चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Saturday, 19 December 2020

सनातन पर्व मकर संक्रांति :वैज्ञानिक, आध्यात्मिक,और सामाजिक दृष्टिकोण

किसी देश की संस्कृति व सभ्यता की प्राचीनता, समृद्धि, सम्पन्नता का आकलन करना हो तो उस देश के भौगोलिक एतिहासिक अध्ययन के साथ वहां मनाए जाने वाले उत्सवों का भी अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि उत्सव, पर्व या त्यौहार और उससे जुड़ी परम्पराएं सीधे मानवजीवन से जुड़ी होती हैं। भारत देश मे वर्षपर्यंत मनाए जाने वाले उत्सवों की एक लंबी सूची है, जो हमारे ऋषियों मनीषियों द्वारा मानव व प्रकृति के सम्बन्ध के रहस्यों  पर उनके गहन शोध व अनुसंधान के बाद अर्जित ज्ञान की गूढ़ता को शास्त्रों में वर्णित कर दिया किन्तु मानव कल्याण की भावना से आचरण में व्यवहृत किये जाने हेतु जीवनशैली में धारण किये जा सकने वाली परम्पराओं ,पर्वों, आस्था के नियमों से जोड़ दिया। जीव ,प्रकृति , पर्यावरण, एवं मानव सभ्यता की यही अक्षुण मर्यादा ही सनातन संस्कृति का मूल है। हमारे देश में चन्द्र एवं सूर्य की गतियों, ग्रहों की स्थितियों पर आधारित ज्योतिषीय, खगोल विज्ञान,एवं गणित का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है जहां मौसम ,तिथियों, अमावस्या, पूर्णिमा, चन्द्र एवं सूर्य ग्रहण आदि खगोलीय घटनाओं एवं तदनुरूप निर्धारित पर्वों की सटीक गणनात्मक भविष्य वाणी अथवा कैलेंडर घोषित किया जाता रहा है।
 अपने देश मे मनाए जाने वाले पर्वों की प्राचीनता, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक , सामाजिक कारण ,उद्देश्य,एवं महत्व पक्षों के विश्लेषण की आवश्यकता है जिससे वर्तमान पीढ़ी भी इनसे परिचित हो सके। भारत के विविध क्षेत्रों मे
एक ही पर्व को एक ही तिथि में एक से अधिक नाम व विधियों से मनाने की परम्पराएं विशाल भारत की विविधताओं में एकता अखण्डता, विश्व बंधुत्व की प्रेरणा का अनुपम उदाहरण है, ऐसा ही एक राष्ट्रीय पर्व है मकर संक्रांति जो ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार जनवरी माह में (पहले 14 अब 15 जनवरी) भारतीय कैलेंडर के अनुसार पौष मास में सूर्य पर्व के रूप में मनाया जाता है।

पर्व का नाम मकर संक्रांति क्यों ?

 प्राचीन भारत में भू मध्य रेखा से ऊपर यानी उत्तरी गोलार्ध को भूलोक और भू मध्य रेखा से नीचे यानी दक्षिणी गोलार्ध को पाताल लोक माना जाता था।सूर्य और पृथ्वी की गतियों के अनुसार जब सूर्य की निकटता दक्षिणी गोलार्ध की तरफ होती है तब उसे दक्षिणायन कहते हैं और इसे देवताओं की रात्रि के रूप में मानते हैं जिसकी अवधि छः मास की होती है जिसमे रात्रि बड़ी व दिन क्रमशः छोटे होते हैं, इसके बाद जब सूर्य पुनः उत्तरी गोलार्ध से निकट होते है अर्थात भूलोक को प्रकाशित करने वाले होते है तो इसे सूर्य का  उत्तरायण होना कहते हैं। इसकी मान्यता देवताओं के दिन के रूप में है, इसकी भी अवधि छः मास होती है, जिसमे दिनमान अधिक और रात्रि छोटी होने लगती है। दक्षिणायन को नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है।
 शास्त्रों की मान्यता के अनुसार सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि मे विस्थापन की क्रिया (वर्ष में कुल 12) को संक्रांति कहते हैं। क्योंकि इस संक्रांति में सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करते हैं अतः इसे मकर संक्रान्ति रूप में जाना जाता है।

संक्रांति से जुड़ी शास्त्रीय मान्यताएं-

 मकर संक्रांति एक ऐसी खगोलीय घटना है जो सम्पूर्ण भूलोक में नव स्फूर्ति और आनंद का संचार करती है।
ज्योतिष शास्त्रोक्त मान्यता है कि  सूर्य और शनि का तालमेल संभव नही, लेकिन इस दिन सूर्य स्वयं अपने पुत्र शनि के घर एक मास के लिए जाते हैं। इसलिए पुराणों में यह दिन पिता-पुत्र को संबंधो में निकटता की शुरुआत के रूप में देखा जाता है।

 देवताओं के दिन की गणना इस दिन से ही प्रारम्भ होती है। 
मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने मधु कैटभ से युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने मधु के कंधे पर मंदार पर्वत रखकर उसे दबा दिया था। इसलिए इस दिन भगवान विष्णु मधुसूदन कहलाने लगे।
गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भागीरथ ने अपने पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इस कारण से मकर सक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
तीर्थराज प्रयाग में लगने वाले कुम्भ और माघी मेले का पहला स्नान भी इसी दिन होता है।
इच्छामृत्यु के वरदान से पितामह भीष्म बाण लगने के बाद भी सूर्य उत्तरायण होने पर स्वेच्छा से शरीर का त्याग किया था। जिसका कारण भगवद् गीता के अध्याय ८ में भगवान कृष्ण ने बताया  है कि उत्तरायण के छह माह में देह त्याग करने वाले ब्रह्म गति को प्राप्त होते हैं जबकि और दक्षिणायन के छह माह में देह त्याग करने वाले संसार में वापिस आकर जन्म मृत्यु को प्राप्त होते  हैं।

भारत एवं विश्व के अन्य देशों में संक्रांति पर्व से जुड़ी परम्पराएं -

मकर संक्रांति का यह पर्व भारत सहित विश्व के तमाम देशों में अनेक नाम व स्थानीय परम्परा विधियों के अनुसार मनाया जाता है।
इस दिन गंगा स्नान, सूर्योपासना व तीर्थ स्थलों पर स्नान, दान विशेष पुण्यकारी होता है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस पर्व पर तीर्थ राज प्रयाग एवं गंगा सागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है। मकर संक्रांति के दिन तिल का बहुत महत्व है। कहते हैं कि तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल के तेल द्वारा शरीर में मालिश, तिल से ही यज्ञ में आहुति, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का भोजन इनके प्रयोग से मकर संक्रांति का पुण्य फल प्राप्त होता है और पाप नष्ट हो जाते हैं।

कर्नाटक में मकर संक्रांति के दिन तिरुपति बाला जी की यात्रा का समापन होता है। 
केरल में इस दिन सबरीमाला मंदिर और त्रिचूर के कोडुगलूर देवी मंदिर में भक्तों की भीड़ एकत्र होती है।

तमिलनाडु का प्रसिद्ध खेल जल्लिकट्टु होता है। वहां इस त्योहार को एक ऋतु उत्सव पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल।
असम में मकर संक्रान्ति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। उत्सव का पहला दिन उरुका कहलाता है। रात्रि में सामूहिक भोज होता है जिसमें नए अन्न का प्रयोग करते हैं और तिलपीठा बनाते हैं।
गोरखपुर उत्तर प्रदेश गोरखनाथ मंदिर में गुरु गोरक्षनाथ को खिचड़ी (चावल-दाल, उड़द) चढ़ाकर अपनी आस्था व श्रद्धा निवेदित करते हैं।
रामचरित् मानस के बालकाण्ड में श्री राम के पतंग उड़ाने का वर्णन है- 'राम इक दिन चंग उड़ाई, इन्द्र लोक में पहुंची जाई।' बड़ा ही रोचक प्रसंग है। पंपापुर से हनुमान जी को बुलवाया गया था, तब हनुमान जी बाल रूप में थे। जब वे आए, तब 'मकर संक्रांति' का पर्व था, संभवतः इसीलिए भारत के अनेक नगरों में मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की परम्परा है।राजस्थान व् गुजरात में इस दिन पतंग उड़ाने की परम्परा है। अहमदाबाद में गुजरात पर्यटन विभाग द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पतंगोत्सव का आयोजन किया जाता है।
हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व 13 जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है।
भारत के ज्यादातर हिस्सों में इसे मकर संक्रांति, खिचड़ी, या पोंगल के नाम से मनाया जाता है तो तमिलनाडु में ताइ पोंगल, उझवर तिरुनल , गुजरात मे उत्तरायण ,हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में माघी व लोहड़ी , असम में भोगाली बिहु, कश्मीर घाटी में शिशुर सेंक्रात, पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति, कर्नाटक में मकर संक्रमण के नाम से मनाया जाता है।
भारत के बाहर विश्व के अन्य हिस्सों जैसे बांग्लादेश में शाकरैं या पौष संक्रान्ति, नेपाल में माघे संक्रान्ति या 'माघी संक्रान्ति' 'खिचड़ी संक्रान्ति', थाईलैण्ड में सोंगकरन, लाओस में पिमालाओ, म्यांमार में थिंयान, कम्बोडिया में मोहा संगक्रान, श्रीलंका में पोंगल, उझवर तिरुनल के नाम से मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।

मकर संक्रांति का मानव स्वास्थ्य में महत्व- 

यह समय सर्दी का होता है और इस मौसम में सुबह का सूर्य प्रकाश शरीर के लिए स्वास्थ्य वर्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। 
आयुर्वेद में तिल को कफ नाशक, पुष्टिवर्धक और तीव्र असर कारक औषधि के रूप में जाना जाता है। यह स्वभाव से गर्म होता है इसलिए इसे सर्दियों में मिठाई के रूप में खाया जाता है। इसमे पर्याप्त मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट, मिनरल्स पाए जाते हैं जो कोलेस्ट्रॉल की मात्रा , ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करते हैं,  साथ ही कार्टिसोल हार्मोन की मात्रा को भी संतुलित करते हैं।
गजक, रेवड़ियां और लड्डू शीतऋतु में ऊष्मा प्रदान करते हैं।
समाजिक समरसता का सन्देश देती मकर संक्रांति -
मकर संक्रांति के दिन तिल गुड़ और खिचड़ी भोज की परंपरा के पीछे जो आध्यात्मिक कारण है वह सामाजिक समरसता और समता भाव का सहज और सर्वोच्च उदाहरण है। जैसे तिल गुड़ मिलाकर लड्डू की मिठास भी देते है और हृदय व रक्त परिसंचरण तंत्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक हैं वैसे ही समाज का प्रत्येक वर्ग मिलकर साथ रहे तो समाज मे मिठास रहेगी और संगठित प्रगतिशील समाज का निर्माण हो सकेगा। ऐसे ही जिसप्रकार तमाम अनाज सब्जियां अनिश्चित अनुपात में भी मिश्रित होने पर भी स्वादिष्ट सर्वग्राही सुपाच्य व्यंजन खिचड़ी के रूप में पकती है वैसे ही समाज का प्रत्येक वर्ग यदि मिलकर एकसाथ समाज निर्माण में अपना योगदान करने लगे तो निर्मित समाज आदर्श कल्पना का साकार स्वरूप होगा। जहां अश्पृश्यता, ऊंच नीच, विषमता का कोई भाव न होगा, सभी में अपनी योग्यता क्षमता के अनुरूप समाज निर्माण में अपना योगदान करने की सुमति का विकास होगा जिससे समाज व राष्ट्र दोनों की उन्नति होगी। धन्य है पावन भारतभूमि जहां की आध्यात्मिक जीवनशैली में बहुलता विविधता के सापेक्ष अंतरनिहित समतावादी विश्व बंधुत्व का इतना  सहज दर्शन पर्व की परंपरा में जोड़कर हमारे पूर्वजों ने प्रदान कर दिया है , हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपनी परम्पराओं आस्थाओं और संस्कृति की गूढ़ता, गौरव, और महत्ता को पढ़े, जाने, समझें और स्वीकारें।


डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
सहसचिव -आरोग्य भारती अवध प्रान्त
महासचिव -होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ

Thursday, 5 November 2020

प्रथमोपचार : जानकारी प्रत्येक व्यक्ति के लिए जरूरी




आकस्मिक दुर्घटना की स्थिति में प्रथमोपचार का ज्ञान होने पर घायल व्यक्ति का जीवन बचाने के लिए  उसे अविलम्ब चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध कराने तक प्रदान की जा सकने वाली सहायता से असमय होने वाली मृत्यु दर को कम किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति चिकित्सक नहीं हो सकता किन्तु चिकित्सकीय सहायता मिलने तक सामान्य जानकारी होने पर वह अबाध प्रथमोपचार जारी रखकर जीवन रक्षण का प्रयास कर सकता है।

प्रथमोपचार का एकमात्र  उद्देश्य व्यक्ति की जीवन रक्षा हेतु किसी भी अकस्मात दुर्घटना की स्थिति में रक्तस्राव व निर्जलीकरण को रोकते हुए उसे मानसिक सम्बल देना और स्थिर स्थिति में अविलम्ब चिकित्सालय पहुँचाना है। अतः प्रथमोपचार के समय व्यक्ति की श्वसन क्रिया पुनर्स्थापित करते हुए निरंतर कर उसके रक्त संचलन को बनाये रखने के प्रयास जीवन की रक्षा में सर्वोच्च प्राथमिकता होना चाहिए।

इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को मानव शरीर अंगों रचना व कार्य की सामान्य जानकारी भी होनी चाहिए जिससे सामान्य लक्षणों के आधार पर व्यक्ति के लिए आवश्यक प्रथमोपचार का निर्धारण कर सके।जैसे बेहोशी का कारण सिर में कोई चोट, कमजोरी, झटके या शुगर की अधिकता, मांसपेशियों या अस्थियों की चोट, जहरीले बिच्छू,सर्प दंश, विद्युत स्पर्शाघात या आग से जलने पर, जहर, आंख में कुछ गिरना, दम घुटने, डूबने आदि जैसी स्थितियों में व्यक्ति को पट्टी बांधना, रोगी को लिटाने की स्थितियों का ज्ञान , बेहोश या श्वासरोध होने पर सीपीआर आदि की जानकारी होना आवश्यक है।

सतर्कता एवं सावधानी से रोक सकते हैं दैनिक जीवन मे कई दुर्घटनाएं -
 
दुर्घटना स्वतः नहीं होती, ध्यान भंग, लापरवाही, विचारमग्नता, या नियमों की जानकारी का अभाव अथवा उपेक्षा आदि ऐसे कई कारण हो सकते हैं जिनके प्रति सतर्कता व सजग सावधानी बरतने की आदत हमे अकस्मात स्थिति से बचा सकती है।
उदाहरण के लिए छोटे बच्चों को सुलाते समय कम्बल या रजाई से उनके नाक को बंद न होने दें, जहरीली चीजों, सिक्के, गोली, बिजली के उपकरणों जैसी चीजों को बच्चों की पहुँच से दूर रखें। घर मे बिजली के कनेक्शन तार प्लग सही रहें, किचन में गैस सिलेंडर के लीकेज न हों , हवादार व खुला स्थान हो, पानी टपकता न हो, सीलन न हो, कूड़े करकट के आस पास जलती हुई कोई चीज न फेंके, धारदार औजार यंत्र रखने की व्यवस्थित जगह हो, वाहन के प्रयोग से पहले समय समय पर सर्विसिंग कराते रहे व सड़क पर प्रयोग के समय सड़क परिवहन के नियमो का पालन अवश्य करें, दोपहिया वाहन बिना हेलमेट न चलने आदत डालें, बिना जानकारी किसी यंत्र का प्रयोग न करें आदि ऐसी उपयोगी सावधानियां हैं जिन्हें दैनिक जीवन चर्या का हिस्सा बनाकर होने वाली दुर्घटनाओं में कमी लायी जा सकती है।

घर मे रखें प्रथमोपचार पेटी-

आकस्मिक स्थिति के लिए एंटीसेप्टिक कैलेंडुला लोशन, साफ रुई, पट्टी, चिपकने वाला टेप, कैंची, चिमटी, साबुन रख सकते हैं।

कब क्या करें प्रथमोपचार

हल्की फुल्की चोट रगड़ या घाव होने पर उबले हुए ठंडे पानी व साबुन से घाव को साफ कर एंटीसेप्टिक लोशन से ड्रेसिंग कर चिकित्सक से परामर्श लेने जा सकते हैं।

गम्भीर घाव व रक्तस्राव -
ऐसी स्थिति में व्यक्ति के प्रभावित अंग को संभव होने पर हृदय के स्तर से ऊपर उठाएं और घाव को उबालकर ठंडे किये साफ पानी व साबुन से साफ करें,हल्के रक्तस्राव वाली जगह पर कपड़े के पैड से कम से कम 5 मिनट तक दबाव बनाए रखें। बंद होने पर एंटीसेप्टिक लोशन लगाकर उपचार हेतु अतिशीघ्र चिकित्सालय पहुचायें।

गम्भीर रक्तस्राव-
अधिक तनाव ,दबाव या तापमान से कभी कभी नाक से रक्तस्राव होने लगता है ऐसी स्थिति में सिर को आगे झुकाकर नाक की जड़ के पास खून रुकने तक दबाएं और मुह से सांस लेने के लिए मुंह खुला रखने दें।सिर को पीछे नहीं करना इससे खून फेफड़ों में जा सकता है।
होम्योपैथी में इसके लिए फॉस्फोरस, ब्रायोनिया, मिलीफोलियम, मेलिलोटस,आदि दवाएं चिकित्सक के परामर्श से ली जा सकती हैं।

आंख में कुछ गिर जाए तो कार्निया को नुकसान पहुँचा सकता है, आंख को रगड़ें नहीं, छोटे पात्र में साफ पानी लेकर उसमे आंख को खोलें बंद करें। अथवा गुलाबजल या अरण्ड का तेल भी प्रयोग कर सकते हैं। साफ रुमाल को मोड़ कर पलके ऊपर की तरफ मोड़कर हल्के से साफ कर सकते हैं।यदि गहराई से दब गया है तो चिकित्सक को दिखाएं।

तेज धूप या उच्च तापमान में रहने पर मूर्च्छा जैसी स्थिति बनने लगती है पसीना नही होता उल्टी हो सकती है ऐसे में व्यक्ति को ठंडा करने के लिए कूलर में रखें, ठंडे गीले कपड़े से पोंछे , कलाई कमर व गर्दन पर बर्फ सेंक कर सकते हैं।
हल्की गर्मी लगने पर हुई थकावट की स्थिति में त्वचा ठंडी व चिपचिपी हो सकती है व्यक्ति की आंख की पुतलियों में दर्द हो सकता है ऐसे में नारियल पानी या नींबू नमक चीनी का घोल देना चाहिए।

यदि किसी व्यक्ति को विद्युत स्पर्शाघात हुआ है तो सबसे पहले सावधानी व सुरक्षा के साथ विद्युत प्लग को अलग कर सम्पर्क तोड़ें, सूखी लकड़ी, रबर की चप्पल, का प्रयोग करें। यदि हाई वोल्टेज है तो व्यक्ति को दूर से सूखी लकड़ी, रस्सी से अलग करें। सांस व हृदयगति चेक करें आवश्यक होने पर सीपीआर दें

सीपीआर - हृदय की धड़कन व श्वास की निरंतरता के लिए यह विशेष पद्धति है जिसका प्रयोग प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है।

अचानक बेहोश होने वाले व्यक्ति को जमीन या पलंग पर लेटा कर उसके कपड़े ढीले कर दें, फिर दोनों पैरों को 45 डिग्री ऊपर उठा कर  रखें, पर्याप्त हवा आने दें, पानी की छींटे चेहरे पर कर सकते हैं।

गले मे कुछ अटक जाए तो -  उसे निकलने के लिए आगे पूरा झुकना पड़ सकता है, यदि खांसी आ रही है तो पीने के लिए कुछ नहीं देना चाहिए।व्यक्ति की पीठ पर थपकी दें, हाथ से पेट के ऊपरी भाग को बार बार दबाएं, आगे झुककर दबाव बनाते रहें।छोटे बच्चों को अपने पैरों पर उल्टा लिटाकर पीठ पर हाथ से मारते रहें।

पानी मे डूबने पर -
व्यक्ति को कमर पकड़कर उठा कर फेफड़ों से पानी निकालने का विधान करना चाहिए, छोटे बच्चों को उल्टा कर फिर सीधा कर सीने व पीठ पर उंगलियों से दबाव बनांकर फेफड़ों से निकलने का प्रयास करते हुए कृतिम सांस देना चाहिए।

जहर खाये व्यक्ति में चक्कर, बेहोशी, पसीना, झटके, नाक मुंह से पानी, एसिड पीने पर होंठ जले होने पर सहायता के लिए पहले जहर के प्रकार के बारे में जान लेना चाहिए, चिकित्सक को दिखाने के लिए उसके डिब्बे की खोज करवा लें। मिट्टी का तेल या एसिड पीने वाले, या बेहोश व्यक्ति को उल्टी नहीं करवानी चाहिए,।एसिड को न्यूट्रल करने के लिए सोडा या दूध पिलाना चाहिए।

दवा का सेवन किये व्यक्ति को उल्टी कराने के लिए तीन मग पानी मे नमक घोलकर पूरा पिलाएं, व्यक्ति के दोनों पैर फैलाकर बैठाएं, दो अंगुलिया रखकर गले मे हिलाएं और पेट दबाएं यह पद्धति चार पांच बार अपनाएं जहर बाहर आ जाएगा, फिर चिकित्सक को दिखाएं।

सांप काटने पर- शरीर मे जहर फैलने से रोकने के लिए हड्डी जोड़ के नीचे और घाव के कुछ ऊपर कपड़े या रस्सी से बांध कर अविलम्ब अस्पताल पहुचायें इस अवधि में मरीज को सम्बल देते हुए शांत रखने का प्रयास करें।

कुत्ता या बिल्ली काटने पर-  उबालकर ठंडे किये हुए स्वच्छ पानी से कैलेंडुला मदर टिंचर के साथ धोएं। फिर चिकित्सकीय सहायता लें।

मधुमक्खी के डंक से प्रभावित भाग को साफ पानी से धोएं यदि डंक है तो सावधानी से अलग करें, अमोनिया या सोडा लगा सकते हैं। अथवा होम्योपैथी की लीडम, वेस्पा, एपिस जैसी दवाएं तुरन्त कारगर हैं चिकित्सक से परामर्श कर लें।

बिच्छू के डंक को भी इसी तरह साफ पानी व कैलेंडुला मदरटिंचर से साफ कर लिमूलस व लीडम होम्योपैथी दवाएं चिकित्सक के परामर्श से ली जा सकती हैं।

इसीप्रकार दुर्घटना की स्थिति में हड्डी टूटने पर प्रभावित अंग को बिना नुकसान पहुचायें रक्तस्राव को नियंत्रित करने की विधि अपनाते हुए आवश्यकतानुरूप सीपीआर की सहायता से श्वसन व हृदय संचलन को निरन्तर रख मरीज को अविलम्ब अस्पताल पहुचाने में सहायता करनी चाहिए।

इसमे अपनायी जा सकने वाली विधियां स्थिति की गम्भीरता के अनुरूप निर्धारित की जा सकती हैं जिसके लिए व्यक्ति को सामान्य प्रशिक्षण प्रदान किया जाना आवश्यक है। इसप्रकार हम छोटी छोटी जानकारियों से अपनी सजगता सतर्कता और सावधानियों को जीवन का हिस्सा बनाकर स्वयं अपने परिवार के साथ समाज की भी मदद कर सकते हैं।

डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी परामर्श चिकित्सक
जे बी होम्योहाल परिक्रमा मार्ग मौदहा अयोध्या।
महासचिव- होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
सहसचिव-आरोग्य भारती अवध प्रान्त
मो-8400003421

Saturday, 10 October 2020

रामचरित मानस में है मानसिक स्वास्थ्य का प्रकाश

राम चरित मानस में हैं मानसिक रोगों के उपाय

इन दिनों समस्त विश्व कोविड महामारी, युद्ध, आर्थिक, राजनैतिक, वातावरणीय और भौगोलिक अस्थिरता जैसी आशंका, भय व तनाव के बीच स्थिरता,शांति और समाधान के मार्ग तलाश में है।इस दृष्टि से देखा जाय तो आज यह अस्थिरता प्रत्येक व्यक्ति के मन मस्तिष्क में  तनाव दबाव के रूप में मिल जाएगी। निःसन्देह विज्ञान अपनी सीमाओं में समाधान की खोज में लगा है किन्तु प्रकृति ने एक अदृश्य सूक्ष्मतम विषाणु के माध्यम से यह तो स्पष्ट कर ही दिया कि निर्माण के विकास क्रम में विज्ञान और तकनीक की यांत्रिक प्रगति के सापेक्ष व्यक्ति और प्रकृति के सम्बन्धों की महत्ता क्या है ? अन्यान्य कारणों से जन्म ले रही तमाम मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में जागरूकता एवं सहयोगी प्रयासों को सँगठित करने के उद्देश्य से ही भारत मे 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत हुई तो 10 अक्टूबर 1992 को विश्व मानसिक स्वास्थ्य सँघ ने विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के रुप मे मनाने का निश्चय किया। कोविड महामारी ने एक मानवता को एक संकेत और किया कि जब समस्या बड़ी हो उसके कारण और निवारण अज्ञात हों तो समाधान के लिए सभी संभव विकल्पों का अध्ययन व उपयोग समग्ररूप में किया जाना चाहिए, इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय आध्यात्म की प्रासंगिकता बढ़ जाती है जिसे प्रसिद्ध जीवविज्ञानी सर जूलियन हक्सले ने " मानवीय सम्भावनाओं के विज्ञान" की संज्ञा दी थी और आशा व्यक्त की थी कि आधुनिक पाश्चात्य भौतिक विज्ञान उसी दिशा में विकसित होगा।

 भारतवर्ष में हजारों वर्षो पहले आंतरिक -प्रकृति के रहस्यमय जगत पर शोध कर उपनिषदों पुराणों,ग्रन्थों में संरक्षित किया गया जिनमे बताया कि इस पँच तत्व निर्मित भौतिक शरीर में स्नायु तन्त्र , मस्तिष्क के पीछे भी एक अनन्त आध्यात्मिक केंद्र होता है।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्री राम चरित मानस में लिखा -
क्षिति, जल, पावक, गगन , समीरा।
पंच तत्व मिलि बना सरीरा।।

कठोपनिषद में लिखा गया है -
" एष सर्वेषु भूतेषु गूढो$$त्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वप्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।"

अर्थात् यह (अनन्त) आत्मा सभी जीवों में छिपा है, अतः प्रकाशित नहीँ होता; परन्तु सूक्ष्म दृष्टा मेधावी गण अपनी सूक्ष्म व पैनी बुद्धि की सहायता से उसका साक्षात्कार करते हैं।
बाद में होम्योपैथी के जनक डा हैनिमैन ने इसे जीवनी शक्ति कहा।

भारतीय आध्यात्म में प्राण को स्वयंभू माना जाता है और इसका आयाम ही मनुष्य को स्वस्थ व सक्रिय रखता है। जीवन और गति एक दुसरे की पूरक हैं ।  सभी के मूल में एक बात स्पष्ट होती है कि मानव शरीर रचना में प्रकृति के मूलतत्वों का ही समावेश है और इसीलिए वह अपनी वातावरणीय दशाओं में परिवर्तन से प्रभावित होता है और इन्हे मानसिक एवं शारीरिक लक्षणों में व्यक्त करता है। 
दर्शन का यही सिद्धान्त होम्योपैथी के प्रकृति पर आधारित चिकित्सा को प्रमाणिकता प्रदान करता है।

होम्योपैथी दर्शन और विज्ञान के अनुसार भी स्वस्थ जीवन के लिए शरीर, मस्तिष्क और आत्मिक (स्पिरिचुअल, वाइटल) ऊर्जा में संतुलन स्थापित रहना जरूरी है।

भौतिक विज्ञान ने भले ही मानवो के बीच सांसारिक दूरियाँ कम कर दी हों मगर बढ़ते अपराध हिंसा अनाचार से साबित होता है कि मानवीय मानसिक दूरियां बढ़ा दी हैं। आहार, स्वास्थ्य ,तकनीक ,संसाधन ,शारीरिक बौद्धिक और मानसिक रूप से भले ही हम स्वयं को पूर्वजो की अपेक्षा पुष्ट पाते हों मगर हम अपनों से और अपने आपको स्वयं से दूर भी पाते हैं। आज भी मनुष्य दुखी है, तनावग्रस्त है ,अशांत है ,दूसरों पर आघात करता है या स्वयं आत्महत्या कर लेता है ....यह कैसा स्वास्थ्य है ....?..यह रुग्णता दैहिक , दैविक या भौतिक नही ... मानस (रुग्णता) है ।

क्या हैं मानस (मानसिक) रोग --

गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री राम चरित मानस के उत्तर कांड में काकभुशुण्डि से सन्तों ने प्रश्न  किया,

"मानस रोग कहहु समुझाई । 
तुम सर्वग्य कृपा अधिकाई।।"

अत्याधुनिक चिकित्सा के तरीकों के बाद भी माया और मोह के जंजाल में फंसा जनमानस क्या सच में शांत, सन्तुष्ट ,स्वस्थ है ...?...इसका उत्तर भारतीय दर्शन में रेखांकित है जिसमें अत्याधुनिक विज्ञान  अपनी कसौटी पर कोई परिवर्तन नहीँ कर पाया। तमाम चिकित्सा विज्ञान के सापेक्ष होम्योपैथी के सिद्धान्त प्राकृतिक रूप से अलग शब्दों की व्यंजना में मूल रूप से इसी दर्शन को पुष्ट करते दिखाई देते हैं।

सन्तों के प्रश्न का उत्तर देते हुए काकभुशुण्डि कहते हैं,

सुनहु तात अब मानस रोगा। 
जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोगा।।

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

अर्थात् मोह (मन, मानसिक वृत्ति) सभी व्याधियों का मूल है जिससे मनुष्यों में कई प्रकार के कष्ट (शारीरिक) उत्पन्न होते हैं।

अपनी पुस्तक आर्गेनन ऑफ़ मेडिसिन के एफोरिज़्म 210 में डा हैनिमैन लिखते हैं कि एक या दो मानसिक लक्षणों वाले रोग ही मानसिक रोग कहलाते हैं जिनमे व्यक्ति की मानसिक दशा व्यवहृत होती है। 
दोनों का दर्शन इस बात का समर्थन करता है कि प्रायः मनुष्य का मन या मस्तिष्क पहले प्रभावित होता है तदुपरांत ही शारीरिक रोगों की उत्पत्ति हो सकती है।

रोग के कारण- रोगोत्पत्ति-

डा हैनिमैन ने आर्गेनन ऑफ़ मेडिसिन में एफोरिस्म 210--230 में मानस (मानसिक) रोगों के विभिन्न प्रकारों के उद्भव व उनके उपचार के तरीके भी बताये हैं।

होम्योपैथी में रोगों के तीन प्रमुख कारण; मूल कारण (Fundamental cause), उत्प्रेरक कारण (Exciting cause), स्थायीकारक (Maintaining cause)हैं। रोगों की उत्पत्ति के लिए मनुष्य में मूल कारक ; होम्योपैथी में सोरा, सिफ़िलिस, साइकोसिस,या आयुर्वेद में वात, पित्त, और कफ, ही वस्तुतः महत्वपूर्ण है , जो कि जन्म से ही उसके शरीर में सुप्तावस्था में विद्यमान रहते हैं तथा विकास के साथ स्वानुकूल परिस्थिति में उत्प्रेरक कारकों से जाग्रतावस्था को प्राप्त हो तदनुरूप रोगोत्पत्ति एवं उनका विकास करते है , एवं स्थायी कारक कारण रोगों को विकसित होने का वातावरण तैयार कर देते है। 

विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
मुनिहु ह्रदय लग न्र वापुरे।।

अर्थात कुपथ्य और विषय वासना के वश में आने पर मनुष्य तो क्या मुनियों में विकार के अंकुर पनपने लगते हैं।

होम्योपैथी मानसदर्शन कहता है "मन" या  "विचार" ही "मनुष्य "को प्रदर्शित करते हैं इसलिए इनकी गति का प्रभाव शरीर क्रियाओं पर भी पड़ता है, और विषयानुक्रम में तत्सम लक्षण या विकार उत्पन्न हो सकते हैं और रामचरित मानस दर्शन में यही बात यूँ कही गयी है-

विषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना।।
अर्थात् मनुष्य की पूरी न हो सकने वाली भौतिक विषयों को प्राप्त करने की अभिलाषाएं ही कष्टदायी रोग या इसका कारण है , इनके हजारों या अनगिनत नाम हो सकते हैं।
रोग के प्रकार भी हमारी मनोवृत्तियों के अनुरूप ही होते हैं जैसे-

काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।

अर्थात काम  वात (सोरा) है, लोभ अपार या बढ़ा हुआ (साइकोसिस) कफ है और क्रोध (सिफ़िलिस) पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।

इन्ही मानस रोगों के कारण तमाम अन्य शारीरिक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अथवा
कोई पुराना शारीरिक रोग भी दब कर मानसिक लक्षण उत्पन्न कर सकता है जिसे सोमैटो साइकिक रोग कहते हैं।

प्रीति करहि जो तीनिउ भाई।
उपजइ सन्यपात दुखदायी।।

यदि ये तीनों वात (सोरा), कफ ( साइकोसिस), पित (सिफ़िलिस) मिल जाएं तो दुखदायी सन्निपात रोग उत्पन्न होता है।

इसी विषय में डा हैनिमैन के अनुसार सुप्त वात या सोरा के बढ़ जाने से या कभी कभी अचानक दुःख, भय, सन्ताप से होने वाले मानसिक रोग को अल्पकालिक औषधियों से नियंत्रित  न हो तो द्वितीयवस्था में यह पागलपन  तक बढ़ सकता है।

होम्योपैथी के अनुसार तृतीय प्रकार के मानस (मानसिक) रोगों की उत्पत्ति के विषय मे अनुमान ही लगाया जा सकता है जैसे अहंकार, दम्भ, मलिन चरित्र , कपट, विचार, अशिक्षा, कुसंगति आदि।
इसे गोस्वामी तुलसीदास ने यूँ लिखा है--
अहंकार अति दुखद डमरुआ।
दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृष्णा उदर बुद्धि अति भरी।
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।।

अर्थात् अहंकार -दुख देने वाला गांठ का रोग (साइकोसिस) है। दम्भ कपट मद और मान -नसों के ,  तृष्णा -जलोदर रोग है तो पुत्र धन मान की प्रबल इच्छाये तिजारी हैं।

होम्योपैथी में चतुर्थ प्रकार के मानस रोगियो में लम्बे समय तक रहने वाली मोह, दुःख, हर्ष , विषाद, चिंता, बेचैनी, ईर्ष्या, दुर्भाग्य का भय, सन्ताप आदि के कारण शरीर रुग्ण होने लगता है इसे सायको सोमैटिक रोग कहते हैं।
और इसे गोस्वामी तुलसीदास मानस के उत्तरकाण्ड में  यूँ व्यक्त कर चुके हैं-- 
ममता दादु, कण्डु इरषाई।
हरष विषाद गरह बहुताई।।

परसुख देखि जरन सोइ छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ।।

जैसे अधिक ममता शरीर पर दाद, ईर्ष्या खुजली, हर्ष विषाद गले के रोगों की अधिकता जैसे गलगण्ड, कण्ठमाला, घेंघा आदि के रूप में प्रकट होते हैं। पराये सुख को देखकर मन में जो जलन होती है वह क्षयी (ट्यूबरकुलर मयज्म या सोरा-सिफलिस) है तो दुष्टता, व मन की कुटिलता ही कोढ़ 
(सिफिलिटिक) है।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका।
कान्ह लगि कहौं कुरोग अनेका।।

मत्सर और अविवेक दो ज्वर हैं।

उपचार-

उक्त मानस रोगों के निदान हेतु आवश्यक है रोगी या परिजनों एवं चिकित्सक के बीच विश्वास का मजबूत बन्ध बनें, इस हेतु चिकित्सक में सरल ,सहज, संयम व मैत्रीपूर्ण मानवीय भाव का होना नितांत आवश्यक है।
मानस में भी वर्णन है-
सद्गुर बैद बच्चन विस्वसा।
संजम यह न विषय कै आसा।।

अर्थात् सद्गुरु रुपी वैद्य पर्व विश्वास करें विषयो की आशा न करें यही संयम है।

डा हैनिमैन ने ऐसे लोगो का उपचार  भी मित्रवत व्यवहार ,लक्षणों के अनुसार औषधि चयन और दिनचर्या, जीवन शैली के नियमन से ही संभव माना है। इन्हे औषधि से अधिक भावनात्मक सहारे और आत्मविश्वास जगाने की जरूरत होती है।

महान दार्शनिक एवं मनोविज्ञानी स्टुअर्ट क्लॉस का भी मनना था कि मनुष्यों में " मानस ही मनुष्य है" (The Mind is The Man). और अभिव्यक्ति (Statement) ही उसकी "मनोदशा में व्यक्ति " का प्रदर्शन , जिसे न्हे हम उसके सोने जागने के तरीके, वार्तालाप, स्वप्न आदि के विश्लेषण से जान समझ सकते है।

गोस्वामी लिखते हैं -
जानिअ तब मन बिरुज गोसाई।
जब उर बल बिराज अधिकाई।।
सुमति दुधा बाढ़इ नित नई।
विषय आस दुर्बलता गई ।।

अर्थात् जब हृदय में विषयों (सांसारिक भौतिक  लालसाएं) से अनासक्ति एवं वैराग्य बढ़ जाये तो मन को निरोग समझना चाहिए ऐसे में उत्तम बुद्धि निरन्तर बढ़ती है।

यह होम्योपैथिक पद्धति की खूबसूरती ही है कि व्यक्ति के इलाज के समय व्यक्ति ही समझा जाता है प्रयोगशाला का जीव नहीं। और एक कुशल होम्योपैथ  उपरोक्त होम्योपैथिक सिद्धांतो के अनुरूप अपने रोगी को भावनात्मक सम्बल प्रदान करते हुए लक्षणों की पूर्णता के आधार पर उचित एंटी सोरिक औषधियों या व्यक्ति विशेष की वैयक्तिक औषधि( constitutional remedy) का चयन कर "रोग से व्यक्ति को स्वास्थ्य की अवस्था" में ले आता है।



डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी, 

होम्योपैथ

सहसचिव आरोग्य भारती अवध प्रान्त

Tuesday, 19 May 2020

कम होती इम्युनिटी का कारण विद्युतचुम्बकीय संवेदनशीलता तो नहीं

प्रकृति और यांत्रिक प्रगति में मनुष्यता के लिए जरूरी क्या

महापुरुषों, देवी देवताओं, ऋषि-मुनियों के चित्रों के साथ दिखने वाले प्रकाशपुंज या पौराणिक ग्रंथों में योद्धाओं द्वारा प्रयोग किये जाने वाले दिव्य अस्त्रों या अभेद्य सुरक्षा कवच का निर्माण कल्पना है या सम्भावना ?   
विज्ञान सदैव संभावनाओं का क्षेत्र है, अभी कुछ वर्ष पूर्व ही गॉड पार्टिकल की भी खोज हुई ।  हम जानते हैं परमाणु पदार्थ की सबसे सूक्ष्मतम अदृश्य इकाई है, जो परिधि में ऋण आवेशित कण इलेक्ट्रान, व केंद्र में धनावेशित प्रोटॉन, व अनावेशित न्युट्रान से मिलकर बना है। यह दोनों आवेश दो ध्रुव की तरह व्यवहार करते है और उनके बीच आवेश की धाराओं (विद्युत) से व्युत्पन्न आकर्षण बल (चुम्बकीय बल) संतुलन बनाता है इसप्रकार असंख्य परमाणु मिलकर जब एक पदार्थ बनाते हैं तो उसमें अंतर्निहित इस ऊर्जा का संयुक्त प्रभाव कुछ दूर तक किसी दूसरे पदार्थ द्वारा उसकी प्रवृत्ति के अनुरूप आकर्षण या प्रतिकर्षण के रूप में अनुभव किया जा सकता है इस प्रभाव क्षेत्र को उसकी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड या विद्युतचुम्बकीय क्षेत्र कहते हैं। अर्थात दोनों पदार्थों के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र, एक दूसरे के लिए सुरक्षा घेरे की तरह व्यवहार करते हैं और जो सबल होता है वह दूसरे के प्रतिरोध को नकार कर प्रवेश पा लेता है और स्वेच्छा से व्यवहार करता है।

मनोविज्ञान में "गति" ,जगत में जड़ और चेतन के मध्य के अंतर "जीवन" को एक शब्द में परिभाषित करती है, जो स्वयं ऊर्जा का स्वरूप है और वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टीन के ऊर्जा, पदार्थ के द्रव्यमान एवं वेग सम्बन्धी  सिद्धांत के अनुसार विभिन्न स्वरूपों में रूपांतरित होती रहती है। 
इस प्रक्रिया को व्यक्ति के संदर्भ में देखा जाए तो मानव शरीर की सूक्ष्मतम इकाई कोशिका है। बृद्धि के लिए विभाजन होते समय केंद्रक में स्थित डीएनए पहले मध्यरेखा पर अलग सूत्रों में बंट जाता है बाद में दो अलग पोल पर। ऐसे ही मस्तिष्क समस्त अंगों को नर्व्स के द्वारा सूचनाएं इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स के रूप में ही प्रेषित या ग्रहण करता है, हृदय निरन्तर गतिशील रहता है और इस क्रिया में एक अति सूक्ष्मविद्युतधारा का प्रवाह होता है, अर्थात प्रकृति के समान ही हमारे शरीर मे भी भिन्न अंगतन्त्रों के सम्यक कार्य के लिए आवश्यकतानुरूप ऊर्जा का रूपांतरण एवं विभाजन होता रहता है, विज्ञान की भाषा मे यही जैवऊर्जा या बायोइलेक्ट्रोमैग्नेटिक एनर्जी है। जिसे आध्यात्मिक जगत (आयुर्वेद व गीता) प्राणशक्ति या प्राण ऊर्जा  और होम्योपैथी के जनक डा हैनिमैन ने अपनी पुस्तक ऑरगेनन ऑफ मेडिसिन (एफोरिज्म 9-11), स्पिरिट या वाइटल फोर्स/जीवनी शक्ति कहा है। पृथक नाम से पहचान के बाद भी सभी इसके  स्वउत्पन्न, स्वशासी, शरीर की समस्त क्रियाओं में संतुलन स्थापित करते हुए नियंता होने के गुण पर एकमत दिखाई देते हैं। इस आधार पर यह कह सकते हैं कि असंख्य कोशिकाओं के संयोजन से बने इस शरीर का भी एक समन्वयित विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र अवश्य होगा, जिसे ही आध्यात्मिक जगत के विद्वान आभामंडल कहते है। इसमे भी ऊर्जा एवं संवेग दोनों होंगे और जो अपने निकट किसी अन्य पदार्थ या जीव के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र के प्रति उदासीन रहते हुए विरोध अवश्य करता है , यदि वह प्रबल हुआ तो इसे भेद कर शरीर में प्रवेश प्राप्त कर लेगा और अपनी प्रवृति के अनुरूप शरीर की क्रियाओं में विकार उत्पन्न कर सकेगा , जो शरीर पर लक्षणो की भाषा मे प्रकट होता है जिसे सामूहिक रूप से पहचान के लिए एक रोग का नाम दे दिया जाता है।अर्थात यह बायोएलेक्ट्रोमैग्नेटिकफील्ड व्यक्ति के शरीर के बाहर एक सुरक्षा क्षेत्र की लक्ष्मण रेखा और शरीर मे सूक्ष्मतम स्तर  जैव ऊर्जा/जीवनी शक्ति की प्रबलता से सुरक्षातंत्र की कोशिकाओं की सक्रियता मिलकर शरीर मे दोहरा सुरक्षा आवरण बनाती है। अर्थात किसी भी बाहरी जीव जैसे जीवाणु, विषाणु, या अन्य संक्रामक परजीवी को शरीर मे प्रवेश से पहले इस बायोएलेक्ट्रोमैग्नेटिक प्रतिरोध को पार करना होगा फिर शरीर मे सुरक्षातंत्र की सक्रिय कोशिकाओं से लड़कर बचना होगा, साथ ही अपने लिए अनुकूल अंग या वातावरण खोजकर अपनी संख्या व शक्ति बढ़ानी होगी जिससे वह अपने अनुकूल लक्षण उत्पन्न कर सके।अर्थात व्यक्ति की विद्युतचम्बकीय संवेदनशीलता रोगाणुओं को ग्रहण करने या संवेदनशून्यता उनसे रक्षा करने में सहायक होती है।
इतनी प्राकृतिक सुरक्षा से घिरे होने पर भी व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाये तो समझना चाहिए आक्रांता रोगाणु के सापेक्ष शरीर की उक्त सुरक्षा व्यवस्था में कहीं विकार है तो सबसे पहले उसे खोजकर दुरुस्त करना चाहिए जिससे शरीर के अंदर की जीवनीशक्ति को शक्तिवर्धित कर रोगाणु के प्रभाव से मुक्त होने योग्य बनाया जा सके, और यह कार्य प्रकृति के समं समे शमयति के सिद्धांत के अनुरूप ही सम्भव है।

रोग के मूल कारण क्या है -

होम्योपैथी के अनुसार व्यक्ति में रोग का मूलकारण व्यक्ति के अंदर ही व्याप्त प्रवृत्तियां सोरा, साइकोसिस, सिफिलिस हैं जिनके प्रभावी होने पर ही स्थूल जीवाणु, विषाणु या अन्य परजीवी के संक्रमण के लिए शरीर मे उर्वरा वातावरण तैयार होता हैं। 

विद्युत चुम्बकीय तरंगे इम्युनिटी को प्रभावित करती हैं -

 हमारा शरीर प्रकृति के कृतियों के सापेक्ष सुरक्षित कर लेता है किंतु समय के साथ यांत्रिकीय विकास,तकनीकी प्रयोगों,  मोबाइल टावरों, आयुधों के निर्माण आदि से निकलने वाली विद्युतचुम्बकीय तरंगे निरन्तर हमारे विद्युतचुम्बकीय क्षेत्र को और जीवनी शक्ति पर आक्रमण करती रहती हैं। कमजोर जीवनीशक्ति से व्यक्ति की  विद्युतचम्बकीय संवेदनशीलता बढ़ जाती है और वह बाहर से रोगाणुओं को सहजता से ग्रहण करने लगता है।
 मोबाइल फोन जहां हमे अपनो से सम्पर्क में लाता है वहीं एक प्रबल विद्युतचुम्बकीय रिसीवर के रूप में सदैव हमारे साथ रहते हुए अनेक बीमारियों के जैसे- सर्दी, जुकाम, खाँसी आदि के रोगाणु को आकर्षित कर सकता है जिनके सम्पर्क में आने से संवेदनशील व्यक्ति के संक्रमित होने की संभावना अधिक रहती है, इसीलिए जनसम्पर्क वाले कार्यालयों व अस्पतालों में मोबाइल के प्रयोग पर प्रतिबन्ध रखा जाता है।
यदि उपरोक्त तथ्यों के आलोक में विश्लेषण करें तो पाएंगे कि मस्तिष्क और मोबाइल दोनों में सूचनाओं का आदान-प्रदान इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों के माध्यम से होता है। मोबाइल के सिग्नल के लिये आती इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगे मस्तिष्क की प्राकृतिक तरंगों में बाधा के उत्पन्न कर उसके स्वाभाविक विकास को बाधित कर सकती हैं  जिससे ट्यूमर विकसित होने की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है।
यूके के राष्ट्रीय रेडियोलॉजिकल प्रोटेक्शन बोर्ड के अनुसार, मनुष्य मोबाइल माइक्रोवेव ऊर्जा की एक महत्त्वपूर्ण दर को अवशोषित करते हैं जिससे मानव कोशिकाओं के एंटीऑक्सीडेंट डिफेंस मैकेनिज्म क्षमता पर असर होने से कोशिकाओं की प्रतिरोधक क्षमता कम हो सकती है।
इण्डियन काउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और काउन्सिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च द्वारा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में चूहों पर परीक्षण में पाया गया कि लम्बे समय तक रेडियोफ्रिक्वेन्सी रेडिएशन के प्रभाव में रहने के कारण द्विगुणित डीएनए स्पर्श कोशिकाओं में टूट जाते हैं, जिससे व्यक्ति की वीर्य गुणवत्ता और प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 

विद्युत चुम्बकीय संवेदनशीलता से व्युत्पन्न सम्भावित लक्षण -
 मानसिक -एकाग्रता, स्मरणशक्ति व सीखने की क्षमता, दृष्टिकोण में परिवर्तन, जैसे- अवसाद, चिन्ता, क्रोध, अचानक रोना और नियंत्रण खोना
 न्यूरोलॉजिकल समस्याएं - चक्कर आना, जी मिचलाना, बिन मौसम बीमार होना, धड़कन, सीने में अचानक दर्द का अनुभव, साँस की कमी और अस्थिर रक्तचाप, प्रतिकूल प्रतिक्रिया का संकेत हो सकते हैं।आंखों में फड़कना, किरकिरापन और दर्द, मांसपेशियों में कमजोरी और ऐंठन, साथ ही जोड़ों में दर्द, पैरों में ऐंठन और हाथों में कम्पन,मूत्र पथ में गड़बड़ी, अधिक मूत्र, पसीना,भोजन की रुचि एवं भूख में बदलाव या एलर्जी प्रतिक्रियाएं,  मोटापे व कैंसर के जोखिम की सम्भावनाएं हो सकती हैं।

बचाव व उपचार की संभावनाएं

व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले अनेकानेक कारक होते हैं उनमें से विकिरण भी एक कारक है, जिसके स्वास्थ्य पर पड़नेवाले कुप्रभावों पर अध्ययन व शोध निरन्तर चल रहे हैं। उपरोक्त विश्लेषण से यह निश्चित करना कठिन नही कि सुविधाओ का प्रयोग आवश्यकतानुरूप ही करना चाहिए। प्रकृति में अस्तित्व प्राप्त प्रत्येक पदार्थ में उसका विशिष्ट गुण निहित होता है, उसकी प्रयोग की जाने वाली मात्रा उसे औषधि या विष बना सकती है। डा हैनिमैन ने ऑरगेनन ऑफ मेडिसिन में एफोरिज्म 286- 291 में इसी चिकित्सा की इसी पद्धति पर आधारित प्रयोग जिसे प्रथम प्रयोगकर्ता चिकित्सक मैस्मर के नाम पर मेसमरिज्म कहा उसका वर्णन करते हुए बताया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति द्वारा किसी अस्वस्थ व्यक्ति को अपने सकारात्मक आत्मबल व सद्भावना पूर्वक पॉजिटिव या निगेटिव पास (हाथ फिराना) देने पर बीमार व्यक्ति की क्षीण हुई जीवनीशक्ति को बल प्रदान किया जाता है। इस पद्धति का मानना है कि हमारे शरीर मे एलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों का प्रवाह उंगलियों की तरफ अधिक होता है जो नियमित योगाभ्यास प्राणायाम से सन्तुलित रहता है, और अन्य व्यक्ति की ऊर्जा के प्रवाह की दिशा को बल प्रदान कर सकता है।

होम्योपैथी में सीपिया व विकिरण स्रोतों से बनी औषधियां एक्स रे, सोलर,लूनर, आदि औषधियां ऐसी स्थितियों को सन्तुलित कर सकती हैं ।यह शक्तिकृत औषधियां हैं जो जीवनीशक्ति के स्तर पर असरकारक हैं और बिना किसी दुष्परिणाम के मनुष्य को रोगों से बाहर आने की क्षमता एवं आरोग्य प्रदान करती है।

सावधानियां-
विकिरणों द्वारा स्वास्थ्य को होने वाली हानि की संभावनाओं पर विचार के साथ उनसे बचने के लिए सचेत रहना अति आवश्यक है। ऑनलाइन स्टडी के नाम पर बच्चों के हाथ मे मोबाइल थमाने से पूर्व उसके हानि लाभ व उपयोगिता पर माता पिता को अवश्य विचार करना चाहिए क्योंकि इन्ही से हमारी भावी पीढ़ी का निर्माण होना है, इसलिए इन्हें विकसित होने के लिए प्राकृतिक वातावरण देना कृत्रिम से बचाना हमारा ही दायित्व है।



डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
अयोध्या
सहसचिव - आरोग्य भारती अवध प्रान्त
महासचिव- होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ

Friday, 8 May 2020

आयुष : समः समं शमयति ,कोविड19 और होम्योपैथी

(प्रस्तुत आलेख जनसामान्य को ध्यान रखते हुए सामान्य और सरलरूप में कोरोना वायरस की समस्त रोगजनकता व बचाव के तरीके उपचार की संभावनाओं पर एक विचार है, चिकित्सकीय परामर्श के बाद ही औषधीय सेवन करना चाहिए, यहां प्रस्तुत जानकारी से औषधि चयन संभव नही होगा।)


विश्व स्वास्थ्य संगठन को 31 दिसम्बर 2019 में चीन के हुबेई प्रान्त के वुहान शहर में अज्ञातकारण से फैल रहे न्यूमोनिया की जानकारी हुई , जिसकी पहचान बाद में कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) के रूप में की गई अतः बीमारी को विषाणु और उत्पत्ति वर्ष के आधार पर कोविड 19 नाम दिया गया, अपनी अब तक यह विश्व के 190 से अधिक देशों में फैल गया, अतः  वैश्विक महामारी घोषित कर दिया गया है। 

क्या है कोरोना वायरस ?

जन्तुओ के सम्पर्क से मनुष्यों में (जूनोटिक) और मानव से मानव में फैलने वाले कोरोना विषाणु अविभाजित, आवरण युक्त, एक सूत्रीय आरएनए वायरस हैं। 1960 से अब तक इनके 6 प्रकार की पहचान हुई थी जिनमे से 4 (229E,OC43, NL63, HUK1) श्वसनतंत्र सम्बन्धी सामान्य रोग उत्पन्न करते हैं किंतु अन्य दो, सार्स कोव  (SARS-CoV, 2003 में बिल्ली प्रजाति से मनुष्यों में) व  मर्स कोव (MERS-CoV, 2012 में ऊंटों से मनुष्यों में) विषाणु मानव स्वास्थ्य के लिए चुनौती बन चुके हैं जिनके संक्रमण की मूल प्रवृत्ति नाक से फेफड़ों तक रोगोत्पादन हैं। वर्तमान में जिस नए वायरस की पहचान हुई है उसे सार्स कोव 2 या नॉवेल कोरोना वायरस कहा जाता है, इस प्रकार यह अपने वंश का 7 वां वायरस है।

एपिडेमियोलॉजी
मनुष्यों से मनुष्यों में तेजी से फैलने वाले सार्स कोव 2 विषाणु से अब तक विश्व के  39 लाख से अधिक लोग संक्रमित है, और 2.7 लाख से अधिक मृत्यु हो चुकी है। भारत मे भी संक्रमण का आंकड़ा 59हजार तक पहुंच गया है जिसमे 1800 से अधिक मृत्यु हो चुकी हैं।यद्यपि भारत मे रिकवरी दर अन्य देशों की अपेक्षा बेहतर लगभग 27 प्रतिशत से अधिक है।

कोरोना कितना घातक है ?

संक्रामकता की दृष्टि से नावेल कोरोना वायरस अन्य से दस गुना अधिक है जबकि इसकी मृत्यु दर पूर्व के सार्स (मृत्यु दर 11%), व मर्स (MERS -35%) से बहुत कम  1-4% ही है। अलग अलग देशों में यह आंकड़ा भिन्न है।
 
इन्क्यूबेशन पीरियड -

संक्रमण होने से लक्षणों के प्रकट होने के बीच का समय उदीयमान काल या इन्क्यूबेशन पीरियड कहलाता है। इसके लक्षणों की शुरुआत 2 से 12 -13 दिनों में हो जाती है ।

संक्रमण का प्रसारण कैसे होता है ? 

1. जानवरो से मनुष्य में - अधपके कच्चे मांसाहार से
2. मनुष्य से मनुष्य में-  संक्रमित व्यक्ति से व्यक्तिगत सम्पर्क (कॉन्टेक्ट) हाथ मिलाने, छुए गए या उपयोग किये गए उपकरणों, वस्तुओं , खाद्य पदार्थो, फल,  सब्जियों आदि के प्रयोग, अथवा संक्रमित के शरीर द्रव्यों (एरोसॉल) जैसे छींक, थूक, उल्टी, खून,  मल , मूत्र के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क के साधनों से।
3. सुपर स्प्रेडर - ऐसे व्यक्ति जिनमे कोई लक्षण न हों और व्यक्तियों से सम्पर्क अधिक हो।

संक्रमण किसके लिए अधिक संभावित है ?

ऐसे संवेदनशील (susceptable) व्यक्ति जिनकी इम्युनिटी कम है या प्रौढ़ या बृद्ध व्यक्ति जो पहले ही  लिवर, फेफड़े, हृदय, रक्तचाप, डायबिटीज, एड्स, की बीमारी से ग्रसित हैं और उपचार ले रहे हैं।
नवजात शिशु, संक्रमित व्यक्तियों का उपचार कर रहे स्वास्थ्य कर्मी, सुरक्षा कर्मी, सफाईकर्मी, मानसिक दबाव महसूस करने वाले व्यक्ति।


संक्रमण का प्रसारण रोकने का सरलतम उपाय -

समाज मे सम्मुख व्यक्ति को संक्रमित मानते हुए उससे 2 मीटर की शारीरिक दूरी, व्यक्तिगत स्वच्छता के सभी उपाय।
पृथक्करण- समाज मे संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए क्वारंटाइन- अर्थात संदिग्ध व्यक्तियों का पृथक्करण,  या आइसोलेशन -अर्थात पुष्ट हुए मरीज का अन्य से पृथक्करण, विधियां प्रयोग की जाती हैं।


रोगउत्पादन -

हिस्टोपैथोलॉजिकल अध्ययन में फेफड़ो में सूजन, खून की नलियों में जमाव, प्रोटीन युक्त गाढ़े स्राव , फाइब्रिन के अंश, बहुकेन्द्रीय बड़ी कोशिकाएं,और फेफड़ो की कोशिकाओं में बृद्धि देखी गयी है।यह परिवर्तन किसी भी संक्रमण के विरुद्ध शरीर की प्राकृतिक सुरक्षात्मक प्रतिक्रिया के कारण होते हैं।
विषाणु के प्रवेश के साथ ही श्वसनतंत्र की म्यूकोसा की सिलिएटेड सेल्स गति बढ़ाकर इसे बाहर करना चाहती हैं,  किन्तु इसकी संरचना में बाहर की लिपिड खोल में धंसी प्रोटीन की घुंडी का संक्रमण प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण रोल हो सकता है जिससे यह शरीर की म्यूकोसा पर स्थित रिसेप्टर कोशिका से आसानी से चिपक सकता है।शरीर की प्रतिक्रिया के समय संक्रमित भाग में  सइटोकाइन स्रावण बढ़ने से डब्ल्यूबीसी सहित कोशिकीय सक्रियता बढ़ती है, इससे कोशोकाओं के रेशों को भी नुकसान हो सकता है, और विषाणु को चिपकने का पर्याप्त अवसर व समय मिल जाता है,  वह निरन्तर संख्या बृद्धि करता है , यदि संक्रमण श्वसन तंत्र के निचले हिस्से तक पहुच गया है तो स्रवण वहीं जमा होने से फेफड़ो के सिकुड़ने फैलने में दिक्कत हो सकती है जिससे सांस लेने में तकलीफ, सीने में भारीपन, दर्द, तेज बुखार, शरीर मे ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।इस प्रकार कमजोर इम्युनिटी वाले लोगों में यह प्राणघातक हो सकता है।
कोविड 19 के लक्षण क्या हैं ?

नावेल कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति में तेज बुखार, सूखी खांसी, सांस लेने में तकलीफ व सीने में दर्द या भारीपन होने पर चिकित्सकीय पुष्टि करना आवश्यक माना जाता है। एक अध्ययन में बुखार (87.9%, 0-12 दिन में ),सूखी खांसी (67.7%, 0-16-19 दिन में ),थकान (38.1%), बलगम बनना(33.4%),  सांस लेने में तकलीफ(18.6% , 0-7-19 दिन में), गले मे दर्द(13.9%) , सिरदर्द(13.6%), हड्डियों या मांसपेशियों में दर्द(14.8%),  ठंडी(11.4), मितली वमन(5.0%),नाक बंद( 4.8%), डायरिया(3.7%), खूनी उल्टी(0.9%), कजंक्टिवल कंजेशन(0.8%), एक्यूट रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम(3%), सीने के सीटी सकैन में (86%) व एक्स रे में (59%) अपारदर्शी चिन्ह । बाद में कुछ मामलों में स्वाद व सुंगध की क्षमता में भी कमी मिली है । यद्यपि सूंघने की क्षमता में कमी अन्य विषाणुओं के संक्रमण से भी संभव है किन्तु सावधानी की दृष्टि से ,इसे वायरस के प्रमुख लक्षणों में सम्मिलित कर लिया गया।
कुछ मरीजों में त्वचा पर रैसेश या छाले, पैर के तलवों में खून के थक्के आदि लक्षण भी मिल रहे हैं

समय के साथ पैथोलोजिकल डेवलपमेंट होता रहता है जिससे
न्यूमोनिया - यदि बच्चों में है तो  सांस तेज चलती है, वयस्कों में  सांस लेने में दिक्कत से ऑक्सीजन की कमी, (SpO2 90% से कम), इसके बाद 
विषाक्तता या सेप्सिस का लक्षण भी मिल सकता है, जिससे बच्चों में ताप व डब्ल्यूबीसी का बढ़ते जाना, वयस्को में रक्तचाप का कम होना शॉक की अवस्था का सूचक है।

 रोग की जांच एवं पुष्टि -

1. बुखार के लिए थर्मल सकैनिंग
2. संदिग्ध की सैम्पल जांच-
जांच के लिए व्यक्ति के नासा मार्ग के पीछे नेजोफैरिंजियल, व मुखगुहा के पीछे ऑरोफरिंजियल से स्रावण का स्वाब टेस्ट करते हैं।
इसके अतिरिक्त मल मूत्र व रक्त के सैम्पल भी जांच के लिए लिए जाते हैं।
रक्त जांच -
IL-6, कार्डियक ट्रोपोनिन, बढ़े हुए, लिम्फोपेनिया ,डब्ल्यूबीसी, न्यूट्रोफिल, लिम्फोसाइट्स, प्लेटलेट्स, TNF-अल्फा, इंटरफेरॉन गामा,IGM, IGG एंटीबॉडी की जांच का अध्ययन किया जाता है।

आरटी- पीसीआर (पोलीमेरेज चेन रिएक्शन) -
से आरएनए की पुष्टि की जाती है, जिसका परिणाम 6-48  घण्टों में मिल जाता है।
24 घण्टे के अंतर पर यही टेस्ट लगातार दो बार निगेटिव आने पर व्यक्ति को मुक्त किया जा सकता है।

रैपिड टेस्ट - यह IGM, IGG एंटीबॉडी टेस्ट है, जिससे व्यक्ति में लक्षण होने या न होने की दशा में रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी से संक्रमण होने का पता लग जाता है।

रेडियोलॉजिकल टेस्ट -
सीने का एक्स रे - निचले हिस्से में अपारदर्शी
सीने का सीटी सकैन- ग्लास ग्राउंड अपारदर्शिता
फेफड़ों के अल्ट्रासाउंड- डिफ्यूज्ड बी लाइन्स
पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट- फेफड़ों की श्वसन क्षमता।

रोग बढ़ने के संकेत

संक्रमण के बाद पहले सप्ताह में बुखार, सूखी खांसी, मितली, वमन, डायरिया
दूसरे सप्ताह के अन्त तक मरीज को सांस लेने में दिक्कत, सीने पर भारीपन, होने पर चिकित्सालय में एडमिट कराना आवश्यक हो सकता है जहां लक्षणों के  अनुसार उसका सपोर्टिंग ट्रीटमेंट किया जा सकता है।

संक्रमित की गम्भीरता का मापन कैसे करते है ?

संक्रमण की पहचान एवं पुष्टि के साथ उपचार के दृष्टिकोण से रोगियों को श्रेणियों में विभाजित किया जाता है
1 संदिग्ध - वे मरीज जिनमे पिछले दो हफ्ते में संक्रमित व्यक्ति, वस्तु, या क्षेत्र के सम्पर्क की जानकारी के बाद बुखार के साथ श्वसन तंत्र का कम से कम एक लक्षण खांसी, साँसलेने में तकलीफ, डायरिया, आदि का लक्षण पाया जाए।

2. कोविड कन्फर्म केस - संदिग्ध व्यक्ति की लैबोरेटरी जांच के बाद पुष्टि होने पर रोगी को अस्पताल , वार्ड, या घर मे सुरक्षात्मक उपायों के साथ नियमित निगरानी में रखा जाता है।
3.सम्पर्कित - ये वह लोग होते हैं जो किसी पुष्ट हुए रोगी के सम्पर्क में आये हों, जैसे बिना सुरक्षात्मक उपाय के , सम्पर्कित, चिकित्सक, या स्वास्थ्य कर्मचारी,सहकर्मी, परिवार के लोग, सहयात्री ।

4.अधिक खतरे वाले सम्पर्कित व्यक्ति - पुष्ट रोगियों के शरीर द्रव्यों जैसे छींक,खून, उल्टी, थूक, मल, मूत्र , प्रयोग किये कपड़े,  या वस्तुओं के सम्पर्क में आने वाले।

5.कम खतरे वाले रोगी - जिनमे कुछ लक्षण हों किन्तु किसी संक्रमित व्यक्ति,  वस्तु, या क्षेत्र की यात्रा अथवा सम्पर्क की पुष्टि न हो ।

प्रचलित प्रोटोकॉल में जलरल मैनेजमेंट 

प्रचलित चिकित्सा पद्धति में कोविड 19 के इलाज के लिए कोई निश्चित विषाणु रोधी, प्रतिरोधक दवा, वैक्सीन, ज्ञात नहीं है।अतः जीवन रक्षक सपोर्टिंग मैनेजमेंट के साथ संक्रमण से बचाव के रक्षात्मक उपाय ही प्राथमिकता से व्यवहृत हैं जिससे शरीर को स्वतः स्वस्थ होने का समय व शक्ति मिलती रहे।

स्वच्छता के जरिये संक्रमण को फैलने से रोकने के उपाय -
 हाथों को साबुन या एल्कोहल मिश्रित सेनेटाइजर से बार बार साफ करना, खांसी या छींक आने पर हाथों की कुहनी से मुह नाक ढकना, खांसी बुखार वाले व्यक्ति से दूरी बनाए रखना,अधपका भोजन, मांस, या एनिमल प्रोटीन से परहेज, ड्रॉपलेट से बचाव हेतु मेडिकल मास्क या गमछे का प्रयोग, चिकित्सकों व स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पीपीई किट, प्रयोग किये जाने वाले सभी उपकरणों को बार बार सैनिटाइज करना, आदि सम्मिलित है।

संक्रमण को रोकने के अन्य घरेलू उपाय -

स्वस्थ जीवनशैली, नियमित दिनचर्या, नियमित योग, प्राणायाम, गुनगुने पेय- (सोंठ, दालचीनी, पिपली, लौंग, हल्दी गुड़ मिश्रित), इम्युनिटी बढ़ाने वाले विटामिन सी की प्रचुरता वाले फल जैसे संतरा, आंवला, नियमित धूप।

होम्योपैथी की समग्र संभावनाएं 

होम्योपैथी रोग की डायग्नोसिस पर आधारित चिकित्सा पद्धति नहीं अपितु व्यक्ति के लक्षणों की औषधि की समानता पर आधारित चिकित्सा पद्धति है जो मूलतः आयुर्वेद की चरक संहिता पुस्तक के ज्वर निदान अध्याय के श्लोक संख्या 10, पृष्ठ संख्या 466 में वर्णित  समः समं शमयति सिद्धांत पर विकसित और मर्दनम गुनवर्धनम सूत्र के अनुरूप  निष्क्रिय पदार्थों के भी औषधीय गुणों को शक्तिवर्धित अनुप्रयोग करने में सक्षम हुई है अतः भारत मे विश्वसनीय और जनस्वीकार्य चिकित्सा पद्धति है।

विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान व तर्क की संयुक्त कसौटियों पर सिद्ध होने के बाद भी प्रयोगशाला की सीमाओं में न प्रमाणित कर पाने की अक्षमता को इसके अप्रमाणिक होने का दोषारोपण कर उपेक्षित किया जाता रहता है फिर भी इतिहास में उपलब्ध आंकड़ों से कॉलरा, स्पेनिश फ्लू, यलो फीवर,  स्कारलेटफिवर, डिप्थीरिया, टायफॉयड आदि महामारी के समय होम्योपैथी की चयनित जिनस एपिडेमिकस औषधियों ने अपेक्षाकृत मृत्युदर में कमी लाकर मानव स्वास्थ्य की रक्षा में अपनी उपयोगिता बार बार सिद्ध की है। सम्भवतः इसीलिए 2014 में इबोला के संक्रमण काल मे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुझाव दिया था कि " बीमारियों में जहां कोई वैक्सीन या उपचार ज्ञात न हो तो अप्रमाणित कहे जाने वाले  हानिरहित उपचार व बचाव के तरीको का हस्तक्षेप प्रभाविता के आधार पर स्वीकार किया जाना नियमन्तर्गत उचित है" । यह अप्रत्यक्ष रूप से होम्योपैथी की स्वीकार्यता को स्पष्ट करता है।

डा हैनिमैन ने अपनी पुस्तक ऑरगेनन ऑफ मेडिसिन में महामारी विषय मे उपचार के लिए एफोरिज्म 241 में कहा है कि प्रत्येक महामारी सभी व्यक्तियों में कुछ विशिष्ट एवं सामान्य लक्षणों के साथ प्रदर्शित होती है अतः इन सामूहिक लक्षणों की समानता के आधार पर स्पेसिफिक औषधि का चयन व प्रयोग करना चाहिए जिसे उन्होंने जिनस एपिडेमिकस नाम दिया।

भारत मे केंद्रीय होम्योपैथी अनुसन्धान परिषद द्वारा किये गए डेंगू और जापानीज इंसेफेलाइटिस के प्रसार के समय क्लिनिकल ट्रायल में होम्योपैथी औषधियों के प्रयोग से सकारात्मक परिणाम मिले और बिना किसी दुष्परिणाम के मृत्युदर में 15% तक कमी पाई गई।
वर्तमान कोविड 19 के संक्रमण से मानव स्वास्थ्य की रक्षा के लिए  28 जनवरी 2020 को सीसीआरएच में हुई बैठक में मंथन के बाद आयुष मंत्रालय को आर्सेनिक एल्ब 30 को कोविड 19 से बचाव के लिए प्रयोग करने की सलाह दी गयी।
आर्सेनिक एल्ब- व्यक्ति में बेचैनी, घबराहट, बीमारी का भय, बेहद कमजोरी, मृत्यु का भय, अकेलेपन से डर,बार बार थोड़ी थोड़ी प्यास, शेलश्मिक झिल्ली नाक , मुह, आंख,गला, पेट, मूत्राशय, आदि से स्राव, जलन, त्वचा पर अल्सर, एलर्जिक कणों से सांस फूलना, स्वच्छता , गन्ध का भ्रम,सूखी खांसी,आधी रात के बाद बढ़ना,न्यूमोनिया के लक्षण,  तेज बुखार, ।

इस औषधि के साथ व्यक्तिगत रोगी के लक्षणों के आधार पर निम्न होम्योपैथी की दवाएं भी उपयोग की जा सकती हैं-

ब्रायोनिया -गर्म दिन के बाद ठंडी रात, श्लेष्मिक झिल्ली में सूखापन, तेज प्यास, सूखी खांसी,  बुखार, गले मे दर्द, न्यूमोनिया, जरा सा भी हिलने डुलने पर दर्द। 

कैम्फोरा ऑफ - बेचैनी, कमजोरी, ठंडी के प्रति संवेदनशीलता, जुकाम,सिरदर्द, नाक बंद, सीने पर भारी पन, संसलेने में तकलीफ, तेज सूखी खांसी, सांस रुकती सी है, अनिद्रा, बुखार।

कार्बोनियम ऑक्सीजनीसेटम - कोविड 19 के अधिकतर पैथॉलॉजिकल लक्षण इस औषधि से समानता रखते हैं। 
क्विल्लाया सपोनेरिया - शुरुआती अवस्था मे सर्दी, खांसी,  जुकाम, बुखार,

सरकॉलेक्टिक एसिड - एपिडेमिक इन्फ्लुएंजा में जब आर्सेनिक असरदायी न हो।

फॉस्फोरस - सायं को गले मे दर्द, खराश, खांसी, सीने पर दबाव,सांस लेने में दर्द, न्यूमोनिया, बाई करवट लेट नहीं सकता, बुखार,।

ट्यूबरकुलीनम-ठंडी से संवेदनशीलता, दम घुटना, सांस लेने में कष्ट, सूखी खांसी, ब्रांको न्यूमोनिया। इसे शुरुआत में या इन्टरकरेंट रेमेडी के रूप में प्रयोग कर सकते हैं।

सोरिनम - निराश, ठीक होने की उम्मीद नही रखता, आत्मघाती विचार, शीत प्रवृत्ति, सांस लेने में कष्ट,सूखी खांसी, 
इंफ्लुएंजिनम- वायरल फीवर की सर्वप्रथम औषधि,शरीर मे दर्द, बुखार,  जुकाम, नाक बंद ,खांसी।

इनके अतिरिक्त ब्लाटा, एस्पीडोस्पर्मा, जस्टिसिया, जेल्स, एकोनाइट, नैट मयूर, एंटीम टार्ट, अरेलिया भी उपयोगी हैं।

कोविड 19 के भय से मानसिक समस्याएं -

रोग की संक्रामकता, कारण, भयावहता व उपचार की ठोस जानकारी न होने से व्यक्ति, परिवार व समाज सभी मे मानसिक स्वास्थ्य की संभावनाएं भी प्रबल होना स्वाभाविक है।

एंग्जायटी - स्वास्थ्य की अनिश्चितता से कम्पन, धड़कन, बेचैनी,
डिप्रेशन-  मूड का बदलना, झुंझलाहट, गुस्सा, दुःखी होना, एकांतवास ,भूख, प्यास का बिगड़ जाना,जीवन के प्रति हताशा,
ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर - शंकालु ,सन्देह,व काल्पनिक भय से बार बार हाथ धोना,
सोंचने समझने की क्षमता में कमी महसूस करना,आदि चिंताजनक अवस्थाओं से सामान्य दिनचर्या में परिवर्तन आने से व्यक्ति का रक्तचाप, या डायबिटीज बढ़ सकता है, वाणी, भाषा,  व्यवहार में उग्रता या अधीरता मिल सकती है।
कई बार तो नकारात्मक विचार इतने प्रबल होने लगते है कि बीमारी का भय व्यक्ति को जीवन पर कलंक की तरह लगता है,  अवसाद की इस अवस्था मे व आत्मघाती या हंता भी बन सकता है।

इनसे बचाव का एक ही मार्ग है अन्यान्य मीडिया स्रोतों से मिल रही जानकारियों व सूचनाओं पर ध्यान देने की बजाय अपने चिकित्सक से परामर्श करें या प्रामाणिक स्रोतों से सही जानकारी प्राप्त करें। स्वजनों से सकारात्मक संवाद आपमे जीवन के प्रति विश्वास जगायेगा। स्वयं को गतिविधियों जैसे गायन, लेखन,  सेवा कार्य, स्वच्छता, अध्ययन , चित्रकारी, आदि कार्यों में जोड़ें।
होम्योपैथी में मानसिक लक्षणों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। उक्त सायकोटिक परिस्थितियां  शरीर क्रिया को डिस्टर्ब कर लक्षण उत्पन्न करती है अतः इन्हें साइकोसोमैटिक डिसऑर्डर कहते हैं। जिनमे एंटी सोरिक रेमेडीज लाभदायक है। इस प्रकार होम्योपैथी वर्तमान परिदृश्य में भी समग्र स्वास्थ्य प्रदान कर सकती है।सरकार को उचित प्रबंधन एवं  अनुसन्धान के संसाधन उपलब्ध करवा कर  जनहित में स्वास्थ्य के समग्र उपायों पर एकसमान विचार करना चाहिए।

डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
अयोध्या

Wednesday, 6 May 2020

जानिए विषाणु कैसे कर सकते हैं आपको बीमार

संक्रमण के खतरे के अनुरूप करें बचाव के उपाय 
वायरस क्या है?

 वायरस सामान्य आंखों से न दिखने वाला ऐसा सूक्ष्म जीव है जिसे सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी कहा जाता है, क्योंकि इसकी सक्रियता एवं संख्या बृद्धि मानव, जानवर, या पौधे की सजीव कोशिका पर निर्भर अन्यथा वातावरण में यह निष्क्रिय अथवा निर्जीव पड़ा रहता है। प्राकृतिक रूप से इसमें डीएनए या आरएनए आनुवांशिक कोड के रूप में रहता है। किसी   संक्रमण के समय कोशिका में प्रवेश पाकर वहां अपने इसी आनुवंशिक कोड के द्विगुणन जरिये संख्या बढ़ाता है और इस प्रकार बनने वाले नए वायरस आपके शरीर और पर्यावरण में फैल सकने में समर्थ हो जाते हैं।

वायरस हमें बीमार कैसे बना सकता है ?

जैसा कि मैंने ऊपर बताया मानव शरीर में प्रवेश के साथ ही शरीर की कोशिकाओं एवं संसाधनों का उपयोग वायरस अपनी संख्या बढ़ाने में करने लगता है अर्थात यह शरीर के अंगों की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाने लगता है जिससे बचाव की प्रतिक्रिया स्वरूप  प्रतिक्रिया में, शरीर वायरस से लड़ने के लिए प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करता है,जिसके फलस्वरूप सूजन और बुखार दर्द जैसे लक्षणों के प्रदर्शित होने पर हम  बीमार महसूस करते है।

किसी वायरस के संक्रमण से बचाव कैसे संभव है?

 कोई संक्रमण होने पर शरीर की सुरक्षा प्रणाली उसके प्रोटीन एंटीजेन की पहचान कर उनके विरुद्ध एंटीबॉडी बनाती है, और कृत्रिम रूप से यह कार्य टीकाकरण के माध्यम से भी किया जाता है। वायरस के संक्रमण होने पर यह एंटीबॉडी और सुरक्षा तंत्र की टी-कोशिकाएं मिलकर शरीर में आये वायरस की पहचान कर पर्याप्त सुरक्षा देती हैं। 
 किसी नए संक्रमण में जिसकी वैक्सीन या एंटीबॉडी शरीर मे नहीं है तो शरीर की सुरक्षा प्रणाली को इसे विकसित करने समय लगता है, यदि सुरक्षा प्रणाली मजबूत हुई तो एंटीबॉडी विकसित कर सुरक्षा देती है और यदि आक्रमण तेज हुआ तो व्यक्ति के शरीर को नुकसान होता है।

एक बार विषाणु के संक्रमण से बचने के बाद पुनः बीमार हो सकते हैं क्या?

यदि ऊपर बताई प्रक्रिया के अनुरूप शरीर की इम्युनिटी मजबूत है और बनाई गई एंटीबॉडी दीर्घकालिक हैं तो दुबारा उसी तरह के वायरस के सम्पर्क में आने पर सुरक्षा तंत्र की कोशिकाएं सक्रिय होकर पहले से तैयार एंटीबॉडी के जरिये शरीर को संक्रमण से बचा लेती हैं, और यदि उसमे समय के साथ न्यूनता आ जाये तो प्रभाव कम हो जाता है, इसीलिए कभी कभी कुछ टीके की बूस्टर डोज दी जाती है।
  इस प्रकार अनेक वायरल संक्रमणों के लिए प्रतिरक्षा प्रणाली व्यक्ति की उम्र, आनुवंशिकी, पिछले टीके और पूर्व संक्रमण के अनुभवों पर निर्भर करती है।

कोविड-19 से इतने लोग संक्रमित क्यों हो रहे है, यह कैसे प्राणघातक हो सकता है ?
 कोविड 19 का विषाणु सार्स कोव 2 नया संक्रमण है अर्थात शरीर मे पहले से कोई एंटीबॉडी नही है, अतःकोई भी व्यक्ति संक्रमित के सम्पर्क में आने से संक्रमित हो सकता है किंतु लक्षणों का प्रदर्शन या प्रभावित उसकी इम्युनिटी पर निर्भर करती है। जिनकी इम्युनिटी अच्छी है उनमें शीघ्र पहचान कर एंटीबॉडी विकसित हो व्यक्ति को सुरक्षित कर सकती हैं। अथवा अन्य में सामान्य तरीके से पहचान होने तक सुरक्षा के क्रमिक उपाय करती है, जिसमे सबसे पहले सिलिएटेड सेल्स गति बढ़ाकर इसे बाहर करना चाहती हैं,  किन्तु यह पर इसकी संरचना में बाहर की लिपिड खोल में धंसी प्रोटीन की घुंडी का संक्रमण प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण रोल हो सकता है जिससे यह शरीर की म्यूकोसा पर स्थित रिसेप्टर कोशिका से आसानी से चिपक सकता है।शरीर की प्रतिक्रिया के समय संक्रमित भाग में  सइटोकाइन स्रावण बढ़ने से डब्ल्यूबीसी सहित कोशिकीय सक्रियता बढ़ती है, इससे कोशोकाओं के रेशों को भी नुकसान हो सकता है, और विषाणु को चिपकने का पर्याप्त अवसर व समय मिल जाता है,  वह निरन्तर संख्या बृद्धि करता है , यदि संक्रमण श्वसन तंत्र के निचले हिस्से तक पहुच गया है तो स्रवण वहीं जमा होने से फेफड़ो के सिकुड़ने फैलने में दिक्कत हो सकती है जिससे सांस लेने में तकलीफ, सीने में भारीपन, दर्द, तेज बुखार, शरीर मे ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।इस प्रकार कमजोर इम्युनिटी वाले लोगों में यह प्राणघातक हो सकता है।

14 दिन के लिए व्यक्ति को लोगों से अलग रखना जरूरी है क्या ?

 शरीर मे संक्रमण के बाद वायरस पहले शरीर की सुरक्षा प्रणाली को तोड़ता है, फिर स्वयं को व्यवस्थित करता है, अपनी पर्याप्त संख्या बढ़ाता है तब उसकी विषाक्तता लक्षणों के रूप में प्रकट होती है, इस अवधि को इन्क्यूबेशन पीरियड कहते है यह औसतन 12-14 दिन होता है , और इसकाल में संक्रमित व्यक्ति लक्षणहीन होते हुए अन्य को संक्रमित कर सकता है अतः सावधानी बरतते हुए 14 दिन अलग रखना आवश्यक है।

 
कोविड 19 के पहचान के लक्षण क्या हैं ?

विषाणु के संक्रमण का नाक से सीने फेफड़ों तक फैल जाना और तत्सम लक्षण ही इसकी मूल बात है। यदि किसी संक्रमित व्यक्ति ,  वस्तु, या क्षेत्र अतः शुरुआत में
छींक ,सर्दी, हल्का बुखार, गले मे खराश,  या खांसी
फिर सूखी खांसी,  तेज बुखार, 
सांस लेने में तकलीफ होने ,या कुछ मामलों में स्वाद और सुगन्ध की क्षमता में कमी, रक्त के थक्के बनाने की प्रवृत्ति, पैरों पर पित्ती जैसे लक्षण भी देखने को मिले हैं।
अतः ऐसे लक्षण दिखाई पड़ने पर चिकित्सकीय सलाह एवं जांच के बाद ही कोई दवा का सेवन करना चाहिए।

उपचार की क्या संभावनाएं हैं ?
अभी तक कोविड19  के उपचार की कोई वैक्सीन ज्ञात नही,  इसलिए जो भी उपचार है वह इस आशा के साथ है कि शरीर को लक्षणों की तीव्रता सहन करने में सहयोग करते हुए स्वयं एंटीबॉडी विकसित कर पाने का समय देना जिससे वह स्वस्थ हो सके।
इसी आधार पर आयुष मंत्रालय ने आयुष पद्धतियों से सुझाव मंगाए जिससे व्यक्ति की इम्युनिटी को पर्याप्त शक्ति प्रदान करने में सहयोग किया जा सके। केंद्रीय होम्योपैथी अनुसन्धान परिषद के वैज्ञानिक सलाहकार समिति ने होम्योपैथी की आर्सेनिक एलबम को जनसामान्य लक्षणों की समानता के आधार पर उपयोगी बताया,  और अब इसे प्रदेश सरकार की तरफ से भी निःशुल्क वितरण के लिए सभी जनपदों के अधिकारियों को पत्र लिखा गया है।
किन्तु बचाव के लिए संक्रमण के दायरे से दूरी , हाथों की सफाई, नाक मुंह को ढक कर रखना आवश्यक है।

डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
महासचिव
होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ

Thursday, 30 April 2020

कोरोना में होम्योपैथी की संभावनाएं

होम्योपैथी : प्रकृति प्रवृत्ति के अनुरूप औषधि ही विकृति का निवारण करने सक्षम 

सृष्टि रचनाकाल से मनुष्य का सम्पर्क वातावरण में उपस्थित असंख्य दृश्य अदृश्य रोगाकारकों से रहा है, जो अनुकूल दशाओं में प्रबल होने पर उसे संक्रमित कर सकने या जीवन के लिए संकट पैदा करने में सक्षम हो सकते हैं किंतु मानव ने स्वच्छता, पवित्रता, शैक्षिक जागरूकता एवं स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर या  टीकाकरण /प्रतिरक्षण के माध्यम से उनपर नियंत्रण पाया है।
 समान परिस्थितियों में संक्रमण से प्रभावित होना या न होना व्यक्ति की  संवेदनशीलता (Susceptibility) पर निर्भर करता है। होम्योपैथी में रोगों के तीन मूल कारण है जिन्हें मायज्म कहा जाता है सोरा, सिफिलिस, साइकोसिस। तदनुरूप एक्यूट संक्रामक रोगों का कारण सोरा (Psora) का उद्भवन या सक्रिय होना है जिसमें लक्षणों का प्रदर्शन व प्रसार बहुत तेजी से होता है और रोग अवस्थाएं प्रक्रिया पूरी होने पर या तो व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है अथवा उसकी मृत्यु हो जाती है। जिनका कारण फिक्स्ड मायज्म हैं उनके लिए शरीर मे प्रतिरोधक क्षमता का विकास हो जाता है जिससे वे जीवन मे दुबारा नही होते और जो रोग लक्षण बार बार होते है उनका कारण रेकरेन्ट मायज्म हैं।

कैसा हो होम्योपैथिक हस्तक्षेप -

परिस्थिति का आकलन कर  स्वच्छता व बचाव के उपाय कर संक्रमण के प्रसार को रोकना सर्वप्रथम आवश्यक कार्य है। ऐसे ज्यादातर रोग आत्म सीमित होते है अतः होम्योपैथिक उपचार प्राकृतिक आरोग्य सुलभ
करते हुए जटिलताओं से बचाव कर सकता है।
होम्योपैथी रोग की पहचान (Diagnosis) आधारित चिकित्सा पद्धति नहीं अपितु व्यक्ति आधारित (Individualization) औषधि चयन एवं प्रयोग की पद्धति है।   अतः  किसी बीमारी के ठीक करने या उसकी दवा होने का दावा सैद्धांतिक रुप से संभव नही। महामारी के परिप्रेक्ष्य में बड़े समूह के सामान्य लक्षणों की सम्पूर्णता पर आधारित जिनस एपिडेमीकस का निर्धारण किया जा सकता है। यद्यपि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बीमारी विशेष के लिए  वैक्सीन का प्रयोग किया जाता है।

प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली - 

जब कोई संक्रामक रोगाणु किसी व्यक्ति के शरीर मे प्रवेश करता है तो शरीर सुरक्षात्मक प्रतिक्रया करता है जिससे वह रोगाणु हानि पहुँचाने से पूर्व निष्क्रिय हो जाये, समाप्त हो जाये या बाहर कर दिया जाए, फलस्वरूप संक्रमित भाग या अंग में इन्फ्लामेट्री रिएक्शन होते है। प्रभाविता के आधार पर लक्षण जैसे छींक,  बुखार, खांसी, थकान आदि लक्षण संक्रमण की शुरआत की पहचान के हैं, इनके प्रदर्शन के साथ व्यक्ति को सचेत हो जाना चाहिए। किन्तु जिनकी संवेदनशीलता कम और इम्युनिटी अधिक है सम्भव है उनमें रोग के लक्षण न प्रदर्शित हों किन्तु उनसे  अन्य में संक्रमण फैल सकने की संभावना रहती है।यह अवस्था भी समाज के लिए घातक है।

वर्तमान परिदृश्य covid 19 -ज्ञात तथ्य 

वर्तमान समय मे जो विषाणुजनित महामारी विश्व के 190 से अधिक देशों की 29 लाख से अधिक आबादी को संक्रमित कर 2 लाख से अधिक जनसंख्या का जीवन ले चुकी है, विश्व स्वस्थ्य संगठन को उसकी जानकारी 31 दिसम्बर 2019 को चीन के हुबेई प्रान्त के शहर वुहान में अकारण जनित न्यूमोनिया के रूप में हुई जिसे पहचान होने पर कोरोनावायरस जनित होने और उत्पत्ति के वर्ष के आधार पर कोविड 19 (COVID 19) नाम दिया गया।
इस रोग के कारक विषाणु की संरचना चंद्रमा द्वारा सूर्य को ढक लेने पर चन्द्रमा के चारों तरफ निकलती किरणों, जिन्हें कोरोना कहते हैं, जैसे प्रतीत होने के कारण कोरोना नाम दिया गया है। कोरोना अल्फा, बीटा , गामा, डेल्टा वंश के  आरएनए विषाणुओं का बृहद  समूह है, नावेल कोरोना वायरस भी इसी परिवार का सदस्य है जो पशु पक्षियों से मनुष्य (जूनोटिक)
और फिर मनुष्य से मनुष्य के श्वसनतंत्र को संक्रमित करते हुए सामान्य सर्दी जुकाम बुखार, खांसी, संसलेने में तकलीफ जैसे लक्षणो से न्यूमोनिया या मल्टी ऑर्गेनिक फेल्यर जैसे प्राण घातक लक्षण पैदा कर सकते हैं। इनकी रोकथाम के लिए कोई टीका (वैक्सीन) या विषाणुरोधी (antiviral) अभी उपलब्ध नहीं है अतः व्यक्तिगत प्रतिरक्षा तन्त्र की मजबूती व संक्रमण के दायरे से बचाव ही एक मात्र उपाय है।
अध्ययनों में 28 अप्रैल तक प्राप्त जानकारी के अनुसार 3600 से अधिक अध्ययनों के बाद वैज्ञानिकों ने वुहान शहर के O टाइप स्ट्रेन के बाद अब तक कुल 11 प्रकार के स्ट्रेन की पहचान हुई, जिसमे A2a स्ट्रेन को अधिक खतरनाक माना जा रहा है।
बहुत सारे केसेस बिना किसी लक्षण के मिले अर्थात व्यक्ति संक्रमित तो है किंतु बीमार नहीं, अतः ये संक्रमण को तेजी से फैलने  वाले कैरियर हो सकते हैं।

कोई निश्चित उपचार की जानकारी न होने से प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों के पास संक्रमित व्यक्ति के शरीर को जीवनरक्षक सहयोग जैसे कि निर्जलीकरण में रिहाइड्रेशन, ज्वर, ऑक्सीजन, वेंटिलेशन आदि से ही उपचार किया जाता है जिससे  संक्रमण से लड़ते हुए शरीर की शक्ति बनी रहे।



प्रहार से पहले शत्रुशक्ति की पहचान जरूरी

रोग लक्षणों के उपचार एवं रोग प्रसार की संभावनाओं पर प्रहार के लिए नावेल कोरोना वायरस 2 की संरचना व रोगोत्पत्ति के तरीके को समझना आवश्यक होगा।
कोरोना ; संरचना
अभी तक ज्ञात जानकारियों के अनुसार 120 नैनोमीटर गोलाई वाले वायरस का आवरण दो परत की लिपिड से बना है जिसमे प्रोटीन की बनी हुई कांटेनुमा संरचनाएं धंसी रहती हैं और अंदर प्रोटीन से बना न्यूक्लियोकैप्सिड होता है जहां RNA होता है यही इसका जीनोम है।
संक्रमण और लक्षणों की उत्पत्ति ; रोगउत्पादन 
अपनी संरचना के कारण यह नाक या मुह के रास्ते जब शरीर मे प्रवेश करता है तो इन्ही स्पाइक से सूखी सतह या म्युकोसा पर चिपकता है, संवेदनशील व्यक्ति जिनकी इम्युनिटी मजबूत है , तुरन्त इन्हें पहचान कर उसी जगह से बाहर करने का प्रयास करती हैं, इसलिए छींक खांसी व बुखार प्रथम पहचान के लक्षण हैं। किन्तु कमजोर क्षमता वालों में विषाणु श्वसन मार्ग में आगे बढ़ते हुए अपनी संख्या द्विगुणित करता जाता है। श्वास नली की अंदर की म्यूकोसा में सिलिएटेड सेल्स होती हैं जो किसी भी संक्रमण को बाहर की तरफ धकेलती है,संभव है  यह विषाणु  साइटोकीन की क्रिया को बढ़ा देता हो जिससे सिलिएटेड सेल्स की सिलिया अलग हो जाएं और शरीर की प्रतिरक्षा के लिए आई डब्ल्यूबीसी की सेल्स की क्रिया विधि बहुत तेज हो जाये जिससे वह अपने शरीर की सिलिएटेड सेल्स व विषाणु दोनों को समानरूप से नुकसान पहुँचाने लगें, फलस्वरूप फेफड़ो की अंदर की सतह पर चिपक कर यह विषाणु वहां के श्रावण को तो बढ़ा देता है किंतु वह स्राव बाहर नही आ पाता वहीं जमा होने लगता है और  फेफड़ो के सिकुड़ने फैलने में दिक्कत होने से विसरण विधि से होने वाला ऑक्सीजन का आदान प्रदान बाधित हो जाए और व्यक्ति का दम घुटने लग जाए। विषाणु की संभावित विषाक्तता से यह गम्भीर लक्षण तेज बुखार, व न्यूमोनिया, फिर ऑक्सीजन की कमी से अन्य अंगों के कार्यो को प्रभावित कर मल्टी ऑर्गन फेल्यर या मृत्यु हो सकती है।
म्यूकोसा को होने वाले नुकसान से ही सम्भवतः व्यक्तियों में स्वाद व सूंघने की क्षमता में कमी के भी लक्षण दिख सकते हैं। 
प्रमुख लक्षण

अ. सामान्य सर्दी जुकाम की तरह छींक से शुरुआत
      थकान, सिरदर्द, बदनदर्द।
ब. सूखी खांसी
     बुखार
     सांस लेने में तकलीफ
    
पिछले 14 दिनों में संक्रमित क्षेत्र की यात्रा अथवा व्यक्ति से सम्पर्क का इतिहास
स. स्वाद व सूंघने की क्षमता में कमी
     दस्त
 
उक्त विवरण से सहज यह अर्थ निकाला जा सकता है कि यह विषाणु शरीर की प्रतिरोधक क्षमता सन्तुलित करने वाली कोशिकाओं को कमजोर करता है और अन्य अंगतन्त्रो को भी नुकसान पहुचता है।

यदि विषाणु द्वारा ऐसे ही रोगोत्पादन हो रहा है तो उपचार व बचाव के लिए अलग अलग स्तरों पर कार्ययोजना करनी चाहिए।


 1. विषाणु के संक्रमण प्रसार रोकने के लिए दूरी बहुत जरूरी -

 संक्रमित व्यक्ति की छींक, खांसी से वातावरण में फैली बूंदे एरोसाल, अथवा व्यक्तिगत सम्पर्क,  या किसी स्पर्श की हुई सतह, वस्तु के स्पर्श आदि से सावधानी पूर्वक कम से कम एक मीटर दूरी बनानी आवश्यक है, जिससे संक्रमण के सम्पर्क में न आएं। क्योंकि स्पर्श में हाथों का उपयोग अधिक है इसलिए बार बार साबुन से या 70% एल्कोहल वाल्व सेनेटाइजर से हाथ धुलना चाहिए जिससे विषाणु की लिपिड का आवरण नष्ट हो जाय।

व्यक्ति के शरीर मे प्रवेश, विषाणु की सँख्याबृद्धि और शरीर के सुरक्षातंत्र से लड़ते हुए विषाक्तता के लक्षण उत्पन्न होने में लगने वाला समय ऊष्मायन अवधि या इन्क्यूबेशन पीरियड कहलाता है जो इसके लिए सामान्यतः 1-14 दिन (माध्य 5-6 दिन) है, किन्तु
इस काल मे संक्रमित व्यक्ति लक्षणहीन होते हुए भी संपर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों को संक्रमित कर सकता है अतः सावधानी के तौर पर  लॉक डाउन, व फिजिकल डिस्टेंसिंग सबसे कारगर उपाय हैं। इसीलिए 14-15 दिनों पूर्व तक संक्रमित जगहों की यात्रा या व्यक्ति के सम्पर्क के इतिहास वाले व्यक्तियों को सबसे अलग कर नियमित उनके स्वास्थ्य की जानकारी ली जाती है और आवश्यक आर टी पीसीआर टेस्ट कराया जाता है जिससे जीनोम लोड की पहचान की जाती है , 24 घण्टे में दो लगातार नेगेटिव टेस्ट मिलने पर व्यक्ति को छोड़ दिया जाता है। इस प्रक्रिया को ही क्वारंटाइन कहते हैं।
 यदि टेस्ट पॉजिटिव आ जाये तो व्यक्ति को समूह से अलग कर सपोर्टिव उपचार दिया जाता है जिससे उसका सुरक्षातंत्र आसानी से विषाणु का प्रतिकार कर सके। पृथक्करण की इसी प्रक्रिया को आइसोलेशन कहते हैं ।

2. सुरक्षा -
चिकित्सकों व स्वास्थ्य कर्मियों के लिए बचाव हेतु डब्ल्यूएचओ द्वारा घोषित प्रोटोकाल का पालन करते हुए( पीपीई किट मास्क, आदि ) मरीजों की देखरेख करनी चाहिए।

3. उपचार की पद्धति -
लक्षणों की तीव्रता के आधार पर केसेस को माइल्ड, मॉडरेट, और सीवियर श्रेणी में बांटा जा सकता है तदनुरूप ही जीवनरक्षक उपाय किये जाते हैं।

4. औषधीय उपचार का पथ कैसा हो -
अर्थात दवा साईटोकीन की अधिकता को कम करे, और कोरोना बृद्धि को रोकने वाली होनी चाहिए, साथ ही इसका प्रसार रुकना चाहिए।

होम्योपैथी की संभावनाएं --

महामारी में होम्योपैथी की ऐतिहासिक भूमिका --

1799 में स्कारलेट फीवर में बेलाडोना,1813 में कालरा में वेरेटरम अल्बम, व कैम्फर,1918 में स्पेनिश फ्लू, इन्फ्लूएंजा में जेल्सीमियम,1996 में डेंगू में युपेटोरियम, 1999-2003 भारत मे आंध्र प्रदेश में जेई में बीसीटी शेड्यूल,आदि ने बार बार अन्य पद्धतियों के सापेक्ष अपनी उपयोगिता सिद्ध की है किंतु अनुसन्धान व वैज्ञानिक मापदंडों के नाम पर बहुत महत्व नही दिया गया यद्यपि आंकड़े होम्योपैथी का पक्ष रखते हैं।

महामारी के दौरान भी सामान्य जीवन पर प्रतिबंधों के पालन, एवं संक्रमण के भय से अन्यान्य रोगों जैसे एंग्जायटी, बेचैनी, घबराहट, निराशा, ब्लड प्रेशर, चिंता, तनाव, मानसिक अवसाद बढ़ सकता है  व अन्य सायको सोमैटिक डिसऑर्डर बढ़ सकते हैं , ऐसी परिस्थितियों में औषधि चयन हेतु केसटेकिंग के मनोवैज्ञानिक तरीके से संवाद स्थापित कर व्यक्ति को चिकित्सक परामर्श से आशावान बना सकते हैं, होम्योपैथी में औषधि चयन में मानसिक लक्षणों  को केंद्र में रखते हैं।

औषधि चयन

1. होम्योपैथी सिद्धांतों के अनुरूप सामान्य लक्षणों के आधार पर जिनस एपिडेमिक्स का चयन

2. व्यक्तिगत रोग लक्षणों
और रोग की अवस्था पर आधरित व्यक्ति के आकलन व तत्सम चयन

3.होम्योपैथी में स्पेसिफिक प्रतिरोधक औषधि के रूप में रोगभाग से नोसोड बनाई जाती हैं।

उपरोक्त  तरीकों में क्लिनिकल वेरिफिकेशन अध्ययन व अनुभव के आधार पर निम्न होम्योपैथी औषधियां सहायक हो सकती हैं।

कोविड 19 के लिए भी भारत सरकार के अंतर्गत केंद्रीय होम्योपैथी अनुसन्धान परिषद की सलाह पर  आयुष मंत्रालय द्वारा आर्सेनिक एलबम 30 के प्रयोग की एडवायजरी जारी की गई थी।

आर्सेनिक अल्ब - थोड़ी देर पर थोड़ी प्यास, घबराहट, बेचैनी, निराशा, मृत्यु का भय, छींक, बुखार, सांस फूलना, ब्रांकाइटिस, ताप अवस्था मे भी गर्म पीने या ओढ़ने से आराम।

थूजा  - सभी प्रकार के विषाणु संक्रमण रोधी की तरह मानी जाती है।

जेल्सीमियम - ब्रोंकाइटिस,  बुखार, प्यास नही, सूखी खांसी,व सीने पर भारीपन, निगलने व सांस लेने में दिक्कत।

जस्टिसिया - सूखी खांसी, सांस लेने में दर्द,  छींक, सीने में जकड़न, 
एकोनाइट- शुरुआती अवस्था मे, शुष्क सर्दी, सिरदर्द , नाकबन्द, छींके, टान्सिल में दर्द आदि।

एंटीम टार्ट- आवाज में भारीपन, न्यूमोनिया, सीने में जमा कफ घड़घड़ाहट , खांसी, संसलेने में तकलीफ, डकार से आराम, (संक्रमण के तीन चार दिन बाद की प्रथम व द्वितीय अवस्था)

ब्रायोनिया- अत्यधिक प्यास, न्यूमोनिया, सूखी खांसी, रात्रि में बढ़ जाती है,  बुखार सिरदर्द, ऊपरी श्वसन तंत्र का संक्रमण,सांस लेने तकलीफ, गहरी सांस लेने की इच्छा, गले मे दर्द खराश, गर्मी से अचानक सर्द वातावरण में आने पर।

जिंकम म्यूर- स्वाद व सुगन्ध में परिवर्तन होने पर उपयोगी।

कैम्फर- अचानक मौसम बदलने पर , इन्फ्लूएंजा के लक्षण, छींक, जुकाम, सिरदर्द, गैस्ट्रीक अपसेट, नाक बंद होना, संक्रमण की तीनों अवस्थाओं में कुछ चिकित्सक इसकी 1M की एक खुराक को बचाव व उपचार के लिए  उपयोगी पाया है।

ऑससिल्लोकॉक्सीनम - श्वसन तंत्र में संक्रमण की शुरुआती अवस्था मे ही, व्यक्ति को संक्रमित होने या रोग मृत्यु का भय लगता है, बार बार हाथ धोता है,सूखी खांसी, तेज बुखार, छींके, आती हैं, पूरे शरीर मे दर्द।

इंफ्लुएंजिनम -  सभी वायरल संक्रमण में शरीर मे टूटने जैसा दर्द, तेज बुखार, छींक, खांसी, शरीर मे दर्द,।यह नोसोड इन्फ्लूएंजा या इसके जैसे लक्षणों वाले अन्य विषाणुजनित रोगों में प्रथम औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है

सार्कोलैक्टिक एसिड - जब इन्फ्लूएंजा महामारी में आर्सेनिक निर्देशित हो किन्तु अपेक्षित परिणाम न मिलें।

सोरिनम - इन्फ्लूएंजा के बाद आई कमजोरी को दूर करने के लिए।
ट्यूबरकुलीनम - लक्षणों की पुनरावृत्ति होने का इतिहास मिलने पर, शरीर की शीत प्रवृत्ति, होने पर शुरुआत में एक खुराक।

उपरोक्त औषधियों के अतिरिक्त रोगी की अवस्था का आकलन कर होम्योपैथ चिकित्सक लक्षणों के आधार पर उचित औषधि व शक्ति का निर्धारण कर प्रयोग कर सकते हैं। इसलिए किसी भी औषधि का प्रयोग केवल चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए, साथ ही व्यक्ति को हल्के भोजन, नियमित व्यायाम, प्रणायाम, सकारात्मक चिंतन व जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए।




डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
अयोध्या

मो. 8400003421

Friday, 24 April 2020

कोरोना काल मे सायकोलॉजिकल केयर : अफवाहों से बचे आशावादी दृष्टिकोण अपनाएं


इन दिनों चर्चा का केंद्र कोरोना बन गया है जिसके रहस्यों की कई परते खुलना अभी बाकी है। किसी सामान्य व्यक्ति से भी इसके बारे में पूछा जाय तो उसका सहज उत्तर कुछ इस तरह से मिलता है, "अरे भैया कोरोना कौनो मायावी वायरस है, बड़ी छुआ छूत की बीमारी है, छींक, खांसी, बलगम, थूक तक के नजदीक जाय से होय जात है, क्या पता किसको है इसीलिए शासन प्रशासन बड़ा सख्त है, सबको घर मे ही रहने को कहे हैं,एक को हुआ तो उसके सम्पर्क में जेतना लोग आए होंगे सबकी जांच होए, सब 14 दिन के लिए समझो नजरबंद, अस्पताल ले गए  तो पता नाय कितने दिन और क्या इलाज चले, कोई इलाज भी नही पता है, अमेरिका जैसी जगह हालत खराब है, यहाँ तो कहो सरकार सुरु से ही इतनी सख्ती करे है तो कुछ काबू में है, अब तो पता चला है कि लक्षण न दिखे तब भी होय सकता है, बचे के इक्के तरीका है सुरक्षित अपने घर मे ही रहो, केहू से न मिलो कुछ दिन।"
उक्त संवाद से दो संकेत स्पष्ट हैं प्रथम तो यह कि प्रचार प्रसार और मीडिया से अधिकांश जनता को कोरोना के बारे यह सामान्य जानकारी है सर्दी, सूखी खांसी, बुखार, व सांस लेनें में अथवा गले मे खराश होना कोरोना हो सकता है, और इसके संक्रमण को रोकने के लिए ही हाथों की सफाई, मास्क, जरूरी है । यद्यपि समय के साथ लगातार हो रहे चिकित्सकीय अध्ययनों में यह बात भी सामने आई कि बिना लक्षणों के व्यक्ति भी संक्रमित पॉजिटिव पाए गए ,यह जटिलता का सूचक है जिसमे अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी ।

इसका दूसरा पक्ष व्यक्ति की मनःस्थिति से जुड़ा है इसलिए अदृश्य किन्तु चिकित्सकों के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि समाज को कोरोना और कोरोना जनित भय से बचाने का दायित्व उन्ही पर है।
 टीवी,  मोबाइल, अखबार, व आपसी संवाद में कोरोना पर ही चर्चा आदि से जाने अनजाने हमे स्वयं बीमारी से ग्रसित होने का पहले डर पनपता है फिर तरह तरह की कल्पनाएं डर को बेचैनी में बदल देती है इससे जुड़ी चिंता से भूख प्यास, नींद, डिस्टर्ब हो सकते है जिससे तमाम अन्य शारीरिक दिक्कते,  दर्द व्यवहार में चिड़चिड़ापन , गुस्सा , अवसाद आदि महसूस हो सकते है जिनका कारण मानसिक ही है, इसलिए इन्हें सायकोसोमैटिक डिसऑर्डर कह सकते हैं। 

जानिए क्या है क्वारंटाइन, आइसोलेशन, और लॉक डाउन का मतलब

एक उदाहरण के तौर पर यदि आप किसी अपरिचित व्यक्ति के साथ यात्रा में हों तो दूरी और समय दोनों नही कटते, किन्तु संवाद शुरू होने पर सहजता हो जाती है, ऐसे ही लॉक डाउन, क्वारंटाइन, और आइसोलेशन जैसे शब्दों सही परिचय न होने से इन्हें स्वीकार कर पाने में असहजता होती है।इसलिए आसान शब्दों में इसकी प्रक्रिया को यूं समझें कि यह तीनो ही कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए बैरियर जैसे हैं अंतर इनके लगाये जाने के तरीके में है। पूरे समाज की व्यापक गतिविधि पर प्रतिबंध का अनुशासन है लॉक डाउन, एक ऐसे व्यक्ति को परिवार व समाज से पृथक करना जो किसी संक्रमित व्यक्ति से किसी भी तरह सम्पर्क में आया हो तो यह प्रतिबंध क्वारंटाइन कहलाता है, और किसी संक्रमित व्यक्ति को ही सामान्य आबादी से अलग चिकित्सकीय देखरेख में रखना आइसोलेशन कहलाता है। क्योंकि कोरोना के लक्षणों प्रदर्शन और दो आवश्यक जांच रिपोर्ट के निगेटिव होने की पुष्टि तक इनका समय अलग अलग निर्धारित किया जा सकता है। इस पूरी अवधि में व्यक्ति प्रशासन, स्वास्थ्य कर्मियों या चिकित्सको की निगरानी में रहता है।
यह बात सत्य है प्रत्येक व्यक्ति संक्रमित नहीं, किन्तु वायरस की प्रकृति व प्रवृति ऐसी है कि संकट सभी पर समान रूप से संभावित है और सावधानी और बचाव ही एक मात्र उपाय है, इसलिए स्वयं को, परिवार को, समाज को राष्ट्र को इस संकट से बचाने में यह हमारा योगदान है ऐसा मानकर अपनी मनःस्थिति को सहयोगी भाव से जोड़ना चाहिए।

दीर्घकालिक संघर्ष में दबावयुक्त मनस्थितियाँ सभी मे हो सकती हैं, मरीज पर रोग से मुक्ति और जीवन के संकट, इलाज की अनिश्चितता का दबाव,  समाज , सरकार व शासन को दैनिक कार्यों और अर्थव्यवस्था व प्रगति की चिंता, चिकित्सा कर्मियों व व्यवस्था में लगे कर्मियों पर अतिरिक्त सतर्कता, सावधानी, व्यवस्था नियंत्रण, कार्य की जिम्मेदारी, व जवाबदेही का दबाव बनना अदृश्य पक्ष है।

  

बचाव के लिए क्या करें -
कोरोना काल मे उपरोक्त तथ्यों को समझते हुए सर्वप्रथम तो इस अदृश्य शत्रु से संघर्ष के लिए राष्ट्र के पक्ष में आपकी भूमिका व योगदान क्या होना चाहिए , इस विषय पर सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ चिंतन अवश्य करें तो आपमें सभी अनुशासन के प्रति सहयोग और स्वीकार्यता का भाव पनपेगा।
जीवन के प्रति आशा और विश्वास यही सर्वोत्तम औषधि है, और अप्रमाणिक जानकारी समाचार अफवाहें इस काल में व्याधियों को पोषण है, इसलिये आशावादी दृष्टिकोण अपनाएं और अफवाहों पर ध्यान न दें।
 घर मे परिवार व बच्चों के साथ समय का सदुपयोग सृजनात्मक गतिविधियों लेखन, अध्ययन,  गीत, संगीत, कम्यूटर सीखना, चित्रकारी, पेंटिंग,  बागवानी, घरेलू खेल, सुबह शाम, शारीरिक श्रम, योग, प्राणायाम, व्यायाम में करें। रिश्तेदारों मित्रों से फोन पर इस वीडियो कसन्फ्रेन्सिंग से बात कर उत्साहवर्धन करें, समाज मे आस पास के गरीब जरूरतमंद, पशु पक्षियों की मदद कर सकते हैं। यदि आप क्वारंटाइन या आइसोलेशन में भी हैं तो  देखें और विचार करें कि जहां कोई अपना नही वहां भी आपके जीवन की रक्षा के लिए चिकित्सक व सभी स्टाफ अपनो से दूर होकर लगे है, उनका सम्मान करें, उन्हें सहयोग करें, उन्हें सही जानकारी दें। यदि बच्चे हैं तो उनके प्रश्नों को सुने, उन्हें बोलने का पूरा मौका दें, डाटें नहीं, प्यार से खेल में समझाएं कैसे यह खेल जीतना है।
साथ ही शरीर के पोषण का ध्यान रखें , शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने लिए विटामिन सी युक्त आहार लें, मौसमी फल, हरी सब्जियां, खीरा, टमाटर, नारियल पानी, संतरे, नींबू का जूस,आंवले का रस पियें। नीम की कोपले,तुलसी की पत्ती, गिलोय, हल्दी मिश्रित दूध,ले सकते हैं।अदरक ,तुलसी, काली मिर्च दालचीनी गुड़ का काढ़ा पियें।आयुष मंत्रालय द्वारा जारी सुझावों का पालन करें और कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या होने पर घबराएं नही अपने चिकित्सक या शासन के हेल्प लाइन नम्बर पर फोन से पहले जानकारी लें , तदनुरूप ही कोई दवा खाएं।आयुष मंत्रालय ने होम्योपैथी की आर्सेनिक एल्ब दवा की सलाह दी है किंतु दवा चिकित्सक के मार्गदर्शन में हीं लेना चाहिए।
ध्यान रखें कोरोना कलंक नहीं है,  आपकी परीक्षा का प्रश्नपत्र है, जिसमे जीवन के  सही विकल्प का चुनाव आपके हाथों है, इसलिए सजग रहे, सतर्क रहें, जानकारी बढ़ाएं, और स्वस्थ रहें।


डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
राष्ट्रीय महासचिव- होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ

Thursday, 23 April 2020

कोरोना काल मे सायकोलॉजिकल डिसऑर्डर से कैसे बचेंएक अदृश्य अतिसूक्ष्म विषाणु,

वायरस का संक्रमण कलंक नहीं,जीवन की आशा और विश्वास सर्वोत्तम औषधि 


जो सजीव और निर्जीव के बीच की कड़ी है, किन्तु वर्तमान समय मे विश्व के 25 लाख से अधिक मनुष्यों को अपनी चपेट में ले चुका है, जो समय के साथ सम्भवतः अपने प्रहार व प्रदर्शन के स्वरूप भी बदल रहा है, और वर्तमान में मानव जीवन को सबसे बड़े अदृश्य संकट से कैसे बचाया जाय यह सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। घोषित तौर पर चार महीने की अवधि के बाद इससे मुक्ति के लिए अनिश्चितता का भय, किसी विश्वसनीय उपचार की अनुपलब्धता, और संदिग्ध पाए जाने पर लंबे समय तक एकाकी जीवन (क्वारेंटाईन) के नाम पर मानस पटल पर उभरती जेल की सलाखों में बेड़ियों से जकड़ी जिंदगी की कलंकित तस्वीर मनुष्य को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में भी सचेत रहने का संकेत करती है। अभी तक कोरोना की पुष्टि के लिए जांच का संकेत करने वाले शारीरिक लक्षण खांसी, बुखार, व सांस लेनें में अथवा गले मे खराश के रूप में मिलते रहे किन्तु अब कई मामलों में व्यक्ति बिना किन्ही लक्षणों के भी संक्रमित पाए गए यह जटिलता का सूचक है जिसमे अतिरिक्त सावधानी ही बचाव है।

क्या हैं सायकोलॉजिकल डिसऑर्डर
इन परिस्थितियों का प्रभाव समुदाय के सभी वर्गों, मरीज, चिकित्सक, परिवार, समाज, कर्मचारी, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर आवश्यक रूप से पड़ता है, जिसमे सामान्यतः भय, चिंता, तनाव,  बेचैनी, मानसिक आघात, परिस्थियों या स्वयं के लिए संक्रमण होने की अस्वीकार्यता का भाव, और इस कारण अनुशासन का लम्बे समय तक पालन करने के दबाव के फलस्वरूप क्रोध का विस्फोटक स्वरूप अथवा व्यक्तिगत अपराध बोध व्यक्ति में कुंठा के भाव भर अवसाद की तरफ धकेलने वाले हो सकते हैं।
कुछ परिस्थितियों में माना जा सकता है कि लम्बे लॉकडाउन, क्वारंटाइन,  आइसोलेशन यह तीन शब्दों का सही अर्थ व जानकारी का अभाव आमजनता को कोरोना की तरह डराने वाले ही है जो इस भाव मे प्रदर्शित होता है कि "कोरोना छुआछूत की बीमारी ही नही कलंक है जिसके लग जाने से सगे सम्बन्धी,  भाई, परिवार, मित्र समाज सभी सम्बन्ध तोड़ लेंगे, दुनिया मे अकेले रहना पड़ेगा,  और शासन प्रशासन को पता चलेगा तो कलंकित अपराधी की तरह सबसे अलग थलग कर किसी जगह अकेले बंद कर देंगे, क्योंकि इसकी कोई दवाई चिकित्सकों के पास भी नही है इसलिए वे भी हमारे साथ ठीक बर्ताव नही करेंगे और कुछ दिन में जीवन मिट जाएगा, एक गुमनाम बहिष्कृत अपराधी की तरह मेरा भी लावारिस अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा, कोई मुझसे कभी नही मिलेगा ।" यह भाव उस मनःस्थिति की निर्बलता को व्यक्त करते हैं जहां व्यक्ति वर्तमान परिस्थितियों से या तो पूरी तरह अनभिज्ञ है अथवा ज्ञान होते हुए भी भावना की प्रधानता में विवेक का प्रयोग नही कर पाता है। वह संक्रमण को अपराध की तरह, स्वयं को अपराधी की तरह और उसकी जीवन रक्षा में सहयोगी प्रशासन के अनुशासन को सजा के दृष्टिकोण से परखने लगता है।

इस मनोदशा को समझने के लिए लॉक डाउन, क्वारंटाइन और आइसोलेशन की प्रक्रिया के अर्थ को समझना आवश्यक है। तीनों ही शब्दों के अर्थों में एक समान उद्देश्य कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए क्रियात्मक समानता है प्रतिबन्ध, अंतर उसके लागू किये जाने के तरीके में है। पूरे समाज की सामान्य गतिविधि पर प्रतिबंध का अनुशासन का अर्थ है लॉक डाउन, एक ऐसे व्यक्ति को परिवार व समाज से पृथक करना जो किसी संक्रमित व्यक्ति से किसी भी तरह सम्पर्क में आया हो तो यह प्रतिबंध क्वारंटाइन कहलाता है, और किसी संक्रमित व्यक्ति को ही सामान्य आबादी से अलग  देखरेख में रखना आइसोलेशन कहलाता है। इन प्रक्रियाओं की अवधि का निर्धारण कोरोना के लक्षणों के प्रदर्शित होने की अवधि के आधार पर ही न्यूनतम 14 -15 दिन निर्धारित की जाती है, और इस बीच व्यक्ति की न्यूनतम दो  जांच रिपोर्ट 24 घण्टे के अंतर में निगेटिव आने पर व्यक्ति को मुक्त किया जाता है, इस पूरी अवधि में व्यक्ति चिकित्सकों व स्वास्थ्य कर्मियों की गहन देखरेख में रहता है।
समाज मे प्रत्येक व्यक्ति संक्रमित नहीं, किन्तु वायरस की प्रकृति व प्रवृति ऐसी है कि संकट सभी पर समान रूप से संभावित है और सावधानी और बचाव ही एक मात्र उपाय है, इसलिए इस समय सभी  को संभावित परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करते हुए, सहयोगी योगदान करने की मनःस्थिति का निर्माण करना चाहिए।
अनपेक्षित और अचानक आयी इस आपदा के लिए सामान्य मानव मानसिक रूप से कभी तैयार न थे,  सभी अपने दैनिक, निजी, पारिवारिक या अन्य जिम्मेदारी के कार्यों में सक्रिय थे,  अचानक सभी की गतिशीलता को ब्रेक लग जाने से, लोग इससे स्वयं को सम्बद्ध नही कर पाए जिससे उन्हें लगता है कि उन्हें यह संक्रमण कैसे हो पायेगा, वह तो स्वस्थ है, सजग है, और इसी कारण लॉक डाउन में रहते हुए भी कुछ लोग सरकार की तरफ से बचाव के लिए जारी निर्देशों का जानबूझ कर पालन नही करते, यह मनोवृत्ति डिनायल या अस्वीकार्यता कहलाती है, जो एंग्जायटी का ही व्यवहारिक दोष है, सकारात्मक उद्देश्यों से विरत यदि यह मनोवृत्ति निरन्तर रही तो कुंठा का भाव पनपने लगता है और व्यक्ति के व्यवहार में क्रोध का विस्फोटक प्रदर्शन विरोध के रूप में व्यवहृत होता है, ऐसे में व्यक्ति अनुशासन को तोड़ भागने का प्रयास करता है। यह बात तो सामान्य व्यक्ति पर लागू होती है, जिनका उद्देश्य दूसरों को पीड़ा पहुँचाना नही अपितु स्वयं को कैद से मुक्त करने जैसी मानसिकता से आबद्ध होता है, किन्तु कुछ लोगों का उद्देश्य ही आमजन को पीड़ा पहुँचाने के लिए सामान्य नियमों को तोड़ने का होता है ऐसे लोग उन चिकित्सकों को ही नुकसान पहुँचाने का यत्न करते है जो इनके जीवन को बचाने के लिए अपने जीवन को संकट में डाल रहे हैं ।इस तरह वे चिकित्सक को अपनी चिकित्सा की अनुमति नहीं देते।
क्वारंटाइन या आइसोलेशन की प्रक्रिया में ऐसी मनस्थितियाँ सभी मे हो सकती हैं, मरीज पर रोग से मुक्ति और जीवन के संकट, इलाज की अनिश्चितता का दबाव,  समाज , सरकार व शासन को दैनिक कार्यों और अर्थव्यवस्था व प्रगति की चिंता, चिकित्सा कर्मियों व व्यवस्था में लगे कर्मियों पर अतिरिक्त सतर्कता, सावधानी, व्यवस्था नियंत्रण, कार्य की जिम्मेदारी, व जवाबदेही का दबाव बनाना अदृश्य पक्ष है कोरोना के प्रत्यक्ष संकट का, इसलिए इससे बचने के उपाय भी प्रत्येक स्तर पर अलग अलग करना चाहिए। जिस बीमारी की कोई दवा नही सिर्फ बचाव ही एकमात्र उपाय है उसमें 
 सबसे महत्वपूर्ण है जीवन के प्रति आशा और विश्वास  ,यही सर्वोत्तम औषधि है, और अप्रमाणिक जानकारी समाचार अफवाहें इस काल में व्याधियों के लिए भोजन है, इससे बचना चाहिए।

बचाव के लिए क्या करें -
कोरोना काल मे उपरोक्त तथ्यों को समझते हुए सर्वप्रथम तो इस अदृश्य शत्रु से संघर्ष के लिए राष्ट्र के पक्ष में आपकी भूमिका व योगदान क्या होना चाहिए , इस विषय पर सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ चिंतन अवश्य करें तो आपमें सभी अनुशासन के प्रति सहयोग और स्वीकार्यता का भाव पनपेगा। घर मे परिवार व बच्चों के साथ समय का सदुपयोग सृजनात्मक गतिविधियों लेखन, अध्ययन,  गीत, संगीत, कम्यूटर सीखना, चित्रकारी, पेंटिंग,  बागवानी, घरेलू खेल, सुबह शाम, शारीरिक श्रम, व्यायाम में करें। रिश्तेदारों मित्रों से फोन पर बात करें, उत्साहवर्धन करें, समाज मे आस पास के गरीब जरूरतमंद, पशु पक्षियों की मदद कर सकते हैं। यदि आप क्वारंटाइन या आइसोलेशन में भी हैं तो  देखें और विचार करें कि जहां कोई अपना नही वहां भी आपके जीवन की रक्षा के लिए चिकित्सक व सभी स्टाफ अपनो से दूर होकर लगे है, उनका सम्मान करें, उन्हें सहयोग करें, उन्हें सही जानकारी दें, और यह सोंचे इस संघर्ष में आप भी अपने परिवार, समाज , व राष्ट्र को वायरस के आक्रमण व प्रसार से रोकने में अपना सम्पूर्ण योगदान एक योद्धा की तरह दे रहे हैं जो संक्रमण के दायरे में तो हो सकता है किंतु हार नहीं सकता। वीडियो कसन्फ्रेन्सिंग के जरिये अपने परिवार से संवाद कर उनका भी हौसला बढ़ाएं। हताश या निराश न हों, यूँ समझे जहां जिस परिस्थिति में आपकी भूमिका तय की गई वैसे ही लड़ेंगे मगर जीतेंगे जरूर। यदि बच्चे हैं तो उनके प्रश्नों को सुने, उन्हें बोलने का पूरा मौका दें, डाटें नहीं, प्यार से खेल में समझाएं कैसे यह खेल जीतना है।
साथ ही शरीर के पोषण का ध्यान रखें , शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने लिए विटामिन सी युक्त आहार लें, मौसमी फल, हरी सब्जियां, खीरा, टमाटर, नारियल पानी, संतरे, नींबू का जूस,आंवले का रस पियें। नीम की कोपले,तुलसी की पत्ती, गिलोय, हल्दी मिश्रित दूध,ले सकते हैं।अदरक ,तुलसी, काली मिर्च दालचीनी गुड़ का काढ़ा पियें।आयुष मंत्रालय द्वारा जारी सुझावों का पालन करें और कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या होने पर घबराएं नही अपने चिकित्सक या शासन के हेल्प लाइन नम्बर पर फोन से पहले जानकारी लें , तदनुरूप ही कोई दवा खाएं।आयुष मंत्रालय ने होम्योपैथी की आर्सेनिक एल्ब दवा की सलाह दी है किंतु दवा चिकित्सक के मार्गदर्शन में हीं लेना चाहिए।
ध्यान रखें कोरोना कलंक नहीं है,  आपकी परीक्षा का प्रश्नपत्र है, जिसमे जीवन के  सही विकल्प का चुनाव आपके हाथों है, इसलिए सजग रहे, सतर्क रहें, जानकारी बढ़ाएं, और स्वस्थ रहें।


डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
राष्ट्रीय महासचिव- होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ

Wednesday, 22 April 2020

कोरोना पर समन्वितचिकित्सा की समग्र शक्ति से प्रहार का समय


वर्तमान में बहुत सारी बीमारियां जैसे एचआईवी, हेपेटाइटिस, इनफ्लुएंजा, जेई, डेंगू, चिकनगुनियस, इन्फ्लूएंजा, स्वाइन फ्लू आदि जनस्वास्थ्य के लिए बार बार चुनौती बन जाती हैं। विज्ञान ने भी माना है इसका प्रमुख कारण मनुष्य रोग प्रतिरोधक क्षमता में आ रही कमी है जिससे वातावरण के रोगकारक जीवाणु विषाणु निरन्तर प्रहार करते रहते हैं और जिस व्यक्ति की लड़ने की क्षमता कमजोर होती है उसे अपना शिकार बना लेते हैं। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने ज्यादातर के लिए टीका या वैक्सीन विकसित कर लिए हैं ।यद्यपि इन सभी बीमारियों से लड़ने की क्षमता हमारा शरीर स्वयं विकसित करता है जिसके लिए भारत के प्राचीनतम चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद में स्वस्थजीवनशैली की दिनचर्या, रितुचर्या, आहार, विहार,व्यवहार की प्रकृति के अनुरूप विधियां बताई हैं जिन्हें अपनाकर व्यक्ति रोगों से लड़ने की अपनी क्षमता को बनाये रख सकता है और स्वस्थ निरोगी दीर्घायु जीवन जी सकता है, वर्तमान परिदृश्य में कोरोना की महामारी से निपटने के लिए भी यही तथ्य सत्य है।
अब तक हम जान चुके हैं कि
चीन के वुहान शहर से निकले कोरोना ने कराल रूप में विश्व के अधिकांश देशों अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इटली, पाकिस्तान, इजरायल आदि की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं और संस्थाओं को बौना कर दिया है।
अब तक विश्व मे लगभग 23 लाख से अधिक संक्रमित और लगभग 1 लाख 50 हजार से अधिक मृत्यु दर्ज हो चुकी हैं।भारत मे भी यह आंकड़ा साढ़े 19हजार से अधिक संक्रमित और 600 से अधिक मृत्यु को पार कर गया है।अन्य देशों की तुलना में भारत की स्थिति लगातार बेहतर बनी हुई है और अभी हम सामुदायिक संक्रमण का खतरे से बचे हुए हैं, इसका  सबसे प्रमुख कारण निश्चित रूप से भारत सरकार द्वारा लिए गए समयोचित निर्णय , कुशल प्रबंधन, और प्रशासन व नागरिकों के सहयोग व समन्वय ही है। 
तमाम विधाओं के शोधकर्ता व वैज्ञानिक सभी वायरस की पहचान व वैक्सीन बनाने में प्रयासरत हैं, किन्तु इसकी अनिश्चित प्रकृति एक जटिल समस्या है। कुछ मामलों में तो बिना किसी प्रत्यक्ष लक्षण के भी कोरोना के मरीजों की पुष्टि हो रही है यह संकेत है कि वायरस की संरचना अथवा स्वरूप में परिवर्तन भी संभव है।
इसकी संक्रामकता इतनी व्यापक है कि गरीब से लेकर विश्व के तमाम बड़े राष्ट्राध्यक्ष तक इसके असर से न बच सके, यद्यपि सन्तोष की बात यह है कि मृत्यु दर 2-4% ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक महामारी घोषित कर बचाव व उपचार का प्रोटोकॉल घोषित कर दिया है जिसका सभी देश पालन करवा रहे हैं।  अदृश्य शत्रु का सामना सभी संभव विकल्पों के साथ मिलकर ही किया जाना चाहिए ,इसी नीति के तहत ज्यादातर देश जनहानि को न्यूनतम करने के लिए हर संभव उपाय कर रहे है जिसके तहत पारंपरिक पद्धतियों का भी प्रयोग कर रहे हैं।
आयुर्वेद संसार मे सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है जिसमे चिकित्सा के कई सिद्धांत बताये गए हैं उन्ही में से एक है समं समे शमयति अर्थात औषधि एवं रोग के लक्षणों की समानता के आधार पर चिकित्सा, इसे प्रकृति का चिकित्सा सिद्धांत भी माना गया है ।इसी सिद्धांत पर विकसित होम्योपैथी में औषधीय निर्माण में आयुर्वेद का सूत्र मर्दनम गुण वर्धनम के अनुरूप निष्क्रिय पदार्थों के औषधीय गुणों को शक्तिवर्धित कर मानव को व्याधिमुक्त करने में सहयोग मिलता है , इस दृष्टि से होम्योपैथी व आयुर्वेद में सैध्दांतिक समानता स्पष्ट होती है।
प्रचलित पद्धतियों की औषधियों के हानिकारक दुष्प्रभाव से बचने के लिए आम जनता का विश्वास है कि होम्योपैथी व आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में किसी भी रोग को समूल नष्ट करने की क्षमता है। इन सबके बावजूद होम्योपैथी के प्रयोग सन्दर्भ में जब बात होती है तो तर्क दिया जाता है कि होम्योपैथी में कोरोना के उपचार के  प्रमाण उपलब्ध  नहीं है। क्योंकि यह रोग सभी के लिए नया है और जब किसी भी पद्धति में उपचार उपलब्ध होने के प्रमाण अब तक सामने नहीं आये हैं किन्तु उपचार तो इसी आधार पर किया जा रहा है कि नुकसान कम से कम हो। इस दृष्टि से यह उपचार कम और आपदा काल मे कुशल प्रबंधन अधिक है। इसलिए अकेले होम्योपैथी के लिए प्रमाण न होने का तर्क तर्कसंगत नहीं।होम्योपैथी में रोग के नाम से चिकित्सा का विधान ही नहीं, इसलिए भी होम्योपैथी सैद्धांतिक रूप से कोरोना के इलाज का  दावा नहीं कर सकती। रोगी की अवस्था व लक्षणों के आधार पर चयनित औषधि की न्यूनतम मात्रा के प्रयोग से भी किसी भी तरह की हानि की संभावनाएं अन्य पद्धतियों की अपेक्षा नगण्य हैं। होम्योपैथी के जनक डा हैनिमैन के जीवनकाल में स्कारलेट फीवर , 1831 में कॉलरा,1849 में  यूरोपीय देशों में एशियाटिक कॉलरा में डॉ वोनिंगहसन  द्वारा,जोहान्सबर्ग के डॉ टाइलर स्मिथ एवम शिकागों के डॉ ग्रिमर  द्वारा 1850 में पोलियो के लिए होम्योपैथी दवाओं का होम्योपैथी सिद्धांतो के आधार पर सफलतापूर्वक प्रयोग का उल्लेख होम्योपैथी पुस्तकों में हैं । भारत मे जे ई के लिए वर्ष 1999 में आंध्र प्रदेश सरकार ने भारतीय  चिकित्सा पद्धतियों एवं होम्योपैथी विभाग के सहयोग से वर्ष 2002 तक अभियान चलाकर सफलता दर्ज की थी। और जे ई पर होम्योपैथी की बेलाडोना औषधि के असर की रिपार्ट अमेरिकन जर्नल में प्रकाशित भी हो चुकी है।इसी प्रकार डेंगू ,चिकन पॉक्स, चिकनगुनिया आदि संक्रामक एवं अन्य वायरस जनित रोगों में भी होम्योपैथी औषधियों के प्रभाव से जनता लाभांवित हुई है।
राष्ट्रीय आपदा के समय जब सबके स्वास्थ्य की चिंता करनी हो तो समग्रता का सिद्धांत लागू किया जाना राष्ट्रसेवा का अवसर प्रदान करने जैसा है।
सभी चिकित्सा पद्धतियों का उद्देश्य मानव के स्वास्थ्य को बिना नुकसान पहुचाएं सुरक्षित करना है । अतः सबके स्वास्थ्य की रक्षा के संकल्प की सिद्धि के लिए सभी चिकित्सा पद्दतियों को समन्वितस्वरूप में कुशल प्रबंधन के साथ अपनाने की आवश्यकता है।उपचार के लिए यदि किसी के पास कोई दवा नही हो, नुकसान अवश्यम्भावी हो तो समग्रता  के पालन के साथ सबसे कम नुकसान वाले मार्ग पर चलना ज्यादा श्रेयस्कर है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर होम्योपैथी चिकित्सकों ने सरकार को भिन्न माध्यमों से कोरोना संकट से मुक्ति के उपायों में होम्योपैथी का भी सहयोग लेने का निवेदन किया सम्भवतः उन सभी पर विचार विमर्श के बाद सरकार ने आयुष पद्धतियों का सम्यक प्रयोग एवं उनके प्रभावों के अध्ययन हेतु वैज्ञानिक मापदंडों पर आंकड़े जुटाने की सहमति जारी कर दी है , यह नितांत सामयिक और प्रशंसनीय कदम है। अभी कुछ दिन पूर्व मध्य प्रदेश राज्य होम्योपैथी परिषद की रजिस्ट्रार डा आयशा अली , दिल्ली सरकार ने होम्योपैथी की दवा का वितरण कराने की अपील की।
भारतीय पारम्परिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार यह विषम सन्तत ज्वर जैसा है, जिसमें तीनों दोष वात पित्त कफ के प्रकोप होने पर सन्निपात की अवस्था उत्पन्न होती है। यद्यपि इसमे कफ दोष का अत्यधिक प्रकोप होता है, जिसका शरीर में स्थान हृदय के ऊपर होता है। व्यक्ति में तापमान , नेत्र, मल, मूत्र का रुक्ष हो जाना सुखना, अंगमर्द, शरीर में चल अचल वेदना, प्यास की अधिकता, शुष्क वमन एवं सूखी खांसी, अरुचि, अपचन, जम्हाई, अतिसार, मूर्छा, पित्त का वमन, प्रलाप, चक्कर आना, भारीपन, मुख से कफ निकलना, मिचली, अतिनिद्रा, सर्दी का होना आदि लक्षण पाए जाते हैं और इन सबका मूल वायु, जल, देश और काल की विकृतियां या प्रदूषण हैं।
इसलिए औषधीय प्रयोग के साथ प्राणशक्ति को बल प्रदान करने के उपाय करने चाहिए। 

अक्सर गुनगुने जल पीने की सलाह दी जाती है क्योंकि यह वायु का अनुलोम कर पेट की अग्नि को तीव्र करता है, शीघ्र ही पच जाता है और कफ का शोषण करता है। इस समय व्यक्ति को अपनी दिनचर्या में उपवास या सुपाच्य अल्पाहार का सेवन करना, किसी भी तेल का नस्य करना, ऋतुचर्या का पालन करना ,गुनगुने  द्रव्यों या संस्कारित भोजन का सेवन करना भोजन के साथ गरम जल का सेवन करना चाहिए।

डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
महासचिव होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ