चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Saturday, 19 December 2020

सनातन पर्व मकर संक्रांति :वैज्ञानिक, आध्यात्मिक,और सामाजिक दृष्टिकोण

किसी देश की संस्कृति व सभ्यता की प्राचीनता, समृद्धि, सम्पन्नता का आकलन करना हो तो उस देश के भौगोलिक एतिहासिक अध्ययन के साथ वहां मनाए जाने वाले उत्सवों का भी अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि उत्सव, पर्व या त्यौहार और उससे जुड़ी परम्पराएं सीधे मानवजीवन से जुड़ी होती हैं। भारत देश मे वर्षपर्यंत मनाए जाने वाले उत्सवों की एक लंबी सूची है, जो हमारे ऋषियों मनीषियों द्वारा मानव व प्रकृति के सम्बन्ध के रहस्यों  पर उनके गहन शोध व अनुसंधान के बाद अर्जित ज्ञान की गूढ़ता को शास्त्रों में वर्णित कर दिया किन्तु मानव कल्याण की भावना से आचरण में व्यवहृत किये जाने हेतु जीवनशैली में धारण किये जा सकने वाली परम्पराओं ,पर्वों, आस्था के नियमों से जोड़ दिया। जीव ,प्रकृति , पर्यावरण, एवं मानव सभ्यता की यही अक्षुण मर्यादा ही सनातन संस्कृति का मूल है। हमारे देश में चन्द्र एवं सूर्य की गतियों, ग्रहों की स्थितियों पर आधारित ज्योतिषीय, खगोल विज्ञान,एवं गणित का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है जहां मौसम ,तिथियों, अमावस्या, पूर्णिमा, चन्द्र एवं सूर्य ग्रहण आदि खगोलीय घटनाओं एवं तदनुरूप निर्धारित पर्वों की सटीक गणनात्मक भविष्य वाणी अथवा कैलेंडर घोषित किया जाता रहा है।
 अपने देश मे मनाए जाने वाले पर्वों की प्राचीनता, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक , सामाजिक कारण ,उद्देश्य,एवं महत्व पक्षों के विश्लेषण की आवश्यकता है जिससे वर्तमान पीढ़ी भी इनसे परिचित हो सके। भारत के विविध क्षेत्रों मे
एक ही पर्व को एक ही तिथि में एक से अधिक नाम व विधियों से मनाने की परम्पराएं विशाल भारत की विविधताओं में एकता अखण्डता, विश्व बंधुत्व की प्रेरणा का अनुपम उदाहरण है, ऐसा ही एक राष्ट्रीय पर्व है मकर संक्रांति जो ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार जनवरी माह में (पहले 14 अब 15 जनवरी) भारतीय कैलेंडर के अनुसार पौष मास में सूर्य पर्व के रूप में मनाया जाता है।

पर्व का नाम मकर संक्रांति क्यों ?

 प्राचीन भारत में भू मध्य रेखा से ऊपर यानी उत्तरी गोलार्ध को भूलोक और भू मध्य रेखा से नीचे यानी दक्षिणी गोलार्ध को पाताल लोक माना जाता था।सूर्य और पृथ्वी की गतियों के अनुसार जब सूर्य की निकटता दक्षिणी गोलार्ध की तरफ होती है तब उसे दक्षिणायन कहते हैं और इसे देवताओं की रात्रि के रूप में मानते हैं जिसकी अवधि छः मास की होती है जिसमे रात्रि बड़ी व दिन क्रमशः छोटे होते हैं, इसके बाद जब सूर्य पुनः उत्तरी गोलार्ध से निकट होते है अर्थात भूलोक को प्रकाशित करने वाले होते है तो इसे सूर्य का  उत्तरायण होना कहते हैं। इसकी मान्यता देवताओं के दिन के रूप में है, इसकी भी अवधि छः मास होती है, जिसमे दिनमान अधिक और रात्रि छोटी होने लगती है। दक्षिणायन को नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है।
 शास्त्रों की मान्यता के अनुसार सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि मे विस्थापन की क्रिया (वर्ष में कुल 12) को संक्रांति कहते हैं। क्योंकि इस संक्रांति में सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करते हैं अतः इसे मकर संक्रान्ति रूप में जाना जाता है।

संक्रांति से जुड़ी शास्त्रीय मान्यताएं-

 मकर संक्रांति एक ऐसी खगोलीय घटना है जो सम्पूर्ण भूलोक में नव स्फूर्ति और आनंद का संचार करती है।
ज्योतिष शास्त्रोक्त मान्यता है कि  सूर्य और शनि का तालमेल संभव नही, लेकिन इस दिन सूर्य स्वयं अपने पुत्र शनि के घर एक मास के लिए जाते हैं। इसलिए पुराणों में यह दिन पिता-पुत्र को संबंधो में निकटता की शुरुआत के रूप में देखा जाता है।

 देवताओं के दिन की गणना इस दिन से ही प्रारम्भ होती है। 
मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने मधु कैटभ से युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने मधु के कंधे पर मंदार पर्वत रखकर उसे दबा दिया था। इसलिए इस दिन भगवान विष्णु मधुसूदन कहलाने लगे।
गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भागीरथ ने अपने पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इस कारण से मकर सक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
तीर्थराज प्रयाग में लगने वाले कुम्भ और माघी मेले का पहला स्नान भी इसी दिन होता है।
इच्छामृत्यु के वरदान से पितामह भीष्म बाण लगने के बाद भी सूर्य उत्तरायण होने पर स्वेच्छा से शरीर का त्याग किया था। जिसका कारण भगवद् गीता के अध्याय ८ में भगवान कृष्ण ने बताया  है कि उत्तरायण के छह माह में देह त्याग करने वाले ब्रह्म गति को प्राप्त होते हैं जबकि और दक्षिणायन के छह माह में देह त्याग करने वाले संसार में वापिस आकर जन्म मृत्यु को प्राप्त होते  हैं।

भारत एवं विश्व के अन्य देशों में संक्रांति पर्व से जुड़ी परम्पराएं -

मकर संक्रांति का यह पर्व भारत सहित विश्व के तमाम देशों में अनेक नाम व स्थानीय परम्परा विधियों के अनुसार मनाया जाता है।
इस दिन गंगा स्नान, सूर्योपासना व तीर्थ स्थलों पर स्नान, दान विशेष पुण्यकारी होता है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस पर्व पर तीर्थ राज प्रयाग एवं गंगा सागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है। मकर संक्रांति के दिन तिल का बहुत महत्व है। कहते हैं कि तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल के तेल द्वारा शरीर में मालिश, तिल से ही यज्ञ में आहुति, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का भोजन इनके प्रयोग से मकर संक्रांति का पुण्य फल प्राप्त होता है और पाप नष्ट हो जाते हैं।

कर्नाटक में मकर संक्रांति के दिन तिरुपति बाला जी की यात्रा का समापन होता है। 
केरल में इस दिन सबरीमाला मंदिर और त्रिचूर के कोडुगलूर देवी मंदिर में भक्तों की भीड़ एकत्र होती है।

तमिलनाडु का प्रसिद्ध खेल जल्लिकट्टु होता है। वहां इस त्योहार को एक ऋतु उत्सव पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल।
असम में मकर संक्रान्ति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। उत्सव का पहला दिन उरुका कहलाता है। रात्रि में सामूहिक भोज होता है जिसमें नए अन्न का प्रयोग करते हैं और तिलपीठा बनाते हैं।
गोरखपुर उत्तर प्रदेश गोरखनाथ मंदिर में गुरु गोरक्षनाथ को खिचड़ी (चावल-दाल, उड़द) चढ़ाकर अपनी आस्था व श्रद्धा निवेदित करते हैं।
रामचरित् मानस के बालकाण्ड में श्री राम के पतंग उड़ाने का वर्णन है- 'राम इक दिन चंग उड़ाई, इन्द्र लोक में पहुंची जाई।' बड़ा ही रोचक प्रसंग है। पंपापुर से हनुमान जी को बुलवाया गया था, तब हनुमान जी बाल रूप में थे। जब वे आए, तब 'मकर संक्रांति' का पर्व था, संभवतः इसीलिए भारत के अनेक नगरों में मकर संक्रांति को पतंग उड़ाने की परम्परा है।राजस्थान व् गुजरात में इस दिन पतंग उड़ाने की परम्परा है। अहमदाबाद में गुजरात पर्यटन विभाग द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पतंगोत्सव का आयोजन किया जाता है।
हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व 13 जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है।
भारत के ज्यादातर हिस्सों में इसे मकर संक्रांति, खिचड़ी, या पोंगल के नाम से मनाया जाता है तो तमिलनाडु में ताइ पोंगल, उझवर तिरुनल , गुजरात मे उत्तरायण ,हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में माघी व लोहड़ी , असम में भोगाली बिहु, कश्मीर घाटी में शिशुर सेंक्रात, पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति, कर्नाटक में मकर संक्रमण के नाम से मनाया जाता है।
भारत के बाहर विश्व के अन्य हिस्सों जैसे बांग्लादेश में शाकरैं या पौष संक्रान्ति, नेपाल में माघे संक्रान्ति या 'माघी संक्रान्ति' 'खिचड़ी संक्रान्ति', थाईलैण्ड में सोंगकरन, लाओस में पिमालाओ, म्यांमार में थिंयान, कम्बोडिया में मोहा संगक्रान, श्रीलंका में पोंगल, उझवर तिरुनल के नाम से मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।

मकर संक्रांति का मानव स्वास्थ्य में महत्व- 

यह समय सर्दी का होता है और इस मौसम में सुबह का सूर्य प्रकाश शरीर के लिए स्वास्थ्य वर्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। 
आयुर्वेद में तिल को कफ नाशक, पुष्टिवर्धक और तीव्र असर कारक औषधि के रूप में जाना जाता है। यह स्वभाव से गर्म होता है इसलिए इसे सर्दियों में मिठाई के रूप में खाया जाता है। इसमे पर्याप्त मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट, मिनरल्स पाए जाते हैं जो कोलेस्ट्रॉल की मात्रा , ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करते हैं,  साथ ही कार्टिसोल हार्मोन की मात्रा को भी संतुलित करते हैं।
गजक, रेवड़ियां और लड्डू शीतऋतु में ऊष्मा प्रदान करते हैं।
समाजिक समरसता का सन्देश देती मकर संक्रांति -
मकर संक्रांति के दिन तिल गुड़ और खिचड़ी भोज की परंपरा के पीछे जो आध्यात्मिक कारण है वह सामाजिक समरसता और समता भाव का सहज और सर्वोच्च उदाहरण है। जैसे तिल गुड़ मिलाकर लड्डू की मिठास भी देते है और हृदय व रक्त परिसंचरण तंत्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक हैं वैसे ही समाज का प्रत्येक वर्ग मिलकर साथ रहे तो समाज मे मिठास रहेगी और संगठित प्रगतिशील समाज का निर्माण हो सकेगा। ऐसे ही जिसप्रकार तमाम अनाज सब्जियां अनिश्चित अनुपात में भी मिश्रित होने पर भी स्वादिष्ट सर्वग्राही सुपाच्य व्यंजन खिचड़ी के रूप में पकती है वैसे ही समाज का प्रत्येक वर्ग यदि मिलकर एकसाथ समाज निर्माण में अपना योगदान करने लगे तो निर्मित समाज आदर्श कल्पना का साकार स्वरूप होगा। जहां अश्पृश्यता, ऊंच नीच, विषमता का कोई भाव न होगा, सभी में अपनी योग्यता क्षमता के अनुरूप समाज निर्माण में अपना योगदान करने की सुमति का विकास होगा जिससे समाज व राष्ट्र दोनों की उन्नति होगी। धन्य है पावन भारतभूमि जहां की आध्यात्मिक जीवनशैली में बहुलता विविधता के सापेक्ष अंतरनिहित समतावादी विश्व बंधुत्व का इतना  सहज दर्शन पर्व की परंपरा में जोड़कर हमारे पूर्वजों ने प्रदान कर दिया है , हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपनी परम्पराओं आस्थाओं और संस्कृति की गूढ़ता, गौरव, और महत्ता को पढ़े, जाने, समझें और स्वीकारें।


डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
सहसचिव -आरोग्य भारती अवध प्रान्त
महासचिव -होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ