कभी पत्थरों, दीवारों,भोजपत्रों पर कल्पनाओं को आकार देने वाला मनुष्य अब डिजिटल संसार मे प्रवेश कर गया है। सोसल मीडिया के अनेकों मंचो ने सूचनाओं और जानकारियों का आदान प्रदान जितना सरल बना दिया है इसकी प्रमाणिकता , और उपयोगिता को संभाले रखना उतना ही कठिन दिख रहा है।
सोसल मीडिया पर सक्रिय ज्यादार लोगों में लोकेष्णा का एक स्वाभाविक गुण पाया जाता है ,इसके प्रभाव में ज्यादातर विचारों के जरिये अपने व्यक्तित्व का सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करना चाहते है। इस मंच के उपयोग के अनेक विषय व आयाम हैं किंतु वर्तमान दौर में जो अधिक महत्वपूर्ण है वह है समाज को एकता के लिए जागरूक करने वाले सन्देश । यदि कोई व्यक्ति अपने मौलिक विचार पोस्ट करे तो सम्भव है कि उसने सम्बन्धित विषय मे कुछ अध्ययन या विश्लेषण अवश्य किया होगा, किन्तु यदि अध्ययन के नाम पर विषय की सामग्री कही से नकल कर पोस्ट की गई तो उसके विश्लेषण का पक्ष रह जाता है केवल उस विचारधारा का कोई आकर्षक पक्ष ही समर्थन के लिए पर्याप्त रह जाता है।
पोस्ट किए गए विचार समाज पर कुछ तो असर डालते है ,ऐसे में अप्रमाणिक, तथ्यहीन और कुतार्किक विषय आपकी बौद्धिक विश्लेषण क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। आकलन करें तो पाएंगे कि सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मनगढ़ंत और समाज मे नकारात्मक विचारों का प्रचार प्रसार अधिक है, जिनका दीर्घकालिक असर यह होगा कि समाज के तमाम वर्गों में अविश्वास का वातावरण बनने लगेगा, चतुर लोग इसका केवल राजनैतिक लाभ उठा सकेंगे किन्तु हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए यह संकेत शुभ नही कहे जा सकते।
समाज मे प्रबुद्ध माने जाने वाले उच्चशिक्षित उपाधियों के साथ प्रमाणित विद्वता धारक वर्ग द्वारा जब जाति आधारित अप्रमाणिक पोस्ट देखता हूँ तो विकसित हो रहे भारत मे चिंतन और विश्लेषण की संकीर्णता वाली बौद्धिक विपन्नता नजर आने लगती है। सभी के सोचने समझने चिंतन की दिशा व दृष्टिकोण अलग हो ,इस पर आपत्ति नही किंतु जरूरी है कि उसकी अभिव्यक्ति, समाज के भिन्न वर्गों पर पड़ने वाले असर के आकलन के आधार पर की जाय, क्योंकि आपकी बौद्धिकता और चिंतन तभी सार्थक है जब वह समाज को सकारात्मक दिशा दे पाने में समर्थ हो।
यदि कोई अपने शब्द गढ़ने के कौशल और कल्पनाशक्ति से किसी दृश्य का चित्रण शब्दों इस तरह करता है कि वह इतिहास की कोई सत्य उद्घाटित करता प्रतीत हो तो निश्चित ही यह मानसिकता किसी निहित स्वार्थ के आवरण में पोषित है।
वर्तमान भारत मे धार्मिक व जातीय संगठनों व विचारधाराओं की भरमार है , जिनमे स्वयं को सिद्ध करने की होड़ सी नजर आती है, इसी उद्देश्य से एक विचारधारा का विषय पढ़ने को मिला जिसका सार यह था कि "भारत मे मूलनिवासी अधिकारों से वंचित रखा गया और विदेशी ब्राह्मणों ने छलपूर्वक सब पर शासन कर लिया इसलिए अब इसका बदला लिया जाना चाहिए"।
यह तो केवल भाव है किंतु जिस भाषा मे यह परोसा जाता है वह सभ्य समाज के लिए सदैव अस्वीकार्य है।
इसलिए कुछ तथ्यों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है-
असमानता या विविधता प्रकृति का अटल सिद्धांत है
प्रकृति प्रचुर विविधता का एकरूप संतुलित संगम है यही इसकी खूबसूरती है, किन्तु इसका दर्शन करने की दृष्टि जिस दृश्य श्वेत प्रकाश में सहायक है वह स्वयं सात अलग रंगों में विभाजित है जिनका एकरूप प्रदर्शन ही श्वेत प्रकाश की किरण है। प्रकृति में अस्तित्व प्राप्त किन्ही भी दो रचनाओं में कुछ न कुछ अंतर अवश्य है, शायद इसी लिए प्रत्येक मनुष्य संरचनात्मक रूप से एक होते हुए भी स्वभावतः अलग है, अर्थात कोई भी व्यक्ति किसी के समान तो हो सकता है किंतु एकसमान कभी नही हो सकता , आप यह अंतर उनके अस्तित्व के स्तर पर ही समझ सकते हैं।
प्रकृति में यह अंतर या असमानता का सिद्धांत एक कोशिकीय जीव से लेकर मानव शरीर तक सभी पर लागू होता है। हमारे शरीर की खूबसूरती में भी इसी संतुलन का महत्वपूर्ण योगदान है तभी तो युगों से मानव शरीर मे अंगों का विन्यास और उनके कार्य नही बदले।
यदि किसी शरीर मे किसी स्तर पर कोई अंग कम या अधिक पाया भी जाता है तो उसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता पर विचार किया जाना आवश्यक हो जाता है। हम आप चाहकर भी अपने शरीर के किसी अंग का स्थान, कार्य या उपयोगिता बदल नही सकते, आवश्यकता होने पर अभ्यास से निपुणता जरूर प्राप्त कर सकते हैं किंतु समाज इसे आदर्श के रूप में स्वीकार नही कर सकता प्रेरणा जरूर ले सकता है। जैसे कोई हाथ न होने पर पैरों से कार्य करने में निपुण हो जाय।इसलिए हमें विविधता को स्वीकार करना चाहिए।
चिंतन : गर्वोन्नत भारतीय जीवनदर्शन
इतिहास साक्षी है कि प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने, उनके अनुसन्धान में जो योगदान भारतीय ऋषियों मनीषियों का रहा वह आज भी तमाम शोध के आधार बिंदु हैं जिनकी कसौटी पर नवीन खोज के दावे किए जाते है। हमारे वेद ग्रन्थों , पुराणों में वर्णित रहस्य समय के साथ विज्ञान की कसौटियों पर प्रमाणिक सिद्ध होते रहे।
हमारा जीवन दर्शन ही नही सामाजिक संघटन भी आदर्श रहा ,प्रकृति में प्राणी मात्र के कल्याण की भावना का उदाहरण "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः" से मिलता है जिसमे "वसुधैव कुटुम्बकम" का सहज भाव निहित है, और सभी मे शक्ति संचार के तत्व को ईश्वर की संज्ञा दी गयी जो अदृश्य किन्तु शाश्वत है।इस प्रकार सभी में ईश्वर के अंश का प्राण के रूप में वास माना गया, और संतुलित समाज के निर्माण में सभी की योग्यतानुरूप उपयोगिता व सहभागिता सुनिश्चित की गई जिससे शरीर के अंग तन्त्रो के अनुरूप ही समाज का सुसंगठित निर्माण हो सके। इसी का उदाहरण है "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" अर्थात हमारी संस्कृति में नारी को शक्ति का प्रतीक बताया गया है और इसीलिए वह सम्माननीय है।
कर्म की प्रधानता भारतीय आध्यात्मिक जीवन दर्शन का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, सम्भवतः इसी के आधार पर मनुष्य के जीवन के लिए चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ,व सन्यास आश्रम) व चार वर्ण (ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की व्यवस्था की गई थी।
हमारे जिन वेद , पुराण ग्रन्थों का उदाहरण देकर इतिहास में शोषण का आरोप लगाया जाता है, उनमें कहीं आज की तरह जातियों का नाम उपनाम आदि का उल्लेख नही मिलता। उदाहरण के लिए राम , कृष्ण, सूरदास, वाल्मीकि, वेदव्यास आदि।
भारतीय इतिहास में कर्म के आधार पर वर्णाश्रम की व्यवस्था थी जिसका प्रमाण है डाकू रत्नाकर जिनका पालन पोषण भील वनवासी दम्पत्ति ने किया किन्तु सन्तों के मार्गदर्शन के बाद तप एवं ज्ञान की साधना के बाद वह महर्षि वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए और रामायण को सँस्कृत में लिखा, स्वयं श्री राम कोे राजधर्म की प्रतिबद्धता के चलते जब माता सीता को गर्भकाल में वन भेजना पड़ा तो लक्ष्मण जी उन्हें इन्ही महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आये थे जहां उनके पुत्रों लव एवं कुश को संस्कार और शिक्षा सभी प्राप्त हुए। दूसरा उदाहरण क्षत्रिय राजा कौशिक का है जिन्होंने कठिन तप किया और महर्षि विश्वामित्र के नाम से ब्राह्मण वर्ण में स्वीकार किये गए जिनके पुत्रों ने शूद्र वर्ण को स्वीकार किया।
उक्त दोनों उदाहरणों से भारतवर्ष के प्राचीन आध्यात्मिक गौरव और सांस्कृतिक सामाजिक गठन की श्रेष्ठता के दर्शन होते हैं।
तो प्रश्न स्वाभाविक चिंतन का विषय है कि अतीत और वर्तमान के बीच जातियों का उद्भव कब और कैसे हुआ होगा ?
क्योंकि मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं, इसलिए इस विषय से सम्बंधित प्रामाणिक तथ्य तो नही प्रस्तुत कर सकता किन्तु एक कालखण्ड लगभग एक हजार वर्ष की दासता , जिसमे भारत की कितनी पीढियां गुजरी होंगी और उस दौरान सम्भव परिवर्तन की गति ने किस तरह यहां की जीवन पद्धति को प्रभावित किया होगा, यदि इसका आकलन कर लें तो दो बातें स्पष्ट समझ मे आती हैं कि सम्पूर्ण भारत कभी किसी युद्ध मे सम्मिलित या पराजित नहीं हुआ, यहां व्यापारिक गतिविधियों के जरिये धीरे धीरे विदेशियों ने अधिकार जमाया। मुगलों के आक्रमण के बाद उन्होंने यहां के निवासियों को गुलामो की तरह रखा और अपनी अलग अलग सेवाओ में ज्यादतियां की, अपनी संस्कृति के अनुरूप महिलाओं को किले या महल की चारदीवारी में कैद रखने और पुरुषों को गुलामी के काम का विभाजन कर अलग अलग नाम दिये गए होंगे, सम्भवतः सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को बलात जन्म दिया गया और धीरे धीरे एक वर्ग का जन्म हो गया होगा, इसीप्रकार पशुओं की हत्या कर उनके चमड़े का व्यापारिक उपयोग शुरू किया गया होगा जिसे दबाव में करने वाले लोगों को भी धीरे धीरे एक अलग वर्ग के रूप में स्थापित कर दिया गया होगा ।
सम्भवतः इसीप्रकार एक लंबे कालखण्ड ने भारतीय समाज की व्यवस्था व संस्कृति को छिन्न भिन्न किया गया होगा, और विधर्मी विदेशी लोगों ने अपने समाज के लोगों को भी यहां बसाया होगा, या यहां के निवासियों को अपनी जीवनशैली और धर्म मे ढाल दिया होगा, जिसे समय के साथ जन्म से चली आ रही परम्परा के नाम पर स्वीकार किया गया होगा और बाद में यही परम्परा अलग अलग क्षेत्रों में वर्ग की पहचान के रूप में नए नाम से सामने आती रही होगी।
महाराणा प्रताप, स्वामी विवेकानन्द, रानी लक्ष्मीबाई, आदि किसी के नाम के साथ जाति या उपजाति का सम्बोधन नहीं मिलता, इससे भी लगता है यह सारी व्यवस्थाएं धीरे धीरे ही व्यवहार में आई होगीं।
संवेदनशील विषयों पर निभाएं जागरूक नागरिक की भूमिका
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी जीवन पद्धति की आवश्यकताओं के अनुरूप ही कुशलता के अनुरूप ही समाज के भिन्न वर्गो ने कार्यों को अंगीकार किया है, इसलिए सभी की समान आवश्यकता उसी प्रकार महत्वपूर्ण है जैसे एक से लेकर सौ तक की गणना में प्रत्येक अंक का स्थानीयमान। इसीलिए हमारी संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक एक व्यक्ति के जीवन मे समाज के सभी वर्गों की भूमिका और महत्व निश्चित किया गया है। जन्म के समय पहले गांव में दाई का कार्य करने वाली महिला जिस वर्ग से आती है उसे अछूत माना गया होता तो किसी परिवार में बुलाया न जाता। मन्दिरों की स्थापना व उनकी उपयोगिता समाज के लिए एकता समरसता का ही पर्याय हुआ करती है, जिसके आस पास व्यवसाय कर भिन्न वर्ग लाभान्वित होते हैं। पर्व एवं त्यौहार, विवाह आदि में भी समाज के प्रत्येक वर्ग को सम्मिलित कर सभी को सम्मान व उपहार देने की परम्परा समरसता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसलिए भ्रामक एवं अप्रमाणिक पोस्ट या पाठ्य सामग्रियों की व्यवहारिकता को स्वयं अपने आस पास के जीवन व समाज के ताल मेल की कसौटी पर परख कर ही उनपर भरोसा करें, यदि आपके अनुभव में वैसा व्यवहार नही है तो शेष समाज में उस विद्वैष भाव के सन्देश को प्रसारित करने की किसी मानसिकता का शिकार न बनें, इससे आप स्वयं जागरूक नागरिक होने की भूमिका निभा पाएंगे एवं अपने समाज व राष्ट्र के हित में भी सहयोग कर पाएंगे।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथ परामर्श चिकित्सक
जनपद अयोध्या










