चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Friday, 20 August 2021

पोस्ट कोविड लक्षणो की पहचान व स्वास्थ्य की देखभाल आवश्यक

कोरोना महामारी ने सभी को आहत किया किन्तु इसकी तीसरी लहर बच्चों के लिए ज्यादा खतरनाक होने के अंदेशे ने चिकित्साजगत व सरकारों की चिंता बढ़ा दी है यद्यपि भारत सरकार ने लगातार जरूरी संसाधनों की तैयारी करनी शुरू कर दी है किंतु दूसरी लहर की भयावहता देखने के बाद भी आमजनमानस में छूट मिलते ही फिजिकल डिस्टेंसिंग, मास्क व हैंड सैनेटीजेशन जैसी जरुरी सावधानियों के प्रति लापरवाही देखी जा सकती है और जानबूझकर खतरे को आमंत्रित करने की यह प्रवृत्ति ही घातक हो सकती है।इतना ही नहीं बचने के लिए वैक्सीन लगवा चुके या कोरोना से ठीक हो चुके मरीजों के स्वास्थ्य को लेकर भी सावधानी बरतने की जरूरत है। सामान्यतः 2 से 3 सप्ताह में कोरोना ठीक हो रहे व्यक्तियों या बच्चों को पूरी तरह ठीक होने में 4-6 सप्ताह का समय लग सकता है यदि इस अवधि के बाद भी लक्षण दिखते हैं तो इसे लांग कोविड या पोस्ट कोविड सिंड्रोम कहते हैं। कोविड के लिए जिम्मेदार विषाणु सार्स कोव 2 शरीर मे एसीई रिसेप्टर के सम्पर्क में आकर अपनी गतिविधियां बढ़ा  पाता है, और यह रिसेप्टर श्वास नली, फेफड़ों, हृदय, एवं रक्त नलियों में ज्यादा पाए जाते हैं इसलिए कोरोना वायरस के इनसे संबंधित अंगों में ज्यादा नुकसान पहुँचाने के मामले संभव हैं। प्रभावित व्यक्ति में कोविड लक्षणो की तीव्रता या डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, किडनी, अथवा हृदय रोग पहले से है तो ऐसे कोमॉर्बीडिटी कॉम्प्लेक्स के साथ स्वास्थ्य का ख्याल रखने में ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।  प्रभावित होने पर आइसोलेशन या उपचार के बाद व्यक्ति को बीमारी व जीवन के संकट के सदमे से उबरने में लगने वाला 3-4 सप्ताह का समय रिकवरी पीरियड कहलाता है किन्तु इसके बाद भी यदि अचानक तेज बुखार, दस्त, सांस लेने में दिक्कत, हाथ पैरों में धब्बे या सूजन, सिरदर्द, उल्टियां , धड़कन, खांसी आदि में से कोई भी लक्षण दिखें तो अविलम्ब अपने चिकित्सक से मिलकर उन्हें अपनी पूरी केस हिस्ट्री व वर्तमान लक्षणो से अवगत कराएं जिससे वह आवश्यक विश्लेषण कर उचित जांच करा सकें और आपको सही उपचार पद्धति का मार्गदर्शन कर सकते हैं।यहां पर एक बात महत्वपूर्ण है कि पोस्ट कोविड या लांग कोविड सिंड्रोम में उन्ही अंगों के लक्षणों की प्रभाविता अधिक संभावित होती है जिनसे संबंधित लक्षण रहे हैं।

क्या हो सकते हैं लक्षण ?

 कोविड से प्रभावित व्यक्ति में न्यूरोसाइकियाट्रिक विकारों में मस्तिष्क विकार, स्वाद, सुगंध का ह्रास, मस्तिष्कावरण सम्बन्धी विकार हो सकते हैं जिससे लंबी अवधि के बाद भी चक्कर आना, मूड परिवर्तन, नींद अधिक आना या नहीं आना, थकान, सोंचने समझने निर्णय की क्षमता में कमी हो सकती है। इसी प्रकार न्यूमोनिया जैसे लक्षणो के बाद ठीक होने पर भी श्वास कष्ट, व खांसी बनी रह सकती है, सीने में दर्द, धड़कन, किडनी रोग, लिवर कमजोर होने से पाचन सम्बन्धी विकार, मांसपेशियों हड्डियों जोड़ों की कमजोरी, दर्द ,थकान, व क्षय, व बालों का लगातार झड़ना महत्वपूर्ण लक्षण दिखते हैं। एसीई रिसेप्टर व कोरोना वायरस के कारण रक्त वाहिकाओं की आंतरिक दीवारों में क्षति से रक्त के थक्के बन जाते हैं इसे थ्रैम्बोसिस कहते हैं यदि यह एक ही जगह बढ़ता गया तो रक्त प्रवाह को बाधित कर सकता है, और यदि बड़ी नलियों से तैरने लगे तो एम्बोलाई कहलाता है , इस प्रकार हृदय, मस्तिष्क या फेफड़े की पतली निलियों में पहुँच कर वहां की रक्त आपूर्ति को बाधित कर अकस्मात स्थिति उतपन्न कर सकता है। अतः रिकवरी पीरियड में ठीक होने के बाद भी स्वास्थ्य को लेकर सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
इसलिए हमें किसी तरह की अन्य क्रॉनिक बीमारियों के साथ  कोविड से ठीक हुए रोगी व्यक्ति की घर पर नियमित ब्लड प्रेशर, सुगर, ऑक्सीजन लेवल मापते रहना चाहिए और शरीर के किसी भाग या अंग में भारीपन, सांस में कष्ट, धड़कन,सीने में दर्द अथवा लंबी खांसी बनी रहे तो चिकित्सकीय परामर्श अवश्य लेना चाहिए जिससे अकस्मात हो सकने वाली फेफड़ों में जमाव, फाइब्रोसिस, हर्ट अटैक, हर्ट फेल्योर, की संभावनाओं का आकलन करते हुए चिकित्सक आवश्यकतानुरूप कम्प्लीट हीमोग्राम, लिवर फंक्शन, रीनल फंक्शन, यूरिन, इलेक्ट्रोलाइट, सी आर पी, फेरेटिन, डी-डाइमर, ईसीजी, सीने का एक्स रे, आदि की जांच कर उचित चिकित्सकीय प्रबंधन एवं उपचार तय कर सकें।तेज बुखार, खांसी आदि के लाक्षणिक उपचार के साथआकस्मिक व द्वितीयक संक्रमण से बचाव एवं उपचार की व्यवस्था कर सकें। 

इन सभी के साथ परिवार के सदस्यों को चाहिए कि आइसोलेशन के एकांतजनित मनःस्थिति को अपने आत्मीय, सद्भावनापूर्ण व्यवहार उन्हें जीवन के प्रति आशा , सकारात्मकता का  चिंतन विकसित करने में सहयोगी बनें।अनावश्यक मानसिक शारीरिक श्रम से बचें, पौष्टिक प्रोटीनयुक्त संतुलित आहार लें,नियमित पैदल चलें और पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ पानी का सेवन अवश्य करें जिससे रक्त संचार अच्छा बना रहे । ताजे मौसमी फल, दालें, दूध , भोजन में सम्मिलित करें। घर मे स्वच्छता पवित्रता  रखें, औषधीय पौधों की लकड़ियों से धूपन, करें, पौधरोपण  श्रम, मानसिक शांति व पर्यावरण में योगदान का लाभ देता है। प्राणायाम योगासन सूर्य नमस्कार से शरीर के सभी अंगों की क्रियाविधि व प्राणि ऊर्जा संतुलित होती है।
होम्योपैथी में क्या हैं संभावनाएं

होम्योपैथी प्राचीन भारत के आयुर्वेद में वर्णित प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धांत समं समे शमयति पर विकसित है , औषधीय स्रोत समान होने पर शक्तिकरण के सिद्धांत  प्रयोग से अधिक सहज व उपयोगी भी है।भारतीय सांस्कृतिक जीवनशैली की निकटता के कारण भी भारत मे सर्वाधिक विश्वसनीय व ग्राह्य चिकित्सा पद्धति है। बीते काल मे हुए अध्ययनों में सामने आया है कि होम्योपैथी का उपयोग करने वाले 82 % मामलों में लोग कोरोना से सुरक्षित रहे या प्रभावित होने पर उनकी रिकवरी बहुत अच्छी हुई।
विषाणुजनित तमाम संक्रामक रोग जैसे जे ई, चिकनगुनिया, डेंगू, मस्से, चेचक आदि की रोकथाम व उपचार में सबसे ज्यादा उपयोगी सिद्ध हुई है।
इस पद्धति से उपचार में शारीरिक लक्षणो के साथ मानसिक लक्षणो की होलिस्टिक एप्रोच को महत्व दिया जाता है। कुशल होम्योपैथी चिकित्सक पोस्ट कोविड लक्षणो दर्द,सीआरपी, डी डाइमर बढ़ने पर बेलाडोना, अर्निका, सार्कोलैक्टिक एसिड, लगातार दस्त, उल्टी आदि होने पर कार्बोलिक एसिड, आर्सेनिक, श्वास कष्ट खांसी बने रहने पर ,पिक्स लिक्विडा, सोरिनम, पल्मो वलपिस, लौरेसेरेसस, एस्पीडोस्पेर्मा,बीमारी के बाद की कमजोरी  कर्बोवेज, चाइना, लथाइरस, ट्यूबरकुलीनम,नर्वस कमजोरी के लिए काली फास, अवेना,हृदय की दिक्कतों में आइबेरिस,एडोनिस, मैग म्यूर,मांसपेशीय कमजोरी शिथिलता, दर्द, बुखार आदि में चिनियम अर्स, नैट आर्स आदि दवाओं का प्रयोग कर सकते हैं। किंतु होम्योपैथी में औषधि एवं उसकी शक्ति का निर्धारण व्यक्तिगत लक्षणो के आकलन के आधार पर केवल चिकित्सक ही कर सकता है ,और वैसे भी किसी पद्धति में चिकित्सा सदैव कुशल प्रशिक्षित चिकित्सक की देख रेख में ही करनी चाहिए। 

सोसल मीडिया का प्रयोग जानकारी तक सीमित करें उपचार योग्य चिकित्सक से ही कराएं

संचार युग मे तमाम जानकारियों को जागरूकता हेतु ही ग्रहण करना चाहिए, विश्वास से पहले उनकी विषयवस्तु की प्रामाणिकता पुष्ट कर लेनी चाहिए। ऐसे में बहुत से अप्रशिक्षित लोग जल्दी लाभ देने के दावे के साथ अनुपयुक्त तरीके से कई पद्धतियों की दवाईयों व प्रतिबंधित स्टेरॉयड आदि का मिश्रण कर देते हैं जिससे संभव है कभी तुरंत लाभ दिखे किन्तु इसके दूरगामी व नुकसानदायक परिणाम भी हो सकते हैं,यह आपके शरीर की इम्युनिटी को ज्यादा ज्यादा नुकसान पहुँचाता है। अतः ऐसे अप्रशिक्षित प्रयोगधर्मी व आपदा में अवसर तलाशने वाली प्रवृत्ति की मानसिकता के लोगों से भी सतर्क सावधान रहना चाहिए। चिकित्सा के क्षेत्र में बढ़चढ़कर दावे नहीं किये जा सकते क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में संभावनाए अलग होती हैं अतः समय के साथ हमे जागरूकता, प्रचार, व दावे के अंतर को भी समझना चाहिए व अपने व परिवार के स्वास्थ्य के लिए योग्य प्रशिक्षित चिकित्सक से ही परामर्श लेना चाहिए जिससे हमें इस बात की भी सही जानकारी हो सके कि किन मामलों में हमे दवा का सेवन करना है अथवा किन स्थितियों में जीवनशैली का नियमन, क्योंकि प्रत्येक स्थिति में दवा का अंधाधुंध प्रयोग नहीं करना चाहिए।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी फ़ॉर ऑल
अयोध्या

Monday, 2 August 2021

स्वर्णिम स्वस्थ बचपन के लिए स्वर्ण प्राशन

 भारतीय ऋषि परम्परा और आयुर्वेद का वरदान



कोरोना महामारी काल अर्थात वर्तमान पीढ़ी के समक्ष मानव जीवन के लिए ऐसे संकट का समय जिसके कारण और निवारण की खोज में विज्ञान किसी निष्कर्ष तक पहुँच रहा होता है तब तक इसका नया स्वरूप एक नई चुनौती खड़ी कर देता है, यूं लगता है जैसे यह सब  मानव और प्रकृति के मध्य कोई रहस्यमयी गुत्थी सुलझाने की प्रतियोगिता सी चल रही हो।

पृथ्वी पर प्रकृति और मानव जीवन स्वयं सबसे बड़ा रहस्य रहा है, जिसके उद्घाटन में मनुष्य अपनी उत्पत्ति काल से ही लगा हुआ है। इतिहास साक्षी है कि भारत में ऋषि मनीषियों गुरुकुल और आश्रमों की परंपरा रही है जहां शास्त्र, शस्त्र  आदि सभी विषयों पर अध्ययन शोध अनुसंधान हुआ करते थे जैसे आज वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में करते हैं। किन्तु उन्होंने तत्कालीन देश काल ,परिस्थितियों ,संसाधनों और वातावरण में मानव के विकास, ज्ञान ,अध्ययन और प्रकृति के अनुरूप अपने अनुसंधानों को केवल ग्रन्थ लेखन की उपलब्धि मात्र नही बनाया अपितु उन्हें मानव मात्र के कल्याण में उपयोगी सिद्ध होने पर जीवन के नियमों, संस्कारों और परम्पराओं से जोड़ कर जीवनशैली बना दिया, जिससे अध्ययन न होने पर भी रीति रिवाज और कुल धर्म की परंपरा मानकर लोग उनका पालन करते और स्वस्थ रहते। संभवतः यही कारण है कि पौराणिक कालखंड में रोगमुक्त समाज या दैहिक दैविक भौतिक ताप मुक्त राज्यों का वर्णन आता है।
वर्तमान कोरोना कालखण्ड में जब कोई बचाव या उपचार का कोई एक प्रामाणिक और निश्चित उपाय नहीं है तो ऐसे में प्राकृतिक सिद्धांतो पर आधारित भारतीय स्वस्थ जीवनशैली, रोगी होकर उपचार खोजने की बजाय रोग से पूर्व ही रोगाणुओ से लड़ने की क्षमता विकसित कर रोगों से बचाव का सर्वोत्तम साधन सिद्ध हुई है। क्योंकि भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक और घनी जनसंख्या वाला देश है , संसाधन भी सीमित हैं ऐसे में विश्व के अन्य देशों के सापेक्ष यहां स्वास्थ्य की हानि विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में कम ही कही जानी चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण हमारी परम्परागत जीवनपद्धति ही है।
विज्ञान तो संभावनाओं पर अध्ययन और शोध का विषय है अतः पौराणिक दृष्टांतो, परम्पराओं तथ्यों आदि सभी को कपोल कल्पना मानकर त्याज्य मानने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए फिर जो तर्क दर्शन विज्ञान की कसौटी पर सिद्ध हों उन्हें ग्रहण कर त्याज्य को सहज त्याग देना ही उचित है।  
 भारतीय प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित जीवन से सम्बन्धित ज्ञान' को ही  आयुर्विज्ञान कहा गया जिसे हम भारतीय आयुर्वेद भी कहते हैं वस्तुतः भारतीय आध्यात्म स्वयं में चिकित्सा, विज्ञान, कला और दर्शन का एकात्मरूप है।आज आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।

जिस प्रकार आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में रोगों से बचने के लिए इम्यूनाईजेशन  किया जाता है उसी प्रकार  भारतीय आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ण प्राशन एक महत्वपूर्ण उपयोगी संस्कार विधि है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "सोना चटाना" जो बच्चों में किये जाने वाले 16 संस्कारों में से स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण संस्कार है ।  हमारे देश मे बच्चे के जन्म के बाद सबसे पहले जीभ पर चांदी या सोने की सलाई से ॐ  लिखने की परंपरा रही है जिसका पालन आज भी कई जगह किया जाता है किन्तु समय के साथ आधुनिकता के अंधानुकरण ने इस संस्कार को अंधविश्वास की श्रेणी में धकेलकर त्याज्य मान लिया है।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन राजस्थान आयुर्वेद विवि के कुलपति डॉ. राधेश्याम शर्मा ने एक सम्बोधन में बताया है कि स्वर्णप्राशन संस्कार का उल्लेख कश्यप संहिता और सुश्रुत संहिता में मिलता है। 
सुवर्णप्राशनम ह्येतन्मेधाग्निबलवर्धनम।
आयुष्यम मङ्गलं पुण्यं वृष्यम वर्ण्यं ग्रह्यहम।।
मासात परम मेधावी व्याधिर्भिनं च धृष्यते।
षड्भिमासै श्रृतधरः सुवर्ण प्राशनाद्भवेत।
(का.सं. सू. लेहनाध्याय)
इसी श्लोक को किसी आयुर्वेदाचार्य ने काव्य में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है- 
यदि स्वर्ण सेवन करे, जठराग्नि बल मेधा बढ़े,
आयुष्य मङ्गल पुण्य बढ़, ग्रह दोष हर, तन द्युति बढ़े।
यदि मास भर सेवन करें तो व्याधियां सारी हरे।
छः मास तक सेवन करे तो वेदज्ञ बन विचरण करे।


क्यों लाभकारी है स्वर्ण प्राशन 

सुविधा के लिए हम इसे बालक में रोग होने पूर्व स्वस्थ रखने का एक आयुर्वेदिक टीकाकरण मान या कह सकते है। आयुर्वेदिक विशेषज्ञ बताते हैं इस संस्कार से बच्चों में स्मृति बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र होती है, बालक में रोगों से लड़ने की क्षमता का विकास होता है, जिससे शिशु को विभिन्न प्रकार के संक्रमण जैसे जीवाणु विषाणु जनित रोगों से बचाया जा सकता है अथवा प्रभावित होने पर रोग की तीव्रता व कालावधि को कम किया जा सकता है।भूख बढाकर पाचन तंत्र को ठीक करता है जिससे शिशु शारीरिक रूप से मजबूत, स्वस्थ व दीर्घायु होता है।बच्चों के रंग रूप में भी निखार आता है, त्वचा कांतिवान व सुंदर बनती है। नियमित प्राशन से बच्चों में एलर्जी के कारण होने वाले सर्दी, जुकाम, खांसी,दमा, खुजली जैसी समस्याएं कम या नहीं होती हैं।
विषय विशेषज्ञों द्वारा इस विषय मे किए गए अध्ययन व शोध में प्रकाश में आया है कि सोने में क्रोनिक डिसऑर्डर यानी पुरानी गंभीर बीमारियों जैसे हृदय रोग को ठीक करने का गुण होता है। हृदय की पेशियों को शक्ति मिलती है और शरीर मे रक्त संचरण सरलता से होता है।
 स्वर्णप्राशन का मस्तिष्क व आंखों के विकास में विशेष महत्व है। स्वर्ण भस्म में एंटीऑक्सीडेंट गुण पाए जाते हैं। मस्तिष्क से कैटेकोलामाइन  नामक हार्मोन निकलता है, जो तनाव की एक स्थिति को कम कर सकता है ।क्योंकि इसे गाय के घी में मिलाकर देते हैं जिसमे विद्यमान डीएचए और ओमेगा थ्री फैट्टी एसिड विकसित हो रहे मस्तिष्क और आंखों की रेटिनल ऊतकों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। 
 एक अध्ययन में पाया गया स्वर्ण भस्म को पुनर्नवा के साथ लिया जाने पर आंखों के लिए अच्छे परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
स्वर्णप्राशन का उपयोग विकृतियों को ठीक कर बीमार या विकृत कोशिकाओं को पुन: सक्रिय एवं जीवंतता प्रदान करता है। शरीर में विकृति स्वरूप ट्यूमर इत्यादि की सेल्स को नष्ट करने सक्षम है अतः कैंसर आदि रोगों से भी बचाता है।  शरीर में अनेक प्रकार के विषैले पदार्थों को दूर करता है। सूजन की प्रक्रिया को रोकता है। पेम्फिगस  त्वचा रोग की स्थिति में स्वर्ण भस्म का उपयोग सूजन को कम कर सकता हैं । केसर के साथ स्वर्ण भस्म का उपयोग करने पर त्वचा का रंग बेहतर हो सकता है।साथ ही शहद और घी शरीर में रोगाणुओं से लडऩे के लिए शरीर में एंटीबॉडीज की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करते हैं इस प्रकार यह रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
 महाराष्ट्र में हजारों बच्चों पर स्वर्ण प्राशन प्रयोग शोध के रूप में किये जाने पर अन्य बच्चों की तुलना में  स्वास्थ्य व गुणों में आपेक्षित परिणाम अत्यंत सकारात्मक थे। आरोग्य भारती अवध प्रान्त के वैद्य अभय नारायण तिवारी की देखरेख में जेई संक्रमण काल मे गोरखपुर के एक गांव के लगभग 80 बच्चों को नियमित विधिपूर्वक स्वर्ण प्राशन कराया गया और वे सभी पूर्ण स्वस्थ रहे। 

कैसे तैयार किया जाता है स्वर्ण प्राशन
स्वर्ण प्राशन तैयार करने का निश्चित आयुर्वेदिक शास्त्रीय विधान है,  जिसमे निश्चित अनुपात व उचित मात्रा में शुद्ध स्वर्ण भस्म को अन्य औषधियों के साथ मंत्रों से संस्कारित किया जाता है।
इसमें  बलघृत बलवर्धन के लिए, केसर व जटामांसी कफनाशन,शहद मलशुद्धि, सुवर्ण स्वर्ण भस्म शारीरिक कांति ,वचा वाणी शुद्धि, कुष्ठ वर्ण कांति, गुडूची रोग प्रतिकारक, खदिर स्वर सुंदरता, सरसव वायरल सुरक्षा, शारिबा पित्त शामक, तेज श्रवण, शंखपुष्पी प्रसन्न मन,ब्राह्मी एकाग्रता व स्मृति, देसी गाय का घी स्नेह पवित्रता के गुणों के विकास हेतु उचित अनुपात में पद्धति के अनुसार अवलेह के रूप मे तैयार किया जाता है।
कैसे और कब कराया जाता है स्वर्ण प्राशन

आयुर्वेद के जानकार बताते है जन्म से लेकर 16 वर्ष तक की आयु के बच्चों में स्वर्ण प्राशन संस्कार किया जाता है, यद्यपि इससे अधिक आयु वर्ग में भी किया जा सकता है। बच्चों के 90 प्रतिशत मस्तिष्क का विकास 5 वर्ष तक की आयु में हो जाता है अतः बचपन मे ही सुवर्ण प्राशन कराया जाना उचित है।

 यह संस्कार प्रत्येक पुष्य नक्षत्र, में कराए जाने का शास्त्रीय विधान  है इसमे भी रविपुष्य नक्षत्र तिथि को अधिक लाभप्रद माना गया है।
यह नक्षत्र माह में 27 दिन बाद आता है।माना जाता है कि इस नक्षत्र में सूर्य, स्वर्ण और प्रयोग की जाने वाली अन्य औषधियों का औषधीय गुण ज्यादा प्रभावी हो जाता है। वैसे इसे नियमित भी कराया जा सकता है।
 स्वर्ण प्राशन योग्य आयुर्वेद चिकित्सक की देख रेख में अथवा उनके मार्गदर्शन में विधि जानकर माताएं घर मे भी नियमित करवा सकती हैं। इसके लिए प्रातः सूर्योदय से पूर्व की वेला में घर मे पवित्र आध्यात्मिक वातावरण में  बैठकर देवी देवताओं को धूप दीप करने के बाद बच्चे का मुख पूर्व दिशा की तरफ करके माता द्वारा चिकित्सक द्वारा बताए गए मंत्रोच्चार अथवा गायत्री मंत्र के साथ आयु के अनुरूप निश्चित खुराक का सेवन बच्चों को कराना चाहिए। 
स्वर्ण भस्म का उपयोग दूध के साथ , शहद में मिलाकर, गाय के घी अथवा च्यवनप्राश के साथ कर सकते हैं। 

सेवन में सावधानियां

प्राशन कराने से आधा घण्टे पहले व बाद में कुछ खाना पीना नहीं चाहिए। स्वर्ण प्राशन में शहद का उपयोग होता है इसलिये फ्रिज में नहीं रखना चाहिए।
प्रयोग में स्वर्ण भस्म की शुद्धि, मात्रा व प्रयोग का तरीका सही होना चाहिए अन्यथा अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकेगा।
स्वर्ण प्राशन अवलेह या ड्राप योग्य कुशल प्रशिक्षित आयुर्वेद चिकित्सक के ही मार्गदर्शन में पूर्ण संस्कारित विधि से बनाया जा सकता है, इसे किसी भी समय प्रयोग नही किया जाना चाहिए , अतः अपेक्षित लाभ के लिए नियमपूर्वक ही प्रयोग करना चाहिए।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
सह सचिव -आरोग्य भारती अवध प्रान्त