चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

This is default featured slide 4 title

Go to Blogger edit html and find these sentences.Now replace these sentences with your own descriptions.This theme is Bloggerized by Lasantha Bandara - Premiumbloggertemplates.com.

This is default featured slide 5 title

Go to Blogger edit html and find these sentences.Now replace these sentences with your own descriptions.This theme is Bloggerized by Lasantha Bandara - Premiumbloggertemplates.com.

Saturday, 17 September 2016

सफ़ेद सत्य : मर्यादित होनी चाहिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

इस देश के आदर्श श्रीकृष्ण हैं कोई कन्हैया कुमार नही

ऐसा घर  जहां परिवार संयुक्त रूप से रहता हो और उसका एक मुखिया हो सभी सदस्य उसका सम्मान करते हों ..उसमे अक्षुण विश्वास रखते हों तो वहां सदैव संस्कारों का पोषण होता है, प्रत्येक सदस्य को अपनी मर्यादा और रिश्ते की गरिमा का ध्यान रहता है ..सब एक दुसरे से प्रेम करते हैं सामन्जस्य बना रहता है.। परिवार की एकता में यूँ तो किसी बाहरी के हस्तक्षेप की सम्भावना कम ही रहती है किन्तु यदि कभी  ऐसी विपरीत परिस्थिति आ भी जाये तो मिलकर उसे दूर करना सहज होता है। समाज में उसे आदर्श परिवार, खानदान का सम्मान मिलता है। ऐसे आदर्श परिवार का अर्थ यह कदापि नहीँ कि वहां मुखिया का भय सबपर हावी होता है बल्कि उनकी स्वतन्त्रता उनके अनुशासित मर्यादित आचरण में अभिव्यक्त होती है। सभी को एक दुसरे की भावनाओं का ख्याल रहता है ..नैतिक मूल्यों पर निर्मित व्यक्तित्व इतना कोमल होता है कि वह किसी की भावनाओं को आहत करने का विचार नही करता ।  यदि उसी परिवार में कोई सदस्य अपने मापदण्ड स्वयं निर्धारित करने लगे अथवा उसकी शिक्षा दीक्षा परिवार के संरक्षण से दूर कहीं हुई हो तो उस मन में स्वछँदता के भाव पनपना भी स्वाभाविक है , किन्तु इसमे भी दो सम्भावनाएं हैं एक तो यह कि वह अन्य सभी से अधिक ज्ञानी है अथवा मूर्ख..क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में कोई ऐसी अंतः या वाह्य प्रेरणा अवश्य कार्य करती है जो उसकी अनुचित महत्वाकांक्षा को जागृत करने का साधन बनती है ।संभवतः इसकी तीव्रता ही उसे पहले तो विरोधी और फिर विद्रोही बना देती है। वह अपने ही परिवार के सदस्यों को हीन भाव से देखता है और अपने सम्मान को उनसे बड़ा अधिकार मानने लगता है , सदस्यों का प्रेम उसे दिखावा , छलावा लगता है, उनकी सहनशीलता और क्षमा उसे कमजोरी लगती है इसलिए वह उनकी भावनाएं लगातार कुचलता जाता है यहां तक कि  उन्हें चुनौती दे बैठता है यही कलह उसे विद्रोह बना देती है। ऐसी परिस्थिति के समय परिवार की प्रगति से इर्ष्याभाव रखने वाले पड़ोसी या बाहरी व्यक्तियों का मन प्रसन्न हो सकता है और कुचेष्टा रखने वाले लोग तो परिवार के उसी विद्रोही सदस्य से सहानुभूति दर्शाकर आग में घी डालने का कार्य करते ही हैं, क्योंकि उन्हें स्पष्ट दीखता है कि यदि यह आग जलती रही तो एक दिन यह कुनबा स्वयं जल जायेगा और उनकी तीली भी बच जायेगी..।
लेकिन इस पूरे चक्र को घूमने से रोका जा सकता था यदि शिक्षा के समय माता पिता अपने बच्चे की नियमित प्रगति रिपोर्ट देखते, उसकी गलतियों को नजरअंदाज करने की बजाय उसमे सुधार लाते, उसकी संगत पर नजर रखते उसे शब्दों की मर्यादा सिखाते , उसे रिश्तों के आदर्श और उनकी गरिमा समझाते...उसे स्वतन्त्रता और स्वछंदता में अंतर करना सिखाते।
और फिर भी ऐसा होता तो उसे समय पर उसकी गलतियां बताकर सुधरने का समय दे सकते हैं न मानने पर उसकी गलत बातों, विचारो, उद्देश्यों पर मोहवश , मर्यादावश या उदासीनता वश मौन समर्थन न देकर उनका उचित प्रतिकार या बहिष्कार करते। जितना जरूरी है कि यदि शरीर में या त्वचा पर कोई रोग फुंसी हो जाये तो उसे शरीर का हिस्सा मानकर नजरअंदाज करने की बजाय सही चिकित्सक से परामर्श लेकर उसका समय पर उपचार कर लिया जाये वरना एक समय तो आपको वह फुंसी स्वयं ही सूखी हुयी लगेगी मगर  उसमें कभी कभी मवाद आती रहेगी ।यही अवस्था तो नासूर बन जाती है।

मैं घर परिवार को समाज राज्य या राष्ट्र की इकाई के रूप में देखता हूँ  इसलिए उपरोक्त जो भी बातें घर परिवार के सन्दर्भ में सही लगती हैं वही राष्ट्र के संदर्भ में भी सही होनी चाहिए। क्योंकि राष्ट्र बड़ा है उसमे रहने वाले परिवार व सदस्यों की संख्या अधिक है इसलिए वहां बहुमत से मुखिया का चुनाव होता है व्यवथाओं के सुचारू रूप से संचालन के लिए विभिन्न स्तरों पर जिम्मेदारियों का बंटवारा होता है ।परिवार बड़ा हो तो व्यक्ति के विचार मान्यताओं और उत्पन्न होने वाली विषमताओं में विविधतायें भी अलग होंगी, मगर यहां भी एक बात तो बिल्कुल वैसी ही है कि राष्ट्र परिवार में प्रत्येक सदस्य की आस्था विश्वास कैसा और कितना है। जब परिवार का कोई सदस्य नकारात्मक विचार और प्रवृत्ति से प्रभावित हो अभिव्यक्ति के नाम पर स्वतन्त्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो प्रश्नचिन्ह उसके पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था पर भी लगता है जिसने उसके अंतःकरण में ऐसी नकारात्मक प्रवृत्ति को पनपने और फलने फूलने का पर्याप्त अवसर दिया, और फिर प्रश्नचिन्ह परिवार के उन जिम्मेदार सदस्यों पर भी लगता है जो स्वार्थवश उसकी इस मनोवृत्ति को बढ़ावा देने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन देते हैं। अक्सर तटस्थ या मौन भी इन नकारात्मक वृत्तियों का समर्थन ही माना जाना चाहिए क्योंकि इसे वह विकृत व्यक्ति अपनी स्वीकृति के रूप में परिवर्तित कर सकने के प्रति आशावान हो सकता है।
इन विसंगतियो से बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियों का बोध होना आवश्यक है। प्रथम तो हमे स्वयं अपने बच्चों में परिवार, समाज व राष्ट्रभाव के प्रति आस्था के विचारों का पोषण करना चाहिए जिससे जब उसकी उपलब्द्धि समाज और राष्ट्र को हो उसकी सकारात्मक विचार ऊर्जा राष्ट्रनिर्माण में लग सके उसमे अवरोधी या विरोधी न हो। और द्वितीय निष्पक्ष रूप से ऐसी मानसिकता का बहिष्कार कर उसे अलग थलग छोड़ दें जिससे उसे स्वयं की अस्वीकृति के साथ आत्ममूल्यांकन का अवसर भी मिल सके।किंतु यदि इस तरह की नकारात्मक बौद्धिकताओं को मौन या मुखर समर्थन घर में ही मिलता रहा तो उत्पन्न विसंगतियों पर कुचेष्ट पड़ोसियों को आनन्द ही आएगा और आपको कमजोर करने की उनकी अभिलाषा की पूर्ति में उन्हें शक्ति के प्रयोग की आवशयक्ता भी न होगी।
स्पष्ट तर्क है जैसी अभिव्यक्ति हमें अपने परिवार में स्वीकार नहीँ  वैसी ही अभिव्यक्ति राष्ट्र के सन्दर्भ में कैसे स्वीकृत और समर्थित हो सकती है।

शरीर की छोटी सी फुंसी या  रोग होने पर यदि समय रहते उसका इलाज योग्य चिकित्सक की देखरेख में हो तो शरीर के निरोगी होने की सम्भावना रहती है अथवा उसे नजरअंदाज किये जाते रहने पर भविष्य में उसके नासूर बन जाने , जटिल या असाध्य हो जाने में कोई संशय नही रखना चाहिए।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Friday, 16 September 2016

एक मच्छर के चार वार मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और दिमागी बुखार

सावधानी , मच्छरदानी , चिकित्सीय परामर्श से दवाई और होम्योपैथी अपनाएं

मलेरिया में  बुखार के साथ पारी देकर जूडी ताप, डेंगू में हड्डी टूटने जैसा दर्द और शरीर पर चकत्ते,चिकनगुनिया में जोड़ों में सूजन दर्द और विकृति,दिमागी बुखार में गर्दन में ऐंठन अकड़न का पाया जाता है विशिष्ट लक्षण
जागरूकता के बावजूद स्वच्छता के प्रति हमारी लापरवाही मानव जीवन के लिए कैसे संकट की स्थिति पैदा कर सकती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है हमारे आस पास और घरों में पनपने वाला मच्छर ..दिखने में मामूली सा कीट किन्तु आज इसके डंक का आतंक किसी आतंकवादी धमाके से भी अधिक भयावह है। मनुष्य के लिए सांप या बिच्छू की तरह इसका डंक स्वयं तो प्राणघातक नहीँ लेकिन ड्रोन हेलीकाप्टर की तरह रोगकारकों को बारूद की तरह अपने दुश्मन यानि मनुष्य के सीधे खून में लांच कर देता है। मच्छरों की अनेक प्रजातियों  (एडीज, एनफेलिस, क्यूलेक्स) के दिए दंश आज मानव जीवन के लिए संकट पैदा किये हुए हैं और तमाम दावों तैयारियों के बीच भी हम अपनी जरा सी लापरवाही से लाचार नजर आते हैं।
जुलाई-अगस्त से अक्टूबर तक वर्षा ऋतु के कारण जगह जगह गन्दगी का अम्बार लग जाता है, जिसकी सफाई के लिए हम सरकारी तन्त्र से अपेक्षा रखते हैं किन्तु उदासीनता की यह आदत हमारे घरों में पुराने गड्ढे, नाली, कूलर, टँकी, या अन्य पड़े सामानों में हुए एकत्र पानी तक को कई दिनों तक पड़ा रहने देती है, और यही इन आतंकवादी मच्छरों की प्रजातियों के प्रजनन व पनपने की सबसे मुफीद जगह होती हैं।
पुनः स्पष्ट कर दूं कि सभी मच्छर न तो काटते हैं न स्वयं रोग देते हैं बल्कि इनकी आंत में रोगाणुओं ,जीवाणुओ, विषाणुओं ,परजीवियों को पनपने की जगह मिल जाती है और तब केवल संक्रमित मच्छर के मनुष्य का रक्त चूसते समय उसकी लार के साथ यह रोगकारक मनुष्य के रक्त में मिल कर उसके शरीर में घुसकर पहले अपने लिए उचित जगह (प्रमुख रूप से लिवर कोशिकाओं  ) बनाते हैं फिर अपनी संख्या बढ़ाते हैं तब कई दिनों बाद रोग के लक्षण पैदा करते है। काटे जाने से लेकर रोग लक्षण दिखने  के बीच इस समय को इन्क्यूबेशन पीरियड कहा जाता है।
संक्रमित मच्छर के काटने के 3 -5 दिनों में डेंगू बुखार के, 2 -7 दिनों में चिकनगुनिया के और 7 से 10 दिनों में मलेरिया के लक्षण प्रकट हो सकते हैं।
भारत में प्रमुख रूप से एडीज, एनफेलिस,व क्यूलेक्स मच्छर की प्रजातियों से डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया, और जापानीज़ इंसेफ्लाईटिस या दिमागी बुखार जैसी बीमारियां भिन्न आयुवर्ग के लोगों को अपनी चपेट में ले रही हैं।
डेंगू ,चिकनगुनिया और जेई विषाणुजनित रोग हैं जबकि मलेरिया प्रोटोजोआ परजीवी प्लासमोडियम की पञ्च प्रजातियों में से किसी एक के संक्रमण से होता है।
रोग से ग्रसित व्यक्ति में शुरुआत में लगभग एक समान लक्षण प्रकट होने से बुखार के प्रकार को समझ पाना आमजन के लिए आसान नहीँ होता। व्यक्ति को सामान्यतः तेज बुखार (102-105 डिग्री फारेनहाइट तक), सिरदर्द,पूरे शरीर में दर्द, जी मिचलाना, उल्टी, भूख कम लगना, कमजोरी जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं। ऐसे समय बिना चिकित्सक को दिखाए केवल बुखार उतरने की दवा खाने से उचित लाभ नहीँ होगा।
कैसे पहचानें अलग अलग बुखार को-
तेज बुखार के कारण रक्त कणिकाओं के टूटने से एनीमिया की भी सम्भावना रहती है।
मलेरिया को जूड़ी ताप बुखार भी कहते है यह पारी देकर और ठण्डी कंपकपी के साथ पारी देकर आता है, रोगी को बहुत तेज ठण्डी लगती है फिर तेज बुखार चढ़ता है इसके बाद तेज पसीना होता है। कुछ मरीजों में बुखार के समय प्यास का लक्षण भी पाया जाता है। हमारे देश में इसकी वाईवेक्स और फाल्सीपैरम  प्रजाति का प्रकोप ज्यादा पाया जाता है। फैलसिपैरम छः महीने में पुनः हो सकने की सम्भावना के साथ ज्यादा खतरनाक होता है।इसके परजीवी लिवर व लालरक्तकोशिकाओं पर आश्रित होते हैं इसलिए पीलिया और अनीमिया की सम्भावना भी होती है।
इसीप्रकार चिकनगुनियामें भी ठण्डी के साथ तेज बुखार आता है, इसमे खास लक्षण होता है कि व्यक्ति को मांसपेशियों के साथ जोड़ों में तेज दर्द, प्रकाश से भय, शरीर पर चकत्ते नजर आने के साथ जोड़ो में सूजन व विकृति उत्पन्न होने की भी सम्भावना होती है।
जबकि डेंगू वायरस से होने वाले बुखार में तेज बुखार के साथ शरीर में हड्डियों के टूटने जैसा दर्द होता है,  इसीलिए इसे "ब्रेक बोन फीवर" भी कहते हैं।यह वायरस चार प्रकार का होता है। इसका मच्छर एडीज काली सफेद धारी वाला होता है जिसे बाघ मच्छर भी कहते हैं यह दिन में काटता है। लक्षणों के आधार डेंगू  तीन  प्रकार से प्रकट हो सकता है, पहला साधारण प्रकार जो स्वयं ठीक हो सकता है, किन्तु दूसरा और तीसरे प्रकार का डेंगू जिसे डेंगू हैमरेजिक फीवर व डेंगू शाक सिंड्रोम कहते है यदि समय पर उपचार न मिले तो प्राणघातक सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि इसमे रक्त कण टूटने से प्लेटलेट्स की संख्या में गिरावट आने लगती है जिससे रक्त स्राव हो सकता है। त्वचा के नीचे लाल चकत्ते नजर आने लगते हैं, आँखों में दर्द महत्वपूर्ण लक्षण हैं।
इसी प्रकार तराई इलाकों में जहां धान की खेती अधिक होती है वहां पनपने वाले मच्छर क्यूलेक्स विश्नोई के जरिये जैपनीज इंसेफ्लाईटिस का विषाणु बहुधा 5-15 वर्ष के बच्चों को संक्रमित कर सकता है। इससे प्रभावित रोगी बुखार के बताये गए लक्षणों के साथ गर्दन में ऐठन या अकड़न का विशेष लक्षण पाया जाता है।
जाँच एवं पुष्टि
जुलाई से सितम्बर के मध्य होने वाले बुखार के प्रकार की जाँच के लिए चिकित्सक के परामर्श के अनुसार
रक्त परीक्षण, आरटीपीसीआर या रिवर्स ट्रांस्क्रिप्टेज पालीमेरेज चेन रिएक्शन,अथवा एलिसा  रक्त जांच से रोग की पुष्टि की  जाती है।
क्या बरतें सावधानी-
अपने घर व आस पास स्वच्छता का विशेष ध्यान दें, नमी गन्दगी व पानी न एकत्र होने दें, नालियों में कीटनाशक या मिटटी के तेल का छीड़काव कराएं। रात में मच्छरदानी में ही सोएं व दिन में व शाम के समय मच्छरों से बचने की क्रीम जेल या नीम तेल का प्रयोग कर सकते है। पौष्टिक आहार लें।
घरेलू एवं होम्योपैथिक उपाय
अजवायन किशमिश तुलसी और नीम की पत्तियो को उबाल कर पेय को दिन में 3-4 बार ले सकते हैं।
पपीते की पत्ती का जूस प्लेटलेट्स की संख्या को नियंत्रित करने के लिए जाना जाता है इसका भी सेवन कर सकते हैं। स्नान करते समय गर्म पानी में नीम की पत्ती व सेंधा नमक डालकर इसे पानी में मिलाकर नहाएं।
उपचार की दृष्टि से विषाणुजनित रोगों में होम्योपैथी का अद्वितीय स्थान है किन्तु औषधियों का चयन व्यक्ति विशेष के लक्षणों के मिलान के आधार पर ही सम्भव है इसलिए बिना चिकित्सकीय सलाह के कोई भी दवा लेना उचित नही कहा जा सकता।लक्षणों की गम्भीरता के अनुसार चिकित्सालय में  चिकित्सक की नियमित देक्खरेख में ही उपचार सम्भव है। केंद्रीय होम्योपैथी अनुसन्धान परिषद के अध्ययनों के आधार पर डेंगू एवं चिकनगुनिया के लक्षणों व युपेटोरियम पर्फ औषधि में समानता पायी गयी इसलिए इसे होम्योपैथिक प्रतिरोधक की तरह प्रयोग किया जा सकता है। इसीप्रकार चिकनगुनिया के लिए ब्रायोनिया या ऑसीमम औषधि उपयुक्त है।इसके अतिरिक्त कैरिका पपाया मिलिफोलियम , टीनोस्पोरा कार्डीफोलिया, निकटैंथस मदरटिंचर का प्रयोग व लक्षणों के अनुसार, पल्स, आर्स, जेल्स, ब्रायो, नैट म्यूर, बेल, क्रोटेलस, इपेकाक, चायना, चिनियं सल्फ, बेलाडोना, क्यूप्रम मेट आदि दवाएं उपचार में बेहद कारगर हैं।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथिक परामर्श चिकित्सक

Monday, 12 September 2016

नाम और भाषा के बिना राष्ट्रविकास की परिभाषा अधूरी

भारत के मातृभाव की अभिव्यक्ति की भाषा है हिंदी : डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
राष्ट्र के विकास में राष्ट्रभाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है
(समग्र स्वास्थ्य की उपलब्द्धि के जरिये राष्ट्रीय विकास में मातृभाषा के योगदान पर चिकित्सकीय दृष्टिकोण )
सृष्टि में जीवन की उत्पत्ति के साथ ही प्रत्येक जीव में वाह्य एवं अंतः संवेदनाओं को ग्रहण करने और उसपर प्रतिक्रिया व्यक्त करने का प्राकृतिक गुण पाया जाता है, जो उनकी विकास क्रम में विविधता के आधार पर अलग अलग होता है। अभिव्यक्ति का यह माध्यम मूक ,आभाषी या भाव भी हो सकता है अथवा इसे स्वर दिया जाये तो भाषिक भी । मस्तिष्क विकास के अनुक्रम में पशुओं से मनुष्य को यह श्रेष्ठता प्राप्त है जो स्थलीय विविधता के आधार पर अलग अलग किन्तु मनुष्य की विशिष्ट पहचान से जुडी है।
जन्म के बाद सृष्टि की कोई भी संतान  अपनी माँ का स्पर्श पहचान कर शांति की जो सुखद अभिव्यक्ति देती है यही इस प्रकृति का सम्भवतः सबसे प्रथम सत्य प्रमाण है, और इस अभिव्यक्ति की जो भी भाषा हो किन्तु पशु से लेकर मनुष्य तक सभी की संततियों का प्रथम उच्चारण केवल एक अक्षर (जिसका क्षरण न हो) होता है "म"=माँ..।

यही अभिव्यक्ति उसकी अबोध अमिश्रित प्राकृतिक भाषा होती है जिसे मातृभाषा कहना सर्वथा उचित रहेगा। समय के साथ माता के अनुरूप ही उसकी सन्तान के सीखने का क्रम शुरू होता है जहां उसका जीवन का सबसे बड़ा विश्वास जुड़ता है ...पिता.. क्योंकि सन्तान जीवन भर माँ के दिए इसी विश्वास पर पितृभाव समर्पित करती है। संसार में आयु बढ़ने के साथ माँ पिता परिवार गुरु समाज के बीच अभिव्यक्ति का जो भी प्रत्यक्ष माध्यम होता है वही उस मनुष्य की मातृभाषा कही जानी चाहिए क्योंकि यह उसमे अंतर्निहित क्षमता का प्राकृतिक विकास होता है जिसमें सहजता, सरलता, बोध और सुग्राह्यता सन्तुलित होती है।
प्रकृति में जीवन का यह दर्शन वैज्ञानिक तर्कों पर सर्वत्र सत्य है किन्तु प्रकृति परिवर्तनशील विविधता का पर्याय है , अनादिकाल से ही अनगिनत संस्कृतियों का विकास और विनाश होता रहा जो जीवनसंघर्ष में विजयी रहीं वे सनातन और समृद्ध रही, भारत उनमे से एक है जो कभी अपने ज्ञान, विज्ञान,धर्म अध्यात्म, दर्शन , गणना के आधार पर विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित रहा।
भारत भावनाओं में रत रहने वालों का देश है इसीलिए हम अपने देश को मातृभूमि कहते हैं, किन्तु राष्ट्रीय प्रतीक, राष्ट्रगान होते हुए भी हमारी राष्ट्रभाषा और राष्ट्र का नाम स्पष्ट घोषित न होना क्या हमारे स्वाभिमान से प्रश्न नहीँ पूछता ...?
यदि पूछता है तो आजादी के 70 वर्षों बाद भी इसका उत्तर जान कर भी दे क्यों नहीं पाये।
आमजन की समझ और बातचीत के लिए, संदेशों ,सूचनाओं , विचारों के आदान प्रदान के लिए विश्व के सबसे समृद्ध शब्दकोश के साथ हिंदी हमारी अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है जिसका प्रयोग जन जन में योग संयोग और सहयोग को बढ़ाता है। वस्तुतः भाषा सीखने की एक प्रक्रिया है जिसमें निपुणता प्राप्त कर व्यक्ति कई भाषाओँ का विद्वान हो सकता है किन्तु अचेतन मन से भी जो अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है वही उसकी मातृभाषा उसकी पहचान उसका सम्मान, स्वाभिमान होती है जिसपर वह अपना स्वामित्व प्रदर्शित करते हुए गर्व का अनुभव करता है।
प्रभावी व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा की भूमिका
मातृभाषा के प्रयोग से अभिव्यक्ति की सरलता , सहजता, के साथ ही व्यक्ति  की वाणी में तार्किक वाक्पटुता, आत्मबल, विश्वास, प्रदर्शन को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है जिससे उसके व्यक्तित्व में मजबूत इच्छाशक्ति, मनःशक्ति का समावेश किया जा सकता है और नकारात्मक विचारो अवसाद की स्थितियों से बचाया जा सकता है।
यदि हम अपने रहने के लिए कीमती घर, भोजन के लिए स्वादिष्ट पौष्टिक  आहार, पहनने के लिए कीमती वस्त्रों का चयन कर सकते हैं तो बोलने के लिए कीमती शब्दों और विचारों का चयन क्यों नही कर सकते।
हिंदी के प्रयोग में हीनता नहीं आत्मगौरव का बोध होना चाहिए
एक भाषा विश्लेषक विद्वान ने एकबार मुझसे कहा हिंदी का सन्धि विच्छेद कीजिये तो इसीमें हीनता का भाव विद्यमान है... मैं साहित्य का छात्र तो नहीँ किन्तु मैंने उन्हें स्पष्ट किया कि हीनता का बोध व्यक्ति के दृष्टिकोण का परिचायक है ...सुख की अभिव्यक्ति आप किसी भी भाषा में कर सकते हैं किन्तु दर्द की अभिव्यक्ति में अक्सर मातृभाषा  ही छलक जाती है .... यह आपकी पहचान है ....इसे बदल नहीँ सकते क्योंकि ये खरीदा हुआ वस्त्र नहीँ आपकी रूह का सामान है जिसके प्रयोग में हीनता का नहीँ आत्म गौरव का बोध होना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण ही किसी भी वस्तु ,व्यक्ति, या  शब्द को श्रेष्ठ या हीन बना देता है । अक्सर पहचान के लिए नाम बदल दिए जाते है किन्तु भौतिकता की चादर ओढ़ लेने से वास्तविकता नहीँ बदल जाती यदि ऐसा सम्भव होता तो अमीरों का नाम बदल के गरीब और गरीबों का नाम अमीर रख दिया जाना चाहिए ...किन्तु क्या ऐसा होने से गरीबी दूर हो जायेगी या किसी समस्या का समाधान हो जायेगा ...बिलकुल नहीँ।इसलिए नाम और पहचान बदलने से बेहतर है दृष्टिकोण बदला जाये।
स्वस्थ और संतुलित समाज के निर्माण में सहायक है मातृभाषा हिंदी
सुग्राह्यता के आधार पर मातृभाषा में संसाधनयुक्त  शिक्षा के माध्यम से बच्चो के अंतर्निहित गुणों का अधिक विकास सम्भव है जिससे नैतिक मूल्यों पर विकसित चारित्रिक युवा पीढ़ी की उपलब्धि समाज को होगी जो एक संतुलित समाज की स्थापना के लिए आवश्यक है । सकारात्मक सृजनात्मक विचार और सम्यक दृष्टिकोण  समाज के बोधजनित असंतुलन को संतुलित कर सकने में सक्षम होंगे तब कहीं जाकर मानसिक प्रदूषणजनित सामाजिक संक्रमण के रोग व्याधियों का समाधान खोजा जा सकता है और इस प्रकार व्यक्ति के समग्र स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष ; उसका सामाजिक स्वास्थ्य प्राप्त हो सकेगा।
तनाव व्यक्ति और समाज दोनों को बीमार बनाकर उसकी कार्यक्षमता को घटा देता है , अतः सही समय और माध्यम में इसकी अभिव्यक्ति और समाधान जरूरी है। तनाव मुक्त समाधान सरलताओं को जटिल करने में नहीँ अपितु जटिलताओं को सरल करने में है।
हिंदी भारत में करोड़ो लोगो की अभिव्यक्ति का सरलतम माध्यम है , यदि सभी कार्य, सूचनाएँ , अध्ययन, संवाद, संसदीय एवं  न्यायिका के कार्य हिंदी में होंगे तो आमजन भी तकनीक का प्रयोग सीखते हुए सरलतम तरीके से अपना समाधान खोज सकेंगे।
उत्पादन और निर्माण के अंतर से प्रशस्त होगा विकासपथ
राष्ट्र के विकास के लिए जरूरी तमाम राजनैतिक आर्थिक व्यवसायिक शोध अध्ययन आविष्कारों आदि की जानकारी हिंदी में उपलब्ध हो तो जिज्ञासु व्यक्ति भी अपने कौशल को विकसित कर राष्ट्र के निर्माण में अपनी श्रेष्ठतम उपस्थिति दर्ज कर सकता है... निश्चित ही निर्माण की इस प्रक्रिया में उसकी सहज अभिव्यक्ति का माध्यम उसकी मातृभाषा हिंदी ही हो सकती है ...जो गणितीय रूप से उत्पादन बढ़ाने में अपरोक्ष रूप से पथ प्रशस्त करती है।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथिक चिकित्सक

कृत्रिम रूप से पके फलों का नियमित सेवन गम्भीर रोगों को न्यौता

उत्तम स्वास्थ्य के लिए चिकित्सक ही ताजे पके मौसमी फलों के नियमित सेवन की सलाह देते हैं, किन्तु बेहतर सेहत की इसी चाहत ने बाजार में फलों की मांग बढ़ा दी है। अब किसानों का भी रुझान फलों की खेती की तरफ बढ़ा है । वातावरणीय दशाओं में बाजार की मांग के अनुपात में पके फलों की उप्लब्धता सम्भव नही है, फिर भी हर मौसम हर तरह के ताजे सुंदर फल सब्जियां बाजार में मिल ही जाते हैं .... तो क्या ये बेमौसम मिलने वाले फल आपकी सेहत बनाने वाले हैं या बिगाड़ने वाले ? इस विषय पर ध्यान देना बेहद जरूरी है कि आखिर बेमौसम कैसे बाजार हमेशा ताजे मौसमी  फलों सब्जियों से गुलज़ार रहते हैं ?



यहां एक और बात समझना भी बेहद जरूरी है कि हमारे देश में सभी जगह सभी फलों या सब्जियों का उत्पादन नही होता इसलिए मांग के अनुरूप व्यावसायिक आपूर्ति के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उन्हें परिवहन के रास्ते पहुचाया जाता है। अतः सुदूर प्रांतों में यदि पके हुए फलों को तोड़ कर भेजा जाये तो वांछित स्थान पर पहुचते पहुचते सारे फल खराब हो जायेंगे अथवा व्यापारी उन्हें ज्यादा समय तक बेंच पाने की स्थिति में नहीँ होंगे। इसीलिए कच्चे ही फलों को भेज कर उन्हें कृत्रिम विधियों के सहारेे पका कर बेंचा जाता है। इन फलों में मुख्यरूप से आम, केला, सेब, तरबूज, पपीता , शरीफा आदि प्रमुख है।
कैसे पकते हैं फल --
फलों को पकाने के लिए ईथीलीन और एसिटलीन गैस का अहम रोल है।
पौधों मे प्राकृतिक रूप से ईथीलीन गैस बनती है जो समयानुसार फलों को पकाती है, और एक पके  फल से भी यह मुक्त हो अन्य फलों के लिए उत्प्रेरक की तरह कार्य करती है तभी सारे खेत के फलों की पकने की क्रिया में तेजी आ जाती है। इस प्रकार ताजे पके हुए फल सब्जियां रंग स्वाद और गुणवत्ता में स्वास्थ्य के लिए उत्तम होते हैं।
किन्तु व्यावसायिक दृष्टि से मांग के अनुरूप आपूर्ति एवं लाभ के लिए उत्पादन एवं फलों को पकाने तक के लिए तमाम कृत्रिम रसायनों, दवाओ,कीटनाशकों का अंधाधुन्ध प्रयोग किया जा रहा है। इनमे से कुछ तो प्रतिबन्धित भी हैं।
क्या प्रयोग करते है कृत्रिम रसायनों में --
फलों सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने के लिए --ऑक्सिटोसिन (आम भाषा में कोकीन,दवाई या पानी के नाम से पहचानी जाती है)
चमकाने के लिए -- कापर सल्फेट
पकाने के लिए --  कैल्सियम कार्बाइड , सोडा वाटर, इण्डो सल्फाइड आदि ।
भारत में फलों जैसे तरबूज ,खरबूज, ककड़ी, खीरा ,पपीता व सब्जियों लौकी, कद्दू ,बैगन आदि का उत्पादन या आकार बढ़ाने के लिए आक्सीटोसिन का उपयोग किया जाता है । यह स्तनधारियों में  पाया जाने वाला हार्मोन है जिसका प्रयोग प्रसव पीड़ा खून बहने दर्द रोकने व दुग्ध उत्पादन के लिए किया जाता है। भारत में यह प्रतिबन्धित है किन्तु पशुओं का दुग्ध उत्पादन के लिए भी चोरी चुपके ऐसे प्रयोग किया जाता है। वैसे तो इसकी अर्ध आयु 24 घण्टे है फिर भी स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव अध्ययन का विषय है।
फलों को पकाने के लिए द्रवित अवस्था में इथेफान या इथेरल का प्रयोग करना चाहिए किन्तु यह मंहगे होने के कारण फल विक्रेता अक्सर कैल्सियम कार्बाइड का प्रयोग किया जाता है। यह वेल्डिंग गैस अथवा गोला बारूद बनाने के लिए प्रयोग की जाती है। वैज्ञानिक फ्रेडरिक व्होलर के अनुसार यह पानी के साथ रसायनिक क्रिया से ईथीलीन के सदृश एसिटलीन गैस बनती है जो स्वास्थ्य केलिए अधिक नुकसानदेह है।
कैसे पहचानें --
सामान्य आदमी के लिए इनकी पहचान कठिन है फिर भी कृत्रिम रूप से पके फल चटख रंग के  कम स्वादिष्ट और बाहर से पके किन्तु अंदर से अधपके से होते हैं।
क्या हैं स्वास्थ्य के लिए खतरे --
प्राकृतिक रूप से पके फलों में कैल्सियम , आयरन, फाइबर, विटामिन आदि पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में होते हैं जबकि कृत्रिम रूप से पके फलों में इनकी न्यूनता होती है।
ऐसे फलों के नियमित सेवन से त्वचा, श्वसन, पाचन, प्रजनन, किडनी, हृदय , आँख,एवं नर्वस सिस्टम से जुडी गम्भीर बीमारियां या कैंसर होने की सर्वाधिक सम्भावना हो सकती है|
क्या है लक्षण
गले में खराश, जलन,मुँह आंतो में छाले, मितली, उलटी, पेट दर्द, गैस, शरीर में एलर्जी, डायरिया, नकसीर, आदि लक्षण हो सकते है।
प्रतिरक्षा तन्त्र में कमी से संक्रमक रोगों का भी खतरा बढ़ जाता है।
क्या करें--
पके शरीफे से प्रचुर मात्र में ईथीलीन मुक्त होती है अतः इसे कच्चे फलों के बीच रख देने से उससे निकलने वाली गैस अन्य फलों के लिए उत्प्रेरक का कार्य करती है। अथवा लिक्विड एथेरल का प्रयोग किया जा सकता है। पैरा या पुआल में भी फलों को एकसाथ रखकर पकाया जा सकता है।
क्या है होम्योपैथी में उपचार
होम्योपैथी में फलों की विषाक्तता से उतपन्न लक्षणों के आधार पर आर्स, चयन, लाइको, मर्क  , पेट्रोलियम, टेल्यूरियमआदि उपयुक्त औषधियों का प्रयोग चिकित्सक की सलाह अनुसार कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी