पग भर की दूरियों में पीढ़ियों के फासले
आधुनिकता , विज्ञान और विकास के मापदण्डों पर हम दुनिया के बाकी देशों से तुलना कर आकड़ों के खेल में वजयी सन्तुष्टि से सुखी समृद्ध जीवन की कल्पना भले कर रहे हों किन्तु भावनाओं में रत रहने वाले भारतीय मन की भावनाओं में अब अस्थिरता और व्याकुलता अधिक दिखने लगी है। यूँ लगता है ख्वाहिशें मंगल ग्रह पर पहुंचने के बाद जमीन पर नहीँ आना चाहतीं। प्रगति के नाम पर गिनाने की अंतहीन सूची है जिसके बाद जीवन में आवशयक्ता के सुख की कमी होने की कल्पना नही की जानी चाहिए ....तो फिर क्यों आज हमारा मन अशांत है, चित्त व्याकुल है, भावनाएं आहत हैं, स्वास्थ्य के लिए भोजन से अधिक दवाओं पर निर्भरता है, हर तरफ असुरक्षा , चिंता, अवसाद, बढ़ रहा है ? जिसे हम त्यागते जा रहे हैं उसी इतिहास को फिर क्यों गौरवशाली मानकर कभी कभी गर्व कर लेते है किन्तु चल पड़ते है अपने अनिश्चित भविष्य की ओर.... वास्तविकता में देखा जाये तो
परिवार कहने के लिए एक छोटा सा शब्द किन्तु जीने के लिए पूरा संसार समेटे हुए भारतीय जीवन संस्कृति की एक ऐसी समृद्ध विरासत है जो बीते कुछ वर्षों में अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। एक ऐसा शब्द जिसका विस्तार "वसुधैव कुटुम्बकं " तक हुआ करता था , जहां एक व्यक्ति का जुड़ाव दुसरे से माता, पिता, चाचा, चाची, ताया , ताई, बुआ, दादी, दादा,भाई , बहन के बिना अधूरा इसके साथ छोटे बड़े मिलकर संयुक्त परिवार बन जाते थे और सबसे बड़ा या बुजुर्ग सदस्य उस परिवार का मुखिया कहलाता था, सभी उसकी इज्जत करते, आचरण की मर्यादा और संस्कारों का ऐसा आच्छादन हुआ करता था सब एक दूसरे के बिना अधूरे से लगते थे , प्रेम, समर्पण, निष्ठा, कर्तव्य, शिष्ठता, श्रेष्ठतम का ज्येष्ठतम आदर्श परिवार की शांति, सम्पन्नता, सम्पन्नता, समृद्धि, प्रतिष्ठा का गौरव प्रतीक हुआ करता था। फिर इससे जुड़े निकटम से नाते रिश्ते फूफा, नाना, नानी, मामा, मामी, मौसा, मौसी, देवर,देवरानी, भाभी, जेठ, जिठानी, ननद, ननदोई आदि रिश्तों की ऐसी अदृश्य प्रेमाश्रित और इतनी मजबूत डोर से व्यक्ति इनसे जुड़ा हुआ था कि उम्र के कई पड़ावों में उसपर स्वयं इन्हे निभाने की जिम्मेदारी हुआ करती थी , । और सम्भवतः इसी लिए आर्थिक संकट होते हुए भी हर तरफ शांति, प्रेम, मिलाप,विश्वास, भाईचारा, न्याय, सुरक्षा का अहसास था। उक्त आदर्शों पर स्थापित संयुक्त परिवार का यही गौरव समय के साथ टूटता गया सम्भवतः हमने अपने आदर्शों की एक एक कर महत्ता आवश्यक्ता और अर्थ के सापेक्ष परखनी शुरू कर दी और धीरे धीरे उन्हें अर्थहीन मानकर त्यागना शुरू कर दिया। इसका प्रारम्भ तो बता पाना मुश्किल है किन्तु तेजी जरूर पराधीनता के वर्षों में आई होगी जब भारत के लोगों को पश्चिमी लोगों के आकर्षण ने प्रभावित किया होगा।
संयुक्त परिवार की अवधारणा ने एक समय में जो प्रतिष्ठा प्राप्त की उसके उदाहरण लोग आज भी देते हैं और समाज में आज भी उन परिवारों को सम्मान प्राप्त होता है जो एकता प्रेम सौहार्द का सन्देश देते हुए एक हैं। आधुनिक और भौतिकवादी दृष्टि में संयुक्त परिवार की गिनाई जा सकने वाली जितनी जटिलताएं है उससे कहीं अधिक अनगिनत फायदे भी हैं।
अर्थ की महत्वाकांक्षा में हो रहा अनर्थ
तर्क दिया जाता है कि किसी जमाने में जब संसाधन इतने सुलभ न थे आजीविका का साधन खेती हुआ करता था । शिक्षा का अभाव और आर्थिक विपन्नता ने पांव पसार रखे थे परिवार में कोई एक कमाता था सब खाते थे । मगर सत्य केवल इतना ही न था लोगों में सहयोगी भाव के साथ कर्तव्यनिष्ठा भी इतनी थी कि गांव में किसी की भी बहन बेटी महिला को कुदृष्टि का शिकार नही होना पड़ता था, किसी भूले भटके को बेसहारा नही होना पड़ता था , किसी बीमार को इलाज की कमी हो सकती थी मगर तीमारदार कम न थे। आमदनी कम थी लेकिन बाहर जाकर कमाने वाला गांव आता तो घर परिवार और गांव, सबके लिए कुछ न कुछ लेकर आता था ,सब उससे मिलने और विदा करने जाते थे। साधन न थे ,सड़कें न थी लेकिन रिश्ते निभाने आते थे । अनुभव की श्रेष्ठता का सम्मान हुआ करता था , बुजुर्गों की सेवा और उनका सम्मान हुआ करता था , कोई आत्मग्लानि या अकेलेपन का शिकार होकर अवसाद में नहीँ जाता था। लेकिन न जाने देश में ही कैसे परदेस ने करवट ली कि व्यक्ति धीरे धीरे स्वार्थी होने लगा ....अब शायद कच्ची दीवारें कुछ मोटी होने लगीं और कमाने वाले के मन में संग्रह ने संकीर्णता लानी शुरू कर दी...जिसका घर चमका उसने गांव में ही दूसरों को छोटा समझना शुरू कर दिया फिर घर में भी भाई भाई ने हिस्सेदारी कर ली एक चहारदीवारी में एक से अधिक चूल्हे जलने लगे .... मोटी दीवारों से आई दूरी जब पक्की ईंट की दीवार से खड़ी हुयी तो भाई भाई का परिवार हो गया और माँ बाप अपनी ही विरासत में आश्रय के सहारे। फिर वक्त बहुत तेज गति से चला चिट्ठी की जगह फोन और फोन के बाद मोबाइल के जमाने में प्रवेश तक इंसान पक्के घर से पक्के मकान में आ चुका है अब यहां उसका परिवार नहीं उसकी फैमिली रहती है जिसमें उसकी पत्नी और बच्चे हैं बस। घर का बंटवारा दीवारों से नहीँ पीढ़ियों से होने लगा है ....जिंदगी ने वक्त के साथ जो रफ़्तार शुरू की थी वह उससे आगे निकल जाने को बेताब है... इसलिए अपने लिए ज्यादा से ज्यादा बनाने में किसी का हित जाता है तो जाये...। आधुनिक शिक्षा ने संस्कार के जो बीज रोप उनसे तैयार फसल को पुराने विचार दकियानूसी लगने लगे, आधुनिकता के खुमार ने स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति को इतना स्वच्छन्द बना दिया कि उसे मर्यादाएं बन्धन लगने लगीं जिन्हें तोडना ही उनकी योग्यता की कसौटी बन गया।
आज के सभ्य समाज में शहरीकरण के साथ शिक्षित और अमीर बन रहे लोगों में खुशियाँ बाँटने के तौर तरीके बदल गए , क्योंकि पैसा तो पर्याप्त होता गया किन्तु समय कम होता गया..कपड़ों की क्रीज और आँखों पर रंगीन चश्में के साथ एक ऐसी अकड़न आती गयी जो माँ बाप से भी पैर छूने में शर्मा सकती है। पढ़े लिखे स्वावलम्बी महिलाएं पुरुष बुजुर्गों की सेवा या उनके सम्मान को नौकर की श्रेणी का बताते समय शायद...यह भूल जाते हैं कि कभी उनके माँ बाप ने ही उन्हें पाल पोस कर सेवा की थी लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि कामकाजी आधुनिक माता पिता बच्चे के पालन पोषण के लिए "आया" फिर "प्ले स्कूल" फिर "बोर्डिंग स्कूल" और फिर हॉस्टल में सुविधा जुटाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते है । यहां कही बच्चे को परिवार के रिश्तों ने नहीँ पैसों के वजन ने पाला...और शायद इसीलिए अब सभी रिश्ते अर्थहीन होते जा रहे है...अर्थ से जुड़ते जा रहे है। व्यक्ति "मेम्बर" परिवार फैमिली गांव या समाज सोसाइटी और दुनिया बाजार बनती जा रही है...जहां कोख से लेकर मातम तक सब बिकने को तैयार हो रहा है।
मगर ... भारतीय संस्कृति की जड़े इतनी भी कमजोर नहीँ कि ये सब बदल ही जायेगा... भारत आज भी गाँवो में वैसे ही बसता है जैसे युगों पहले था...विविधताओं से भरे इस देश में सब तरह के उदाहरण मिलेंगे। देर सबेर जब ये चकाचौंध प्रकृति की लक्ष्मण रेखा पर रुकेगी तो सत्य का बोध कर पायेगी । किसी ने सच ही कहा है परिवार से अलग हुए व्यक्ति की दशा किसी बृक्ष से टूटे हुए पत्ते की तरह ही होती है ।
ये परिवारों के टूटने के ही परिणाम हैं कि एक ही अपर्टमेंट में रह रहे लोग एक दुसरे से अपरिचित से रहते हैं कोई किसी के सुख दुःख का साथी नहीँ .... पैसे दुनिया की हर सुख सुविधा तो जुटा सकते हैं लेकिन जीवन में सुख शांति प्रेम संतोष आनन्द विश्वास कभी नही ला सकते। ये सब तो माता पिता और बुजुर्गों की छाँव में ही मिल सकता है।
मैं जानता हूँ खुद को विद्वान साबित करने के लिए लोग इसमे तारतम्यता की कमी विचारों का बिखराव एक सीमित दायरे की सोंच कुछ भी कह सकते हैं , किन्तु बिना पढ़े या पढ़कर छोड़ देने की बजाय यदि भाव को ग्रहण किया जाये तो शायद सही सन्देश लिया जा सकता है।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथिक फिजिशियन
सह सम्पादक- होम्यो मिरेकल
रा सचिव -HMA
चिकित्सक- नाका हनुमान गढ़ी फैज़ाबाद












