चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Saturday, 10 October 2020

रामचरित मानस में है मानसिक स्वास्थ्य का प्रकाश

राम चरित मानस में हैं मानसिक रोगों के उपाय

इन दिनों समस्त विश्व कोविड महामारी, युद्ध, आर्थिक, राजनैतिक, वातावरणीय और भौगोलिक अस्थिरता जैसी आशंका, भय व तनाव के बीच स्थिरता,शांति और समाधान के मार्ग तलाश में है।इस दृष्टि से देखा जाय तो आज यह अस्थिरता प्रत्येक व्यक्ति के मन मस्तिष्क में  तनाव दबाव के रूप में मिल जाएगी। निःसन्देह विज्ञान अपनी सीमाओं में समाधान की खोज में लगा है किन्तु प्रकृति ने एक अदृश्य सूक्ष्मतम विषाणु के माध्यम से यह तो स्पष्ट कर ही दिया कि निर्माण के विकास क्रम में विज्ञान और तकनीक की यांत्रिक प्रगति के सापेक्ष व्यक्ति और प्रकृति के सम्बन्धों की महत्ता क्या है ? अन्यान्य कारणों से जन्म ले रही तमाम मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में जागरूकता एवं सहयोगी प्रयासों को सँगठित करने के उद्देश्य से ही भारत मे 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत हुई तो 10 अक्टूबर 1992 को विश्व मानसिक स्वास्थ्य सँघ ने विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के रुप मे मनाने का निश्चय किया। कोविड महामारी ने एक मानवता को एक संकेत और किया कि जब समस्या बड़ी हो उसके कारण और निवारण अज्ञात हों तो समाधान के लिए सभी संभव विकल्पों का अध्ययन व उपयोग समग्ररूप में किया जाना चाहिए, इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय आध्यात्म की प्रासंगिकता बढ़ जाती है जिसे प्रसिद्ध जीवविज्ञानी सर जूलियन हक्सले ने " मानवीय सम्भावनाओं के विज्ञान" की संज्ञा दी थी और आशा व्यक्त की थी कि आधुनिक पाश्चात्य भौतिक विज्ञान उसी दिशा में विकसित होगा।

 भारतवर्ष में हजारों वर्षो पहले आंतरिक -प्रकृति के रहस्यमय जगत पर शोध कर उपनिषदों पुराणों,ग्रन्थों में संरक्षित किया गया जिनमे बताया कि इस पँच तत्व निर्मित भौतिक शरीर में स्नायु तन्त्र , मस्तिष्क के पीछे भी एक अनन्त आध्यात्मिक केंद्र होता है।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्री राम चरित मानस में लिखा -
क्षिति, जल, पावक, गगन , समीरा।
पंच तत्व मिलि बना सरीरा।।

कठोपनिषद में लिखा गया है -
" एष सर्वेषु भूतेषु गूढो$$त्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वप्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।"

अर्थात् यह (अनन्त) आत्मा सभी जीवों में छिपा है, अतः प्रकाशित नहीँ होता; परन्तु सूक्ष्म दृष्टा मेधावी गण अपनी सूक्ष्म व पैनी बुद्धि की सहायता से उसका साक्षात्कार करते हैं।
बाद में होम्योपैथी के जनक डा हैनिमैन ने इसे जीवनी शक्ति कहा।

भारतीय आध्यात्म में प्राण को स्वयंभू माना जाता है और इसका आयाम ही मनुष्य को स्वस्थ व सक्रिय रखता है। जीवन और गति एक दुसरे की पूरक हैं ।  सभी के मूल में एक बात स्पष्ट होती है कि मानव शरीर रचना में प्रकृति के मूलतत्वों का ही समावेश है और इसीलिए वह अपनी वातावरणीय दशाओं में परिवर्तन से प्रभावित होता है और इन्हे मानसिक एवं शारीरिक लक्षणों में व्यक्त करता है। 
दर्शन का यही सिद्धान्त होम्योपैथी के प्रकृति पर आधारित चिकित्सा को प्रमाणिकता प्रदान करता है।

होम्योपैथी दर्शन और विज्ञान के अनुसार भी स्वस्थ जीवन के लिए शरीर, मस्तिष्क और आत्मिक (स्पिरिचुअल, वाइटल) ऊर्जा में संतुलन स्थापित रहना जरूरी है।

भौतिक विज्ञान ने भले ही मानवो के बीच सांसारिक दूरियाँ कम कर दी हों मगर बढ़ते अपराध हिंसा अनाचार से साबित होता है कि मानवीय मानसिक दूरियां बढ़ा दी हैं। आहार, स्वास्थ्य ,तकनीक ,संसाधन ,शारीरिक बौद्धिक और मानसिक रूप से भले ही हम स्वयं को पूर्वजो की अपेक्षा पुष्ट पाते हों मगर हम अपनों से और अपने आपको स्वयं से दूर भी पाते हैं। आज भी मनुष्य दुखी है, तनावग्रस्त है ,अशांत है ,दूसरों पर आघात करता है या स्वयं आत्महत्या कर लेता है ....यह कैसा स्वास्थ्य है ....?..यह रुग्णता दैहिक , दैविक या भौतिक नही ... मानस (रुग्णता) है ।

क्या हैं मानस (मानसिक) रोग --

गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री राम चरित मानस के उत्तर कांड में काकभुशुण्डि से सन्तों ने प्रश्न  किया,

"मानस रोग कहहु समुझाई । 
तुम सर्वग्य कृपा अधिकाई।।"

अत्याधुनिक चिकित्सा के तरीकों के बाद भी माया और मोह के जंजाल में फंसा जनमानस क्या सच में शांत, सन्तुष्ट ,स्वस्थ है ...?...इसका उत्तर भारतीय दर्शन में रेखांकित है जिसमें अत्याधुनिक विज्ञान  अपनी कसौटी पर कोई परिवर्तन नहीँ कर पाया। तमाम चिकित्सा विज्ञान के सापेक्ष होम्योपैथी के सिद्धान्त प्राकृतिक रूप से अलग शब्दों की व्यंजना में मूल रूप से इसी दर्शन को पुष्ट करते दिखाई देते हैं।

सन्तों के प्रश्न का उत्तर देते हुए काकभुशुण्डि कहते हैं,

सुनहु तात अब मानस रोगा। 
जिन्ह ते दुःख पावहिं सब लोगा।।

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

अर्थात् मोह (मन, मानसिक वृत्ति) सभी व्याधियों का मूल है जिससे मनुष्यों में कई प्रकार के कष्ट (शारीरिक) उत्पन्न होते हैं।

अपनी पुस्तक आर्गेनन ऑफ़ मेडिसिन के एफोरिज़्म 210 में डा हैनिमैन लिखते हैं कि एक या दो मानसिक लक्षणों वाले रोग ही मानसिक रोग कहलाते हैं जिनमे व्यक्ति की मानसिक दशा व्यवहृत होती है। 
दोनों का दर्शन इस बात का समर्थन करता है कि प्रायः मनुष्य का मन या मस्तिष्क पहले प्रभावित होता है तदुपरांत ही शारीरिक रोगों की उत्पत्ति हो सकती है।

रोग के कारण- रोगोत्पत्ति-

डा हैनिमैन ने आर्गेनन ऑफ़ मेडिसिन में एफोरिस्म 210--230 में मानस (मानसिक) रोगों के विभिन्न प्रकारों के उद्भव व उनके उपचार के तरीके भी बताये हैं।

होम्योपैथी में रोगों के तीन प्रमुख कारण; मूल कारण (Fundamental cause), उत्प्रेरक कारण (Exciting cause), स्थायीकारक (Maintaining cause)हैं। रोगों की उत्पत्ति के लिए मनुष्य में मूल कारक ; होम्योपैथी में सोरा, सिफ़िलिस, साइकोसिस,या आयुर्वेद में वात, पित्त, और कफ, ही वस्तुतः महत्वपूर्ण है , जो कि जन्म से ही उसके शरीर में सुप्तावस्था में विद्यमान रहते हैं तथा विकास के साथ स्वानुकूल परिस्थिति में उत्प्रेरक कारकों से जाग्रतावस्था को प्राप्त हो तदनुरूप रोगोत्पत्ति एवं उनका विकास करते है , एवं स्थायी कारक कारण रोगों को विकसित होने का वातावरण तैयार कर देते है। 

विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
मुनिहु ह्रदय लग न्र वापुरे।।

अर्थात कुपथ्य और विषय वासना के वश में आने पर मनुष्य तो क्या मुनियों में विकार के अंकुर पनपने लगते हैं।

होम्योपैथी मानसदर्शन कहता है "मन" या  "विचार" ही "मनुष्य "को प्रदर्शित करते हैं इसलिए इनकी गति का प्रभाव शरीर क्रियाओं पर भी पड़ता है, और विषयानुक्रम में तत्सम लक्षण या विकार उत्पन्न हो सकते हैं और रामचरित मानस दर्शन में यही बात यूँ कही गयी है-

विषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना।।
अर्थात् मनुष्य की पूरी न हो सकने वाली भौतिक विषयों को प्राप्त करने की अभिलाषाएं ही कष्टदायी रोग या इसका कारण है , इनके हजारों या अनगिनत नाम हो सकते हैं।
रोग के प्रकार भी हमारी मनोवृत्तियों के अनुरूप ही होते हैं जैसे-

काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।

अर्थात काम  वात (सोरा) है, लोभ अपार या बढ़ा हुआ (साइकोसिस) कफ है और क्रोध (सिफ़िलिस) पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।

इन्ही मानस रोगों के कारण तमाम अन्य शारीरिक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अथवा
कोई पुराना शारीरिक रोग भी दब कर मानसिक लक्षण उत्पन्न कर सकता है जिसे सोमैटो साइकिक रोग कहते हैं।

प्रीति करहि जो तीनिउ भाई।
उपजइ सन्यपात दुखदायी।।

यदि ये तीनों वात (सोरा), कफ ( साइकोसिस), पित (सिफ़िलिस) मिल जाएं तो दुखदायी सन्निपात रोग उत्पन्न होता है।

इसी विषय में डा हैनिमैन के अनुसार सुप्त वात या सोरा के बढ़ जाने से या कभी कभी अचानक दुःख, भय, सन्ताप से होने वाले मानसिक रोग को अल्पकालिक औषधियों से नियंत्रित  न हो तो द्वितीयवस्था में यह पागलपन  तक बढ़ सकता है।

होम्योपैथी के अनुसार तृतीय प्रकार के मानस (मानसिक) रोगों की उत्पत्ति के विषय मे अनुमान ही लगाया जा सकता है जैसे अहंकार, दम्भ, मलिन चरित्र , कपट, विचार, अशिक्षा, कुसंगति आदि।
इसे गोस्वामी तुलसीदास ने यूँ लिखा है--
अहंकार अति दुखद डमरुआ।
दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृष्णा उदर बुद्धि अति भरी।
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।।

अर्थात् अहंकार -दुख देने वाला गांठ का रोग (साइकोसिस) है। दम्भ कपट मद और मान -नसों के ,  तृष्णा -जलोदर रोग है तो पुत्र धन मान की प्रबल इच्छाये तिजारी हैं।

होम्योपैथी में चतुर्थ प्रकार के मानस रोगियो में लम्बे समय तक रहने वाली मोह, दुःख, हर्ष , विषाद, चिंता, बेचैनी, ईर्ष्या, दुर्भाग्य का भय, सन्ताप आदि के कारण शरीर रुग्ण होने लगता है इसे सायको सोमैटिक रोग कहते हैं।
और इसे गोस्वामी तुलसीदास मानस के उत्तरकाण्ड में  यूँ व्यक्त कर चुके हैं-- 
ममता दादु, कण्डु इरषाई।
हरष विषाद गरह बहुताई।।

परसुख देखि जरन सोइ छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ।।

जैसे अधिक ममता शरीर पर दाद, ईर्ष्या खुजली, हर्ष विषाद गले के रोगों की अधिकता जैसे गलगण्ड, कण्ठमाला, घेंघा आदि के रूप में प्रकट होते हैं। पराये सुख को देखकर मन में जो जलन होती है वह क्षयी (ट्यूबरकुलर मयज्म या सोरा-सिफलिस) है तो दुष्टता, व मन की कुटिलता ही कोढ़ 
(सिफिलिटिक) है।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका।
कान्ह लगि कहौं कुरोग अनेका।।

मत्सर और अविवेक दो ज्वर हैं।

उपचार-

उक्त मानस रोगों के निदान हेतु आवश्यक है रोगी या परिजनों एवं चिकित्सक के बीच विश्वास का मजबूत बन्ध बनें, इस हेतु चिकित्सक में सरल ,सहज, संयम व मैत्रीपूर्ण मानवीय भाव का होना नितांत आवश्यक है।
मानस में भी वर्णन है-
सद्गुर बैद बच्चन विस्वसा।
संजम यह न विषय कै आसा।।

अर्थात् सद्गुरु रुपी वैद्य पर्व विश्वास करें विषयो की आशा न करें यही संयम है।

डा हैनिमैन ने ऐसे लोगो का उपचार  भी मित्रवत व्यवहार ,लक्षणों के अनुसार औषधि चयन और दिनचर्या, जीवन शैली के नियमन से ही संभव माना है। इन्हे औषधि से अधिक भावनात्मक सहारे और आत्मविश्वास जगाने की जरूरत होती है।

महान दार्शनिक एवं मनोविज्ञानी स्टुअर्ट क्लॉस का भी मनना था कि मनुष्यों में " मानस ही मनुष्य है" (The Mind is The Man). और अभिव्यक्ति (Statement) ही उसकी "मनोदशा में व्यक्ति " का प्रदर्शन , जिसे न्हे हम उसके सोने जागने के तरीके, वार्तालाप, स्वप्न आदि के विश्लेषण से जान समझ सकते है।

गोस्वामी लिखते हैं -
जानिअ तब मन बिरुज गोसाई।
जब उर बल बिराज अधिकाई।।
सुमति दुधा बाढ़इ नित नई।
विषय आस दुर्बलता गई ।।

अर्थात् जब हृदय में विषयों (सांसारिक भौतिक  लालसाएं) से अनासक्ति एवं वैराग्य बढ़ जाये तो मन को निरोग समझना चाहिए ऐसे में उत्तम बुद्धि निरन्तर बढ़ती है।

यह होम्योपैथिक पद्धति की खूबसूरती ही है कि व्यक्ति के इलाज के समय व्यक्ति ही समझा जाता है प्रयोगशाला का जीव नहीं। और एक कुशल होम्योपैथ  उपरोक्त होम्योपैथिक सिद्धांतो के अनुरूप अपने रोगी को भावनात्मक सम्बल प्रदान करते हुए लक्षणों की पूर्णता के आधार पर उचित एंटी सोरिक औषधियों या व्यक्ति विशेष की वैयक्तिक औषधि( constitutional remedy) का चयन कर "रोग से व्यक्ति को स्वास्थ्य की अवस्था" में ले आता है।



डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी, 

होम्योपैथ

सहसचिव आरोग्य भारती अवध प्रान्त