इस देश के आदर्श श्रीकृष्ण हैं कोई कन्हैया कुमार नही
ऐसा घर जहां परिवार संयुक्त रूप से रहता हो और उसका एक मुखिया हो सभी सदस्य उसका सम्मान करते हों ..उसमे अक्षुण विश्वास रखते हों तो वहां सदैव संस्कारों का पोषण होता है, प्रत्येक सदस्य को अपनी मर्यादा और रिश्ते की गरिमा का ध्यान रहता है ..सब एक दुसरे से प्रेम करते हैं सामन्जस्य बना रहता है.। परिवार की एकता में यूँ तो किसी बाहरी के हस्तक्षेप की सम्भावना कम ही रहती है किन्तु यदि कभी ऐसी विपरीत परिस्थिति आ भी जाये तो मिलकर उसे दूर करना सहज होता है। समाज में उसे आदर्श परिवार, खानदान का सम्मान मिलता है। ऐसे आदर्श परिवार का अर्थ यह कदापि नहीँ कि वहां मुखिया का भय सबपर हावी होता है बल्कि उनकी स्वतन्त्रता उनके अनुशासित मर्यादित आचरण में अभिव्यक्त होती है। सभी को एक दुसरे की भावनाओं का ख्याल रहता है ..नैतिक मूल्यों पर निर्मित व्यक्तित्व इतना कोमल होता है कि वह किसी की भावनाओं को आहत करने का विचार नही करता । यदि उसी परिवार में कोई सदस्य अपने मापदण्ड स्वयं निर्धारित करने लगे अथवा उसकी शिक्षा दीक्षा परिवार के संरक्षण से दूर कहीं हुई हो तो उस मन में स्वछँदता के भाव पनपना भी स्वाभाविक है , किन्तु इसमे भी दो सम्भावनाएं हैं एक तो यह कि वह अन्य सभी से अधिक ज्ञानी है अथवा मूर्ख..क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में कोई ऐसी अंतः या वाह्य प्रेरणा अवश्य कार्य करती है जो उसकी अनुचित महत्वाकांक्षा को जागृत करने का साधन बनती है ।संभवतः इसकी तीव्रता ही उसे पहले तो विरोधी और फिर विद्रोही बना देती है। वह अपने ही परिवार के सदस्यों को हीन भाव से देखता है और अपने सम्मान को उनसे बड़ा अधिकार मानने लगता है , सदस्यों का प्रेम उसे दिखावा , छलावा लगता है, उनकी सहनशीलता और क्षमा उसे कमजोरी लगती है इसलिए वह उनकी भावनाएं लगातार कुचलता जाता है यहां तक कि उन्हें चुनौती दे बैठता है यही कलह उसे विद्रोह बना देती है। ऐसी परिस्थिति के समय परिवार की प्रगति से इर्ष्याभाव रखने वाले पड़ोसी या बाहरी व्यक्तियों का मन प्रसन्न हो सकता है और कुचेष्टा रखने वाले लोग तो परिवार के उसी विद्रोही सदस्य से सहानुभूति दर्शाकर आग में घी डालने का कार्य करते ही हैं, क्योंकि उन्हें स्पष्ट दीखता है कि यदि यह आग जलती रही तो एक दिन यह कुनबा स्वयं जल जायेगा और उनकी तीली भी बच जायेगी..।
लेकिन इस पूरे चक्र को घूमने से रोका जा सकता था यदि शिक्षा के समय माता पिता अपने बच्चे की नियमित प्रगति रिपोर्ट देखते, उसकी गलतियों को नजरअंदाज करने की बजाय उसमे सुधार लाते, उसकी संगत पर नजर रखते उसे शब्दों की मर्यादा सिखाते , उसे रिश्तों के आदर्श और उनकी गरिमा समझाते...उसे स्वतन्त्रता और स्वछंदता में अंतर करना सिखाते।
और फिर भी ऐसा होता तो उसे समय पर उसकी गलतियां बताकर सुधरने का समय दे सकते हैं न मानने पर उसकी गलत बातों, विचारो, उद्देश्यों पर मोहवश , मर्यादावश या उदासीनता वश मौन समर्थन न देकर उनका उचित प्रतिकार या बहिष्कार करते। जितना जरूरी है कि यदि शरीर में या त्वचा पर कोई रोग फुंसी हो जाये तो उसे शरीर का हिस्सा मानकर नजरअंदाज करने की बजाय सही चिकित्सक से परामर्श लेकर उसका समय पर उपचार कर लिया जाये वरना एक समय तो आपको वह फुंसी स्वयं ही सूखी हुयी लगेगी मगर उसमें कभी कभी मवाद आती रहेगी ।यही अवस्था तो नासूर बन जाती है।
मैं घर परिवार को समाज राज्य या राष्ट्र की इकाई के रूप में देखता हूँ इसलिए उपरोक्त जो भी बातें घर परिवार के सन्दर्भ में सही लगती हैं वही राष्ट्र के संदर्भ में भी सही होनी चाहिए। क्योंकि राष्ट्र बड़ा है उसमे रहने वाले परिवार व सदस्यों की संख्या अधिक है इसलिए वहां बहुमत से मुखिया का चुनाव होता है व्यवथाओं के सुचारू रूप से संचालन के लिए विभिन्न स्तरों पर जिम्मेदारियों का बंटवारा होता है ।परिवार बड़ा हो तो व्यक्ति के विचार मान्यताओं और उत्पन्न होने वाली विषमताओं में विविधतायें भी अलग होंगी, मगर यहां भी एक बात तो बिल्कुल वैसी ही है कि राष्ट्र परिवार में प्रत्येक सदस्य की आस्था विश्वास कैसा और कितना है। जब परिवार का कोई सदस्य नकारात्मक विचार और प्रवृत्ति से प्रभावित हो अभिव्यक्ति के नाम पर स्वतन्त्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है तो प्रश्नचिन्ह उसके पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था पर भी लगता है जिसने उसके अंतःकरण में ऐसी नकारात्मक प्रवृत्ति को पनपने और फलने फूलने का पर्याप्त अवसर दिया, और फिर प्रश्नचिन्ह परिवार के उन जिम्मेदार सदस्यों पर भी लगता है जो स्वार्थवश उसकी इस मनोवृत्ति को बढ़ावा देने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन देते हैं। अक्सर तटस्थ या मौन भी इन नकारात्मक वृत्तियों का समर्थन ही माना जाना चाहिए क्योंकि इसे वह विकृत व्यक्ति अपनी स्वीकृति के रूप में परिवर्तित कर सकने के प्रति आशावान हो सकता है।
इन विसंगतियो से बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियों का बोध होना आवश्यक है। प्रथम तो हमे स्वयं अपने बच्चों में परिवार, समाज व राष्ट्रभाव के प्रति आस्था के विचारों का पोषण करना चाहिए जिससे जब उसकी उपलब्द्धि समाज और राष्ट्र को हो उसकी सकारात्मक विचार ऊर्जा राष्ट्रनिर्माण में लग सके उसमे अवरोधी या विरोधी न हो। और द्वितीय निष्पक्ष रूप से ऐसी मानसिकता का बहिष्कार कर उसे अलग थलग छोड़ दें जिससे उसे स्वयं की अस्वीकृति के साथ आत्ममूल्यांकन का अवसर भी मिल सके।किंतु यदि इस तरह की नकारात्मक बौद्धिकताओं को मौन या मुखर समर्थन घर में ही मिलता रहा तो उत्पन्न विसंगतियों पर कुचेष्ट पड़ोसियों को आनन्द ही आएगा और आपको कमजोर करने की उनकी अभिलाषा की पूर्ति में उन्हें शक्ति के प्रयोग की आवशयक्ता भी न होगी।
स्पष्ट तर्क है जैसी अभिव्यक्ति हमें अपने परिवार में स्वीकार नहीँ वैसी ही अभिव्यक्ति राष्ट्र के सन्दर्भ में कैसे स्वीकृत और समर्थित हो सकती है।
शरीर की छोटी सी फुंसी या रोग होने पर यदि समय रहते उसका इलाज योग्य चिकित्सक की देखरेख में हो तो शरीर के निरोगी होने की सम्भावना रहती है अथवा उसे नजरअंदाज किये जाते रहने पर भविष्य में उसके नासूर बन जाने , जटिल या असाध्य हो जाने में कोई संशय नही रखना चाहिए।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी















