चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Monday, 19 June 2017

त्रिदोष नाशक योग : होम्योपैथी ,आयुर्वेद , योग

स्वस्थ जीवन में तीन महत्वपूर्ण बातें-

जीवन - शरीर मस्तिष्क और प्राण।
रोग - विचलन, कार्यिकी, और शल्य रोग।
रोगी अवस्था - एक्यूट, सब एक्यूट, क्रानिक।
उपचार- नियमन, औषधि, शल्य क्रिया।
तरीके - योग, होम्योपैथी और आयुर्वेद।

भारतीय संस्कृति में प्रकृति को मातृभाव से देखा जाता है क्योंकि इसने अपने विभिन्न उपादानों में प्राणियो के पोषण के उपयुक्त पोषक तत्व डाल रखे हैं । अनादिकाल से हमारे ऋषि मुनि (वर्तमान में भी जो) योग और आयुर्वेद के माध्यम से इसके सहचर्य में रहे है आधुनिक जीवन शैली के रोग दोष से मुक्त हैं। 
भारतीय दर्शन एवं विज्ञान में जीवन का चित्रण बड़ा सरल भी है और जटिल भी। इसके अनुसार शरीर, चेतना और मन सभी का आधार "प्राण" है । प्राण का तात्पर्य श्वास और श्वास का तात्पर्य प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन से है। अतः शरीर के प्रत्येक सूक्ष्मतम अवयव तक निष्पन्न होने वाले कार्यों को पूरी मात्रा में ऑक्सीजन या प्राण देकर शरीर के आंतरिक अवयवों को व्यायाम देने की पूर्णता ही प्राणायाम है।

स्वास्थ्य के लिए भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टि में स्पष्ट यह अंतर है कि एलोपैथी में जब रोगी आता है तो उसे हृदय रोगी,श्वास रोगी,उदर रोगी आदि की श्रेणियों में बाँट दिया जाता है क्योंकि आधुनिक चिकित्सा का सत्य क्लीनिकल कण्ट्रोल ट्रायल पर आधारित है जहां सत्य का अन्वेषण एक चुनौती भरा दायित्व है। ऐसेमें केवल योग आयुर्वेद और होम्योपैथी में ही स्वास्थ्य का विचार करते समय शरीर, विचार, भावना, जलवायु परिवेश , आदि को महत्वपूर्ण माना जाता है।

क्या है स्वास्थ्य

चरक के अनुसार जिसका त्रिदोष वात पित्त कफ़,व सप्तधातु मल प्रव्रत्ति आदि क्रियाएँ  संतुलित अवस्था में हों साथ ही आत्मा इन्द्रिय एवं मन प्रसन्न  में हो वही मनुष्य स्वस्थ कहलाता है। 
होम्योपैथी में भी शरीर ,मस्तिष्क व जीवनी शक्ति (भारतीय अध्यात्म के अनुसार आत्मा) का सन्तुलन ही स्वास्थ्य   है।
इनका असन्तुलन ही रोग का कारण  है। भारतीय दर्शन के अनुसार रोग दो प्रकार के होते है 
पहला आधि अर्थात मन के रोग
दूसरा व्याधि अर्थात शरीर के रोग ।

एक दृष्टान्त के अनुसार योग वशिष्ठ में रोगों का विश्लेषण करते हुए महर्षि वशिष्ठ श्री राम से रोग दो प्रकार के बताये एक आधीज जिसमे दुनिया के दैनिक व्यवहार करते समय उपन्न होने वाले तनाव के फलस्वरूप सामान्य रोग होते है जिनमे आरोग्य का साधन प्राकृतिक चिकित्सा अथवा योग ही हैं। अथवा सार अर्थात जन्म एवं मृत्यु जिनसे सभी को गुज़रना है।
दुसरे प्रकार का रोग जो आकस्मिक या वाह्य कारणों चोट संक्रमण आदि से उतपन्न हो सकते हैं ।
आधीज व्याधि में कैसे बदल जाती है ?
श्रीराम के इस प्रश्न के उत्तर में वशिष्ठ जी ने जो व्यख्या बताई होम्योपैथी उस कसौटी पर भी खरी उतरती दिखती  है। महर्षि वशिष्ठ ने कहा " मनुष्य के मन में लालसाएं वासनाएं होती है उनकी पूर्ति न होने पर मन क्षुब्ध होता है, मन के क्षुब्ध होने से प्राण और क्षुब्धप्राण के नाड़ी तन्त्र में प्रवाहित होने से स्नायु मण्डल अव्यवस्थित हो जाता है और शरीर में कुजीर्णत्व अजीर्णत्व होता है इसी कारण कालान्तर में शरीर में खराबी आ जाती है इसे ही व्याधि कहते है।

भावना तथा विचार की शुद्धि व नियमन हेतु विशेष रूप से योग विज्ञान उपयोगी है।

शरीर के स्तर पर चिकित्सा हेतु आयुर्वेद व अन्य चिकत्सा पद्धतिया उपयोगी हो सकती हैं। स्वस्थ शरीर में रोग की उत्पत्ति और उसके निदान के विषय में योग आयुर्वेद एवम् होम्योपैथी में जो सैद्धांतिक एकरूपता दिखती है उसके अनुसार " मनुष्य तभी स्वस्थ है जब तक  जीवनी शक्ति (आत्मा, जैविक ऊर्जा,प्राण) के नियंत्रण में शरीर व मस्तिष्क, तीनो सन्तुलन की अवस्था में हैं । मनुष्य में अदृष्य जीवनी शक्ति या प्राण  में  दैनिक जीवन के तनाव भावनाओं की चोट,विचार आदि से न्यूनता आती है और शरीर रोग के लिए प्रवृत हो जाता है।इस प्रकार रोग का कारण डायनामिक शक्तिया है जिनका नियमन डायनामिक औषधीय तरीकों से हो सकता है।" 

योग द्वारा शरीर मन और चेतना तीनों में सन्तुलन स्थापित होता है जो स्वास्थ्य की प्रथम शर्त है।
अनेक असाध्य या दुःसाध्य प्रकार की श्रेणी में आने वाले रोगों के इलाज में व्यक्ति आधारित प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में आयुर्वेद तो महत्वपूर्ण है ही किन्तु होम्योपैथी में आयुर्वेद के समः समे शमयति एवं मर्दनम गुण वर्धनम के सिद्धांत के अनुरूप विषैले एवं निष्क्रिय पदार्थों को औषधीय क्षमता में गुणात्मक वृद्धि कर सकने के तरीके में ऐसे सबसे अत्याधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति की अग्रपंक्ति में ला खड़ा करते हैं।

मन की तमाम स्थितयों हर्ष विषाद दुःख घृणा प्रेम उपेक्षा चिंता अवसाद तनाव आदि का जितना महत्व होम्योपैथी की औषधि चयन में है उतना ही महत्वपूर्ण योग का जीवन की इन मनः स्थितयों में संयम स्थापित करने में है। योग शरीर मन और चेतना में एकरूपता ला कर जीवन में ऊर्जा के संचार को नियंत्रित कर हमे मानसिक और शारीरिक रूपसे स्वस्थ बनाता है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
राष्ट्रीय सचिव :होम्योपैथिक मेडिकल एसोसिएशन
HMA

Tuesday, 13 June 2017

हमारी शक्तियों के अंशदान से शक्तिकृत होता है संगठन

कोई भी संगठन उसके सदस्यों (व्यक्तियों) से समर्पण, सहभागिता, निष्ठा, सक्रियता का कुछ अंश लेकर ही शक्तिकृत हो पाता है, अर्थात यह परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जो सतत गतिशील रहे और बढ़ती रहनी चाहिए।इसलिए सदस्यता व नियमित बैठकों में उपस्थिति संगठन के वैचारिक शक्तिकरण का स्रोत बनती हैं , जिसमे सबसे पहले " मैं " का "अलगाववादी भाव", "हम"की समर्पित समादर की निष्ठा से विस्थापित होता है । क्योंकि जब हम किसी संगठन के सदस्य होते हैं तो वह हमारे परिवार जैसा हो जाता है जिसमें सहयोग तो स्वेच्छा से होता है किंतु उद्देश्य की प्रेरणा से निर्दिष्ट होता है।
जैसे अपने शरीर को स्वस्थ ह्रष्टपुष्ट बनाने के लिए हम यत्न करते हैं और समय पर रोगों या विपत्तियों से लड़ सकने योग्य बना लेते है वैसा ही योगदान यदि संगठन के शक्तिसंवर्धन में करें तो निश्चित रूप से यथासंभव प्रभावी तरीके से स्वयं की अपने परिवार, समाज, संगठन को जीवंत रख पाएंगे।
शब्द ब्रह्म हैं, इनकी ऊर्जा सकारात्मक या नकारात्मक वातावरण का निर्माण करती है, हम उसी वातावरण में रहना चाहते हैं जहां मन को शांति का अनुभव हो कलुषता या क्लिष्टता न हो, इसलिए ऐसे वातावरण का निर्माण भी हमें ही करना होगा। कर्तव्यपरायण होकर ही अधिकार प्राप्त किया जा सकता है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

हमारी शक्तियों के अंशदान से शक्तिकृत होता है संगठन

कोई भी संगठन उसके सदस्यों (व्यक्तियों) से समर्पण, सहभागिता, निष्ठा, सक्रियता का कुछ अंश लेकर ही शक्तिकृत हो पाता है, अर्थात यह परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जो सतत गतिशील रहे और बढ़ती रहनी चाहिए।इसलिए सदस्यता व नियमित बैठकों में उपस्थिति संगठन के वैचारिक शक्तिकरण का स्रोत बनती हैं , जिसमे सबसे पहले " मैं " का "अलगाववादी भाव", "हम"की समर्पित समादर की निष्ठा से विस्थापित होता है । क्योंकि जब हम किसी संगठन के सदस्य होते हैं तो वह हमारे परिवार जैसा हो जाता है जिसमें सहयोग तो स्वेच्छा से होता है किंतु उद्देश्य की प्रेरणा से निर्दिष्ट होता है।
जैसे अपने शरीर को स्वस्थ ह्रष्टपुष्ट बनाने के लिए हम यत्न करते हैं और समय पर रोगों या विपत्तियों से लड़ सकने योग्य बना लेते है वैसा ही योगदान यदि संगठन के शक्तिसंवर्धन में करें तो निश्चित रूप से यथासंभव प्रभावी तरीके से स्वयं की अपने परिवार, समाज, संगठन को जीवंत रख पाएंगे।
शब्द ब्रह्म हैं, इनकी ऊर्जा सकारात्मक या नकारात्मक वातावरण का निर्माण करती है, हम उसी वातावरण में रहना चाहते हैं जहां मन को शांति का अनुभव हो कलुषता या क्लिष्टता न हो, इसलिए ऐसे वातावरण का निर्माण भी हमें ही करना होगा। कर्तव्यपरायण होकर ही अधिकार प्राप्त किया जा सकता है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Tuesday, 6 June 2017

फरेब के भरोसे

बहुत करीब के जो लोग फरेब किया करते हैं,
अक्सर स्वाभिमान का सौदा किया करते हैं।
जिनके तसव्वुर में ईमान सिर्फ चंद सिक्के हैं,
अच्छी कीमत हो तो रिश्ते को बेंच दिया करते हैं।
उनकी खामोशी में बात दब गई समझते है जो,
भूल जाते हैं कि अक्सर काम बोल दिया करते हैं।
वक्त से सबक नही लेते,जो वक्त पर
वक्त के इम्तेहान उन्हें अक्सर तोड़ दिया करते हैं।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Friday, 2 June 2017

किशोरमन: कैसे हो साइकोलॉजिकल एडजस्टमेन्ट ; नियंत्रण और अनुशासन दोनो जरूरी


अत्याधुनिक विकसित कथित सभ्य समाज मे  संसाधन जुटा देने और समय पर आवश्यकताओं की पूर्ति ही माता पिता की दायित्वपूर्ति माना जाने लगा है किंतु इसमें जिस तरह भाव का भाव बदला है वह रिश्तों के अर्थ को अर्थ से जोड़ कर अर्थहीन बना रहा है।





किशोरावस्था के बारे में ढेरों बातें लिखी पढ़ी सुनी और कही जाती है । कवियों ने जिसे अल्हड़ मदमस्त जबरदस्त कहा , यह वास्तव में वह उम्र होती है जब विकास के क्रम में शरीर मन और जीवन तीनो में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते है साथ ही , किसी परिवार से समाज मे एक व्यक्तिव भी पदार्पण को तैयार हो रहा होता है। भविष्य के समाज निर्माण में इस उम्र की भूमिका अहम होती है, इसलिए इस समय परिवार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है । इस बात को एक दूसरे दृष्टिकोण से भी देख सकते हैं जैसे परिवार में जन्म से पूर्व 9 माह का गर्भकाल होता है और सन्तान के निर्माण के लिए माता का खान पान मन सभी प्रसन्नचित होने चाहिए वैसे ही 9 से 14 वर्ष तक के इस समय को पारिवारिक गर्भकाल कहा जा सकता है जिसके बाद समाज को एक नया व्यक्तिव मिलने वाला होता है। मनीषियों ने भी कहा कि पांच वर्ष तक बच्चो को प्यार दुलार , 5 से 15 वर्ष तक कठोर अनुशासन एवं इसके बाद मित्रवत व्यवहार करना चाहिए।






समाज के निर्माण में यह दर्शन भले ही उपदेश की तरह लगता हो किन्तु पूर्णतः वैज्ञानिक, तार्किक और व्यवहारिक है। किशोरावस्था वह उम्र होती है जब परिवर्तन सिर्फ शरीर और मन में ही नही होते वरन इसके साथ ही भावनात्मक उद्वेग बड़ी तेजी से बदलते हैं, अंतर्मन की स्थितियों में इच्छाएं, आकर्षण, बिकर्षण , पसन्द नापसन्द सभी में परिवर्तन की प्रबलता होती है इसीलिए बाल मन से किशोर और किशोर से युवा होती यह उम्र किसी भी नियंत्रण या अनुशासन में बंधकर रहना स्वीकार नहीं कर पाती।वह स्वयं को सिद्ध करने के लिए सभी प्रतिस्पर्धाओं को स्वीकार करती है, किन्तु जिस प्रकार प्रतिस्पर्धा में सफलता के लिए उचित मार्गदर्शन और सही दिशा की आवश्यकता है, वैसे ही इस उम्र को भी सही समय पर उचित नियंत्रण, मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है अन्यथा अभिलाषित स्वतंत्रता में असफलता उसे निराश कर जाती है, इसकी पुनरावृति उसे हताश कर देती है, और तब उसमें विरोध की प्रवृत्ति का अंकुर फूटने लगता है। वह मन अपने माता पिता या परिवार के अनुशासन को तोड़ने को उद्यत हो जाता है, उसमे आया यह विकार अन्यत्र आकर्षण की भावना के वशीभूत होने लगता है जिसे वह प्रेम समझता है। उसकी यह प्रेमासक्ति परिवार से भिन्न अपनी आयु से कम विपरीत लिंगी, या उसके कल्पित आदर्शों का समर्थन करने वाले लोगो अथवा समूहों से हो सकती है। उसका निर्णय यदि उसके परिवार या समाज की मर्यादा के अनुरूप हुआ और स्वीकार किया जा सका तो सम्भव है उसका विकास सही दिशा में होगा, किन्तु यदि उसके आदर्श परिवार व समाज की मर्यादा के विपरीत हुए तो ऐसे युवा मन के विरोधी उद्वेग उसे दिग्भ्रमित करने के लिए पर्याप्त हैं।
आंतरिक रूप से चंचलता और अस्थिरता होने के कारण किशोर मन मे असुरक्षा का भाव बना रहता है, बेशक यह कमी या कमजोरी हो सकती है किंतु ऐसे व्यक्ति का उग्र, क्रोधी, विरोधी,हठी स्वभाव अपनी उसी कमजोरी को छिपाने का तरीका भर है जिसे वह स्वयं जानता है पर न तो स्वीकार करता है न प्रदर्शित होने देना चाहता है। यह अपने कपड़ों ,संगीत , आधुनिकता का प्रदर्शन उसकी सम्प्रभुता की मनोभावना का ही प्रदर्शित व्यवहार है।
उम्र बढ़ने के साथ साथ जैसे जैसे चंचलता में स्थिरता आने लगती है उसकी समझ का विकास होता है और पुनः उसकी प्रवृत्तियां बदलने लगती हैं। मनुष्य में एक प्रवृत्ति बड़ी अजीब पाई जाती है कि वह जानता पढ़ता देखता लिखता बोलता बताता बहुत कुछ है किंतु स्वयं के जीवन के अनुभवों से ही सीख लेता है यद्यपि दूसरों को दूसरे उदाहरण देकर प्रेरित करने के प्रयास में सन्तुष्ट होता रहता है, और यही बात इस युवामन के साथ भी होती है जब उसमे समझ विकसित होती है वह समाज मे अपनी उपस्थिति के लिए दार्शनिक जीवन की तरफ बढ़ने लगता है।
इसलिए माता पिता को चाहिए कि अपनी जिम्मेदारी को भी समझें अपनी संतान के सही विकास के लिए उम्र के साथ अपनी भूमिका और दायित्वो का निर्वहन करें। अत्याधुनिक विकसित कथित सभ्य समाज मे  संसाधन जुटा देने और समय पर आवश्यकताओं की पूर्ति ही माता पिता की दायित्वपूर्ति माना जाने लगा है किंतु इसमें जिस तरह भाव का भाव बदला है वह रिश्तों के अर्थ को अर्थ से जोड़ कर अर्थहीन बना रहा है। समय की आवश्यकता है कि सही समय पर सही कदम उठाए जाएं क्योंकि समय से सीख लेने की प्रतीक्षा में जीवन का अमूल्य समय दोबारा नही वापस आएगा।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथिक चिकित्सक
मो.-8400003421