विजयदशमी पर्व : अपने अंदर की छद्मभेषी प्रवृत्ति को पहचानने, स्वीकारने और उसपर विजय प्राप्त करने की आवश्यकता
श्रीकृष्ण को मारने के लिए कंस ने अपने न जाने कितने सैनिक, राक्षसों को भेजा , शुम्भ, निशुम्भ, मधु कैटभ, रक्तबीज, दुर्ग, महिषासुर और न जाने कितने ही राक्षसों ने माता के भिन्न स्वरूपों को खंडित करने के प्रयास किये, श्रीराम व माता सीता पर रावण व उनके सैनिकों के संघर्ष व उनका परिणाम आज इस पर्व के मूल सन्देश के स्वरूप में हमारे समक्ष है, जिसे ग्रहण करने की आवश्यकता है।
सभी नकारात्मकताओं में एक सामान्य समानता है उनका छद्मभेषी स्वभाव जिसने तात्क्षणिक आकर्षण में अच्छे अच्छे विवेकशील योद्धाओं को भ्रमित कर उन्हें सत्य का विपरीत चित्रण किया। सभी छद्मभेषियों में एक और समानता रही उनके सत्य के उद्घाटित होने का भय और इससे अपनी कूटरचित आडम्बरी मान प्रतिष्ठा के खो जाने का भय,इस कारण वे सदैव सत्य स्वरूपों को नष्ट करने हेतु विरुद्ध छिपकर लगातार षड्यंत्र करते रहते।
वह सदैव भयाक्रांत होने के कारण ही आक्रामक रहे और दूसरी तरफ सत्य भगवान के सभी अवतार शान्त चित्त अपनी वृत्ति में लगे रहे , और अंत मे सभी असत्य स्वरूपों का विनाश उनके ही अहंकार ने कर डाला।
चाहे वह महाज्ञानी रावण रहा हो, या महातपस्वी महिषासुर अथवा कंस , सभी ने अपने तप से इच्छित राज्य पद अर्जित किये किन्तु उनकी अभिलाषाओं पर उनका नियंत्रण नहीं रह , अपनी शक्तियों के अहंकार और दुर्बुद्धि के प्रभाव में सभी ने अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित कर लिया।
एक समय था सतयुग जब यह सत्य असत्य का युद्ध दो अलग लोकों में हुआ फिर त्रेता में विश्व के दो अलग देशों या राज्यों अयोध्या के राजा राम व लंका के राजा रावण के मध्य, फिर द्वापर में एक ही राज्य एक ही परिवार में महाभारत के रूप में आया किन्तु आज कलियुग में यह युद्ध हमारे अंदर ही सत्य व असत्य के द्वंद का बन गया है।
यह विजयदशमी पर्व हमारे अंदर ज्ञान विवेक का चेतन प्रकाश विद्यमान करे जिससे हम प्रकृति मानव से प्रेम करना सीखें, विद्वैष, व अन्य नकारात्मकताओं पर विजय प्राप्त कर सकें।
हम सत्य का वरण करने का हेतु अपने अंदर की छद्मभेषी प्रवृत्ति को पहचानने, उसे स्वीकार कर उसका त्याग करने का साहस कर सकें तो यह विजयदशमी पर्व हमारे लिए हमारे समाज सम्बन्धों व राष्ट्र के लिए भी परिणामकारी होगा।
#डा_उपेन्द्रमणि_त्रिपाठी










