जर्मनी के डॉ क्रिश्चयन फ़्रेडरिक सैमुएल हैनिमैन, एमडी (10 अप्रैल 1755-2जुलाई 1843)ने चिकित्सा के साथ रसायनशास्त्र वैज्ञानिक, भेषजज्ञ, भाषानुवादक के रूप में कार्य करते हुए समलक्षणी चिकित्सा पध्दति होम्योपैथी का विकास किया। डॉ हैनिमैन मनुष्य को सम्पूर्ण आरोग्य प्रदान करने के लिए प्रकृति के चिकित्सा सिद्धांत को पहचान कर, तदनुरूप रोग की पहचान, उसके उद्भव के मूलकारण, एवं पदार्थों में औषधीय तत्वों की मात्रा, परीक्षा एवं सिद्धि व औषधि की न्यूनतम मात्रा अधिकतम शक्ति ,सहित उपचार के लिए मानव के शारीरिक लक्षणों के साथ मानव स्वभाव, अनुभव, आचरण को भी सम्मिलित कर उसे अपनी पुस्तक "आर्गनन ऑफ मेडिसिन" में लिपिबद्ध किया जिसके छ संस्करण प्रकाशित हुए हैं।
सैद्धांतिक रूप से आयुर्वेद से व्युत्पन्न है होम्योपैथी
"प्रयोगः शमयेदव्याधिमं यो$न्य नमुदोरयेत्।
नासौ विशुद्धः शुद्धन्तु शमयेद् यो न कोपयेत्।। "
(सूत्रस्थानत् चरक संहिता)
चरक संहिता में आरोग्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि चिकित्सा की वह विधा जो शरीर में उपस्थित व्याधि के लक्षण समूहों को तो समाप्त कर दे किन्तु एक नए लक्षण समूह को उत्पन्न कर दे , वह आरोग्य नही प्रदान कर सकती वरन् बिना कोई नया लक्षण समूह उत्पन्न किये उपस्थित व्याधि को समूल नाश कर सकने वाली विधा ही आरोग्य प्रदान कर सकती है। होम्योपैथी में इसे ही "आयडियल क्योर " कहा गया है।
आज से 262 वर्ष पहले जर्मनी के मेसन शहर में एल्बो नदी के किनारे ड्रेसडेन के निकट मिट्टी के बर्तनों पर चित्रकारी कर जीवन यापन करने वाले क्रिश्चियन गॉटफ्रायड की दूसरी पत्नी जोहाना को दस अप्रैल 1755 को तीसरी सन्तान के रूप में एक पुत्र की प्राप्ति हुई , जिसे मातापिता ने नाम दिया सैमुएल हैनिमैन।
बचपन में ही दिए वैज्ञानिक होने के संकेत -
जन्म के बाद माता पिता परिवार व विद्यालय सभी संघीय रूप से बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रखर मेधा का धनी बालक दिन में पिता के पुस्तैनी काम में हाथ बंटाता और रात में पढ़ाई के दौरान दिए में तेल खत्म हो जाने से दुखी होता, किन्तु निराश होने की जगह बालक हैनिमैन ने सबसे पहले अपने लिए मिट्टी का ऐसा दिया बनाया जिसमे तेल की खपत कम से कम हो और प्रकाश अधिक , देखा जाय तो यही बालक के भविष्य के अनुसंधान का प्रथम संकेत था।
प्रथमिक शिक्षा पूरी कर पिता से आशीर्वाद ,संस्कार और जीवन की सीख के साथ बीस थैलर की जमापूंजी के साथ हैनिमैन अपनी आगे की पढ़ाई के लिए लिपज़िग और फिर वियना आ गए। जहां उन्होंने एक दर्जन से अधिक भाषाओं में प्रवीणता हासिल कर ग्रंथो पुस्तको के अनुवाद और ट्यूशन को अपनी आजीविका और अध्ययन के लिए जरूरी खर्च वहन का जरिया बनाकर अपनी चिकित्सा की उपाधि पूरी की।
वो 11 वर्ष का जीवन संघर्ष (1779-1790)-
1779 में मेडिकल डिग्री लेने के बाद आर्थिक विपन्नता किन्तु बौद्धिक सम्पन्न युवा चिकित्सक डॉ हैनिमैन को भी जीविकोपार्जन व रोजगार की उम्मीद वियना से हरमैन्स्ट्डट ( रोमेनिया ) ले आयी और जहां उनके वरिष्ठ डा. क्युरीन ने नौकरी दिलाने मे मदद की । शुरुआत में हैनिमैन जर्मनी के कई गाँवों मे लगभग पाँच साल तक चिकित्सीय कार्य के साथ पुस्तको के अनुवाद व रसायन शास्त्र का अध्ययन भी जारी रखा। हैनिमैन का संवेदनशील मन मस्तिष्क विज्ञान को प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष , प्रयोगिक, और तार्किक दृष्टिकोण की कसौटी पर परखता रहा किन्तु तत्कालीन प्रचलित चिकित्सा के पीड़ादायी तरीकों से वह व्यक्तिगत रूप से कभी सहमत नही हो पाए , और न ही अर्धसत्य की पीड़ा को स्वीकार कर पाए अतः उन्होंने चिकित्सीय कर्म का त्याग कर अपने जीवकोपार्जन का मुख्य साधन अनुवाद और शोधकार्यों को बनाया। 1782 मे जोहाना लियोपोल्डाइन के साथ दाम्पत्य जीवन मे प्रवेश किया जिनसे 11 संताने हुयीं। 1789 में वह लिपजिग वापस आ गए किन्तु इस बीच "आर्सेनिक पॉइजनिंग" व "सिफिलिस में मर्करी के कार्य"पर उनके दो महत्वपूर्ण शोध पत्र आये।
जीवन के 46 वें वर्ष में हुआ प्रकृति के चिकित्सा रहस्य से साक्षात्कार
बचपन मे माता पिता की सीख हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तनों के लिए कैसे सहायक हो सकती है इसका जीवन्त उदाहरण डॉ हैनिमैन के जीवन के 46वें वर्ष में उसके अनुसरण से मिलता है जब वे “कलेन्स मेटेरिया मेडिका” का अंग्रेजी से जर्मन में अनुवाद कर रहे थे, उन्होंने पढ़ा ‘’ कुनैन मलेरिया रोग को आरोग्य करती है, और स्वस्थ शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा कर सकती है।"
तथ्य को यथावत स्वीकार करने से पूर्व हैनिमैन को उनके पिता की सीख याद रही जिसे वे घर से निकलते समय लेकर चले थे " चीजों का परीक्षण करते रहो और जो सर्वश्रेष्ठ हो उसे ही चुनो" ...इसलिए डॉ हैनिमैन ने कुलन्स के तर्क को सिद्ध करने का निश्चय कर कुनैन का प्रयोग स्वयं पर किया, लब्धपरिणाम के बाद भी कई बार दोहराया और हर बार उनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा हुये। फिर यही प्रयोग उन्होंने अपने निकटम मित्रों पर भी किया। डॉ एंटोन वॉन के स्वस्थ मनुष्यों पर औषधियों के असर के अध्ययन के सिद्धांत को प्रायोगिक स्वरूप देने का श्रेय डॉ हैनिमैन को ही जाता है । कुनैन के बाद भी अपने प्रयोगों को जारी रखते हुए उन्होंने तमाम अन्य वनस्पतियों , खनिज , पशु उत्पाद, रासायनिक मिश्रण आदि का स्वयं पर प्रयोग कर पाया कि प्रत्येक तत्व ने उनके मन मस्तिष्क तथा शरीर की संवेदना को पृथक तरीके से प्रभावित किया, जिन्हें उन्होंने लिपिबद्ध भी किया और इस सत्य निष्कर्ष तक पहुंचे कि प्रकृति में प्रत्येक तत्व के अपने विशिष्ट लक्षण हैं , जिन्हें सूक्ष्म संवेदनशील व्यक्ति ही अनुभव कर सकता है।इससे उनके इस विचार को भी दृढ़ता मिली कि हमारे शरीर में रोगों से लडने की प्राकृतिक क्षमता है तथा रोग मुक्त होने का संघर्ष ही रोग लक्षणों में प्रतिबिम्बित होता है। कह सकते है यही वह समय था जब डॉ हैनिमैन का साक्षात्कार प्रकृति के चिकित्सा रहस्यों से हुआ और तत्कालीन मेडिकल पत्रिकाओं में ‘’ मेडिसिन आंफ एक्सपीरियन्सेस ’’ के रूप में प्रकाशित हुआ। इसका सार निकला कि जो रोग लक्षण जिस औषध के सेवन से उत्पन्न होते हैं , उन्हीं लक्षणों की रोग मे सदृशता होने पर औषध द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं और इसे उन्होंने "सदृश रोग चिकित्सा" कहते हुए होम्योपैथी नाम दिया जो प्रकृति के सिद्दांत " सम: समम शमयति" पर आधारित है ।
चिकित्सा सिद्धांत के बाद औषधि प्रयोग
शुरुआत में औषधीय के प्रयोग से आरोग्य होने किन्तु कुछ दिन बाद नये लक्षण उत्पन्न होने पर हैनिमैन अध्ययन करते रहे और पदार्थ की मात्रा के सापेक्ष उसकी शक्ति को तात्विक रूप से अधिक महत्वपूर्ण पाया जिससे दवा के दुष्परिणाम भी पैदा नही होते ।
होम्योपैथी चिकित्सा के सिद्धांत ,दर्शन, विज्ञान और आध्यात्म का एकात्मवेद : आर्गेनान आफ़ मेडिसन
डॉ हैनिमैन ने अपने परिवार व मित्रों गौस , स्टैफ़, हर्ट्मैन और रुकर्ट आदि को मिलाकर "प्रूवर यूनियन" बनाया और नई औषधियों पर शोध कार्यों को लिपिबद्ध करते रहे और विरोधियों के प्रश्नों एवं विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं के समाधान के लिए प्रथम पुस्तक "ऑरगेनन ऑफ मेडिसिन" के प्रथम संस्करण के रूप में सन 1810 में प्रकाशित किया। जिसके पांच संस्करण तो उनके जीवनकाल में ही किन्तु छठा मृत्यु के 72 वर्षों बाद 1921 में प्रकाशित हुआ। एक चिकित्सक के लिए यह मात्र एक पुस्तक नही अपितु चिकित्सा विज्ञान के सिद्धांतों , दर्शन, अध्यात्म , तथ्य, तर्क और विज्ञान का एकात्मवेद की तरह है।
विषम परिस्थितियों में आजीवन संघर्ष से स्थापित हो सकी होम्योपैथी
डॉ हैनिमैन के शोध और परिणाम को मिल रही जनस्वीकार्यता की स्वाभाविक स्वीकृति चिकित्सा जगत के लिए सहज नहीं थी इसलिए हैनिमैन को भी नवीन पैथी के उद्भव से लेकर स्थापना तक आजीवन चिकित्सा जगत के विरोध, मिथ्याप्रचार,षडयंत्रो, प्रतिबन्ध और देश निकाला तक का सामना करना पडा।
1820 में लिपिजक ने हैनिमैन के कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाकर 1821 में शहर से निकल जाने को कहा गया तो वे कोथन आ गए और लगभग 12 वर्षों तक रहे। यहां उन्हें डॉ बोनिगहसन , डॉ स्टाफ़ , डॉ हेरिंग, डॉ गौस, डा. गोटफ़्रेट लेहमन आदि का सहयोग मिला तो डा. ट्रिन्क्स जैसे चिकित्सकों ने लगातार विरोध भी जारी रखा।
यद्यपि लिपजिग में होम्योपैथी के प्रति जनता का विश्वास कम नही हुआ और 1833 मे डॉ मोरीज़ मुलर को सहयोग कर पहला होम्योपैथिक खुलवाया किन्तु उनके मे हैनिमैन के पैरिस (1835) चले जाने के बाद अस्पताल भी जल्दी ही बंद हो गया।
विपन्नता के अर्श से वैभव के उत्कर्ष तक
बचपन विपन्नता और युवावस्था संघर्षों में गुजार कर शरीर से बृद्धावस्था की तरफ बढ़ रहे संकल्पशील हैनिमैन का जब सिद्धि प्रसिद्धि ,ऐश्वर्य, वैभव के उत्कर्ष पर थे तभी 1834 में हैनिमैन ने मैरी मिलानी (32 वर्ष) से दूसरा विवाह कर लिया, और पेरिस आ गए। यद्यपि इसके बाद के जीवन मे उन्हें पत्नी का साथ तो मिला मगर बच्चों से दूरी भी नसीब हुई। जयंती के अवसर पर याद करते हुए जीवन के अंतिम वर्षों पर अभी नहीं लिखूंगा।
चिकित्सा के क्षेत्र में डा हैनिमैन का योगदान -
1. प्रकृति के चिकित्सा नियमो पर आधारित पूर्ण सैद्धांतिक व वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का विकास।
2. सर्वप्रथम चिकत्सक के उद्देश्य, गुण ,धर्म, कर्तव्य एवं सामाजिक दायित्वों को भी रेखांकित किया ।
3. औषधियों का मनुष्यों पर सिद्धि परीक्षण।
4. शक्तिकरण के सिद्धांत के प्रायोग से विषाक्त एवं निष्क्रिय पदार्थों के तात्विक गुणों का औषधीय प्रयोग संभव कर जटिलतम दुःसाध्य रोगों का सरलतम उपचार संभव बनाया।
5. व्यक्ति में रोग की बजाय रोग में व्यक्ति के आधार पर औषधि चयन से चिकित्सक मरीज के मानवीय दृष्टिकोण को सम्बल प्रदान किया।
6.तत्कालीन समय से वर्तमान तक प्रचलित सिद्धांतहीन चिकित्सा विधा को "एलोपैथी" नाम दिया।
7. रोगों के मूल कारण सोरा, सिफलिस, साइकोसिस मायज़्म की व्याख्या के आधार पर सूक्ष्मतम जीवों से संक्रमण के प्रसार का तथ्य वर्षों बाद सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से जीवाणुओं की खोज के रूप में सत्य सिद्ध हुआ।
होम्योपैथी अत्याधुनिक प्रमाणित एवं पूर्ण वैज्ञानिक है-
नोबल पुरस्कार विजेता (2004) स्व. डॉ जैक्स वैन्वेस्टि और डॉ मोंटेगनियर (2008) ने होम्योपैथी का सैद्धान्तिक समर्थन करते हुए अधिक शोध की आवश्यकता जताई।
आईआईटी मुम्बई के छात्रों होम्योपैथी की दवाओं की पुष्टि की।
डब्ल्यू एच ओ की एक रिपोर्ट में इसे विश्व की दूसरी सबसे अधिक विश्वसनीय चिकित्सा विधा माना है।
जनस्वास्थ्य की चुनौतियो में होम्योपैथी के ऐतिहासिक प्रमाण -
वर्ष 1800 में स्कारलेट फ़ीवर की महामारी में हैनिमैन ने बेलोडोना से नियंत्रित किया।
सन् 1813 मे नेपोलियन की सेना के जवानों में फैली टाइफ़स महामारी से जर्मनी को ब्रायोनिया और रस टाक्स के सहारे बचाया।
सन् 1831 मे रुस के पशिचमी भाग से कालरा की महामारी में होम्योपैथिक औषधियों कैम्फ़र , क्यूपरम और वेरेट्रम ने रोगियों की जान बचायी ।
वर्ष 1998 से 2003 भारत मे आंध्रप्रदेश सरकार ने जेई पर नियंत्रण पाया, जिसकी रिपोर्ट एक अमेरिकन जरनल में प्रकाशित हुई।
जनहित में सुझाव ग्रहण करने की इच्छाशक्ति दिखाए सरकार-
भारत मे आबादी मानक के अनुरूप चिकित्सकों की कमी सरकारें स्वीकार करती हैं । हमारे देश मे चिकित्सा के लिए एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद, व यूनानी मान्यता प्राप्त हैं किंतु सरकारों की राजनीति में बनती स्वस्थ्यनीति में एलोपैथी या कुछ हद तक आयुर्वेद और योग पर ही ध्यान केंद्रित है। जबकि सरकार से जुड़े संगठनों की सामाजिक गतिविधियों में स्वास्थ्य प्रकल्पों द्वारा सेवा के नामपर होम्योपैथिक दवाओं का ही वितरण कराया जाता है, कारण स्पष्ट है कि दवाओं और चिकित्सकों की सहज उपलब्धता। हमने सरकार को कई बार यह सुझाव भेजा किंतु अवसर पर लेख के माध्यम से आप सभी के विचार व समर्थन के लिए पुनः लिख रहा हूं, कि समस्या और कारण ज्ञात होने पर उचित समाधान के लिए सभी संभव उपलब्ध साधनों का समुचित प्रयोग करना चाहिए।
यह नीति अपनाते हुए सरकार चाहे तो न्यूनतम समय मे अधिकतम जनसंख्या को चिकित्सीय सेवायें उपलब्ध हो सकती हैं। इसके लिए ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों में प्रति 5000 की आबादी पर एक निजी प्रशिक्षित व पंजिकृत होम्योपैथ व अन्य चिकित्सकों को चिकित्सा सेवा कार्य के लिए क्लिनिक या अस्पताल खोलने में सरकारी मदद (जमीन /भवन) उपलब्द्ध कराकर या निजी क्लीनिक में दिन में ओपीडी के समय में सरकारी पर्चे पर स्वास्थ्य सेवा उपलब्द्ध कराये जाने का अनुबंध करें, जिसके सापेक्ष उन्हें सम्मानजनक मानदेय दिया जाय। तकनीकी प्रयोग से नियमित मॉनिटरिंग की जाय।
मेरा विश्वास है कि इस नीति से आम जनता को उसकी पहुँच में योग्य चिकित्सक, नए युवा चिकित्सक को स्वालम्बन सहित सेवा का अवसर व सरकार को यश की प्राप्ति होगी।
डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
राष्ट्रीय महासचिव -होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
जेबी होम्योहाल
परिक्रमा मार्ग मोदहा,
फैज़ाबाद224001










