चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Wednesday, 24 July 2019

सफेद सत्य : सत्य को सुहानुभूति और असत्य को समर्थन

सदैव सत्य बोलो ,
सत्य के मार्ग पर चलो,
सत्य के साथ रहो,
सत्य परेशान हो सकता है किंतु पराजित नहीं ,
झूठ ज्यादा देर नहीं टिकता,
झूठ की उम्र नही होती किंतु सत्य शाश्वत है.

..आदि ऐसे पाठ बचपन से हमें जीवनकौशल की शिक्षा के रूप में सिखाये , पढ़ाये और बताये जाते हैं , कम शब्दों में यह जीवन के लिए बड़ा उपदेश हैं जो मनुष्य को अनादि काल से ऋषियों मनीषियों ने गूढ़ सार के रूप में बताया क्योंकि एकमात्र सत्य के मार्ग पर चलने से मनुष्य अन्याय बुराईयों अपराधों से बच सकता है। यह ऐसी अपेक्षा  है जो दूसरों से तो की जाती है स्वयं के आचरण में व्यवहृत होती कम ही दिखती है। इस स्तर पर एक जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यदि मनुष्य यह जनता है तो इसका पालन क्यों नही करता? उत्तर की दृष्टि से इस प्रासंगिक प्रश्न के कई कारण हो सकते है किन्तु सबसे सरल उत्तर हो सकता है वह है समाज की स्वीकार्यता।
क्योंकि इस भौतिक जगत में मनुष्य की तीन प्रमुख  इच्छाएं  होती हैं जिनकी पूर्ति वह करना चाहता है वे हैं वित्तेष्णा, पुत्रैष्णा, लोकेष्णा , यह तीनों के लिए उसने जो मापदण्ड निर्धारित किये वे धन ,पद एवं सम्प्रभुता, प्रतिष्ठा, और ऐश्वर्य  हैं। मनुष्य इतिहास से शिक्षा लेता है किंतु वर्तमान का निर्धारण वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार ही ले सकता है। वह अपनी शिक्षा और ज्ञान के सापेक्ष समाज के सफल व्यक्तियों का अध्ययन करता है उनके आचरण को परखता है और उनसे आगे बढ़ने की लालसा में अपने जीवन की सीमित अवधि में लगभग वैसे ही आचरण को स्वीकार करने लगता है। अब यदि अपनी अभिलाषित उपलब्द्धि के लिए असत्य का मार्ग सरल और सहायक सिद्ध होता दिखता है तो वह एक समय बाद परिस्थितियों की दासता में बंध जाता है, उसके पास उम्र के सापेक्ष धैर्य और साहस की एक सीमा है यद्यपि उसे यह भी ज्ञात होता है कि गलतियाँ, विफलता, अपमान, निराशा और अस्वीकृति, ये सभी उन्नति ,प्रगति और विकास का ही एक हिस्सा है। कोई भी व्यक्ति इन सभी पाँचो चीजों का सामना किये बिना जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु वह सरलता से प्राप्त होने वाली समर्थित सफलता को पाए बिना नहीं रहना चाहता।
दृश्यमान जीवन और जगत को मिथ्या और असत्य , मृत्यु और ईश्वर को परम सत्य बताने वाले आध्यात्मिक जगत के हमारे मनीषियों ने मानव कल्याण के लिए अपने अन्वेषणों के पश्चात जो जीवन शैली के नियम बताए उन्हें समेकित रूप में धारण करने योग्य अर्थात धर्म की संज्ञा दी गयी इसे ही सत्य सनातन धर्म कहा गया होगा। हमारी युगों की गणना बताती है कि यह नियम मानव कल्याण के लिए बने थे लोग इनका पालन भी करते  थे, वे ज्ञानी, सात्विक आचरण वाले , वैज्ञानिक सोच के किन्तु सरल प्रकृति प्रेमी , शिक्षित और समृद्ध रहे होंगे, कालांतर में विकार आता गया होगा। किन्तु एक संशय पुनः खड़ा होता है कि इसी इतिहास में धर्म की पुनर्स्थापना या रक्षा, की इतनी आवश्यकता क्यों होती रही कि स्वयं ईश्वर को अनेकानेक रूपों में अवतरित होना पड़ा, और फिर इस संसार के प्राणियों ने उनसे  कोई शिक्षा ग्रहण की अथवा वह मात्र किस्से कहानी के पात्र बन गए ? जिन मानवोचित आदर्शों की बातें महापुरुषों की जीवनगाथा बनी उनका आचरण करने वाले उनके अनुयायी कोई उदाहरण बने भी या नहीं? इस समाज ने जिन गुणों को पूज्य माना उन्हें आचरण में क्यों नही ला सका ? अथवा उस आचरण को वैसी स्वीकृति , सम्मान ,अधिकार, और पद से प्रतिष्ठित क्यों न किया जा सका कि वे अन्य के व्यवहार के लिए उदाहरण बन सकें।
यदि यह तर्क दिया जाता हो कि आदर्श पर चलना बड़ा कठिन है तो उनपर चलने वाले का संघर्ष भी अधिक होता होगा फिर ऐसे उदाहरण कितने हैं जिन्हें किसी भी कालखण्ड के समाज ने स्वीकृति सहमति समर्थन और सम्मान दिया हो ? निश्चित रूप से यह शोध का विषय होगा क्योंकि यदि ऐसा होता तो राम के राज्य स्थापना के साथ उस काल मे दूसरा राम न सही किन्तु अनेकों मर्यादा पुरुष और पीढियां तैयार हो जानी चाहिए थीं जिनसे सुधार की प्रक्रिया विकसित होते जानी चाहिए थी किन्तु ऐसा ही नही हुआ समाज पुनः असत्य के आकर्षण में अस्तित्व के संघर्षों में गिरता गया होगा तभी कंस जैसे कुपुत्र कुपात्रों का जन्म हुआ होगा और पुनः ईश्वर कृष्ण रूप में धरती पर आना पड़ा होगा।
असत्य पर सत्य की विजय और धर्म की स्थापना के यह प्रमाण यह भी बताते हैं कि दुर्बल कहे जाने वाले असत्य की सत्ता अनादि काल से कितनी प्रबल रही होगी कि बार बार उसे हराने के लिए स्वयं ईश्वर को अवतार लेना पड़ा, फिर भी उस असत्य का समूल नाश कभी न हो सका अपितु उसकी स्वीकार्यता का विस्तार होता गया और जड़ें गहरी होती गईं तभी तो सत्य असत्य का जो संघर्ष किसी युग मे दो अलग विश्व (स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक,पाताल लोक) में होता था वह त्रेता में पृथ्वी पर दो राज्यो से होते हुए द्वापर में एक ही राज्य एक परिवार तक गहराता गया जो  इस कलिकाल में व्यक्ति के अंतर का द्वंद बन गया है । वह अपनी ही अच्छाई बुराई में अंतर नही कर पाता निरन्तर द्वंद बढ़कर जब उसकी मानसिक क्षमताओं पर प्रभावी होने लगता है तो असफलताएँ देता है जिसकी निराश परिणति उसे अवसाद के अंधेरे में खींच ले जाती है जहां जीवन में हर तरफ दिखने वाले घनघोर अंधकार में जब उसे सत्य के प्रकाश की कोई किरण नही दिखाई देती तब उसका दम घुटने लगता है और यह घुटन उसके लिए कभी कभी प्राणघातक भी बन जाती है, वह आत्महत्या जैसा दुस्साहसिक कृत्य कर जाता है ।
वास्तव में इस अपराध का कारण व्यक्ति में ही प्रबल हुई असत्य की वह नकारात्मक विचार वृत्ति है जिसने उसके अंदर सत्य के आचरण से चोटिल हुए विश्वास पर सहज ही विजय प्राप्त कर लेती है।
समाज सत्य के महत्व को तो स्वीकार करता है, उसे स्थापित भी मानता है किंतु उसके आचरण को स्वीकार्यता देते समय वह असत्य के उस आडम्बर को ज्यादा महत्व देता है जो सत्य के  श्वेत आवरण का आकर्षण धारण किये होता है।
वर्तमान ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, आए दिन स्वघोषित धर्मगुरुओं के कारनामे, सत्ता, सम्पत्ति व अधिकार के लिए अपनाए जा रहे हथकंडे, शोर में दबती बुद्धिजीवियों की आवाजें आदि न जाने कितने उदाहरण प्रतिदिन आपको मिल जाएंगे।
विषय बहुत विस्तृत है पक्ष विपक्ष में बहुत तथ्य तर्क उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं किन्तु विचारणीय तथ्य यही है कि समाज हमसे ही निर्मित होता है, और हम अपेक्षा दूसरों से करते हैं। हम सत्य को तब तक अच्छा और आचरण के योग्य मानते है जब उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता हो, किन्तु अपने हितों की कीमत पर सत्य के आचरण का मार्ग चुनने का साहस नहीं करते। हमारे पैमाने हमारी आवश्यकताओं अभिलाषाओं और सुविधाओं के साथ बदलते जाते हैं, फिर हम जो करते है उसे अपनी तार्किक बुध्दि से सत्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं अर्थात मैं ही सत्य शेष मिथ्या।
यही भाव तो समाज का बनता गया इसलिए सत्य को सुहानुभूति और असत्य को समर्थन जारी है।

समाज मे सुधार की प्रक्रिया अनादि काल से चलती रही है फिर भी समाज मे स्नेह ,सद्भाव ,सहयोग, समरसता आदि सामाजिक आदर्शों को समाज ने अपेक्षानुरूप अंगीकार नही किया और उनमेंं निरन्तर क्षरण की प्रक्रिया जारी है, जिसका उदाहरण विकसित या विकासशील सभी देशों में धर्म ,जाति , समुदाय, सांस्कृतिक श्रेष्ठता आदि के नाम पर, सामाजिक विघटन की घटनाएं, आपसी द्वंद, आतंकवाद, संघर्ष बढ़ते जाएं तो यह चिंतन का विषय क्यों नही होना चाहिए ? ऐसे में धर्म प्रचार प्रसार के नाम पर नित नए संस्थानों की क्या उपयोगिता ?
वर्तमान युग मे पिछले 2-3 दशकों में सूचनाओं के प्रचार प्रसार के तमाम माध्यम विकसित हुए जिनकी उपलब्धता तो सहज हो गयी किन्तु उनपर प्रस्तुत होने वाली सामग्रियों की प्रमाणिकता  और उनका समाज की मनःस्थितियों पर होने वाले प्रभावों का कोई आकलन शायद ही किया गया होगा, और यदि किसी ने किया भी तो उससे प्राप्त होने वाले अभिलक्षित लाभ से हानि के आकड़ो को छिपा दिया गया होगा।
अपने लक्ष्य को साधने की विचारधाराएं इन्ही माध्यमों से हमारे आपके परिवार पीढ़ियों बच्चों के मन मस्तिष्क तक कभी मीडिया, सोशल मीडिया,सिनेमा, आदि अनेक रूपों में बड़ी सरलता से पहुँचती रहती है। व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित उसकी मनः स्थिति हर दिखने या छपनेवाली विषय वस्तु को जो बार बार उसके सामने लायी जाए जिसे वह सहज स्वीकार न भी करता हो वस्तुतः यह स्वीकृति का प्रथम सोपान ही कहा जाए तो बेहतर है क्योंकि इस समय जब समय पर प्रतिकार नहीं होता तो कुछ समय बाद वह स्वयं सामान्य स्वीकृति में बदल जाती है। इसी प्रकार हम अपनी न जाने कितनी परम्पराओं को रूढ़िवादी मानकर त्याग करते गए , जिनमे से कुछ समाजोपयोगी तरीको को अन्य ने अपनाया भी, किन्तु हम जिन्हें स्वीकार करते गए जब उनसे पीड़ित होने पर यह अनुभूति होती है कि ये वही विकृतियां थीं जिन्हें हमने आधुनिकता के नाम पर अपनाया, वही जिनका वास्तविक स्वरूप किसी आकर्षक असत्य के आवरण में आकर्षक लगा था।

कहावत है जिंदा कौमें मीलों दूर के खतरों को भांप लेती हैं और उसके अनुसार अपनी तैयारी करती है, और जो लोग खतरे के दरवाजे तक आने पर उसे जीत लेने का भ्रम रखते हैं वे आराम से सोते रहते हैं, परिणाम जीवन के संघर्ष में तबाही ही उनके हिस्से में आती है।
हमारे देश, समाज मे ,आसपास क्या घटित हो रहा है यदि हम इन सबसे सिर्फ इसलिए निरपेक्ष रहते हैं कि हमे इससे क्या मतलब तो यूं समझ लीजिए कि आप उसी दूसरी श्रेणी में सम्मिलित हो गए हैं जो निद्रा में है।

अब प्रश्न उठता है कि समाधान क्या है  ? क्योंकि ऐसे विकार समाज मे इतना धीरे धीरे स्थापित होते हैं कि इन्हें हम अपने जीवन और उन्नति के लिए आवश्यक मान लेते हैं, इसलिए इसके समाधान में किसी देश का कानून या संविधान अथवा सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं सिवाय इस सामाजिक मनोवृत्ति का लाभ उठाने के, इसलिए व्यक्ति या उससे निर्मित होने वाले समाज को स्वयं इस परिवर्तन के लिए अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी होगी, आदर्शों को अपने जीवन मे अपने परिवार बच्चों के आचरण में उतारना होगा। स्वयं के आचरण मानवीय आदर्शों को ससम्मान पुनर्स्थापित करना होगा, और सरकारों को भी सत्य को सम्मान समर्थन देना होगा तभी सकारात्मक परिवर्तन की उम्मीद कर सकते हैं।तभी कोई बालक नरेंद्र व्यक्ति को जोड़कर देश के नक्शे को पूरा सही जोड़ पायेगा , यदि वह नक्शे को जोड़ने का प्रयत्न करें तो व्यक्ति उसी तरह छूट सकता है जैसे सत्य सुहानुभूति से।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
चिकित्सक होम्योपैथ

Saturday, 6 July 2019

होम्योपैथी चिकित्सा अधिकारी साक्षात्कार प्रश्नोत्तरी :एक दृश्य

विगत दिनों राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा होम्योपैथी चिकित्सा अधिकारी पदों के लिए अभ्यर्थियों का साक्षात्कार लिया गया। प्रस्तुत है उस अनुभव का एक चित्रण।
मुख्य गेट से अंदर प्रथम प्रवेश द्वार पर सभी ने अपने मोबाइल जमा करा अपने प्रमाणपत्रों के सत्यापन और साक्षात्कार शुल्क जमा कराने एक निश्चित हाल में पहुँचते है जहां से क्रमशः उन्हें साक्षात्कार प्रवेश की अनुमति के साथ कोड प्राप्त कर रिक्त बोर्ड  के सम्मुख पंक्तिबद्ध कर दिया जाता है।
अभ्यर्थी को अपने लिए निर्धारित बोर्ड में केवल कोडेड पत्र के साथ ही उपस्थित होना होता है।

गेटमैन ने दरवाजा खोल अंदर जाने का संकेत किया उसे धन्यवाद कह प्रवेश की अनुमति के साथ बोर्ड के समक्ष उपस्थित हो यथोचित अभिवादन के बाद संकेत पर निर्धारित कुर्सी पर आसन्न।

प्रथम : सदस्य;
प्रश्न - किस पद के लिए आवेदन किया है ?
उत्तर- सर, होम्योपैथी चिकित्सा अधिकारी पद हेतु..

प्रश्न- किस विभाग के अंतर्गत आता है यह पद ?
उत्तर-  होम्योपैथी विभाग।

प्रश्न- मंत्रालय कौन सा है इसका?
उत्तर- सर, आयुष मंत्रालय।

प्रश्न- आयुष के अंतर्गत कौन सी पद्धतियां है ?
उत्तर - सर, आयुष के अंतर्गत आयुर्वेद, योग एवं नैचुरोपैथी,यूनानी, सिद्धा, और होम्योपैथी पद्धतियां सम्मिलित हैं।

प्रश्न -आयुष मंत्री का नाम पता है ?
उत्तर- जी सर, डॉ धर्म सिंह सैनी...

प्रश्न -और केंद्र में?
उत्तर- (त्रुटि सुधार के साथ)
राज्य में मा. डॉ धर सिंह सैनी व केंद्र में श्रीपद नाईक यसो।

टिप्पणी सदस्य -ok यसो ,गुड, अब प्रश्न एक्सपर्ट के लिए-
द्वितीय - एक्सपर्ट

प्रश्न - कहां प्रेक्टिस करते हैं?
उत्तर- जनपद........ में।

प्रश्न- गांव या शहर ?
उत्तर- मैम दोनो ही क्षेत्रों में अलग अलग समय।

प्रश्न- कैसे मरीज ज्यादा आते हैं?
उत्तर- एक्यूट और क्रॉनिक दोनो ही, यद्यपि ग्रामीण क्षेत्र में एक्यूट अपेक्षाकृत अधिक, और शहरी क्षेत्र में क्रॉनिक पेशेंट अधिक, भिन्न आयु वर्ग के विशेषकर महिलाएं और बच्चे।

प्रश्न- महिलाओं में कैसे मरीज है ?
उत्तर- प्रौढ़ में शरीर एवं जोड़ों के दर्द व त्वचा सम्बन्धी, एवं किशोरी युवती एवं विवाहित में मासिक धर्म की अनियमितताओं व सौंदर्य सम्बन्धी परामर्श हेतु अधिक।

प्रश्न - एक्यूट रोगों में कैसे पेशेंट देखने को मिलते है आपके क्षेत्र में?
उत्तर- सामान्यतः मौसम के अनुरूप सर्दी, खांसी, जुकाम, बुखार, दस्त या डायरिया, डिसेंट्री,खुजली, दाद आदि।

प्रश्न - डायरिया का मैनेजमेंट कैसे करते हैं ?
उत्तर-  मैम, डायरिया के ज्यादातर शिकार बच्चे या किशोर आते है मेरे क्षेत्र में, मरीज के लक्षणों को अनुसार, यदि दस्त की आव्रत्ती अधिक है तो सर्व प्रथम चयनित औषधि के साथ डिहाइड्रेशन लेवल की पहचान करते हैं, यदि कम है तो ओरल रिहाइड्रेशन से नियंत्रित करने की सलाह व विधि बता दी जाती है जैसे नमक, चीनी, पानी का घोल, अथव ओ आर एस घोल, और यदि अधिक प्रतीत होता है तो नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र से रिहाइड्रेशन थेरेपी लेने की सलाह दे देते है। इसके साथ ही परिवारीजनों को स्वच्छ पानी, उबाल कर सामान्य तापमान पर ठंडा कर पीने , हाथ धुलकर भोजन, फल एवं सब्जियों को कुछ देर पानी मे डुबोकर रखने, उसके बाद ही धुलकर खाने की जानकारी भी देते हैं। और इस हेतु जागरूकता के लिए विद्यालयों या गांवों में स्वास्थ्य प्रबोधन शिविर के माध्यम से भी आमजन को उनके स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता एवं बचाव की जरूरी जानकारियां उपलब्ध कराने हेतु समय समय पर जाते हैं।

प्रश्न - अच्छी बात, संक्रामक रोग से बचाव के लिए जागरूक होना चाहिए लेकिन होम्योपैथ चिकित्सक के रूप में आप क्या कर सकते हैं?
उत्तर- मैम, संक्रामक रोगों की श्रेणी, एवं विस्तार अलग अलग हो सकते हैं, एक होम्योपैथ चिकित्सक के रूप में हम अपने पास आने वाले मरीजों का उनके लक्षणों की समानता के आधार पर इंडिविजुअलाइजेशन कर दवा देते हैं और उन्हें तथा उनके परिवारी जनों को बचाव की जानकारी से सचेत करते हैं, । कुछ मामलों जैसे चेचक मीजल्स आदि के बचाव के लिए मरीज स्वयं बचाब की दवा लेने आते हैं, इसके अतिरिक्त यदि क्षेत्र में एक जैसे लक्षणों के अधिकांश रोगी देखने को मिलते है तो कॉमन लक्षणों के आधार पर एक दवा का चुनाब करना होता है जो बचाव व उपचार दोनो में कारगर हो सके। जैसे आंध्र सरकार द्वारा 1998 से 2002 तक जेई से बचाव के लिए अपनाया गया bct शेड्यूल जिसमे बच्चों की मृत्यु दर शून्य हो गयी थी, बाद में ऐसी ही रिपोर्ट बेलाडोना की प्रभाविता के लिए अमेरिकन जर्नल में प्रकाशित भी हुई।

प्रश्न -ऐसे संक्रामक रोगों को क्या कहते हैं ?
उत्तर- एपिडेमिक डिजीज,।

प्रश्न -इनका माइज्म ?
उत्तर- संक्रामकता, तीव्रता, और प्रभावित के आधार पर सॉरा।

प्रश्न- आपने बताया जेई के लिए bct शेड्यूल अपनाया गया था यह क्या है, ऐसी रेमेडी को क्या कहते है ?
उत्तर- bct का अर्थ बेलाडोना, कैलकेरिया कार्ब, ट्यूबरकुलीनम है। और बहुतायत संख्या में एक ही जैसे लक्षनो से वाले एपिडेमिक डिजीज में सामान्य या कॉमन लक्षणों पर आधारित एक रेमेडी का चयन किया जाता है जिसे डॉ हैनिमैन ने एफोरिज्म 241 में जीनस एपिडेमिकस कहा था, जिसे बचाव व उपचार के लिए प्रयोग करते हैं।

प्रश्न - गुड, जिस एपिडेमिक डिसीज के लिए आप जीनस एपिडेमिकस का सेलेक्शन करते हैं उस रोग को क्या नाम दिया गया है ?
उत्तर- होम्योपैथी में सैद्धांतिक रूप से रोगों का वर्गीकरण नामकरण के आधार पर नही किया जा सकता, किन्तु पहचान व आमजन से संवाद के लिए प्रचलित पद्धति के अनुरूप हम लक्षणों के समूह को उसी नाम से पहचानते बताते है, क्षमा करें किन्तु इस प्रश्न  विशेष  पर मेरा अध्ययन इससे अधिक नही है, जानने का प्रयास करूंगा।

एक्सपर्ट - Ok
सदस्य- कैसा है ?
एक्सपर्ट- गुड सर, ओके बेटा।

थैंक यू मैम, थैंक यू सर

गुड डे।

और इसप्रकार अभिवादन के बाद चैंबर से बाहर ।

(उक्त प्रश्नोत्तरी मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, प्रयास करूंगा इसी क्रम में अन्य प्रश्नों की जानकारी कर उन्हें भी शेयर किया जा सके।)

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
चिकित्सक होम्योपैथ