उत्तर प्रदेश में आमजन को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने कई नई घोषणाओं की खबरें आती रहती हैं , सरकार का दायित्व भी है। उन्ही में से एक योजना आयुष दूत की नियुक्ति भी है जिसके अंतर्गत कुछ जगहों पर पंजीकृत होम्योपैथी चिकित्सकों को होम्योदूत के रूप में स्वैच्छिक आवेदन के आधार पर जिला होम्योपैथिक अधिकारियों द्वारा नियुक्त किया जा सकता है। यह स्वैच्छिक सेवा है जिसके लिए कोई मानदेय या वेतन भत्ता आदि अभी तक देय नही है।
ध्यान देने की बात है कि होम्योपैथी के ही प्राइवेट कालेज के छात्रों को भी इंटर्नशिप भत्ता तक नहीं मिलता, और सेवा भी मुफ्त।
योजना के स्वरूप को स्वीकार करने से पूर्व दूतों ने अपने स्वाभिमान से तो समझौता कर ही लिया लेकिन पूरे होम्योपैथी जगत के सम्मान को चोटिल किया है। यह किस विद्वता की श्रेणी में होंगे कहने की आवश्यकता नहीं। जिस देश मे सेवा के नाम पर न जाने कितना वेतन भत्ते और सुविधाएं बिना किसी आवश्यक योग्यता के मात्र जनमत से प्रदान की जाती हों वहां ऐसा प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति दोनों समझ से परे हैं।
सरकारी योजनाएं नीतिगत निर्णय होते है ,इसलिए इनमे त्रुटि की अपेक्षा नही की जानी चाहिए, अर्थात पटल पर आने से पूर्व पूरा विमर्श हो चुका होता है फिर शासन की मंशा के रूप में इन्हें लागू किया जाता है। जैसे कुछ समय पूर्व सरकार की तरफ से कहा गया था सेवानिवृत एलोपैथी चिकित्सक मनचाहे वेतन पर चिकित्सालयों में सेवा दे सकते है, किन्तु युवा चिकित्सकों के लिए सेवा के अवसर नहीं, वहीं दूसरी तरफ होम्योपैथी के चिकित्सक अब दूत बनकर निःशुल्क सेवा दें।
यह ढिठाई भी गजब है और करारा उपहास है विधा की मर्यादा का, मजाक है चिकित्सकों के बराबरी के अधिकार व सम्मान का।
लेकिन क्या कहिएगा उन बेचारे ,मजबूर ,विवश ,किन्तु सेवा भावी दूतों को जिन्होंने बड़े गर्व के साथ यह पदभार ग्रहण किया। यद्यपि "सेवा भावी दूत" स्वाभिमान के साथ यही निशुल्क सेवा अपनी क्लिनिक पर बतौर चिकित्सक भी दे सकते हैं, किन्तु शिक्षामित्रों की तरह यहाँ भी एक स्वार्थ भविष्य में स्थायी पदभार मिलने की अपेक्षा के पीछे छिपा है।
फार्मूला- फ्री के दूत मिलें तो चिकित्सकों को वेतन क्यों?
इस तरह के प्रयोग के पीछे क्या मंशा थी यह तो नही कहा जा सकता किन्तु विद्वान दूतों ने सरकार को बैठे बिठाए एक फार्मूला जरूर दे दिया, यदि दूत फ्री में सेवा देने को तैयार हैं तो बेवजह चिकित्सकों के वेतन पर सरकारी धन क्यों खर्च किया जाय उसे किन्ही अन्य मदों में खर्च किया जा सकता है। नए पद इन्ही दूतों से भर जाएंगे और पुराने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले लें तो सोने पे सुहागा ही हो जाये।
दक्षिणा देकर फ्री में स्थायी सेवा करने की उम्मीद
समाज के लिए दूत बनते तो सम्मान बढ़ता लेकिन जब बात स्वयं की आती है तो नियम कायदे कानून सब ताक पर पहले येन केन प्रकारेण प्रवेश मिल जाये फिर हटना कहां है, अरे भई जरूरत तो हमेशा रहेगी , अनुभव के आधार पर वरिष्ठता और योग्यता भी बढ़ेगी तो आज नही तो कल वेतन तो मिलेगा ही नहीं तो कोर्ट चले जाएंगे। बस यही भरोसा महीने भर की "दक्षिणा" बनकर "सत्यवादी राजा" को समर्पित हुआ तो "सत्यवादी राजा"ने आशीर्वाद दिया और अपना "देवदूत" बनाकर किसी चिकित्सालय में भेज दिया अब कीजिये सस्वार्थ सेवा।
सभी सेवाभावी देवदूतों को नमस्कार।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
राष्ट्रीय महासचिव- होम्योपैथी महासंघ










