिन हमारे चिकित्सक मित्र के साथ महिला के एक रिश्तेदार मिलने आये और उन्होंने बताया अब वह पहले की तरह स्वस्थ है कोई तकलीफ नहीं है। हमारे लिए भी यह सुखद अनुभूति थी।मैंने होम्योपैथी पर विश्वास करने के लिए उनका और मेरे सेवाकार्य को सफल करने के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त किया।
इस केस को पूरा समझने के प्रयास में मैंने आकलन का जो तार्किक आधार माना वह था कि, पति के घर छोड़ जाने के बाद परिवार एवं बच्चों के भरण पोषण की चिंता महत्वपूर्ण कारण है जिससे उक्त महिला निरन्तर उदास रहती , और सम्भवतः इसी तरह धीरे धीरे स्वास्थ्य की समस्याओं में निरन्तरता ने शरीर का भरण पोषण की व्यवस्था करने वाले अंग का चयन किया होगा, और जीवन की कुंठाएं गांठ की तरह प्रस्तुत हुई होंगी।
यद्यपि ऐसे किसी सिद्धांत का जिक्र चिकित्सा विज्ञान में पढ़ने को नही मिलता किन्तु विज्ञान के साथ दर्शन आध्यत्म और मनोविज्ञान के सापेक्ष तार्किक अध्ययन में ऐसे कई उदाहरण सत्य सिद्ध होते हैं जहाँ तनावों का प्रदर्शन भिन्न रोग लक्षणों में होता है।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथिक चिकित्सक
रा.सचिव-एच एम ए
सह सम्पादक- होम्यो मिरेकल
द प्रतिष्ठा होम्योपैथी
कृष्ण विहार कालोनी रायबरेली रोड उसरु
फैज़ाबाद
मो. न.-8400003421

Thursday, 3 November 2016

सर्दी जुकाम खांसी का होम्योपैथी और घरेलू उपचार

जब हमारा शरीर मौसम के अनुसार एडजस्ट नहीं करता है तो हम मौसमी रोगों के शिकार हो जाते है।मौसम के बदलाव के दौरान व्यक्ति का शरीर वातावरण में हो रहे बदवाल को नहीं झेल पाता है और सर्द-गर्म के असर से सर्दी-जुकाम, खांसी, सिरदर्द, जैसी कुछ शिकायतों से ग्रसित हो जाता है|सर्दी की शुरुआत नाक से होती है पर धीरे-धीरे इसका असर पूरे शरीर पर होने लगता है।मौसम बदलने, ठंडा-गर्म खाने पीने या धूल अथवा किसी अन्य चीज से एलर्जी के कारण सर्दी खांसी जुकाम तकलीफ ज्यादा होती है।

क्या हैं लक्षण
गले में खराश, नाक बन्द होना, बलगम, छींक आना, आँख, नाक से पानी आना जलन, बदनदर्द, सिर में भारीपन दर्द, खांसी, हल्का बुखार, साँस लेने में तकलीफ, आदि लक्षण हैं।
बचाव के घरेलू उपाय

सर्दियों की शुरुआत में मौसम बदलने के कारण हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी के चलते होने वाली सर्दी खांसी जुकाम की दिक्कतों में कुछ घरेलू सरल उपाय आपके लिए उपयोगी हो सकते हैं।
जब कभी आपके गले में खराश हो और आपकी नाक सर्दियों में बंद हो जाए, तो एक गिलास गर्म पानी में चुटकी भर सेंधा नमक डालकर गरारे करें, या केतली में गर्म पानी डालकर भाप लें, सेंधा नमक की डली को आग पर अच्छे से गरम कीजिए जब वह लाल हो जाए तो तुरंत आधा कप पानी में डालकर निकाल लीजिए, उसके बाद इस नमकीन पानी को सोने से पहले पीने से सर्दी में राहत मिलती है।
सुबह शाम शहद के साथ अदरक व
भुने हुए चने को कालीमिर्च के साथ खाएं या हल्दी को गर्म दूध के साथ पीना अथवा अदरक, तुलसी,पुदीने , दालचीनी, और कालीमिर्च वाली गर्म चाय, या खजूर को दूध में उबालकर पीना सर्दियों की तकलीफो से राहत पाने का असरदार घरेलू नुस्खा है।
एक गिलास गर्म पानी में नींबू के रस के साथ एक चमच शहद मिलाकर पिएँ। इस में भरपूर मात्रा में मौजूद विटामिन सी हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं।
सावधानी
खांसी होने पर खांसी को रोकने के लिए मूंगफली,चटपटी व खट्टी चीजें, ठंडा पानी, दही, अचार, खट्टे फल, केला, कोल्ड ड्रिंक, इमली, तली-भुनी चीजों को खाने से बचना चाहिए ।
बार-बार हाथ धोना जुकाम से बचने का सर्वोत्तम उपाय है । इससे संक्रमित वस्तुओं को छूने से हाथ में आये वायरस समाप्त हो जाते हैं ।
होम्योपैथिक उपचार
रोग प्रतिरोधक क्षमता को सन्तुलित करने और विषाणुजनित विकारों में होम्योपैथी अद्वितीय है।कहीं पढ़ सुनकर इलाज के बजाय कुशल होम्योपैथिक चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही औषधियों का सेवन करना चाहिए। इस मौसम में एकोनाइट , बेल, संगुनेरिया, एलियम सीपा, अर्स, यूपेटोरियं, जेल्स, ब्रायो, आदि दवाओं का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण हैं।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

पहले सशपथपत्र व पंजीकृत विवाह हो फिर नियमित सर्वे

आदरणीय विद्वजनों एक महत्वपूर्ण विषय पर आपके विचार जानने की आकांक्षा है-
आजकल परिवार अदालतों में पारिवारिक वादों की बढ़ती संख्या परिवार एवं समाज की सनातन व्यवस्था के लिये उचित संकेत नहीं है। हमारी स्वाभाविक भारतीयता एवं  मानवोचित आचरण का शनैः शनैः क्षरण सा होता दिखाई देता है, यदि समय रहते इसपर विचार न किया गया तो परिवार जैसी संस्था के अस्तित्व पर ही संकट आ सकता है।
मेरी समझ में इसका एक प्रमुख कारण है संस्कारहीन शिक्षा एवं पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में हमारा नैतिक मूल्यों को रूढ़ीवादी मानकर त्याज्य मानते जाना जिससे कर्तव्यबोध की जगह अधिकारवादी प्रवृत्ति का विकास होता जा रहा है।
इस विषय में मेरे मतानुसार निम्न सझावों पर विचार किया जाना वर्तमान की आवश्यकता भी है और जरूरी भी, किन्तु इस प्रस्तावना की व्यवहारिकता पर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को अपनी राय अवश्य रखनी चाहिए।

1. शिक्षा के नैतिक व्यवहारिक संस्कारिक पक्ष को अधिक महत्व दिया जाय।
2. परिवार की नींव विवाह से होती है, यद्यपि कानून वयस्क नागरिकों को किसी भी धर्म संस्कृति पन्थ को मानने या उसकी रीति नीति के आधार पर हुए सामाजिक विवाह को मान्यता और पति पत्नी का अधिकार देता है, किन्तु जब कभी रिश्तों में मनमुटाव या वाद की स्थिति आती है तो उन्ही धार्मिक  नियमो रीतियों को कानून के सापेक्ष कहीं स्थान नही मिलता।
अतः इस तरह की किसी भी स्थिति में विवाह के समय अपनायी गयी रीति, परम्परा के आधार पर, उपस्थित महत्वपूर्ण लोगो, रिश्तेदारों की भी जिम्मेदारी विचार व भूमिका सुनिश्चित होनी चाहिये, जिससे स्वछँदता व अनावश्यक कानूनी प्रपंच में जीवन के  बहुमूल्य वर्ष बर्बाद न हो और सामाजिक न्याय समन्वय कानून के लिए सहायक हो सके।

3. पंजीकृत विवाह हों- आशा बहुओं या परिवार कल्याण विभाग के अधिकारियों के जरिये प्रत्येक विवाह का पंजीकरण विवाह के समय स्थल पर ही कराया जाना चाहिए, एवं इसी समय वर वधू पक्ष से उपस्थित रिश्तेदारों, मध्यस्थ, परम्परा रीति नीति , लेन देन, व्यय, दोनों पक्ष की एक दुसरे से अपेक्षाओं, वर वधू के पति पत्नी के रूप में दायित्व, कर्तव्य, परिवार में आचरण आदि का उल्लेख हो, जिसकी कम से कम तीन कापियों पर उभ्यपक्षो की सहमति हस्ताक्षर हों और एक कॉपी जमा कर शेष उभय पक्षों को दी जाएँ।
4. विवाह के बाद नियमित सर्वे हो-
क्षेत्र की आंगनवाड़ी, आशा आदि के जरिये पाक्षिक, मासिक, या त्रैमासिक अवधि में दोनों परिवार के सदस्यों, व नव दम्पत्ति से अलग अलग उनके शिकायते या विचार लिए जाएँ, कभी कभी पड़ोसियों की भी राय दर्ज की जाय।यदि इस बीच कोई सन्देह की बात नजर आये तो परिवार परामर्श की सलाह दी जा सकती है।

ऐसा होने से किसी भी अनहोनी के पूर्व स्थिति का आकलन किया जा सकता है, या घरेलू हिंसा, उत्पीड़न, आदि की शिकायतो में समय पर उचित कार्यवाही की शिकायत की जा सकती है साथ ही की सत्यता की जाँच व झूठे मुकदमों की आड़ में निर्दोषों को भी प्रताड़ित होने से बचाया जा सकता है।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी