गाने में जो बोल हैं..."साँस आती है साँस जाती है..." विज्ञान में इसे ही श्वसन कहते हैं और इसे पूरा करने में सहायक अंगों को मिलाकर श्वसन तंत्र बनता है।
जिसका मूल कार्य वातावरण से प्राणवायु (आॅक्सीजन) को ग्रहण करके मानव शरीर के विभिन्न अंगों की कोशिकाओं को भेजना एवं शारीरिक क्रियाओं के चलाने के लिए इन कोशिकाओं में सम्पन्न रसायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न कार्बन-डाई-आक्साइड व अन्य अशु़द्ध गैसों को रक्त से श्वसन क्रिया द्वारा बाहर निकालना है। श्वसन प्रक्रिया के दौरान वायुमण्डल से आक्सीजनयुक्त ताजा हवा को नाक, गले कण्ठनी व अन्य श्वांस नलियों (नैजल कैविटी, फेरिंग्स, लेरिंस, ट्रेकिया, ब्रोंकाई एवं ब्रोन्कियोलस) के जरिये श्वांस कोशिकाओं (एलवियोलाई) तक पहुँचाया जाता है, जहां इनकी दीवारों के सहारे सूक्ष्म रक्तवाहिनियों (केपीलेरीज) में मौजूद रक्त द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करके अशुद्ध रक्त द्वारा लाई गई कार्बनडाईआक्साइड को श्वांस कोशिकाओं में छोड़ दी जाती है जंहा से यह अशुद्ध वायु श्वांस निकालने की प्रक्रिया (एक्सपीरेशन) के जरिये फेफड़ों से बाहर वातावरण में छोड़ दी जाती है।
श्वसन तंत्र की संरचना-
इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए हमारे श्वसन तंत्र को तीन भागों में विभक्त किया जाता है।
1. नाक, मुंह, गला (नेजो फेरिंग्स)
2. श्वांस नली (ट्रेकिया, ब्रोन्काई, एवं ब्रोन्क्योल)
3. श्वसन ईकाई क्षेत्र (पल्मोनरी रीजन)
श्वसन तंत्र से जुडी महत्वपूर्ण बातें -
हमारे दोनों फेफड़े बड़े हल्के स्पंजी एवं इलास्टिक होते हैं, और पसलियों से बने कटघरे में सुरक्षित रहते हैं।
जन्म के समय फेफड़ों का रंग हल्का गुलाबी होता है जो आयु के साथ साथ प्रदूषित वायु में उपस्थित कार्बन के जमने से काला पड़ जाता है।
सामान्यतया एक स्वस्थ व्यस्क में प्रतिदिन लगभग 1000 लीटर खून का फेफड़ों में शुद्धिकरण होता है यह प्रक्रिया जीवन प्रयन्त निरंतर चलती रहती है।
एक स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में 10 से 20 बार सांस अन्दर लेकर बाहर निकालता है।
हर सांस में तकरीबन 250 से 450 मि.ली. वायु का आदान प्रदान होता है।
छोटे बच्चों में बड़ों के मुकाबले श्वास गति तेज होती है।नवजात शिशुओं (30 से 40 प्रति मिनट)
अन्दर जाने वाली वायु में नाईट्रोजन 78 प्रतिशत, आक्सीजन 21 प्रतिशत के अलावा गैसे एवं भाप आदि मौजूद रहते है।
सांस बाहर निकालने की प्रक्रिया में बाहर निकाली गई वायु में कार्बनडाई आक्साइड 4 से 5 प्रतिशत बढ जाती है व आक्सीजन 4 से 5 प्रतिशत कम हो जाती है।
रोगों के सामान्य कारण-
शराब, तम्बाकू, धूम्रपान, धूल, धुंआ, आनुवंशिक, या पारिवारिक कारण, मोटापा, डायबिटीज, पुराने गुर्दे के रोग, हृदय रोग, एलर्जी आदि।
रोगोत्पत्ति की सामान्य पैथोलॉजी-
व्यक्ति में कुछ विशेष वाह्य प्रोटीन्स (धूल, धुएं, सुगन्ध,या सूक्ष्म संक्रमण आदि) के प्रति एंटीजन एंटीबॉडी की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप अस्वीकृति के रूप प्रदर्शन होता है जिसे एलर्जिक रिएक्शन कहते है।
कुछ ऐसे ही वाह्य कारक एरिटेंट कहलाते है। किसी वाह्य संक्रामक कारक या ताप अथवा वातावरणीय कारकों से नाक की अंतः झिल्लियों में सबसे पहले हल्की सूजन आती है जिसे इंफ्लामेशन कहते है इसके कारण स्रावण बढ़ जाता है, यदि श्वसन तंत्र के ऊपरी भाग में यही सूजन रहती है तो सामान्य सर्दी, जुकाम,नाक बहना आदि के लक्षण मिलते है, यदि यह सूजन गले तक बढ़ती है तो गला बैठना (लैरिंजाइटिस) , या साँस लेने में कष्ट, दमा, खांसी आदि के लक्षण दिख सकते है, और जब फेफड़ों में जाए तो प्लूरिसी या प्लुरल एफ़्यूसन आदि के लक्षण मिलते हैं। यदि समय पर उपचार न मिले और कोई संक्रमण फेफड़ो के किसी भाग में रुक जाए तो हीलिंग अवस्था में वहाँ फाइब्रोसिस हो सकती है, बाद में यही अवस्था फोड़ा बन सकता है, पस बन सकती है या कैंसर,में भी बदल सकता है।
श्वसन तंत्र के सामान्य रोग -
सामान्य सर्दी जुकाम, गला बैठना, ब्रोंकाइटिस, इन्फ़्लुएन्ज़ा, न्यूमोनिया, फोड़ा, टी.बी., दमा, एम्फाइसिमा, सी.ओ.पी.डी., कैंसर, प्लुरल एफ्यूजन, रेस्पिरेटरी फेल्योर, एम्पाईमा आदि व अन्य सन्क्रमणजनित रोग।
सामान्य लक्षण-
फेफड़ों की संरचना बिगड़ने एवं कार्यप्रणाली प्रभावित होने से खांसी;सूखी या बलगम सहित, खून आना, साँस लेते समय सीने में दर्द, साँस लेने में कठिनाई, लेटने पर तकलीफ बढ़ जाना, साँस के साथ सीटी सी आवाज आना, सांस फूलना, शरीर का नीला पड़ना (सायनोसिस), बलगम आना,आदि लक्षण श्वसन तंत्र के अनेक कष्टदायक एवं जान लेवा परिस्थितियों का संकेत करते हैं, जिनके निदान हेतु तुरन्त चिकित्सकीय परामर्श लेना आवश्यक है।
सामान्य जांचे-
थूक या बलगम कल्चर, खून की जाँच, सेरोलॉजिकल टेस्ट, ब्रोंकोस्कोपी, रेडियोलॉजिकल जांचे, एक्स रे, पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट , बायोप्सी, सी टी स्कैन, आदि जाँच एवं चिकित्सक के परीक्षण के जरिये श्वसन तंत्र की बीमारी का कारण या पहचान की जाती है।
होम्योपैथिक औषधियां
आर्स, बेल, जेल्स, एपिस, एंटीम टार्ट, पोथॉस, ब्लाटा, कोका, कैल्केरिया, ब्रायोनिया, स्टिक्टा पल्मो, युपेटोरियम, एलियम, बॉलसेमम, आदि।
क्या बरतें सावधानियां-
रोगी व्यक्ति को मानसिक परेशानी, तनाव, क्रोध तथा लड़ाई-झगड़ों से बचना चाहिए।
सादा भोजन करना चाहिए।इस रोग को ठीक करने के लिए कई प्रकार के क्षारधर्मी आहार नमकीन, खारा, तीखा तथा चरपरा आलू, साग-सब्जी, सूखे मेवे, चोकर समेत आटे की रोटी, और सलाद आदि का सेवन करना चाहिए।
रोगी को सूखी खांसी हो तो उसे दिन में कई बार गर्म पानी पीना चाहिए और गरम पानी की भाप को नाक तथा मुंह द्वारा खींचना चाहिए।
रोगी व्यक्ति को सुबह प्राणायाम करना चाहिए ,खुली हवा में टहलना चाहिए
लाभदायी आसन करें - योगमुद्रासन, मकरासन, शलभासन, अश्वस्थासन, ताड़ासन, उत्तान कूर्मासन, नाड़ीशोधन, कपालभांति, बिना कुम्भक के प्राणायाम, उड्डीयान बंध, महामुद्रा, श्वास-प्रश्वास, गोमुखासन, मत्स्यासन, उत्तानमन्डूकासन, धनुरासन तथा भुजांगासन आदि।
सप्ताह में कम से कम 2 बार पानी में नमक मिलाकर उस पानी से स्नान करना लेना चाहिए।
पीड़ित रोगी की रीढ़ की हड्डी पर मालिश,कमर पर सिंकाई , और छाती पर गर्म पट्टी से सेकने से रोगी को आराम मिलता है और उसका रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
इस रोग से पीड़ित रोगी को ध्रूमपान, लेसदार पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए ।
दमा
जब किसी व्यक्ति की सूक्ष्म श्वास नलियों में कोई रोग उत्पन्न हो जाता है तो उस व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होने लगती है जिसके कारण उसे खांसी होने लगती है। इस स्थिति को दमा रोग कहते हैं।
दमा रोग होने का कारण -
औषधियों का अधिक प्रयोग करने के कारण कफ सूख जाने ,खान-पान के गलत तरीके ,मानसिक तनाव, क्रोध तथा अधिक भय से,नशीले पदार्थों का अधिक सेवन , खांसी, जुकाम तथा नजला रोग, नजला रोग होने के समय में संभोग क्रिया करने, भूख से अधिक भोजन खाने से, मिर्च-मसाले, तले-भुने खाद्य पदार्थों तथा गरिष्ठ भोजन करने ,फेफड़ों में कमजोरी, हृदय में कमजोरी, गुर्दों में कमजोरी, आंतों में कमजोरी तथा स्नायुमण्डल में कमजोरी हो जाने के कारण दमा रोग हो जाता है।
दमा रोग के लक्षण-
दमा रोग से पीड़ित रोगी को रोग के शुरुआती समय में खांसी, सरसराहट और सांस उखड़ने के दौरे पड़ने लगते हैं।दमा रोग से पीड़ित रोगी को वैसे तो दौरे कभी भी पड़ सकते हैं लेकिन रात के समय में लगभग 2 बजे के बाद दौरे अधिक पड़ते हैं।दमा रोग से पीड़ित रोगी को कफ सख्त, बदबूदार तथा डोरीदार निकलता है।दमा रोग से पीड़ित रोगी को सांस लेने में बहुत अधिक कठिनाई होती है।सांस लेते समय अधिक जोर लगाने पर रोगी का चेहरा लाल हो जाता है।
स्मृति आधारित स्वानुभूत केस -
होम्योपैथी रोग की चिकित्सा नहीं की जाती व्यक्ति को रोग में तलाशने का विज्ञान है, यहाँ कुछ केस प्रस्तुत कर रहा हूँ जिनके पूर्ण विवरण के स्थान पर केवल उन लक्षणों को उल्लिखित कर रहा हूँ जिन्होंने दवाओं के चयन में उचित मार्गदर्शन किया।
केस 1
नेशनल एकेडमी ऑफ होम्योपैथी में डा आदिल चिंथानवाला सर के पास एक 65 वर्षीय महिला जिसे साँस लेने में बहुत तकलीफ थी, सुनने पर घड़ घड़ की आवाज सुनाई देती थी, उसे एंटीम टार्ट 200 की 4 बूँद से डिस्टिल वाटर के साथ नोबुलाइजेशन विधि का प्रयोग किया गया, और यह हमारे लिए बेहद सुखद आश्चर्य था कि कुछ ही समय में महिला स्वस्थ हो गयी थी। होम्योपैथी में औषधि का आकस्मिक स्थिति में ऐसे प्रयोग और उसके प्रभाब का यह अनूठा प्रदर्शन था।
केस दो-
लगभग 3 वर्ष पूर्व एक 72 वर्षीय बृद्ध को दमे की शिकायत थी, लगभग सभी लक्षण रोग के ही थे, काफी देर बाद उसने बताया उसे लेटने पर आराम मिलता है, यह लक्षण दमे के रोगियों के लिए असामान्य है, किन्तु होम्योपैथी के लिए महत्वपूर्ण। उसे सोरिनम 200 की तीन खुराक और 15 दिन के लिए प्लेसेबो दी गयी। फिर एक दिन वह पता पूछते हुए जब हमारी क्लिनिक पर आया तो अपने साथ हमारे लिए ढेरों आशीष और दुआएं लाया था।
केस 3- सूरत में साड़ी की रँगाई करने वाले 45 वर्षीय एक पुरुष जिसे बीड़ी पीने की आदत थी, साँस लेने में पसलियों के पास चुभन का दर्द होता था और मेहनत करने पर साँस फूलने लगती थी, कभी कभी हल्का बुखार आ जाता था, प्यास नहीँ लगती थी। लक्षणों के आधार पर उसे एपिस 30 चार बूँद 5 दिन के लिए दी गयी, दुसरे ही दिन से उसे लाभ होने शुरू हो गया था।
केस 4- एक छात्र 19 वर्षीय जिसे वर्षो से नाक से पनीला स्राव होता रहता था, जाँच में इस्नोफील नम्बर बढ़ गया था, धूल, धुएं में लगातार छींक आती थी, आर्सेनिक 200 की एक खुराक के 3 दिन बाद 7 दिनों के लिए एलियम सिपा 30 चार बूँद दिया गया। अब भी जब कभी उसे जुकाम आदि होता है तो एक्यूट मेडिसिन से आराम हो जाता है, किन्तु पुरानी समस्या एक वर्ष से दोबारा नही आई।
केस 5- एक मंदिर के पुजारी जिन्हें ठंडक में यात्रा करने से स्वरभंग की समस्या होगयी थी, एलोपैथिक दवाओं के बाद कोई लाभ न हुआ तो त्वरित लाभ हेतु कोका मदर टिंक्चर 10 -10 बूँद 15 मिनट के अंतर पर 3 बार दिया गया और संतोषजनक बात रही कि आधे पौन घण्टे में उनकी आवाज पुनः वापस आ गयी।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथिक चिकित्सा सेवा
द प्रतिष्ठा होम्योपैथी
फैज़ाबाद