चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Sunday, 8 December 2019

बच्चों के व्यवहार परिवर्तन को न करें नजरअंदाज

माता पिता बच्चों के व्यवहार परिवर्तन को न करें नजरअंदाज

यूं तो बर्दाश्त नही होती यार शरारत किसी की
मगर बचपन की हो तो बहुत प्यार आता है...

बच्चों की नटखट ,शरारती, चंचलता पूरे परिवार के तनाव को बिना किसी दवा के दूर कर हंसी खुशी का ऐसा स्वस्थ वातावरण बना देती है जो किसी दवा से नहीं मिल सकता..जीवनशैली के बहुत से रोग स्वतः ही उस घर आंगन की चौखट के अंदर नही जा सकते जहां बच्चों की किलकारियां गूंजती हों। सम्भवतः हमारी सनातन संस्कृति में ऋषियों ने अनुसन्धानपूर्वक परिवार की व्यवस्था और उसकी संरचना का जो वैज्ञानिक स्वरूप दिया उसके पीछे व्यक्ति परिवार पीढ़ी और उससे बनने वाले समाज व राष्ट्र में इसी धारा  के अविरलभाव प्रवाह का मंत्र बना वसुधैव कुटुम्बकम

बच्चों को कच्ची मिट्टी के बर्तन की संज्ञा दी गयी है जिसे परिवार में परिवारीजन और इसके बाहर विद्यालय में शिक्षक फिर समाज की संगत जैसा चाहे स्वरूप दे सकती है।
कबीर ने दो ही पंक्तियों में व्यक्तित्व के विकास का पूरा मनोविज्ञान कह दिया-
गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है 
गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट
भीतर हाथ संभारि दै
बाहर बाहे चोट।।

बच्चों का मनुहार और मर्यादित व्यवहार सभी का मन मोह लेता है, किन्तु कभी कभी कुछ बच्चों का व्यवहार हमारी अपेक्षा के विपरीत अमर्यादित श्रेणी का होता है जिसे सहज स्वीकार नही किया जा सकता उदाहरण के लिए अनपेक्षित क्रोध, जिद, चिड़चिड़ापन,आज्ञा पालन न करना या उसके विपरीत की करना, अपने से बड़ों, भाई बहनों, या समान उम्र के अन्य बच्चों से परस्पर ईर्ष्यालुतापूर्ण या शत्रुतापूर्ण , झगड़ालू व्यवहार,आदि।

माता पिता समय पर पहचानें व्यवहारिक परिवर्तनों के संकेत -

यदि उपरोक्त कथन सत्य है तो बच्चों की परवरिश के साथ संगत का असर भी मर्यादित करना चाहिए, आपको यह तय करना होगा कि आपका बच्चा ज्यादातर समय किस संगति में गुजरता है, उसके चंचल मन की जिज्ञासाओं को समर्थन और समाधान मिलता है या वह तटस्थ और फिर धीरेधीरे एकल जीवन के अनुभवों की तरफ बढ़ रहा है। बच्चे की सही परवरिश और देखभाल में पूरे परिवार का योगदान रहता है। भारतवर्ष में इसीलिए संयुक्त परिवार को प्राथमिकता दी गयी है जिससे बच्चे आचरण को देखकर अनुशासन और जीवन कौशल की आदतें सीख सकें।


माता पिता को बहुत छोटी आदतों जिनकी पुनरावृत्ति बच्चे के लिए आनन्दमयी हो उनपर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यही परिवर्तन आपके लिए संकेत होते हैं।

देखना चाहिए कहीं आपका बच्चा झूठ तो नहीं बोलना शुरू कर रहा या उसे चीजों को छुपाकर दूसरों को परेशान करने में मजा आता है, वह अक्सर आक्रामक और क्रोधित होता है, लगातार तर्क करता है, चीजों को तोड़ता या कीमती वस्तुओं को नुकसान पहुचाता है, परिवार के कुछ खास वर्ग के बड़े सदस्यों से शत्रुतापूर्ण तरीके से अपमानजनक भाषा का प्रयोग करता है, अथवा उनको नुकसान पहुँचाने का प्रयास करता है जानबूझकर घर के पालतू पशुओं या परिवार के सदस्यों को कष्ट पहुँचाने की तरकीबें करता है, अथवा उम्र के सापेक्ष वयस्क क्रीड़ा व्यवहार करता है तो आपको तुरंत सचेत हो जाना चाहिए।


स्वयं भी इनके कारणों की तलाश करनी चाहिए और किसी कुशल चिकित्सक का मार्गदर्शन प्राप्त कर समय पर आवश्यक उपाय करना चाहिए।

खोजिये क्या हैं कारण

इस तरह के विहैवियर डिसऑर्डर के लिए अनेक भौतिक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक कारण संयुक्तरूप से जिम्मेदार हो सकते हैं जिनकी पहचान निरपेक्ष रूप से चिकित्सक ही कर सकता है। लेकिन जो प्रमुख कारण अध्ययनों में पाए गए उनमें आनुवंशिक भेद्यता, कोई मस्तिष्क क्षति, बाल शोषण, स्कूल की असफलता,जीवन मे कोई दर्दनाक या दुर्घटना का अनुभव,माता की अस्वीकृति,माता पिता से अलगाव, अल्पबुद्धि माता पिता, अथवा माता पिता या परिवार में निरन्तर घरेलू कलह,क्लेश, हिंसा,वाद विवाद,का वातावरण आदि की भूमिका आपके बच्चे की मनःस्थिति को गहराई से प्रभावित करते हैं जिससे उसका मानसिक व शारीरिक विकास प्रभावित होता है बस उसी का प्रदर्शन बचपन के व्यवहार में परिवर्तन का ऐसा बीजारोपण कर देता है जिसका समय पर परिष्कार नही किया गया तो जीवन भर उन्हें सुधारा नही जा सकता है।


सामान्य जीवन मे जिन्हें हम उसका बचपना या आदत का हिस्सा मानकर नजरअंदाज अथवा बड़े होने पर सुधर जाने की उम्मीद में संतोष कर समय पर अपेक्षित जिम्मेदारी नही निभाते तो धीरे धीरे वही बीजांकुर उस बच्चे के विकसित होते व्यक्तित्व की शाखाओं का परिचय बन जाते हैं।
हमारी अनभिज्ञता या अज्ञानता ,अत्यधिक स्नेह, दुलार प्यार अथवा सुविधा ,संसाधन उपलब्ध कराने की आर्थिक आपूर्ति में पूरित जिम्मेदारी का हमारा आत्मसंतोष ,उपेक्षित बालमन को समझने और उसे उसके अनुरूप महसूस करने से वंचित कर जाता है।

जानने की कोशिश करे बालमन क्या महसूस करता है ?

बच्चे सरल हृदय होते हैं ,जो अभिव्यक्ति की भाषा आचरण से सीख रहे होते है, उनके मन की यह सरलता, सरल ,स्नेहिल व्यवहार के साथ ही सहजता महसूस कर सम्बद्धता स्थापित कर पाती है।यदि ऐसा न हुआ तो उनका मन पढ़ाई के विषयों से जुड़ने में कठिनाई महसूस करता है, अपने परिवार के बड़े बुजुर्गों, हॉस्टल के पालक या विद्यालय के साथियों के साथ , सहज सम्बद्धता स्थापित नही कर पाता, मन का द्वंद कुंठा में तब्दील हो सहपाठियों में आपस के झगड़े करवाता है, बार बार चोट की चपेट में आते हैं, नियम विरुद्ध आचरण की प्रबृत्ति बढ़ती है ,जिसके लिए बार बार दण्डित किये जाने पर ,भी निरंकुशता का विरोधी भाव प्रबल होने लगता है।
यदि बाल्यकाल में ही इन प्रवृत्तियों की पहचान कर इनपर अंकुश नही लगाया गया तो बड़े होने पर परिवार ,समाज ,में जीवन सम्बन्धी नियम, प्रदेश ,देश के कानून ,संविधान विरुद्ध कार्य में संलिप्तता इन्हें अनुचित नही लगेगी और ऐसे ही लोगों का कोई भी नकारात्मक उद्देश्यों की पूर्ति में आसानी से प्रयोग कर सकता है। वस्तुतः असामाजिक अनैतिक उद्देश्य भी एक विकृत प्रवृत्ति है जिसे समान  प्रवृत्ति से साधना आसान होता है, इसलिए नकारात्मक मानसिकता के लोग अपनी जैसी मानसिकता को सहज पहचान लेते हैं और उनके सम्बन्ध भी परस्पर स्वार्थपूर्ति की भावना से भरे अर्थ आधारित होते है, इसलिए जल्दी प्रगाढ़ हो सकते है ,आसान शब्दों में इसे ही ब्रेन वाश करना कहते हैं ।
इसलिए माता पिता को अपने बच्चों पर समय स्नेह और ध्यान देना आवश्यक है।

माता पिता क्या करें, क्या न करें ?

बच्चों के सही मानसिक विकास के लिए माता पिता का सक्रिय सहयोग अतिआवश्यक है।
अपने बच्चों के साथ घनिष्टता, से खुले मन व खुले दिल से बात करें, उनकी ज्यादा से ज्यादा सुनें उनकी जरूरतों को समझें और तदनुरूप उन्हें उचित अनुचित का परिचय कराते रहें।
उनके अच्छे व्यवहार पर प्रशंसा अवश्य करें, कभी किसी अच्छे कार्य के लिए इनाम दें।
बात बात पर दण्डित करने से बचें, बहुत आवश्यक होने पर उन्हें घर की किसी चीज जैसे बुरे व्यवहार पर  टीवी नही देखनी, मिठाई नही मिलेगी ऐसे छोटे दण्ड को टास्क जैसे देंगे और अच्छे व्यवहार पर घूमने ले जाने का पुरस्कार देने जैसा प्रयोग करेंगे तो उनपर प्रतिस्पर्धा में अच्छा आचरण सीखने की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी।
इसके साथ ही  नियमित रूप से चिकित्सकीय मार्गदर्शन घर मे या विद्यालय में भी व्यवस्था करवाने की योजना हो सके तो परिणाम बेहतर मिलेंगे।

कैसे करें विहेवियर डिसऑर्डर का प्रबन्धन  ?

विहेवियर डिसऑर्डर में समुचित प्रबन्धन के लिए बच्चे के शारीरिक मानसिक  वातावरणीय कारणों के आधार पर चयनित होम्योपैथी औषधियों का प्रयोग निश्चित रूप से लाभदायी है क्योंकि इन दवाओं की प्रूविंग और इलाज के लिए सैद्धान्तिक प्रायोगिक रूप से इन्ही लक्षणों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है। किंतु औषधीय उपचार प्रारम्भ करने से पूर्व बच्चे को परिवार का स्वस्थ वातावरण प्रदान करते हुए कलहपूर्ण परिस्थितियों को दूर करना आवश्यक है क्योंकि यह पहले तो उत्प्रेरक कारक की तरह और बाद में मेंटेनिंग कारण की तरह अवरोध का कार्य करती हैं।
इस प्रकार आप कह सकते हैं कि परिवार, होम्योपैथ और व्यवहार मनोवैज्ञानिक का संयुक्त प्रयास आपके बच्चे के विकार को अपेक्षित सामान्य व्यवहार में निश्चित ही वापास ला सकता है। व्यवहार विज्ञानी बच्चे को व्यक्तिगत और माता पिता को भी समुचित प्रबन्धन के कुशल तरीके का मार्गदर्शन कर सकते है।
ऐसे मामलों में कुशल होम्योपैथ भी आपका सहयोगी हो सकता है जो उक्त मार्गदर्शन के साथ आवश्यक लक्षणों के मूल्यांकलन के आधार पर आपके बच्चे के लिए वैयक्तिक औषधि चयन कर सकता है। सामान्यतः चोरी , झूठ, क्रोध, आवेश, निर्दयता क्रूरतापूर्ण आचरण, तोड़फोड़, अवज्ञा, स्वयं को या दूसरों को नुकसान पहुँचाने अथवा अल्पायु में यौन क्रियाओं में संलिप्तता आदि के व्यवहार के लिए होम्योपैथी में एब्सिन्थिनम,ओपियम, कैमोमिला,नाइट्रिक एसिड,स्टैफिसैग्रिया,टैरेन्टुला, औरम मेट, बुफो राना आदि औषधियों का प्रयोग करते हैं।किंतु होम्योपैथी दवाओं का चयन ही इस पद्धति की विशेषता है इसलिए महज कहीं पढ़कर या सुनकर दवाओं का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए,वांछित लाभ के लिए विश्वास सहित सदैव कुशल,प्रशिक्षित चिकित्सक के निर्देशन में ही दवाओं का प्रयोग करना चाहिए।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
परामर्श चिकित्सक होम्योपैथ
अयोध्या

सर्दियों में संक्रामक त्वचा रोग- स्केबीज (खाज)

प्रमुख लक्षण -त्वचा में खुजली, जलन व चकत्ते 

बचाव का उपाय - न मिलाएं हाथ , कहें नमस्कार

 
सर्दियों की शुरुआत में ही प्रतिरक्षा प्रणाली की न्यूनता का असर संक्रामक रोगों की बढ़ी संभावना के रूप में दिखती है। इन दिनों होने वाली खाज खुजली  ऐसी जटिल समस्या है जो छुआछूत से बड़ी तेजी से फैलती है। चिकित्सकीय भाषा मे इसे स्कैबीज़ कहा जाता है। यह आठ पैर वाले के जुएं या घुन प्रकार के कीट (माईट) सार्कोप्टेसस्केबियाई  के कारण होती है। निकट सम्पर्क से संक्रमण फैलने की संभावनाओं के चलते परिवार में , स्कूल, ऑफिस, अस्पताल आदि जगहों पर त्वचा के परस्पर सम्पर्क ,या कुछ मामलों में बिस्तर, कपड़े या फर्नीचर आदि के सम्पर्क से भी फैल सकता है, क्योंकि यह मानव शरीर के अतिरिक्त 3 - 4 दिन तक अन्य वस्तुओं पर जीवित रह सकता है।
कैसे फैलता है संक्रमण -

स्केबीज के कीट(माईट) त्वचा में  सुरंगनुमा छेद बनाते हुए प्रवेश करते हैं, प्रजनन कर अपने अंडे छोड़ देते है जिनके फूटने पर निकलने वाले लार्वा त्वचा में अलग दिशाओं में या शारीरिक संपर्क के दौरान दूसरे शरीर में फैलने लगते हैं।
स्केबीज त्वचा पर कहीं भी विकसित हो सकता है किन्तु ज्यादातर गर्दन के नीचे के शरीर में जोड़ या मोड़ वाली जगहों जैसे उंगलियों की मध्य की त्वचा, नाखूनों के आसपास, कोहनी, कलाई,कपड़ों या आभूषणों के नीचे, नितंबों, पुरुष गुप्तांगों और निपल्स के आसपास की त्वचा में यह कीट घुसकर त्वचा के स्तरों में प्रवेश पा जाता है और कुछ दिन तक सुरंग (बरोज़) बनाते हुए उनमे प्रजनन करते हुए अपनी संख्या बढ़ाते रहते है व एक हिस्से से दूसरी तरफ बढ़ते रहते हैं।
संकेत -
स्कैबीज़ कीट (माईट) के त्वचा में प्रवेश के बाद लक्षण विकसित होने में समय लगता है। जिन्हें पहले कभी संक्रमण हो चुका है उनमें तो 1- 4 दिनों में खुजली शुरू हो जाती है किन्तु जो पहली बार इसकी चपेट में आये हैं उनमे 2-4  सप्ताह लग सकता है।

स्केबीज के लक्षण -

स्केबीज माइट्स के अंडे और उनके अपशिष्ट पदार्थों के रिएक्शन का परिणाम स्वरूप प्रभावित व्यक्ति को रात्रिकाल में बिस्तर की गर्मी के साथ त्वचा में जलनयुक्त खुजली इतनी तीव्र होती है, कि व्यक्ति सो नही पाता।
इसके अतिरिक्त त्वचा पर छोटे-छोटे दाने ,छोटे कट, फुंसी या हीव्स या एक्जिमा की तरह परतदार व पपड़ीदार चकत्ते भी दिखाई देते हैं । 
इन खुजलीदार चकत्तों को अधिक खरोंचने से घाव बन सकता है जिनमें अन्य जीवाणु, विषाणु के संक्रमण भी विकसित हो सकते है।

कैसे करें बचाव - 

संक्रमण की पुनरावृत्ति व माइट्स के अन्य लोगों में फैलने से बचाव के लिए सबसे पहले जरूरी है कि पूरे परिवार के सभी कपड़े, तौलिये और बिस्तरों की चादरों को गर्म पानी में डिटॉल डालकर साबुन से अच्छी तरह धुल कर धूप में सूखाएं।
दूसरा सरलतम उपाय है कि घर या बाहर संक्रमित व्यक्ति की त्वचा से सम्पर्क न हो, इसलिए मिलने और पाश्चात्य संस्कृति की हाथ मिलाकर अभिवादन की शैली का त्याग कर भारतीय संस्कृति के अनुरूप नमस्कार करने की आदत डालें। 


पहचान एवं पुष्टि-
चिकित्सक दाने के प्रकार, व लक्षण देखकर ही पुष्टि कर सकते है।
उपचार-
रोग की संक्रामकता को देखते हुए सही  उपचार के लिए घर के सभी सदस्यो का रोगी के साथ-साथ इलाज होना चाहिए। एलोपैथी में पूरे शरीर मे एक साथ लगाने के लिए लोशन व खुजली के लिए एंटिहिस्टामिन दवाएं दी जाती है। 
होम्योपैथिक पद्धति से उपचार- 
होम्योपैथी में रोग लक्षण की उत्पत्ति का मूल कारण सोरा दूषित विष को माना जाता है, वस्तुतः यह व्यक्ति में सोरा मायज्म के उद्भवन एवं प्रस्फुटन का संकेत है। इसलिए रोगी को निजात दिलाने के लिए सल्फर, सोराईनम, कॉफिया, एसिड नाइट्रिक, एजाडिरेक्ट इंडिका, लूकस अस्पेरा ,एंथ्रोकोकली , बालसेमम पेरू आदि एन्टीसोरिक दवाएं सफलता पूर्वक प्रयोग की जाती हैं, किंतु इन औषधियों की शक्ति , मात्रा  व खुराक का निर्धारण होम्योपैथ चिकित्सक ही कर सकता है इसलिए बिना किसी चिकित्सक को दिखाए कोई दवा नही लेनी चाहिए।




डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ ,अयोध्या

Monday, 2 December 2019

स्वच्छता से ही मिलेगी सुरक्षा स्काईबीज की खुजली से

मुख्य लक्षण - त्वचा पर दाने, चकत्ते और खुजली 

सर्दी की दस्तक के साथ मौसम में शुष्की भी बढ़ जाती है, गर्म कपड़े ,निकल आते है खान पान रहन सहन आदि की दिनचर्या में भी बदलाव आने लगता है, इन्ही दिनों में जरा भी असावधानी से स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक समस्याएं  हो सकती है। 
सर्दियों में पाचन तो कुछ ठीक रहता है किंतु असावधानी से पाचन सहित सांस,हृदय, जोड़ों के दर्द आदि समस्याएं बढ़ जाती हैं। शरीर की सफाई पर ध्यान न देने, एक ही कपडे को कई दिन पहनने, स्नान न करने आदि से या सर्दियों के कारण शरीर के ताप को नियंत्रित करने के लिए सतही कोशिकाओं में सिकुड़न से रक्तसंचार धीमा व दाब अधिक होने से त्वचा की शुष्की से खुजली का रोग होता है। आजकल इसका जो प्रकार फैलने सबसे अधिक संक्रामक होता है उसमें त्वचा पर लाल से सूखे चकत्ते, या लाल दाने उनमे खुजली फिर दानो में पानी होता है। यह स्कैबीज़ हो सकता है।
 यह कुत्ते बिल्लियों पर पाए जाने वाले एक प्रकार के अर्थ्रोपोड परजीवी सरकॉप्टिस स्कैबियाई के मनुष्यों के सम्पर्क में आने से पहले मनुष्य की त्वचा पर पहुचता हैं ,जहाँ से यह त्वचा में एक परत के नीचे प्रवेश कर एक सुरंग (बरोज़) जैसा रास्ता बना लेते हैं जिसमे ये अपनी संख्या बढ़ाते हुए शरीर में एक जगह से दूसरी जगह तक फैलता जाता है।
 इससे ग्रसित व्यक्ति को अत्यधिक खुजली होती है , सामान्य क्रीम या दवा लगाने से कुछ दिनों तक आराम का अनुभव होगा किन्तु तबतक यह परजीवी प्रजनन से अपनी संख्या बढ़ते रहते है।शुरुआत या अधिकता शरीर मे मोड़ या जोड़ वाली जगहों पर अधिक , बालों या रोएं की जड़ों के पास आठ पैर वाली जुएं की तरह चपटे परजीवी किन्ही में दिख भी सकते है। दिन की अपेक्षा रात में , या कपड़े उतारने पर भयंकर खुजली होती है यहां तक कि खुजलाते खुजलाते खून तक निकल आता है।
बचाव एवं उपचार 
 किसी संक्रमित व्यक्ति का इलाज सपरिवार किया जाना चाहिए जिससे अन्य प्रभावित न हों, किन्तु इससे पूर्व सभी कपड़े, चद्दर, खोल, आदि गर्म पानी मे पूरी तरह भिगो कर धुल लेना चाहिए, संक्रमित व्यक्ति से हाथ न मिलाएं,न उसके कपड़े, तौलिया, रुमाल आदि प्रयोग करें।
नियमित स्नान करें ,स्नान से पूर्व सरसों का तेल, या बाद में नारियल तेल त्वचा पर जरूर लगाएं।
होम्योपैथी में लक्षणों की तीव्रता के आधार पर चिकित्सक स्वयं परीक्षण कर उचित दवा का चयन एवं परामर्श देते हैं, इसलिए किसी भी दवा का प्रयोग केवल प्रशिक्षित चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए, क्योंकि होम्योपैथी दवा के दुष्परिणाम तो नहीं हैं किंतु गलत आधार आधार पर गलत दवा से आपके रोग की दिशा बदल सकती है जिससे उसके सही उपचार में दिक्कत हो सकती है।


डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी

Sunday, 3 November 2019

सफेद सत्य : उपवन का फल किसका?

उपवन का फल किसका?

बलराम के पास गांव में कुछ जमीन थी , खेती किसानी से गुजर चल रहा था मगर उसे कुछ नया करने की ललक रहती, आखिर उसने एक योजना बनाई विचारों की खेती की। गांव वालों ने सुना और उसकी हंसी उड़ाते, सो उसने फल देने वाले पौधे लगाना शुरू किए, उनकी देखभाल सिचाई गुड़ाई करता।
गांव वाले कहते मूर्खः है जब ये पेड़ बड़े होंगे तब तक यह मर जायेगा।
लेकिन बलराम को देखकर कुछ बच्चों को भी खेल खेल में पौधे लगाने में आनन्द आने लगा, फिर क्या था कुछ ही वर्षों में आस पास के गांवों शहरों में भी लोग बलराम से बागवानी का हुनर सीखने लगे, उन्हें लाभ भी होने लगा।
बलराम ने जितने भी पेड़ लगाए मगर किसी बगीचे को अपना नही कहा।
समय गुजरता गया बलराम ने हजारों पेड़ो को जीवन देकर अपने जीवन से विदा ले ली, अपने बच्चो से वायदा लिया कि वे उनके इस अभियान को रुकने नही देंगे और न इसका व्यापार करेंगे उनके उपवन के फल उनके सभी परिवारीजन खा सकेंगे ।सब परिवारीजनों ने वचन दिया, और मन वचन कर्म से कार्य करते रहे।
बहुत समय बाद जब नई पीढियां जवां होने लगी तो उन्होंने सोंचा किसी तरह इन बगीचों में आना जाना शुरू हो तो फलों का धंधा चल सकता है, फिर क्या था पहले एक फिर उसके पीछे दूसरा उससे जुड़े अन्य लोगों का बगीचे में आना जाना शुरू हो गया, तो उसमें से कुछ ने फ्लो के बदले बगीचे के लोगों को धन देना शुरू किया पहले तो उन्होंने मना किया फिर जब उन्हें परिवार का होने का वास्ता दिया गया तो उन्हीने सहमति दे दी।
अब बगीचे के फल बाजार तक आने लगे, इसका असर यह हुआ कि जो लोग मेहनत कर रहे थे अच्छे फल उनको या उनके बच्चों को  मिलने की बजाय बाजार के लिए रख लिए जाते।
अब बगीचे में खटिया के मचान की जगह एक बढ़िया आफिस भी खुल गया था, 
धीरे धीरे उस ऑफिस में आने वाले लोगों को आम लोग भी बगीचे का मालिक समझने लगे और जो उसे बनाते रहे वे मजदूर की पहचान में आते गए।

यह बात कुछ बड़े बुजुर्गों की समझ मे आने लगी लेकिन उन्होंने कुछ बोलना ठीक नही समझा, क्योंकि उन्हें लगा उनके जीवन मे तो कोई दिक्कत है नही , आगे जो होगा वह देखेगा।
अब पेड़ लगने कम हो गए, पुराने भी आंधियों में गिर जाते, या कीमती लकड़ी के लिए बेंच दिए जाने लगे ।

बगीचा कम होने लगा मगर पुराने पेड़ बात कर रहे थे जब तक हम फल देंगे बचे रहेंगे वरना कल हम भी काट दिए जाएंगे
और बागवान सोंच रहा था जमीन हमारी, पौधे की मेहनत हमारी, और जब पेड़ फल देने लगे तो उनका व्यापार करने वाले कोई और मालिक कैसे बनने लगे,  हमारे ही बच्चे भूखे क्यों ?
अब वह सोंच रहा था बगीचे के फल का मोह छोड़ अपनी किसानी पर मन लगाया जाय, खाने को रहेगा तो उसी की फसल बेंचकर जब मन करेगा फल खरीद कर खा लेंगे।


डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Wednesday, 24 July 2019

सफेद सत्य : सत्य को सुहानुभूति और असत्य को समर्थन

सदैव सत्य बोलो ,
सत्य के मार्ग पर चलो,
सत्य के साथ रहो,
सत्य परेशान हो सकता है किंतु पराजित नहीं ,
झूठ ज्यादा देर नहीं टिकता,
झूठ की उम्र नही होती किंतु सत्य शाश्वत है.

..आदि ऐसे पाठ बचपन से हमें जीवनकौशल की शिक्षा के रूप में सिखाये , पढ़ाये और बताये जाते हैं , कम शब्दों में यह जीवन के लिए बड़ा उपदेश हैं जो मनुष्य को अनादि काल से ऋषियों मनीषियों ने गूढ़ सार के रूप में बताया क्योंकि एकमात्र सत्य के मार्ग पर चलने से मनुष्य अन्याय बुराईयों अपराधों से बच सकता है। यह ऐसी अपेक्षा  है जो दूसरों से तो की जाती है स्वयं के आचरण में व्यवहृत होती कम ही दिखती है। इस स्तर पर एक जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यदि मनुष्य यह जनता है तो इसका पालन क्यों नही करता? उत्तर की दृष्टि से इस प्रासंगिक प्रश्न के कई कारण हो सकते है किन्तु सबसे सरल उत्तर हो सकता है वह है समाज की स्वीकार्यता।
क्योंकि इस भौतिक जगत में मनुष्य की तीन प्रमुख  इच्छाएं  होती हैं जिनकी पूर्ति वह करना चाहता है वे हैं वित्तेष्णा, पुत्रैष्णा, लोकेष्णा , यह तीनों के लिए उसने जो मापदण्ड निर्धारित किये वे धन ,पद एवं सम्प्रभुता, प्रतिष्ठा, और ऐश्वर्य  हैं। मनुष्य इतिहास से शिक्षा लेता है किंतु वर्तमान का निर्धारण वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार ही ले सकता है। वह अपनी शिक्षा और ज्ञान के सापेक्ष समाज के सफल व्यक्तियों का अध्ययन करता है उनके आचरण को परखता है और उनसे आगे बढ़ने की लालसा में अपने जीवन की सीमित अवधि में लगभग वैसे ही आचरण को स्वीकार करने लगता है। अब यदि अपनी अभिलाषित उपलब्द्धि के लिए असत्य का मार्ग सरल और सहायक सिद्ध होता दिखता है तो वह एक समय बाद परिस्थितियों की दासता में बंध जाता है, उसके पास उम्र के सापेक्ष धैर्य और साहस की एक सीमा है यद्यपि उसे यह भी ज्ञात होता है कि गलतियाँ, विफलता, अपमान, निराशा और अस्वीकृति, ये सभी उन्नति ,प्रगति और विकास का ही एक हिस्सा है। कोई भी व्यक्ति इन सभी पाँचो चीजों का सामना किये बिना जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु वह सरलता से प्राप्त होने वाली समर्थित सफलता को पाए बिना नहीं रहना चाहता।
दृश्यमान जीवन और जगत को मिथ्या और असत्य , मृत्यु और ईश्वर को परम सत्य बताने वाले आध्यात्मिक जगत के हमारे मनीषियों ने मानव कल्याण के लिए अपने अन्वेषणों के पश्चात जो जीवन शैली के नियम बताए उन्हें समेकित रूप में धारण करने योग्य अर्थात धर्म की संज्ञा दी गयी इसे ही सत्य सनातन धर्म कहा गया होगा। हमारी युगों की गणना बताती है कि यह नियम मानव कल्याण के लिए बने थे लोग इनका पालन भी करते  थे, वे ज्ञानी, सात्विक आचरण वाले , वैज्ञानिक सोच के किन्तु सरल प्रकृति प्रेमी , शिक्षित और समृद्ध रहे होंगे, कालांतर में विकार आता गया होगा। किन्तु एक संशय पुनः खड़ा होता है कि इसी इतिहास में धर्म की पुनर्स्थापना या रक्षा, की इतनी आवश्यकता क्यों होती रही कि स्वयं ईश्वर को अनेकानेक रूपों में अवतरित होना पड़ा, और फिर इस संसार के प्राणियों ने उनसे  कोई शिक्षा ग्रहण की अथवा वह मात्र किस्से कहानी के पात्र बन गए ? जिन मानवोचित आदर्शों की बातें महापुरुषों की जीवनगाथा बनी उनका आचरण करने वाले उनके अनुयायी कोई उदाहरण बने भी या नहीं? इस समाज ने जिन गुणों को पूज्य माना उन्हें आचरण में क्यों नही ला सका ? अथवा उस आचरण को वैसी स्वीकृति , सम्मान ,अधिकार, और पद से प्रतिष्ठित क्यों न किया जा सका कि वे अन्य के व्यवहार के लिए उदाहरण बन सकें।
यदि यह तर्क दिया जाता हो कि आदर्श पर चलना बड़ा कठिन है तो उनपर चलने वाले का संघर्ष भी अधिक होता होगा फिर ऐसे उदाहरण कितने हैं जिन्हें किसी भी कालखण्ड के समाज ने स्वीकृति सहमति समर्थन और सम्मान दिया हो ? निश्चित रूप से यह शोध का विषय होगा क्योंकि यदि ऐसा होता तो राम के राज्य स्थापना के साथ उस काल मे दूसरा राम न सही किन्तु अनेकों मर्यादा पुरुष और पीढियां तैयार हो जानी चाहिए थीं जिनसे सुधार की प्रक्रिया विकसित होते जानी चाहिए थी किन्तु ऐसा ही नही हुआ समाज पुनः असत्य के आकर्षण में अस्तित्व के संघर्षों में गिरता गया होगा तभी कंस जैसे कुपुत्र कुपात्रों का जन्म हुआ होगा और पुनः ईश्वर कृष्ण रूप में धरती पर आना पड़ा होगा।
असत्य पर सत्य की विजय और धर्म की स्थापना के यह प्रमाण यह भी बताते हैं कि दुर्बल कहे जाने वाले असत्य की सत्ता अनादि काल से कितनी प्रबल रही होगी कि बार बार उसे हराने के लिए स्वयं ईश्वर को अवतार लेना पड़ा, फिर भी उस असत्य का समूल नाश कभी न हो सका अपितु उसकी स्वीकार्यता का विस्तार होता गया और जड़ें गहरी होती गईं तभी तो सत्य असत्य का जो संघर्ष किसी युग मे दो अलग विश्व (स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक,पाताल लोक) में होता था वह त्रेता में पृथ्वी पर दो राज्यो से होते हुए द्वापर में एक ही राज्य एक परिवार तक गहराता गया जो  इस कलिकाल में व्यक्ति के अंतर का द्वंद बन गया है । वह अपनी ही अच्छाई बुराई में अंतर नही कर पाता निरन्तर द्वंद बढ़कर जब उसकी मानसिक क्षमताओं पर प्रभावी होने लगता है तो असफलताएँ देता है जिसकी निराश परिणति उसे अवसाद के अंधेरे में खींच ले जाती है जहां जीवन में हर तरफ दिखने वाले घनघोर अंधकार में जब उसे सत्य के प्रकाश की कोई किरण नही दिखाई देती तब उसका दम घुटने लगता है और यह घुटन उसके लिए कभी कभी प्राणघातक भी बन जाती है, वह आत्महत्या जैसा दुस्साहसिक कृत्य कर जाता है ।
वास्तव में इस अपराध का कारण व्यक्ति में ही प्रबल हुई असत्य की वह नकारात्मक विचार वृत्ति है जिसने उसके अंदर सत्य के आचरण से चोटिल हुए विश्वास पर सहज ही विजय प्राप्त कर लेती है।
समाज सत्य के महत्व को तो स्वीकार करता है, उसे स्थापित भी मानता है किंतु उसके आचरण को स्वीकार्यता देते समय वह असत्य के उस आडम्बर को ज्यादा महत्व देता है जो सत्य के  श्वेत आवरण का आकर्षण धारण किये होता है।
वर्तमान ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, आए दिन स्वघोषित धर्मगुरुओं के कारनामे, सत्ता, सम्पत्ति व अधिकार के लिए अपनाए जा रहे हथकंडे, शोर में दबती बुद्धिजीवियों की आवाजें आदि न जाने कितने उदाहरण प्रतिदिन आपको मिल जाएंगे।
विषय बहुत विस्तृत है पक्ष विपक्ष में बहुत तथ्य तर्क उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं किन्तु विचारणीय तथ्य यही है कि समाज हमसे ही निर्मित होता है, और हम अपेक्षा दूसरों से करते हैं। हम सत्य को तब तक अच्छा और आचरण के योग्य मानते है जब उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता हो, किन्तु अपने हितों की कीमत पर सत्य के आचरण का मार्ग चुनने का साहस नहीं करते। हमारे पैमाने हमारी आवश्यकताओं अभिलाषाओं और सुविधाओं के साथ बदलते जाते हैं, फिर हम जो करते है उसे अपनी तार्किक बुध्दि से सत्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं अर्थात मैं ही सत्य शेष मिथ्या।
यही भाव तो समाज का बनता गया इसलिए सत्य को सुहानुभूति और असत्य को समर्थन जारी है।

समाज मे सुधार की प्रक्रिया अनादि काल से चलती रही है फिर भी समाज मे स्नेह ,सद्भाव ,सहयोग, समरसता आदि सामाजिक आदर्शों को समाज ने अपेक्षानुरूप अंगीकार नही किया और उनमेंं निरन्तर क्षरण की प्रक्रिया जारी है, जिसका उदाहरण विकसित या विकासशील सभी देशों में धर्म ,जाति , समुदाय, सांस्कृतिक श्रेष्ठता आदि के नाम पर, सामाजिक विघटन की घटनाएं, आपसी द्वंद, आतंकवाद, संघर्ष बढ़ते जाएं तो यह चिंतन का विषय क्यों नही होना चाहिए ? ऐसे में धर्म प्रचार प्रसार के नाम पर नित नए संस्थानों की क्या उपयोगिता ?
वर्तमान युग मे पिछले 2-3 दशकों में सूचनाओं के प्रचार प्रसार के तमाम माध्यम विकसित हुए जिनकी उपलब्धता तो सहज हो गयी किन्तु उनपर प्रस्तुत होने वाली सामग्रियों की प्रमाणिकता  और उनका समाज की मनःस्थितियों पर होने वाले प्रभावों का कोई आकलन शायद ही किया गया होगा, और यदि किसी ने किया भी तो उससे प्राप्त होने वाले अभिलक्षित लाभ से हानि के आकड़ो को छिपा दिया गया होगा।
अपने लक्ष्य को साधने की विचारधाराएं इन्ही माध्यमों से हमारे आपके परिवार पीढ़ियों बच्चों के मन मस्तिष्क तक कभी मीडिया, सोशल मीडिया,सिनेमा, आदि अनेक रूपों में बड़ी सरलता से पहुँचती रहती है। व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित उसकी मनः स्थिति हर दिखने या छपनेवाली विषय वस्तु को जो बार बार उसके सामने लायी जाए जिसे वह सहज स्वीकार न भी करता हो वस्तुतः यह स्वीकृति का प्रथम सोपान ही कहा जाए तो बेहतर है क्योंकि इस समय जब समय पर प्रतिकार नहीं होता तो कुछ समय बाद वह स्वयं सामान्य स्वीकृति में बदल जाती है। इसी प्रकार हम अपनी न जाने कितनी परम्पराओं को रूढ़िवादी मानकर त्याग करते गए , जिनमे से कुछ समाजोपयोगी तरीको को अन्य ने अपनाया भी, किन्तु हम जिन्हें स्वीकार करते गए जब उनसे पीड़ित होने पर यह अनुभूति होती है कि ये वही विकृतियां थीं जिन्हें हमने आधुनिकता के नाम पर अपनाया, वही जिनका वास्तविक स्वरूप किसी आकर्षक असत्य के आवरण में आकर्षक लगा था।

कहावत है जिंदा कौमें मीलों दूर के खतरों को भांप लेती हैं और उसके अनुसार अपनी तैयारी करती है, और जो लोग खतरे के दरवाजे तक आने पर उसे जीत लेने का भ्रम रखते हैं वे आराम से सोते रहते हैं, परिणाम जीवन के संघर्ष में तबाही ही उनके हिस्से में आती है।
हमारे देश, समाज मे ,आसपास क्या घटित हो रहा है यदि हम इन सबसे सिर्फ इसलिए निरपेक्ष रहते हैं कि हमे इससे क्या मतलब तो यूं समझ लीजिए कि आप उसी दूसरी श्रेणी में सम्मिलित हो गए हैं जो निद्रा में है।

अब प्रश्न उठता है कि समाधान क्या है  ? क्योंकि ऐसे विकार समाज मे इतना धीरे धीरे स्थापित होते हैं कि इन्हें हम अपने जीवन और उन्नति के लिए आवश्यक मान लेते हैं, इसलिए इसके समाधान में किसी देश का कानून या संविधान अथवा सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं सिवाय इस सामाजिक मनोवृत्ति का लाभ उठाने के, इसलिए व्यक्ति या उससे निर्मित होने वाले समाज को स्वयं इस परिवर्तन के लिए अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी होगी, आदर्शों को अपने जीवन मे अपने परिवार बच्चों के आचरण में उतारना होगा। स्वयं के आचरण मानवीय आदर्शों को ससम्मान पुनर्स्थापित करना होगा, और सरकारों को भी सत्य को सम्मान समर्थन देना होगा तभी सकारात्मक परिवर्तन की उम्मीद कर सकते हैं।तभी कोई बालक नरेंद्र व्यक्ति को जोड़कर देश के नक्शे को पूरा सही जोड़ पायेगा , यदि वह नक्शे को जोड़ने का प्रयत्न करें तो व्यक्ति उसी तरह छूट सकता है जैसे सत्य सुहानुभूति से।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
चिकित्सक होम्योपैथ

Saturday, 6 July 2019

होम्योपैथी चिकित्सा अधिकारी साक्षात्कार प्रश्नोत्तरी :एक दृश्य

विगत दिनों राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा होम्योपैथी चिकित्सा अधिकारी पदों के लिए अभ्यर्थियों का साक्षात्कार लिया गया। प्रस्तुत है उस अनुभव का एक चित्रण।
मुख्य गेट से अंदर प्रथम प्रवेश द्वार पर सभी ने अपने मोबाइल जमा करा अपने प्रमाणपत्रों के सत्यापन और साक्षात्कार शुल्क जमा कराने एक निश्चित हाल में पहुँचते है जहां से क्रमशः उन्हें साक्षात्कार प्रवेश की अनुमति के साथ कोड प्राप्त कर रिक्त बोर्ड  के सम्मुख पंक्तिबद्ध कर दिया जाता है।
अभ्यर्थी को अपने लिए निर्धारित बोर्ड में केवल कोडेड पत्र के साथ ही उपस्थित होना होता है।

गेटमैन ने दरवाजा खोल अंदर जाने का संकेत किया उसे धन्यवाद कह प्रवेश की अनुमति के साथ बोर्ड के समक्ष उपस्थित हो यथोचित अभिवादन के बाद संकेत पर निर्धारित कुर्सी पर आसन्न।

प्रथम : सदस्य;
प्रश्न - किस पद के लिए आवेदन किया है ?
उत्तर- सर, होम्योपैथी चिकित्सा अधिकारी पद हेतु..

प्रश्न- किस विभाग के अंतर्गत आता है यह पद ?
उत्तर-  होम्योपैथी विभाग।

प्रश्न- मंत्रालय कौन सा है इसका?
उत्तर- सर, आयुष मंत्रालय।

प्रश्न- आयुष के अंतर्गत कौन सी पद्धतियां है ?
उत्तर - सर, आयुष के अंतर्गत आयुर्वेद, योग एवं नैचुरोपैथी,यूनानी, सिद्धा, और होम्योपैथी पद्धतियां सम्मिलित हैं।

प्रश्न -आयुष मंत्री का नाम पता है ?
उत्तर- जी सर, डॉ धर्म सिंह सैनी...

प्रश्न -और केंद्र में?
उत्तर- (त्रुटि सुधार के साथ)
राज्य में मा. डॉ धर सिंह सैनी व केंद्र में श्रीपद नाईक यसो।

टिप्पणी सदस्य -ok यसो ,गुड, अब प्रश्न एक्सपर्ट के लिए-
द्वितीय - एक्सपर्ट

प्रश्न - कहां प्रेक्टिस करते हैं?
उत्तर- जनपद........ में।

प्रश्न- गांव या शहर ?
उत्तर- मैम दोनो ही क्षेत्रों में अलग अलग समय।

प्रश्न- कैसे मरीज ज्यादा आते हैं?
उत्तर- एक्यूट और क्रॉनिक दोनो ही, यद्यपि ग्रामीण क्षेत्र में एक्यूट अपेक्षाकृत अधिक, और शहरी क्षेत्र में क्रॉनिक पेशेंट अधिक, भिन्न आयु वर्ग के विशेषकर महिलाएं और बच्चे।

प्रश्न- महिलाओं में कैसे मरीज है ?
उत्तर- प्रौढ़ में शरीर एवं जोड़ों के दर्द व त्वचा सम्बन्धी, एवं किशोरी युवती एवं विवाहित में मासिक धर्म की अनियमितताओं व सौंदर्य सम्बन्धी परामर्श हेतु अधिक।

प्रश्न - एक्यूट रोगों में कैसे पेशेंट देखने को मिलते है आपके क्षेत्र में?
उत्तर- सामान्यतः मौसम के अनुरूप सर्दी, खांसी, जुकाम, बुखार, दस्त या डायरिया, डिसेंट्री,खुजली, दाद आदि।

प्रश्न - डायरिया का मैनेजमेंट कैसे करते हैं ?
उत्तर-  मैम, डायरिया के ज्यादातर शिकार बच्चे या किशोर आते है मेरे क्षेत्र में, मरीज के लक्षणों को अनुसार, यदि दस्त की आव्रत्ती अधिक है तो सर्व प्रथम चयनित औषधि के साथ डिहाइड्रेशन लेवल की पहचान करते हैं, यदि कम है तो ओरल रिहाइड्रेशन से नियंत्रित करने की सलाह व विधि बता दी जाती है जैसे नमक, चीनी, पानी का घोल, अथव ओ आर एस घोल, और यदि अधिक प्रतीत होता है तो नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र से रिहाइड्रेशन थेरेपी लेने की सलाह दे देते है। इसके साथ ही परिवारीजनों को स्वच्छ पानी, उबाल कर सामान्य तापमान पर ठंडा कर पीने , हाथ धुलकर भोजन, फल एवं सब्जियों को कुछ देर पानी मे डुबोकर रखने, उसके बाद ही धुलकर खाने की जानकारी भी देते हैं। और इस हेतु जागरूकता के लिए विद्यालयों या गांवों में स्वास्थ्य प्रबोधन शिविर के माध्यम से भी आमजन को उनके स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता एवं बचाव की जरूरी जानकारियां उपलब्ध कराने हेतु समय समय पर जाते हैं।

प्रश्न - अच्छी बात, संक्रामक रोग से बचाव के लिए जागरूक होना चाहिए लेकिन होम्योपैथ चिकित्सक के रूप में आप क्या कर सकते हैं?
उत्तर- मैम, संक्रामक रोगों की श्रेणी, एवं विस्तार अलग अलग हो सकते हैं, एक होम्योपैथ चिकित्सक के रूप में हम अपने पास आने वाले मरीजों का उनके लक्षणों की समानता के आधार पर इंडिविजुअलाइजेशन कर दवा देते हैं और उन्हें तथा उनके परिवारी जनों को बचाव की जानकारी से सचेत करते हैं, । कुछ मामलों जैसे चेचक मीजल्स आदि के बचाव के लिए मरीज स्वयं बचाब की दवा लेने आते हैं, इसके अतिरिक्त यदि क्षेत्र में एक जैसे लक्षणों के अधिकांश रोगी देखने को मिलते है तो कॉमन लक्षणों के आधार पर एक दवा का चुनाब करना होता है जो बचाव व उपचार दोनो में कारगर हो सके। जैसे आंध्र सरकार द्वारा 1998 से 2002 तक जेई से बचाव के लिए अपनाया गया bct शेड्यूल जिसमे बच्चों की मृत्यु दर शून्य हो गयी थी, बाद में ऐसी ही रिपोर्ट बेलाडोना की प्रभाविता के लिए अमेरिकन जर्नल में प्रकाशित भी हुई।

प्रश्न -ऐसे संक्रामक रोगों को क्या कहते हैं ?
उत्तर- एपिडेमिक डिजीज,।

प्रश्न -इनका माइज्म ?
उत्तर- संक्रामकता, तीव्रता, और प्रभावित के आधार पर सॉरा।

प्रश्न- आपने बताया जेई के लिए bct शेड्यूल अपनाया गया था यह क्या है, ऐसी रेमेडी को क्या कहते है ?
उत्तर- bct का अर्थ बेलाडोना, कैलकेरिया कार्ब, ट्यूबरकुलीनम है। और बहुतायत संख्या में एक ही जैसे लक्षनो से वाले एपिडेमिक डिजीज में सामान्य या कॉमन लक्षणों पर आधारित एक रेमेडी का चयन किया जाता है जिसे डॉ हैनिमैन ने एफोरिज्म 241 में जीनस एपिडेमिकस कहा था, जिसे बचाव व उपचार के लिए प्रयोग करते हैं।

प्रश्न - गुड, जिस एपिडेमिक डिसीज के लिए आप जीनस एपिडेमिकस का सेलेक्शन करते हैं उस रोग को क्या नाम दिया गया है ?
उत्तर- होम्योपैथी में सैद्धांतिक रूप से रोगों का वर्गीकरण नामकरण के आधार पर नही किया जा सकता, किन्तु पहचान व आमजन से संवाद के लिए प्रचलित पद्धति के अनुरूप हम लक्षणों के समूह को उसी नाम से पहचानते बताते है, क्षमा करें किन्तु इस प्रश्न  विशेष  पर मेरा अध्ययन इससे अधिक नही है, जानने का प्रयास करूंगा।

एक्सपर्ट - Ok
सदस्य- कैसा है ?
एक्सपर्ट- गुड सर, ओके बेटा।

थैंक यू मैम, थैंक यू सर

गुड डे।

और इसप्रकार अभिवादन के बाद चैंबर से बाहर ।

(उक्त प्रश्नोत्तरी मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, प्रयास करूंगा इसी क्रम में अन्य प्रश्नों की जानकारी कर उन्हें भी शेयर किया जा सके।)

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
चिकित्सक होम्योपैथ