शहर में हर तरफ इन दिनों बस चुनावी चटकारे हैं जितने लोग उतनी बातें ,सबके अपने तर्क ,कहीं ज्वार कहीं आंधी कहीं सुनामी कहीं खामोशी तो कहीं निरपेक्षता की बहस ,और इन सबके बीच कुछ जागरण करती आवाजें कहती हैं मत दान करना दान मत करना।
मन किया चलो गांव की चौपाल का हाल लिया जाय तो पहुच गया अपने गांव, शाम को मुंशी बाबा के साथ बाग के फरवार मे ही गांव के युवक बुजुर्ग और आने जाने वाले लोग बैठते हैं। घर परिवार गांव देश की बातें टीवी की चिकिचिक चर्चा से अलग जमीन की हकीकत की तस्वीर दिख रही थी।बिक्रमा बाबा के बड़े प्रिय है बाबा का हो तो अबकी का विचार है सबके केका जितावत हौ सबही? बिक्रमा -दादा कोउ नृप होय हमें का हानी और का लाभ, हां शौचालय बन गवा है बाकी देखो सड़क कहे रहे अभी कौनो पता नाय। हमरे बिरादरी वाले कहत हैं बिरादरी छोड़ के जे जाए ऊ अलग, चुने का हइये है खराब सबे हैं केहू तनी कम केहू तनी ज्यादा , तो जे कम नुकसान करे उहे ठीक। मूरत बोले भाई होए तो इहै चाही, ईमानदार कहा मिले, और जे होए वका के टिकट ही दे।समाज बिरादरी भी देखे का चाही।उनके लड़का बोला देखो भैया कहे हैं, सरकार बने तो नौकरी मिले.. हम तो सब उन्ही के साथ रहब.। बाबा बोले कौन भैया तुहै नौकरी देईहै.. ई सब खेल है अरे एक्को नियुक्ति होत है कहूं सब कोर्ट में लटकी हइन। हमारे हिसाब से तो चयन और चुनाव में यही अंतर होत है कि चुनाव में आवेदन कम परीक्षार्थी प्रत्याशी कम, सवाल आवेदक की इच्छानुसार, और मूल्यांकन करे वाली भीड़ जनता है जेकरे पास उन्ही में से चुनना है जौन है, वे चाहे ठीक होय या बेकार , औ जे ई सोचत है कि हमसे मतलब ना है झेले का तो वहू का पड़त है काहे कि कोई न कोई तो जीते ही।यह लिए जो हमारे हाथ मे है वका तो ईमानदारी से किया जाय। सालिक बीच मे ही बोल दिया तो दादा नोटा दबाय दिया जाय। नोटा अरे बसे कौन लाभ हमे तुहें होए ज्यादा से ज्यादा जे जीतत होए ऊ हार जाए तो जे जीते उहे कौन तोहर भला कय दे..बिक्रमा सही कहिन नुकसानदेह दुयनो हैं मुला जब चुनइन का है तो जे कम नुकसान कय सके उहे ठीक । तब मैंने भी कहा यह हम लोगों कक चुनाव करते समय उसके परिणाम को ध्यान में भी रखना चाहिए सरकार स्थायी हो मजबूत हो कि बार बार खींचतान न हो, देश के भीतर और देश के बाहर क्या असर होगा, दुनिया मे देश शक्तिशाली तभी होगा जब हमारी सरकार और उसकी नियत ठीक होगी।मास्टर साहब बड़ी देर से सुन रहे थे नीयत नियंत्रण से दुरुस्त हो जाती है ।मुंशी भाई चयन और चुनाव में अंतर कितना भी हो लेकिन मूल्यांकन करने वाले को निष्पक्ष होना चाहिए, कॉपी में मिले नोट के बदले नम्बर देने की बात हो या नोट के बदले वोट, दोनो ही स्थितियों में योग्यता दरकिनार कर दी जाती है ,और बाद में यही समस्या खड़ी करते हैं...वो नौकरी के नाम पर चिल्लाते है ये अधिकार के नाम। सही संतुलित विचार हो तो समस्या का समाधान खोजना सरल है लेकिन जो शार्टकट से पास हो जाये वह योग्यता कहाँ से लाएगा फिर तो समय ही काटेगा। मूरत बोले ई तो सही है मास्टर साहब जनता अगर केहू ईमानदार मनई का जितावे न तो केहू भले पढ़े लिखे का खड़ा कय के जितावे तो जानो जनता चुनाव लड़त है न तो ये सब 10-12 गाड़ी से राजा यस अइहें और गांव देस के ही लड़िके उन्ही का भैया भैया कयके पिच्छे पीछे चापलूसी करीहे घर बाहर वालन का बतईहे बड़ी पहचान है ।या तो यसे ठीक इक्के मनई के चुनाव करे जनता सीधे और बाकी फिर यही के हिसाब से होय जे काम न करे वका तुरन्त बेदखल कय दिया जाय। हमने कहा मूरत बाबा लोकतंत्र में ऐसा नही होता आप जिस उद्देश्य के तहत कह रहे हो ठीक है किंतु उतना व्यवहारिक नहीं इसमे बाद में दोष आ सकता है लेकिन यदि जनता को यह अधिकार हो कि काम न करने वाले को वापस कर दिया जाय तो सम्भव है। किंतु इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति और समर्थन चाहिए होगा।बाबा अरे जौन सम्भव बा अबहि वके सोचों हम तो इहै कहब कि गांव के चुनाव होय तो गांव के बात देखो, प्रदेश के होय तो परदेश और देश के होय तो देश के बात अच्छा बुरा सोंच समझ के सभी लोग पहिले जाय के वोट देव फिर आपन सबही मिलजुल के रहो जब जरूरत पड़े तो सब लोग साथे मिलो हक के लिए भी लड़ो एकजुट रहबो, तो हमेशा बात सुनी जाए और जात बिरादरी में बंटयो तो जेका राज करे के बा ऊ राज करे और बाकी सब ऐसे बतकही।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी










