चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Monday, 19 September 2022

लम्पी त्वचा रोग से पीड़ित गौमाता की सेवा में होम्योपैथी


लम्पी वायरस त्वचा रोग और होम्योपैथी की संभावनाएं


प्रकृति और जीवन के यथार्थ व  रहस्यों का परिचय समय के साथ नित नए रूप में मिलता रहता है। कुछ समय पूर्व तक कोरोना वायरस जनित कोविड महामारी से विश्व मानवता अभी उबर ही रही थी कि एक और वायरस ने हमारे मवेशियों में लम्पी त्वचा रोग का प्रसार कर जीवन का संकट उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया।
 पालतू पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेंड़, बकरियों में विषाणु जनित एक संक्रामक त्वचा रोग जिसमे पशुओं की त्वचा पर गोटियां या ढेलेदार गांठे ; जिन्हें लम्प कहते हैं, के रूप में प्रदर्शित होने के कारण इसे लम्पी स्किन डिसीज या एलएसडी कहा जाता है। इसका कोई विशिष्ट उपचार अभी ज्ञात नहीं है, और  आनुपचारित रह जाने पर पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है। 

विश्व मे सबसे पहले 1929 में जाम्बिया में इस तरह के रोग की पहचान हुई,और इसके बाद यह समाप्त सा हो गया था। 1957 में केन्या में भेड़ो में पुनः इस तरह के रोग की पहचान हुई जिसके  बाद दक्षिण अफ्रीका , इजरायल आदि देशों में भी इसके मामले पहचान में आये। भारत मे 2019 में पहली बार इस रोग का प्रवेश हुआ। वर्तमान में गुजरात राजस्थान सहित देश के अनेक राज्यों में लम्पी त्वचारोग से गौ माताओं व अन्य पशुओं के प्रभावित होने के समाचार तमाम मीडिया माध्यमों से मिलने लगे हैं।  यद्यपि संक्रमण होने से पूर्व ही वैक्सीनेशन से बचाव संभव है किंतु संक्रमित पशु का भाषारहित होना और ऐसे में उपचार प्रबंधन यदि सही समय पर न हुआ तो यह उसके जीवन का संकट तो उत्पन्न ही करता है साथ ही पशुधन के नुकसान से,इससे जुड़ी देश प्रदेश की अर्थ व्यवस्था के लिए भी चिंता का विषय बन जाता है। नवजात शिशु की तरह मनुष्यों के लिए पशुओं की भाषा से विषमता, उनकी  पीड़ा की अभिव्यक्ति, और हमारी अनुभूति के अंतर व सामंजस्य पर ही नैदानिक संभावना की तलाश भी बड़ा विषय है।

लम्पी त्वचा रोग : कारण, और रोग की उत्पत्ति

हम सभी विषाणु रोग चिकन पॉक्स, स्माल पॉक्स, कॉऊपॉक्स, मोलस्कम कंटाजियोसम , मंकी पॉक्स आदि से परिचित हैं या इनके बारे में कुछ सुना पढा अवश्य होगा,उपलब्ध जानकारी के अनुसार  इसी परिवार- पॉक्सविरिडी, का एक सदस्य जिसे कैप्रिपॉक्स या नीथलिंग विषाणु कहते हैं, इस गाँठयुक्त त्वचा रोग का कारण है।

 विषाणु से कैसे पनपता है रोग ?

मनुष्य हो या पशु , त्वचा सभी के शरीर का सबसे बड़ा अंग और बाहरी आवरण है जिसकी बाहरी परत किरेटिन प्रोटीन की होती है, साथ ही इसमे कम पीएच, व फैटी एसिड , प्रतिरक्षा के अन्य घटक  त्वचा की अखंडता बनाये रखते हुए किसी भी बाहरी जीवाणु , विषाणु के शरीर मे प्रवेश को रोकते हैं। हल्का फुल्का घर्षण या छिलने से जब त्वचा की यह अखंडता भंग होती है तो संक्रमण की स्थानीय संभावना बन जाती है। किंतु रक्त चूसने वाले कीट पतंगे मक्खी,मच्छर  जो त्वचा को डर्मिस या सबक्यूटिस स्तर तक भेद पाते हैं, जहां रक्त व लसिका की समृद्ध आपूर्ति होती है, तो यह विषाणु के प्रसार मार्ग के रूप में कार्य करती है, और ये कीट संक्रमण के संवाहक की भूमिका निभाते हैं।
गर्मी के मौसम में जब अत्यधिक ताप से पसीना हो या वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आ रही हो तो मौसम की आर्द्रता वाली जलवायु, एवं  पानी गंदगी  का ठहराव वाली जगह जहां मच्छर मक्खी जैसे रक्त चूसने वाले कीट पैदा होते हैं यह काल और वातावरण संक्रमण के प्रसार के लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है।

 अनुकूल गंदगी व जलभराव से पनपे यह मच्छर या कीट किसी संक्रमित पशु का रक्त चूसते है और संवाहक बन जाते हैं, फिर जब वे किसी स्वस्थ पशु को काटते हैं तो यह विषाणु उनकी त्वचा के सब्क्यूटेनियस स्तर में उपलब्ध रक्त व लसिका में प्रवेश पाकर अपनी संख्या बृद्धि करता है, उनके शरीर द्रव्यों से मिलकर उन्हें भी संक्रमणशील बना देता है, फिर किसी संवेदनशील पशु को इनका सम्पर्क आसानी से संक्रमित कर सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोग का प्रसार या तो मच्छर आदि कीट के काटने से अथवा संक्रमित पशु के शरीर द्रव्य जैसे लार, थूक, बलगम, मल, मूत्र , पसीने के माध्यम से भी संभव है।

क्या होते हैं लक्षण 

किसी पशु में विषाणु के प्रवेश के 7-10 दिनों बाद लक्षणों का दिखना शुरू होता है,अतः इसे इंक्यूबेशन पीरियड कहते है।
पशु चिकित्सा विशेषज्ञों से प्राप्त जानकारी के आधार पर
एक सप्ताह बाद जब शरीर मे विषाणुओं की पर्याप्त विषाक्तता हो जाती है तो पशु में सुस्ती, सिहरन दिखती है सम्भवतः उसे ठंडी भी लगती हो किन्तु तब उसे लगभग 106 डिग्री फारेनहाइट तक तेज बुखार आता है। जिससे उसका पूरा शरीर तपने लगता है, आंखें लाल सी ,आंख, नाक, मुंह से पानी जैसा स्राव दिखने लगता है। यह बुखार एक सप्ताह तक या अधिक समय तक लगातार अथवा रुक रुक कर आ सकता है। बुखार के समय उसकी प्यास बढ़ सकती है या नहीं हो सकती है।हो सकता है पूरे शरीर मे दर्द भी होता हो जो उसकी ऐंठन या सुस्ती से पहचाना जा सकता है। रक्त की यह विषाक्तता जब  लसिका नलियों में प्रवेश कर जाती है तो मुंह, गले, आगे पीछे के पैरों के पास की ग्रथियों में सूजन आ जाती है। शरीर की सभी म्यूकस मेंब्रेन पर सूजन अल्सर या घाव और लम्प से गाढ़ा स्राव यह महत्वपूर्ण लक्षण देखने को मिलते हैं।
इसी समय 7-15 दिनों बाद तक त्वचा पर बड़े छाले जैसे उद्भेद पनपते हैं जो बाद में कड़े हो जाते हैं, अथवा गोटियों की सूरत में दाने या गठानें उभर आती हैं। रोग की अवस्था बढ़ने के साथ इनमें पस भी बन सकता है और पीला पन लिए गाढ़ा मवाद भी, खंडित होकर त्वचा में अल्सर की संभावना हो सकती है। ऐसे ही आंख, नाक , मुह से होने वाला पनीला स्राव भी गाढ़ा पीवयुक्त, चिपकने वाला या कभी कभी सूतदार हो सकता है,जो सुबह आंखों में कीचड़ की तरह या नाक में जमी पपड़ी की तरह दिख सकता है। यदि जानवर अपनी पूछ से शरीर पर रगड़ता है या जीभ से अंगों व नाक को चाटता है तो यह संकेत दानों, छालों, या स्राव में खुजली होने का भी हो सकता है। पैरों में भी सूजन आ सकती है।
बुखार और ग्रन्थियों में सूजन के कारण चबाने व निगलने की दिक्कत के कारण भूख होने पर भी पशु चारा नहीं खा पता, अथवा उसकी भूख में कमी भी आ सकती है। यदि उपचार व देखरेख में पशु स्वस्थ भी हो गया तो त्वचा का यह विकार स्थायी विकृति के रूप में भी हो सकता है, उसकी दुग्ध उत्पादन व प्रजनन क्षमता में बहुत कमी आ जाती है, गर्भस्त पशु का गर्भपात भी हो सकता है।चलने में दिक्कत होती है।

इसी प्रकृति का एक और विषाणु जनित रोग जिसे स्यूडो लम्पी स्किन डिसीज के नाम से वर्गीकृत किया जाता है , जिसका संक्रमण काल 5-9 दिन होता है और इसमे पशु को हल्का बुखार, अचानक त्वचा पर दाने या गठानें उभर आती हैं।



बचाव -

संक्रमित पशु को सभी स्वस्थ पशुओं से एकदम अलग, साफ जगह पर रखना।
आस पास गंदगी व जलभराव नही हो। संक्रमण शरीर द्रव्यों के माध्यम से फैलता है इसलिए बछड़े को दूध न पिलाया जाय।
वैक्सीनेशन बचाव का संभव उपाय है, माता पशु के जरिये उसके बछड़े को भी कोलेस्ट्रम के साथ प्रथम 6-8  माह के लिए प्राकृतिक प्रतिरक्षा मिल सकती है।
यद्यपि मनुष्यों में तो इस वायरस का कोई प्रभाव अब तक नहीं देखा गया है फिर भी संक्रमित पशु से दूरी व दूध से बचना चाहिए।

उपचार -
किसी चिकित्सा पद्धति में एलएसडी का कोई विशिष्ट ज्ञात अथवा सर्वमान्य उपचार का ज्ञान अभी न होने से लाक्षणिक उपचार और प्रबंधन कर अपने पशु की पीड़ा को न्यूनतम करने और जीवन बचने का उपाय करते हैं।उपचार के लिए पशुचिकित्सक का मार्गदर्शन आवश्यक है।

होम्योपैथी में उपचार की संभावनाएं

 होम्योपैथी मानसिक व शारीरिक लक्षणों की समग्रता पर वैशिष्ट्य औषधि चयन कर उपचार की पद्धति है, इसलिए पशुओं में नवजात की भांति मानसिक व शारीरिक संकेतो के गहन आकलन के बाद ही कुशल प्रशिक्षित होम्योपैथी चिकित्सक ही सम्बंधित केस के लिए निर्दिष्ट औषधि का चयन कर सकते हैं। होम्योपैथी दवाएं सभी सजीवों पर समानरूप से व्यवहार करती हैं।  

अभी तक ज्ञात सामान्य लक्षणों के होम्योपैथिक वर्गीकरण के आधार पर एलएसडी के दो स्वरूप मिलने की संभावना है।पहला और सबसे अधिक प्रभावी कारण सोरा सिफिलिटिक मायज्म ,जिसमे रोगी पशु में छाले गठानों के बाद पक कर फूट जाते हैं अथवा दूसरा सोरा सायकोटिक मायज्म की मिश्रित प्रभाविता के लक्षण , जिसमे शरीर पर कड़ी गठानें मिलती हैं।

होम्योपैथी दृष्टि से उचित औषधि चयन में सहायक हो पाने वाला लक्षण समूह संभव हो सकता है

गर्मी व बरसात के मौसम में रोगजनकता,
बुखार के साथ आंख नाक मुंह की म्यूकस मेंब्रेन से गाढ़े या पानी जैसे स्राव की अधिकता,
बुखार के साथ दाने या गठानों की उत्पत्ति,
स्माल पॉक्स जैसे ज्वर और ग्रंथियों की सूजन ,

और उपरोक्त लक्षण समूह के आधार पर मर्करी समूह की औषधियां समस्त लक्षणों पर प्रभावी पाई जाती हैं। इनमें भी मर्क बिन आयोड पशुओं के अधिकांश लक्षणों को समर्थन करती है, इसके बाद मर्क साल, लैकेसिस, रस टॉक्स व हिपर सल्फ महत्वपूर्ण हैं।
 रोग की अलग अलग अवस्थाओं और लक्षणों की प्रभाविता के आधार पर भी यदि औषधियों का चयन करना हो तो पशुओं के लम्पी त्वचा रोग में संक्रमण की शुरुआती पहचान होते ही गांठे बन जाने पर काली आयोड , तेज बुखार, लसिका ग्रन्थियों की सूजन, मुंह, आंख, नाक से जलन युक्त पनीला स्राव व शरीर पर घाव हों तो मर्क साल,  शरीर पर गठानों के साथ नाक से गाढ़ा हरा पानी और घाव होने पर थूजा,नाक आंख,  बड़े लाल आधार वाले दाने व बुखार पर रस टॉक्स, दानों के आधार नीला या काला पन लिए हुए हों, चारा निगलने में तकलीफ तो लैकेसिस,  अचानक बुखार , लालिमा के साथ गठानों पर बेलाडोना,प्यास रहित तेज बुखार व पीलापन लिए मवाद वाली दानों की अवस्था मे पल्स, बड़े मवाद के घाव होने पर वैरियोलिनम, बीमारी के कारण मूत्र या अल्सर में दुर्गंध होने पर यूरेनियम नाइट्रिकम, घाव से दुर्गंध व पैरों में सूजन होने पर नाइट्रिक एसिड, मवाद बनने पर स्पर्श की संवेदनशीलता होने पर हिपर सल्फ, घाव भरने व सूखने के लिए साइलीशिया,आदि दवाओं का कुशलतापूर्वक निर्देशन में स्वच्छता की उचित व आवश्यक सावधानियों के साथ प्रयोग किया जाय तो बहुत से पशुओं को जीवन के संकट से उबारने में होम्योपैथी मददगार साबित हो सकती है।यद्यपि होम्योपैथी दवाओं का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता फिर भी शीघ्र व सहज लाभ के लिए एवं  पशु हमारी तरह अपने लक्षणों व पीड़ा को व्यक्त नहीं कर सकते इसलिए भी उपचार के लिए किसी भी पद्धति को अपनाते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उचित औषधि उसकी शक्ति मात्रा या पुनरावरत्ति का निर्धारण चिकित्सक ही अपने कुशल ऑब्जर्वेशन के बाद कर सकता है अतः हमें मीडिया माध्यमों पर उपलब्ध जानकारी को जागरूकता के स्रोत के रूप में ही लेना चाहिए किन्तु अपने पशु की जीवनरक्षा के लिए उपचार चिकित्सक के ही मार्गदर्शन में करना श्रेयस्कर है।


डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथी चिकित्सक
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या

महासचिव-होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
सहसचिव -आरोग्य भारती अवध प्रान्त

Friday, 16 September 2022

दिल की बात, होम्योपैथी के साथ

हमारे शरीर मे मस्तिष्क और हृदय दो ऐसे अंग हैं जिनका निरन्तर क्रियाशील रहना हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। हृदय का मुख्य कार्य पूरे शरीर मे रक्त प्रवाह को बनाये रखना है, इसके लिए इसकी संरचना में चार कक्ष होते हैं दो अलिंद व दो निलय होते हैं। दाएं अलिंद में शरीर के अंगों से ,शिराओं के माध्यम से रक्त प्राप्त कर दाएं निलय में भेज दिया जाता है वहां से फेफड़ों में रक्त भेजकर उसमे ऑक्सीजन मिश्रित कर शुद्धि के बाद बाएं अलिंद में वापस लिया जाता है और बाएं निलय को भेज दिया जाता है वहां से धमनियों द्वारा शरीर के अन्य अंगों में भेजा जाता है।  इसी तरह हृदय की मांसपेशियों को कोरोनरी धमनियों द्वारा रक्तापूर्ति की जाती है जिससे उनकी क्रियाशीलता बनी रहती है। असामान्य परिस्थितियों में जब यह कार्य प्रभावित होता है तो हृदय रोग के लक्षण हृदयशूल, हृदयाघात प्रकट होने लगते हैं। विश्व सहित भारत मे हृदयाघात मृत्यु का दूसरा सबसे प्रमुख कारण है, जिससे प्रतिवर्ष 70000 से अधिक लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं।कोरोना महामारी के बाद हृदयाघात से होने वाली मृत्युदर में अचानक बृद्धि देखी जा सकती है। अब तो कम उम्र के बच्चों में भी ऐसी सूचनाएं मीडिया माध्यमों में पढ़ने सुनने को मिलने लगी हैं। इस लेख के माध्यम से हम सरलरूप में हृदय में होने वाली असामान्य परिस्थितियों के निर्माण और उनसे बचाव के तरीके व सम्भव उपाय उपचार को समझने का प्रयास करेंगे।

इस दृष्टि से सबसे पहले उन लक्षणों पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है जिनसे हम हृदयरोगी की सरलता से समय पर पहचान कर सकते हैं। जिनमे सबसे प्रमुख लक्षण है सीने में वक्ष अस्थि के थोड़ा सा बाई तरफ ह्र्दयस्थल में अचानक शुरू होने वाला तीव्र दर्द , जिससे व्यक्ति सांस लेने में भी कठिनाई अनुभव करता है, घबराहट, बेचैनी, व पसीने के साथ छाती पकड़ कर बैठ जाता है, ठीक से बोल भी नहीं पता, दर्द सीने से ऊपर की तरफ कंधों से होते हुए बाएं हाथ की दो उँगलियों , गर्दन और जबड़े तक महसूस होता है। इसके साथ छाती में जलन, भारीपन, उल्टी, चक्कर,  कमजोरी जैसे अन्य लक्षण भी मिल सकते हैं। यदि यह लक्षण किसी भी व्यक्ति में मिलें तो उसे अविलम्ब कुछ संभव जरूरी घरेलू उपायों के साथ चिकित्सकीय जांच व परामर्श के लिए ले जाना चाहिए।
हृदयाघात की उत्पन्न यह परिस्थिति अकस्मात भी हो सकती है अथवा क्रमिक विकास का परिणाम भी हो सकती है। जो हृदय की मांसपेशियों को रक्त संचार करने वाली कोरोनरी धमनियों में रक्त प्रवाह में आई बाधा से व्युत्पन्न ऑक्सीजन की कमी, जिसे इश्चीमिया कहते हैं ,के कारण संभव होता है। और रक्त प्रवाह में यह अवरोध उत्पन्न होंने का कारण नलियों में थक्के का निर्माण या जमाव होता है,जिससे रक्तनलियों की सामान्य लचक में भी कमी आती है , इसे धमनिकला काठिन्य रोग या आरटेरियोस्क्लेरोसिस एथिरोस्कलेरोसिस कहते हैं।  सामान्यतः रक्तनली में थक्का नहीं जम सकता यह उन्हीं स्थानों पर संभव हो पाता है जहां धमनियों में वसीय पदार्थ के व्युत्पन्न कलेस्ट्रॉल व अन्य पदार्थों के जमाव से सिकुड़न की स्थिति बन रही हो। 
धमनी कला काठिन्य रोग की प्रगति से धमनियां रक्त प्रवाह को सामान्य रूप से नियमित नहीं कर पाती हैं और सम्बंधित हृदय पेशियों को पर्याप्त मात्रा में पोषकतत्व व ऑक्सीजन नहीं पहुँच पाती है। इस स्थिति को स्थानिक अरक्तता या इश्चिमिक हार्ट डिसीज कहते हैं जो बाद में हृदयपेशिरोधगलन (myocardial infarction) जैसे उपद्रव पैदा होते हैं।

रोग प्रवर्तक कारक और कारण

व्यक्ति हृदय रोगों की उत्पत्ति के लिए जीवनशैली में धूम्रपान, तम्बाकू सेवन, अत्यधिक शराब, मांस, तैलीय खाद्य पदार्थों के सेवन और कोलेस्ट्रॉल के बढ़े स्तर, उच्चरक्तचाप, मोटापा, तनाव , अत्यधिक श्रम आदि को जिम्मेदार बताया जाता है किंतु होम्योपैथी के अनुसार यह रोग के मूल कारण नहीं, रोग को बढ़ाने में सहयोगी अवश्य हैं। यदि ऐसा ही होता तो विदेशों में हृदयरोग सर्वाधिक होने चाहिए।
वस्तुतः इसके पीछे हमारे मानसिक, पारिवारिक, भावनात्मक, उद्वेग भी उत्प्रेरक कारण की तरह होते हैं जो रक्त प्रवाह में  अचानक उच्च या निम्न रक्तचाप जैसी हलचल पैदा करते हैं जिससे रक्त वाहिकाओं की अंतः कला को आंशिक नुकसान पहुचता है।
होम्योपैथी के सिद्धांत अनुसार व्यक्ति में रोग प्रवृत्ति के मूल कारण सोरा सिफिलिस और साइकोसिस मयाज्म की परिस्थितिजन्य निरन्तर सक्रियता के प्रभाव में जीवनीशक्ति एथिरोस्क्लिरोसिस की प्रवृत्ति को जन्म देती है अथवा यह एक छोटे अबुर्द (atheroma) के बाद रुक जाती है जो कालांतर में पृथक होकर थ्रामबस या एम्बोलाई के रूप में भी प्रकट होता है। चिकित्सकीय दृष्टि से यह उत्क्रमणीय किन्तु प्रगामी अवस्था है जिसे होम्योपैथी अषधियों के प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता है।रक्त प्रवाह में अवरोध थक्का बनने के कारण होता है इसलिए थक्के बनने की प्रक्रिया और प्रवृत्ति को समझना आवश्यक है।

रक्तनली में थक्के बनने की प्रवृत्ति, प्रक्रिया व प्रकृति : मयजमैटिक दृष्टिकोण

नागपुर के प्रसिद्ध होम्योपैथी विशेषज्ञ डॉ कासिम चिमथनवाला   रोगों के मूल कारण तीनो मायज्म में से सोरा साइकोसिस व सोरा सिफिलिस की मिश्रित प्रभाविता को ट्यूबरकुलर मायज्म के रूप में परिभाषित करते हैं। इस दृष्टिकोण से धमनियों की अन्तःकोशिकाएं अनियमित हों या परिधीय रूधिर परिवहन में अवरोध से अंतः दीवारों पर कोई यांत्रिक क्षति पहुचती है तो ऐसे क्षत केंद्रों (nidus) पर दो प्रक्रियाओं से थक्के बनने की शुरआत होती है।
पहला सोरा सायकोटिक मायज्म की प्रभाविता में -
तंतुमय ऊतकों के निर्माण के साथ लिपिड्स का जमाव शुरू होता है, माईक्रोफेज कोशिकाओं द्वारा लिपिड का अवशोषण कर फोम सेल्स जिन्हें जॉन-स्टिनॉटिक फैटी स्ट्रीक्स बनते है और तंतुवत आवरण (फाइब्रोसिस) के साथ इनके आकार में बृद्धि होती है और सायकोटिक मायज्म के प्रभाव में कैल्शियम व मैग्नीशियम खनिज जमा होने से सायकोटिक चकत्ते /थक्के (plaque) बनते हैं। यह थक्के कठोर व अन्तःकला से चिपके हुए होते हैं जिनमे खनिजों का अनुपात लिपिड से अधिक होता है।  इस प्रकार के थक्कों के प्रभाव से नलियों में संकीर्णता, क्षरण, प्रगामी समावरोध (embolism) , विदर, या एक्यूट हृदयपेशीरोधगलन (AMI) हो सकते हैं।

दूसरे प्रकार के थक्के जो सोरा-सिफिलिटिक मायज्म के प्रभाव में विकसित होते हैं उसमे धमनियों की अन्तःकला में कोई जीवाणु संक्रमण से शीघ्र न भरने वाला घाव हो सकता है, अतः वहां हीलिंग प्रकियान्तर्गत मृत रक्त कोशिकाओं व प्लेटलेट्स आदि होते हैं जिनका अवशोषण मैक्रोफेज व मोनोसाइट्स द्वारा कर जॉन स्टिनॉटिक फैटी स्ट्रीक्स का निर्माण अपेक्षाकृत पतले तंतुमय आवरण के साथ  सिफिलिटक थक्के का विकास होता है और यहां अपजनन के साथ लिपिड्स का जमाव होता है इसलिए थक्के पनीर जैसे मुलायम बनते हैं जो आसानी से अपना स्थान छोड़कर रक्त प्रवाह के साथ तैर सकते हैं। इनके प्रभाव से अस्थायी हृदय शूल व एक्यूट हृदयपेशीरोधगलन हो सकता है।

रोग लक्षण-
प्राथमिक- श्वासकष्ट, सीने में दर्द, धड़कन, कनपटी में दर्द, चक्कर।
द्वितीयक- शोथ (oedema), खांसी, हृदयअतालता (arrhythmia).

जांच एवं पुष्टि-
उपरोक्त वर्णित प्रथमिक लक्षणों के आधार पर पुष्टि हेतु हृदय रोगों की जांच के लिए
एक्स रे,
 इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम से हृदय की मांसपेशियों की गति, अनियमितता मरमर आदि का परीक्षण किया जाता है।
इकोकार्डियोग्राफी द्वारा जन्मजात विकृति,  वाल्व की स्थिति आदि की जानकारी मिलती है।
कोरोनरी एंजियोग्राफी - हृदयशूल से पीड़ित व्यक्ति के सर्वोत्तम जांच मानी जाती है।
इसके अतिरिक्त सिटी स्कैन,  एम आर आई व अल्ट्रासोनोग्राफी व रक्त परीक्षण भी अन्य प्रमुख जांचे हैं जिनके आकलन के आधार पर उचित उपचार पद्धति के चयन में सहायता मिलती है।

आधुनिक चिकित्सकीय प्रबंधन में  शल्य क्रिया योग्य मामलों में एंजियोप्लास्टी, स्टेंट लगाना या प्लेसमेंट थरेपी का प्रयोग करते हैं।

होम्योपैथी उपचार -
होम्योपैथी में उपचार के दौरान व्यक्ति के व्यक्तिगत, पारिवारिक, इतिहास के साथ सम्पूर्ण लक्षणों के आधार पर क्रेटेगस,एडोनिस, अर्जुन, मकरध्वज, डिजिटेलिस, सुम्बुल,  कैक्टस, एपॉसायनम,  फास्फोरस, काली कार्ब, आदि दवाएं महत्वपूर्ण और अरोग्यदायिनी हैं।
बीमारी की अवस्था मे आवश्यकता अनुरूप उपचार की उचित पद्धति व औषधि चुनना ही चाहिए किन्तु उससे ज्यादा आवश्यक है जीवन परिवार व समाज मे तनाव पूर्ण स्थितियों का निर्माण होने से रोकें , स्वयं प्रसन्न रहें दूसरों से हंसकर मिलें, जीवन में नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों की समझ विकसित करें उन्हें स्वीकारें।। जीवन मे सर्वत्र  सकारात्मकता हो मन मस्तिष्क को अनावश्यक दबाव तनावमुक्त रहेगा और जीवनीशक्ति प्रबल रहेगा मयजमैटिक विचलन से बचेंगे और स्वस्थ रह सकेंगे।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथी चिकित्सक
होम्योपैथी फ़ॉर ऑल
 अयोध्या

Sunday, 31 July 2022

मंकी पॉक्स : बचाव के लिए एकबार पुनः उपयोगी सिद्ध होगी भारतीय जीवन पद्धति व संस्कृति

कोरोना महामारी के बाद विश्व एक और विषाणुजनित स्वास्थ्य चुनौती का सामना कर रहा है जिसका नाम मंकीपॉक्स हैं,  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी बताया है क्योंकि पिछले 3-4 महीनों में ही यह विश्व के 75 से अधिक देशों में लगभग सोलह हजार से अधिक लोगों को संक्रमित कर चुका है। भारत मे भी इसका पदार्पण हो चुका है, राजधानी दिल्ली सहित कुल चार व्यक्ति संक्रमित पाए जा चुके हैं।
मंकी पॉक्स चेचक की तरह ही लक्षणों वाला संक्रामक रोग है जिससे डरने की बजाय भारतीय सांस्कृतिक स्वस्थ जीवनशैली के नियमो को अपनाते हुए बच सकते हैं।
 सबसे पहले  1958 में शोध के लिए प्रयोगशाला के कुछ बंदरों में पाया गया तभी इसे मंकीपॉक्स नाम दिया गया। अर्थात यह जानवरों से मनुष्यों में फैलने वाला संक्रमण है और मनुष्यों में इसका पहला केस 1970 में स्माल पॉक्स के उन्मूलन के बाद, कांगो शहर में एक बालक में पाया गया था।भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप मध्य और पश्चिम अफ्रीका के उष्णकटिबंधीय वर्षावन क्षेत्र इसके लिए अधिक उपयुक्त देखे गए किन्तु इसका प्रसार अब विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी होना चिंता का विषय अवश्य है।
चेचक की प्रजाति का है वायरस
 मंकीपॉक्स वायरस भी चेचक फैलाने वाले पॉक्सविरिडे परिवार से ऑर्थो पॉक्स वायरस जाति का ही एक द्विसूत्रीय डीएनए विषाणु है , अतः दोनों के लक्षणों व प्रसार में भी समानता है अंतर  दानों के आकार , व शरीर मे गिल्टियों में सूजन व दर्द के लक्षणों का देखा जा सकता है। 
 नाम के अनुसार तो यह बंदरों से मनुष्यों में संक्रमित हुआ स्पष्ट होता है किन्तु इसके संक्रमण प्रसार के लिए अन्य जानवरों जैसे चूहों, चूहियों और गिलहरियों, गैम्बिया पाउच वाले चूहे, डर्मिस, गैर-मानव प्राइमेट आदि भी संवाहक हो सकते हैं जिनकी निकटता या इनकी लार व अन्य शरीर द्रव्यों से दूषित संपर्क से यह मनुष्य को संक्रमित कर सकता है और फिर संक्रमित मनुष्य से अन्य सम्पर्क के मनुष्यों में इसका प्रसार होता जाय।
 अधिक संभावना होती है कि यह बीमारी घावों, शरीर के तरल पदार्थ, श्वसन बूंदों और दूषित सामग्री जैसे बिस्तर के माध्यम से फैल सकती है जो कि दूषित सम्पर्क के माध्यम बनते हैं।  किंतु  यह वायरस चेचक की तुलना में कम संक्रामक है और बीमारी के लक्षण भी कम गंभीर हो सकते हैं । कुछ मामलों में समलैंगिकता भी इसके प्रसार का माध्यम देखा गया है।

संक्रमण के बाद बीमारी के लक्षण सामान्यतः दो से चार सप्ताह तक दिखते हैं, जो अपने आप दूर होते चले जाते हैं कुछ मामलों में या किसी अन्य बीमारी के साथ होने पर लक्षण तीव्र और प्राणघातक भी हो सकते हैं। यद्यपि मृत्यु दर का अनुपात लगभग 3-6 प्रतिशत तक ही माना जाता है किंतु यह 10 प्रतिशत तक हो सकता है।


क्या हैं लक्षण

मंकी पॉक्स के लक्षण भी चेचक की तरह ही शरीर मे भारीपन ऐंठन दर्द, बुखार, सिरदर्द, के साथ शुरू होते हैं, फिर इन लक्षणों में तीव्रता के साथ शरीर के बाहरी हिस्सो मुख्यतः चेहरे हाथ, पैर , तलवों में व अन्य हिस्सों में भी  खुजली के साथ या बिना खुजली के दाने निकलने लगते हैं जो तीसरे या चौथे दिन तक बड़े होने लगते हैं , पहले उनमें पतला द्रव जैसा भरा हो सकता है जो धीरे धीरे गाढ़ा होकर पस जैसा बन सकता है। यह दाने आकार में स्माल पॉक्स से भी बड़े व जलन दर्द वाले अथवा बिना दर्द के हो सकते हैं। लक्षणों के बढ़ने के साथ मंकी पॉक्स संक्रमण में सबसे महत्वपूर्ण लक्षण जो आता है वह है शरीर की गिल्टियों या लिम्फ नोड्स की सूजन, जिसके साथ व्यक्ति की पीठ, सिर, मांसपेशियों में असहनीय पीड़ा हो सकती है, व शरीर मे ताकत की कमी, सुस्ती, भी महसूस होती है। बुखार के तीसरे या चौथे दिन त्वचा के फटने के लक्षण भी दिखते हैं। लक्षणों के चरमोत्कर्ष के बाद दानों में पपड़ी बनने लगती है और वह सूखते हैं। बहुत कमजोरी, थकान का अहसास होता है, प्यास लगती है।

 बचाव व उपचार
मंकी पॉक्स संक्रमण के विषय मे अध्ययन अभी चल ही रहा है, बचाव के लिए कोई टीका या दवाएं नहीं हैं, ऐसे में लाक्षणिक और प्रबंधन के उपाय ही उपयोगी हैं। चेचक जैसे लक्षण दिखने पर व्यक्ति को एकांत वास में कर देना चाहिए जहां उसके लिए ताजी हवा स्वच्छ जल व पौष्टिक सामान्य भोजन उपलब्ध रहें। तनाव या भयमुक्त रहना चाहिए, शरीर की इम्युनिटी बढ़ाये रखने के लिए नारियल, नींबू पानी, फलों के जूस , दलिया, ग्रीन टी आदि के सकते हैं, तले भुने,मसालेदार भोजन से परहेज करें। भीड़भाड़ में न जाएं, पालतू जानवरों या घरेलू बिल्ली, बंदर, चूहों से बचें व संक्रमित व्यक्ति के पसीने, जूठे बर्तन , प्रयोग किये गए कपड़े, तौलिया का प्रयोग न करें। सुई इंजेक्शन शेविंग में सावधानी बरतें। व्यक्तिगत शारीरिक संपर्क, शरीर द्रव्य पसीने, घाव ,रक्त, वीर्य, मल, मूत्र आदि से भी सावधानी आवश्यक है।

होम्योपैथी में संभावनाएं

 चेचक से बचाव पक्ष ही होम्योपैथी की पहचान का पर्याय है, अतः उसी प्रकार के संक्रमण में होम्योपैथी की वैरियोलिनम, मैलैण्ड्रीयम, रस्टोक्स, पल्स,मर्क साल आदि दवाएं उपयोगी हो सकती हैं, प्रमुख लक्षणों के रेपर्टराइजेशन के बाद मर्क साल ज्यादा बेहतर हो सकता है किन्तु किसी भी दवा का प्रयोग केवल चिकित्सक के परामर्श के अनुरूप ही किया जा सकता है क्योंकि लक्षणों की तीव्रता के आधार पर ही दवाओं की शक्ति, प्रयोग व पुनरावृत्ति का चयन किया जा सकता है।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी चिकित्सक
HOMOEOPATHY for All

Monday, 11 July 2022

ऑटिज्म : तलाशिए अपने लाडले का लापता मन

आटिज्म :  बच्चों में संवाद एवं सामाजिक व्यवहार कौशल विकार

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ध्यान देने योग्य बिंदु

आयुवर्ग -  1 से 3 वर्ष के बच्चे

प्रमुख प्रभाव -  सीखने, समझने, संवाद एवं प्रतिक्रिया देने की क्षमता

रेड मार्क सिम्पटम्स -
बच्चों में संवाद संचार
सामाजिक व्यवहार कौशल क्षमता
प्रतिबंधित रुचियाँ या पुनरावृत्ति का व्यवहार।

प्रमुख चिकित्सा उपाय-  आहार विहार, स्वस्थ जीवनशैली,  आधुनिक चिकित्सा प्रबंधन व होम्योपैथिक चयनित औषधियां

बच्चों की अतिसक्रियता को नियंत्रित करने के उपाय-

 बच्चे के लिए संवेदी विषयों को पहचानना
विषयों की गम्भीरता का आकलन
माता पिता द्वारा उपचारात्मक उपाय


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ऑटिज्म शब्द का प्रयोग करते ही मानस पटल पर एक ऐसे बच्चे की तस्वीर उभरती है जो शारीरिकरूप से सामान्य किन्तु मानसिक रूप से मंदबुद्धि अथवा हठी लगता है किन्तु यह तस्वीर की वास्तविक सच्चाई नहीं । 1960 के वैश्विक अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि यह अनुपात 3-40/10000 था किंतु इस क्षेत्र में कार्य करने वाले सन्गठन ऑटिज्म स्पीक्स के अनुसार वर्तमान में प्रति 110 में से एक बच्चे में ऑटिज्म की संभावना देखी जाती है। 
वस्तुतः ऑटिज्म का सामान्य हिंदी अर्थ है स्वलीनता, आत्मविमोह, या आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति । जिससे संकेत मिलता है यह आयु के सापेक्ष सामान्य मानसिक विकास की कमी के लक्षणों को प्रदर्शित करने वाला तंत्रिका विकास सम्बन्धी विकार है, जो व्यक्ति के मौखिक, वाचिक, संवाद संचार, और प्रतिबंधित या पुनरावृत्ति वाले सामाजिक व्यवहार कौशल की क्षमता में कमी के द्वारा प्रदर्शित होता है, जिसका यद्यपि कोई निर्दिष्ट कारण तो ज्ञात नहीं किन्तु किसी तरह की आनुवंशिक अथवा पारिस्थितिक कारण हो सकते हैं और क्योंकि इसके लक्षण बचपन में ही , एक वर्ष के बाद तीन वर्ष में ही दिखने लगते हैं, तो समय पर पहचान हो जाने पर उपचारात्मक उपायों से निदान संभव है। हम ऑटिज्म को सोसल कम्युनिकेशन डिसऑर्डर, न्यूरोडेवेलोपमेंटल डिसऑर्डर, आटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर ,अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर भी कहते हैं।

आयुवर्ग
प्रभावित बच्चों में ऑटिज्म के लक्षणों की पहचान एक से तीन वर्ष की अवस्था मे हो सकती है। 
ऑटिज्म से प्रभावित कुछ बच्चों में जन्म के बाद अथवा 6 महीने बाद लक्षण शुरू होते हैं और दो या तीन साल की आयु तक स्थापित हो जाते हैं जिसका असर वयस्कता तक या जीवन पर्यंत भी दिख सकता है अथवा कई बार बच्चे शुरुआती अवस्था मे पूरी तरह सामान्य होते हैं किंतु बाद में 6-7 वर्ष की अवस्था मे उनमें लक्षण दिखने लगते हैं।


ऑटिज्म के प्रकार-
कुछ विद्वान ऑटिज्म को पांच प्रकार से परिभाषित करते हैं। 1.एस्परगर सिंड्रोम, 
2.रिट सिंड्रोम, 
3.बचपन विघटनकारी विकार, 4.नेर सिंड्रोम और 
5. व्यापक विकास संबंधी विकार ।

कारण

ऑटिज्म के स्पष्ट कारणों पर अभी शोध अध्ययन चल ही रहे हैं। वैज्ञानिकों व चिकित्सकों के भिन्न मत शोध अध्ययन आते रहते हैं। ज्यादातर के सापेक्ष निष्कर्ष यही निकलता है कि  आनुवंशिक व पर्यावरण विकास कारकों जैसे पालन पोषण पारिवारिक, सामाजिक, विद्यालयी परिवेश के पारिस्थितिक कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। 

विभिन्न कारणों का एक संचय है ऑटिज्म - डॉ स्मट्स

वर्तमान में भी वैज्ञानिक और चिकित्सक समुदाय  वैक्सीन-ऑटिज्म संबंध को लेकर एकाधिक मत प्रस्तुत करते हैं ।अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स, सीडीसी व डब्ल्यूएचओ सभी इस बात पर सहमत हैं कि टीकों का ऑटिज्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।
 एक डच चिकित्सक डॉ. स्मट्स ने 2010 में अपनी मृत्यु से पूर्व 300 बच्चों के अध्ययन के आधार पर बताया कि बच्चों में ऑटिज्म  विभिन्न कारणों का एक संचय है और लगभग 70% टीकों के कारण व 25% विषाक्त दवा और अन्य विषाक्त पदार्थों के कारण, 5% कुछ बीमारियों के कारण होता है।
जून 2013 में, वेक फॉरेस्ट यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क और वेनेज़ुएला के वैज्ञानिकों, डॉ. स्टीव वॉकर और अन्य चिकित्सको ने ऑटिज्म प्रभावित बच्चों की आंतों के ऊतकों में असामान्य आणविक परिवर्तन का अध्ययन किया।
 पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के डॉ लौरा हेविट्सन द्वारा  लंदन और सिएटल, यूएसए के वैज्ञानिक सम्मेलनों में प्रस्तुत अध्ययन में
बच्चों के लिए मानक टीकाकरण श्रृंखला, एमएमआर, और बंदरों में ऑटिज़्म जैसे लक्षणों के बीच सीधे संबंध  पर अध्ययन रेपोर्ट प्रस्तुत की गयी ।
 अनुशंसित टीकों के संरक्षक के रूप में प्रयोग किये जाने वाले घटक थीमेरोसोल  व एमएमआर वैक्सीन के असर पर भी अध्ययन अभी शोध के विषय हैं।


लक्षण -
ऑटिज्म प्रभावित बच्चों के  लक्षणों की समय पर पहचान से ही सम्भव है इसलिए जागरुक मातापिता को बच्चे के सामान्य विकास की अवस्थाओं से अवगत होना चाहिए जिससे किसी भी असामान्य व्यवहार की वह तुलनात्मक समीक्षा कर उचित समय पर चिकित्सकीय परामर्श ले सकें।  सामान्यतः बच्चे
9 महीने की आयु में बड़बड़ाना,
12 महीने में वाचिक व मौखिक संकेतों जैसे नाम पुकारने पर, समझना, प्रतिक्रिया देना,16 महीने में एक शब्द बोलना,18 महीने में बाल मनुहार के खेल करना, गोद बदलना , इठलाना, व
24 महीने  तक दो तीन शब्दो के वाक्यांश बोलना शुरू कर देते हैं। यदि इनमें से कुछ भी विलम्ब से हो रहा है तो आपको सतर्क होना चाहिए।

पारस्परिक विचार विमर्श विमुख-
कभी कभी कुछ बच्चों से मिलने या देखने पर ऐसा लगता है जैसे वह मंदबुद्धि, या किसी की न सुनने वाला अथवा तरुण है तो  स्वार्थी, ढीठ, अनुशासनहीन, असामाजिक या सामान्य बोलचाल में लोग कहते  है अपने मन का हो गया है, जबकि वास्तविकता में वह अपने मन का नहीं  सभी बच्चों की तरह वह भी निर्मल मन का ही है बस वह अपने मन से लापता मन में मगन जैसा व्यवहार कर रहा होता है क्योंकि उस बच्चे की बौद्धिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक विश्लेषण की क्षमता में कमी उसके परिवार या सामान्य सामाजिक व्यवहार में प्रदर्शित हो रही होती है जिसका उसे भी भान नहीं होता बस वो करता रहता है।

बच्चा परिवार या आस पास के लोगों में दिलचस्पी नहीं रखता, किसी से आंख मिलाकर प्रतिक्रिया नहीं देता,उसे अनुराग प्रेम, घृणा, द्वैष, ईर्ष्या , लालच, हर्ष, विषाद,खुशी, क्रोध, अहंकार, मान अपमान अभिमान, लज्जा जैसे भावों में सामान्य अंतर करना जैसे आता ही नहीं इसलिए कई बार हमारे द्वारा की गई क्रियाओं पर उनसे अपेक्षित सामान्य प्रतिक्रिया नहीं मिलती। ऐसा लगता है जैसे वह अपनी अलग दुनिया मे ही मगन रहता है। कई बार तो इसकारण समय पर दैनिक क्रियाएं जैसे भूख, प्यास, निवृत्ति, नींद आदि भी असामंजस्य पूर्ण लगते है। लक्षणों का प्रदर्शन अलग अलग बच्चों अलग अलग कम या अधिक हो सकता है।ऐसा भी हो सकता है शुरुआत में बच्चे का विकास सही हो और 2 -3 वर्षों के बाद क्रमशः वह उन्हीं शब्दों को बोलने या कार्यों को करने में असहजता महसूस करता हो जिन्हें सामान्य रूप से करता रहा हो। कुछ बच्चों में विद्यालय शुरू करने के बाद पता चलता है वह कक्षा के अन्य सहपाठी छात्रों के साथ घुलमिल नहीं पाते। उनकी पसंद नापसंद या विषयों को जानने की जिज्ञासा अथवा प्रवृत्ति कम होने लगती है ।उनकी आवाज या भाषा मे दब्बूपन या उग्र प्रवृत्ति का व्यवहार देखने को मिल सकता है। जैसे कि बच्चा गोद मे लिए जाने, छूने,या आलिंगन का विरोध करता है, आयु के साथ असामान्य भाव से हंसना,मुस्कुराना अथवा , अकेले खेलते रहना, किसी के आने जाने से बेपरवाह, अपने पसंदीदा विषय, वस्तुओं, खेल, कार्य के प्रति आकर्षण व उन्हीं की पुनरावरत्ति,व निरुद्देश्य गतिशीलता जैसे बार-बार दरवाजे खोलना और बंद करना या खिलौनो को उल्टा करना,एक स्थान या स्थिति में न रुकना।

एक साल की उम्र के बाद भी बच्चा बात करने का प्रयास नहीं करता, पुकारने पर अनसुना करता है, किन्तु अपनी पसंद के संगीत पर प्रतिक्रिया देता है। बात करते समय ऐसे हावभाव देना, जो स्थिति या बातों से मेल नहीं खाते हैं, असामान्य स्वर या मोनोटोनिक स्वर में बात करना , कुछ शब्दों या वाक्यांश को दोहराना (इकोलिया), गिनती,  या शब्दों के क्रम में गलतियां करना।
ये अपनी अवस्था या व्यवस्था में परिवर्तन नहीं पसंद करते इसलिए एक जैसा ही व्यवहार करते रहते हैं, और परिवर्तन की दशा में उग्रता के अनपेक्षित लक्षण भी प्रदर्शित कर सकते हैं  जैसे अपना ही सिर पीटना , बाल नोंचना आदि। 


 पहचान एवं पुष्टि-

ऑटिज्म की पुष्टि के लिए कोई विशिष्ट पैथोलॉजिकल या रेडियोलॉजिकल जांच निर्दिष्ट नहीं है।आयु के अनुरूप सामान्य विकास संबंधी लक्षणों के आकलन, तुलनात्मक अध्ययन व  मूल्यांकन के आधार पर ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर की क्लिनिकल डायग्नोसिस करने के लिए चाइल्डहुड ऑटिज्म रेटिंग स्केल (CARS) व इंडियन स्केल फ़ॉर ऑटिज्म असेसमेंट (ISAA) का पालन कर सकते हैं।
ISAA के लिए रोगी की पूरी केस हिस्ट्री, जिसमे माता की गर्भावस्था के समय व पारिवारिक इतिहास सम्मिलित हो, उसके साथ बच्चे का मात्रात्मक प्रगति मूल्यांकन प्रति 3 महीने पर दोहराया जाता है।
लक्षणों का मूल्यांकन दो चरणों मे कर सकते हैं पहले चरण में, सामान्य विकासात्मक स्क्रीनिंग,जिसमे  कारकों की पहचान और व्यवहार संबंधी लक्षणों का मूल्यांकन किया जाता है। यदि इस चरण के दौरान कुछ समस्याओं का पता चलता है, तो निदान के लिए दूसरे चरण में संज्ञानात्मक परीक्षण, भाषा समझने का परीक्षण और लक्षणों की सावधानीपूर्वक जांच शामिल है।

उपचार की पद्धतियां

उपचार के लिए अभी पद्धतियों की अपनी संभावनाएं व मर्यादाएं है। उचित उपचार पद्धति चयन के साथ उनके साथ मित्र जैसे व्यवहारिक वातावरण में विशिष्ट प्रकार के कौशल विकास सम्बन्धी शिक्षण, प्रशिक्षण  जैसे भाषण और भाषा चिकित्सा ,  सामाजिक कौशल चिकित्सा , और  व्यावसायिक चिकित्सा के लिए लागू व्यवहार विश्लेषण आदि चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण अंग हो सकते हैं।
पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में लक्षणों के अनुसार दी जाने वाली सायकोटिक, एंटीकॉन्वेलेंट्स, एंटीडिप्रेसेंट, उत्तेजक और एंटीसाइकोटिक्स दवाओं के अपने-अपने दुष्प्रभाव होते हैं इसलिए बिना चिकित्सकीय सलाह के कभी किसी दवा का सेवन न कराएं।
अन्य उपलब्ध होम्योपैथी आयुर्वेद, हाइड्रोथेरेपी,प्राकृतिक चिकित्सा, ऑर्थोमोलेक्यूलर मेडिसिन पूरक और वैकल्पिक चिकित्सा में भी अच्छी सम्भावनाओ का अध्ययन  वैज्ञानिक तरीके से किये जाने की आवश्यकता है। 

होम्योपैथी में उपचार की संभावनाएं

होम्योपैथिक औषधियां पीड़ित के साइको-न्यूरो-एंडोक्राइनोलॉजिकल तथा साइको इम्यूनोलॉजिकल एक्सेस पर गहराई से असर करती है जिससे ऑटिज्म के लक्षणों में कमी आती है और बच्चा शांतचित्त होता है, उसकी भूख प्यास नींद सामान्य होने लगते हैं।
शुरुआती दौर में ही लक्षणों पर ध्यान देकर यदि उपचार शुरू कर दिया जाए तो काफी हद तक ऑटिज्म को नियंत्रण में किया जा सकता है। लेकिन कई बार ऑटिज्म की गंभीरता यानी उसका सामान्य, मध्यम या जटिल होने का, उसके लक्षणों तथा प्रभावों के बेहतर होने की संभावनाओं पर असर पड़ता है। इसके अतिरिक्त यदि ऑटिज्म के साथ मिर्गी या फिर अनुवांशिक समस्याएं हो तो भी इस पर नियंत्रण में रुकावट आ सकती है।
होम्योपैथी में चिकित्सक पीड़ित के उपचार हेतु उचित औषधि के चयन हेतु विशिष्ट जटिल प्रक्रिया अपनाते है जिसमे बच्चे की वर्तमान लक्षण, उनकी शुरुआत, तौर-तरीके, पिछले चिकित्सा इतिहास, गर्भावस्था के दौरान मां का इतिहास, पारिवारिक इतिहास,प्रकृति, स्वभाव, वर्तमान बीमारी के किसी भी तनाव बिंदु या कारणों की खोज और आपके बच्चे के मानसिक और भावनात्मक मेकअप का विस्तृत मूल्यांकन सम्मिलित किया जाता है।

 डच चिकित्सक डॉ टिनस स्मट्स द्वारा सीज (CEASE) थेरेपी अर्थात पूर्ण उन्मूलन ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम अभिव्यक्ति है, के सफलता पूर्वक प्रयोग किया जाता रहा है जो होम्योपैथी के सदृश आइसोथेरेपी और ऑर्थोमोलेक्यूलर मेडिसिन का संयुक्त स्वरूप है । अपने इस संयोजन में उन्होंने मस्तिष्क को पोषण देने और आंतों के कार्य को संतुलित करने के लिए औषधियों के अतिरिक्त  पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु, विटामिन सी, विटामिन बी, जिंक, ओमेगा 3 फैटी एसिड , कॉड लिवर ऑइल ,आदि की विशेष पूरक खुराकें देने के प्रबंधन को भी सम्मिलित किया था।
उपचार के लिए होम्योपैथी चिकित्सक उनके आहार विहार स्वस्थ जीवनशैली आधुनिक चिकित्सा प्रबंधन के साथ होम्योपैथी दवाओं का चयन करते समय बच्चे के लिए संवेदी विषयों /परिस्थितियों  व लक्षणों की गम्भीरता का आकलन करते हैं  उनकी तदनुरूप दवा के प्रयोग व बच्चे के लिए उपयुक्त बौद्धिक विकास व व्यवहारिक कौशल प्रशिक्षण के तरीके अपनाए जाने का निर्धारण करते हैं।
होम्योपैथी में संवेदी अंगों से जुड़े लक्षणों की अवस्था में  बोरॉक्स, असारम, थेरिडियन, नक्स वोमिका, ओपीयम तथा चाइना जैसी औषधियां और अतिसक्रिय अवस्था में टारेंटयुला, स्ट्रैमोनियम, ट्यूबरक्युलिनम, मेडोराइनम, नक्स वोमिका अथवा स्वयं को नुकसान पहुंचाने वाली प्रवृत्ति में लाईसिनम, स्ट्रामोनियम, टारेंटयुला, बेल , रिग्रेसिव अवस्था अर्थात किसी भी आदत की पुनरावृत्ति होने पर या असामान्य व्यवहार प्रदर्शन में हायोसाइमस, बुफो तथा बैराइटा कार्बोनिका दवाइयां दी जा सकती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आधुनिक जांच व प्रबंधन के उपायों के साथ स्वस्थ जीवनशैली का पालन उचित शिक्षण प्रशिक्षण व कुशल होम्योपैथिक चिकित्सक के निर्देशन में निर्दिष्ट औषधि का नियमानुसार सेवन बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में बृद्धि करते हुए सम्पूर्ण आरोग्य प्रदान करने व उन्हें भी सामान्य जीवन जीने में सहयोग प्रदान किया जा सकता है। किन्तु माता पिता का नैतिक कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों के लिए समय निकालें उनके सामान्य विकास की अवस्थाओं को समझें अपने बच्चे की भावनाओं और प्रतिक्रियाओं का सही मूल्यांकन करें और यदि किसी प्रकार का अंतर दिखे तो समय रहते चिकित्सकीय परामर्श लेना चाहिए, जिससे आपके बच्चे के लापता मन की समय पर पहचान व खोज हो सके वह आपके , अपने और सबके मन का बन सके।

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डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या
मो.8400003421

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Thursday, 23 June 2022

दृष्टि




आंखें देखती है तो
कहीं शब्द चुभते हैं 
कान सुनते है 
तो कहीं मौन चुभता है
भ्रम दोनों को  ही 
उनके सही होने का है
मगर
दृष्टि देखती भी है
सुनती भी है
पढ़ती भी है और
सब समझती भी है।


डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी

Saturday, 21 May 2022

पथिक हो पग पग चलते जाना

पथिक हो पग पग चलते जाना
बिना रुके बिना थके बिना आस 
बिना सहारे बिना आसरे 
कोई वाहन यात्री होगा 
कोई होगा रथ यात्री
उनके होंगे सारथी भी
कहीं प्रेम कहीं विरक्ति मिलेगी
कहीं मान अपमान कहीं
कहीं अपेक्षित दृष्टि झुकेगी
कहीं उपेक्षित अभिमान वहीं
फिर भी तुम पग पग चलते जाना
स्वाभिमान के साथ चलो
अपने सम्मान के साथ चलो
अकेले हो फिर भी न रुको न डरो
उसकी परीक्षा में वही सारथी
साथ तुम्हारे ईश्वर होंगे सहयात्री।।


डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी

Wednesday, 4 May 2022

चिंतन करें हम ; एक ही है राम , कृष्ण और परशुराम

प्रकृति, संस्कृति,मानव कल्याण व  सामाजिक समानता व न्याय के संस्थापक हैं भगवान परशुराम

गांवों की स्थापना, प्रकृति रक्षा, पशु संरक्षण, कृषि, नारी उत्थान ,कन्या सामूहिक विवाह, आदि समाजिक उन्नयन के कार्य 

धर्म और आस्था के विषयों पर पौराणिक ग्रन्थो के तथ्य ही प्रमाण 

महापुरुषों और अवतारों में तुलना की बौद्धिक संकीर्णता है, समाज मे अंतर पैदा करती है

बैसाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया कहा जाता है, पौराणिक सन्दर्भो से ज्ञात इतिहास के अनुसार कालक्रम में इसी दिन ब्रह्म के पुत्र अक्षय कुमार , गंगा मैया ,व त्रेतायुग में भृगुकुल में ऋषि जमदग्नि के पुत्रेष्टि यज्ञ से इंद्र के वरदान स्वरूप भगवान विष्णु के छठवें अवशेषावतर चिरंजीवी भगवान राम का प्राकट्य माता रेणुका के गर्भ से हुआ।जिनकी प्राथमिक शिक्षा ऋषि विश्वामित्र व ऋषि ऋचीक के आश्रम में हुई।अपनी प्रखर मेधा के कारण शीघ्र ही उन्होंने समस्त शास्त्र कंठस्थ  कर लिए, किन्तु शस्त्र में रुचि के कारण ऋचीक ऋषि ने उनकी योग्यता के आधार पर दिव्य वैष्णव धनुष सारंग प्रदान किया, कश्यप ऋषि से ववैष्ण मंत्र, व शिव जी से विद्युदभि नामक परशु  ,त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्त्रोत व मंत्र कल्पतरु प्राप्त हुए, तदनुरूप ही उन्हें परशुराम कहा जाने लगा।
परशुराम मातृ पितृ गुरुभक्त बालक थे जो किसी की आज्ञा की कभी अवहेलना नहीं करते थे, इसलिए अपने पिता की आज्ञा पर अपनी माता का सिर काट दिया ,क्योंकि उन्हें अपने पिता की तपोबल पर विश्वास था। वह परम तपस्वी थे इसका अर्थ यह भी है कि निरन्तर शोध व चिंतन सृष्टि समूची प्रकृति के लिए जीवंत बनी रहे इसलिये उनके द्वारा अनेक अमोघ, आयुधों का निर्माण करना, सदैव प्रकृति, पशु, पक्षियों,जल,पर्यावरण, कृषि, पुष्प, फल, आदि के उन्नयन व प्राकृतिक संतुलन के लिए अनेक कार्य किये। उन्होंने चावल की प्रजातियों का अविष्कार किया। 
वह योग्य गुरु थे और सुपात्रों को ही शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देने के पक्षधर थे इसका प्रमाण है कि उनके प्रमुख शिष्यों भीष्म, द्रोण, व कर्ण थे किंतु विद्या की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए ही उन्होंने कर्ण को इसलिए समय पर भूल जाने का श्राप दिया क्योंकि उसने गुरु के साथ ही विश्वासघात किया। पारिवारिक सामाजिक व मानवीय मूल्यों पर उनकी दृष्टि में एकपत्नी व्रत के पालन की पक्षधर रही और अनुसुइया, लोपामुद्रा, अपने शिष्य अकृतवण के साथ विराट नारी जागृति अभियान का संचालन किया। भगवान परशुराम  के अनुसार राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है न कि प्रजा से आज्ञापालन करवाना।

हमारे सनातन धर्म ग्रंथो में प्रत्येक जगह वर्णित है कि जब जब अधर्म अन्याय बढ़ता है तब ईश्वर शाश्वत मानवीय धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं, और सभी में भगवान विष्णु के मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध,का उल्लेख मिलता है।
किन्तु वर्तमान समय मे समाज में स्वयं को प्रबुद्ध दर्शाने की लोकेषणा या स्वार्थ के वशीभूत कुछ लोग मनमानी व मनगढ़ंत व्याख्या कर पौराणिक तथ्यों में छेड़छाड़ कर आधारहीन व कुतार्किक प्रसंग व प्रश्न खड़े करते हैं और ज्यादातर लोग  शिक्षा अध्ययन,ज्ञान, वास्तविक चिंतन, विश्लेषण की तार्किक क्षमता के कारण उचित प्रतिकार नहीं करते, हां स्वस्थ संवाद की जगह विवाद को जन्म देते रहना ही उनकी प्रवृत्ति बन जाती है। ऐसे में हमें अध्ययनशील होना चाहिए किसी भी विषयवस्तु के संदर्भ का तार्किक विश्लेषण करना चाहिए किन्तु तुलना करते समय स्वयं के गुणों क्षमताओं और समाज व मानव के लिए अपने अथवा उस व्यक्ति के भी योगदान का आकलन कर लेना चाहिए, जो कुतर्क प्रस्तुत कर रहा हो। निष्पक्ष विचार करना चाहिए हम आज जिसका भी अनुकरण करते हैं उसमें किंतने मानवीय गुण हैं और उसका वास्तविक सामाजिक योगदान क्या है ? और इतने गुणों पर क्या वह पूज्य बन सकता है। आज से पूर्व कितने ही आदर्श गुणों वाले व्यक्ति  महापुरुषों की श्रेणी में स्वीकार्य किये होंगे फिर भी आमजनमानस उनमें देवत्व की स्वीकृति नहीं दे पाया किन्तु गुणों कार्यों और सृष्टि के सामने आदर्शों के आधार पर ही जिन्हें धर्म संस्कृति का प्रतीक माना गया जिनमे प्राकृतिक भाव से आस्था पनपी उन मानदंडों पर प्रश्नचिन्ह लगाने से पूर्व हमे निश्चित ही विचार करना चाहिए कि हमारी आस्था और भावना धर्म अनुरूप है फिर भी यदि ईश्वर के भिन्न अवतारों में अंतर का दृष्टिकोण क्या ईश्वर का अपमान नहीं । भगवान परशुराम का किसी क्षत्रिय से जातीय संघर्ष नही हुआ। चंद्रवंशी सम्राट सहस्त्रार्जुन उनके मौसा थे और पौराणिक तथ्य देखे जाएं तो इसे उनका घरेलू अथवा पारिवरिक विवाद ही कहा जा सकता है। उन्होंने शिव धनुष खंडित होने पर स्वभाव वश क्रुद्ध होने पर भी संशय मिटाकर  भगवान राम से क्षमा मांगते हुए उन्हें वैष्णव धनुष कोदण्ड प्रदान किया ,जबकि उन्हें श्रीराम अवतार का उद्देश्य ज्ञात था। और अपना दायित्व पूर्ण कर पुनः तपस्या को चले गए बाद में द्वापर युग मे श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। इसप्रकार यदि आज हम मानव होकर राम कृष्ण और परशुराम को जातियों में बांटने का प्रयास करते हैं तो स्पष्ट है हमारी आस्था पर हमारा स्वार्थ अज्ञान और आडम्बर प्रभावी है ।

(विचार संकलन का उद्देश्य सकारात्मक भाव जागरण एवं चिंतन ही है)

डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी

Monday, 2 May 2022

मुक्त भाव से संयुक्त : आत्मसम्मान

एक किसान के चार बेटे थे। सबकी शादी व्याह के बाद किसान ने सोंचा अब जिम्मेदारी से मुक्त हुए चारधाम को चलना चाहिए। परिवार में सभी भाईयों बहुओं में आपस मे बड़ा स्नेह था, सब एकदूसरे के साथ हाथ बटाते, और रात्रि का भोजन एक साथ ही करते। किसान ने सोंचा एक बार इनकी परीक्षा लेनी चाहिए। उसने पुत्रों से कहा एक एक महीने के लिए तुम चारों को घर का मुखिया बनना होगा तब तक हम लोग यात्रा से वापस आ जाएंगे।
पिता की आज्ञानुसार बड़ा बेटा मालिक बना तो उसने महीने भर का राशन आदि सभी व्यय तय करके उनकी व्यवस्था कर दी और सभी भाईयों की बराबर जिम्मेदारी बांट दी, आपस मे विमर्श करके ही कुछ नया करते। इसमें सबसे छोटा भाई अपने भाईयों के कहे को पूरी तरह पालन करता और सभी को सम्मान देता। धीरे धीरे दूसरे महीने जब दूसरा भाई मालिक बना तो पहले उसने घर की सारी व्यवस्थाओं की धीरे धीरे पहचान करनी शुरू की फिर चालाकी से तीसरे नम्बर के भाई को अपने अनुरूप मिलाना शुरू किया ।रात का भोजन अब एक साथ नहीं कमरों में जाने लगा । सबसे छोटे भाई ने एक बार सबसे बड़े भाई को सचेत किया किन्तु उसने कहा समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।फिर तीसरे भाई का नम्बर आया और जब वह मालिक बना तो परिवार की सारी व्यवस्थाएं वैसी ही चलती रहीं किन्तु इस बार उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से बड़े भाई को बड़े बड़े सपने दिखाकर छोटे के हिस्से में जाने वाले अवसर को आपस मे बांट लेने की योजना बना ली गयी। चौथे महीने जब उसका नम्बर आया तो बीचवाले दोनों ने एक दिन साथ बैठकर बातचीत में ही कहा क्यों न बड़े भैया को ही मालिक बना रहने दिया जाय। छोटा भाई शुरू से ही सब कुछ देख और समझ रहा था , इसलिए उसने अपने बड़े भाई को सचेत किया किन्तु अब वह देख रहा था कि बड़ा भाई भी इन दोनों के झांसे में है तो उसने उन्हें समझाने या प्रतिकार करने की जगह पिताजी के आने तक चुपचाप स्वयं को पृथक रखा जो भाई लोग कहते वह करता । इधर बड़े भाईयों को लगा वाह यह तो बड़ा अच्छा हुआ फ्री का नौकर मिल गया। यह महीना भी पूर्ण हुआ और  उनके पिता माता यात्रा से वापस आये।सभी भाईयों बहुओं ने स्वागत किया। बीच वाली बहू का स्वर और सक्रियता सास को कुछ ज्यादा ही नजर आयी और उन्होंने अपनी पति से बताया कुछ ठीक नही मंझली और लहुरी बहु  अचानक इतना प्यार क्यों बरसा रही हैं? यात्रा के बाद भोज कराना था तो किसान ने कहा भोज के बाद देखेंगे, लेकिन उसने आकलन करना शुरू किया तो पाया कि रुपये पैसे के हिसाब लेन देन संबन्धी कार्यों में तीनों छोटे को कहीं नही भेजते बाकी सारे काम उसी से कराते हैं। अनुभवी आंखों ने सारा मंजर तीन चार हफ़्तों में भांप लिया। सबसे छोटे बेटा भी इसकी ही प्रतीक्षा कर ही रहा था कि पिताजी स्वयं अनुभवी हैं उसे लगा भोज तक रुकना चाहिए। भोज में मेहमानों से मिलने, स्वागत, भोजन में तीनों ही भाई सबसे मिलते समय यह जताना  नही भूलते कि वह किंतने मातृ पितृ भक्त हैं, किस तरह उन्होंने अपने माता पिता को चार धाम कराया और अब भोज कर रहे हैं। दूसरी तरफ छोटा सबसे मिलता उन्हें आदर आए बैठाता और भोजन जलपान आदि पूछता  करवाता ।
कुछ समय और बीता तो बेटे ने सोचा अब पिताजी कुछ बात अवश्य करेंगे मगर ऐसा हुआ नहीं। एकदिन किसान ने बेटों से बातचीत में ही सीख दी 
जब परस्पर स्नेह, सम्मान, विश्वास,सामंजस्य, व पारदर्शिता,  उपेक्षित होने लगे और हम का स्थान मैं और मेरा लेने लगे तो समझो तुम्हारी एकता में क्षरण होने लगा है, और इसका लाभ कोई बाहरी अवश्य उठा लेगा। पद प्रतिष्ठा और पैसे का लालच या अहंकार तुम्हे अज्ञानी बना देगा ऐसी स्थिति में व्यक्ति किसी को अपने बराबर का ज्ञानी, चतुर नहीं समझता और यहीं वह धोखा खाने लगता है। इसलिए जब कभी ऐसी स्थिति बने तो खुले दिल से बात कर आपस मे ठीक कर लेना वरना हमारा क्या चला चली की वेला है।
किसान के बड़े बेटों ने इसे उपदेश जानकर हवा में उड़ा दिया किन्तु बात छोटे बेटे को जांच गयी और उसने तय किया कि वह पिता की सीख का उलंघन नहीं करेगा। समय के साथ छोटे ने अपनी मेहनत करता रहता किन्तु संयुक्त कार्यों में कोई सलाह मशविरा नही देता लेता जो सहयोग मांगा जाता वह कर देता।उसके बड़े भाईयों को लगता तो था कि छोटे को उनकी गलतियों की जानकारी है किंतु ढिठाई नहीं छोड़ते। एक दिन पिता ने छोटे से पूछा तुमने हमसे कभी क्यों नहीं कहा, तो उसने बताया मुझे कहने की जरूरत ही क्या बाबूजी , भाईयों और भाभियों के कार्यों ने तो आपको स्वयं ही सब बता दिया, और आपने जाना भी, सुझाव भी दिया। और आपके कहे के अनुसार ही मैने अपने परिवार के और आपके सम्मान की रक्षा हेतु ही  मुक्त भाव से संयुक्त रहने का निश्चय किया है जिससे आपकी आज्ञा भी रहे, परिवार की मर्यादा भी और मेरा आत्मसम्मान भी।

किसान की आंखों में संतुष्टि के भाव दिख रहे थे।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
अयोध्या

Saturday, 15 January 2022

कोरोना से बचाव में जरूरी : वायरस से तन की दूरी, डर से मन की दूरी

#आरोग्य_की_बात_होम्योपैथी_के_साथ

म्यूटेशन की प्रक्रिया से वायरस बनाता है नए और प्रभावी वेरिएंट

 
 कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रोन की संक्रामकता ने विश्वमानवता के सामने पुनः एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या होने पर भी भारत में रिकार्ड वैक्सीनेशन के बावजूद बढ़ते संक्रमण के आंकड़े,भारत मे कई राज्यों में घोषित चुनाव के मद्देनजर भविष्य की चिंता का विषय है। वैक्सीन लगवा चुके लोग यह मानकर निश्चिंत हो कि वे पूर्णता सुरक्षित हैं, और बचे लोगों में अभी तक न लगवा पाने के बीच पुनः संक्रमण का भय होने, या संक्रमण को केवल सर्दी जुकाम की तरह कम खतरनाक मानकर निश्चिंतता का भाव और इस प्रकार कुल मिलाकर लापरवाही निश्चित रूप से भविष्य के खतरे का संकेत हो सकती है।  स्वयं को प्रभावी बनाये रखने के लिए विषाणु में स्वभावतः समय के साथ जेनेटिक मैटेरियल में परिवर्तन या म्यूटेशन के जरिये नए वैरिएंट बनाने का गुण पाया जाता है, इसलिए हो सकता है कि एक समय कम खतरनाक किन्तु अधिक संक्रामक वेरिएंट के प्रभाव से हम निश्चिंत हो जाएं किन्तु संभव है उसके बाद उसका कोई प्रभावी म्यूटेशन अधिक खतरनाक रूप में सामने आ जाये, इसलिए कम से कम छः माह तक हमे अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए और कोई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए।

कोविड 19: वायरस और वेरिएंट

 कोविड 19 महामारी  आरएनए विषाणु सार्स कोव 2 के साथ शुरू हुई तबसे इसके अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा वैरिएंट देखने को मिले जिसमे डेल्टा वेरिएंट ने जीवन के लिए सबसे ज्यादा अकस्मात स्थितियां पैदा की। सामान्यतः वायरस की लिपिड खोल में स्पाइक प्रोटीन हमारे ऊपरी श्वसन तंत्र  के एसीई रिसेप्टर से जुड़कर तेजी से संख्या बढ़ाता है और अंततः न्यूमोनिया जैसी स्थिति का निर्माण कर फेफड़ों को अवरुद्ध करते हुए जीवन के लिए संकट पैदा करता रहा। इस प्रक्रिया में इसके अलग अलग वैरिएंट की प्रभाविता व समय अलग अलग रही। अध्ययनों में अब तक 2 से 4 म्यूटेशन तक पाए गए और संक्रामकता के लिहाज से अल्फा वेरियंट ने एक से तीन व्यक्तियों, गामा वेरिएंट ने 2-5 व्यक्तियों तो डेल्टा वैरिएंट 1 से 7 व्यक्तियों तक में फैलता रहा है। इनमें ज्यादातर में 3-5 दिन में लक्षणों की उत्पत्ति व 10-15 दिनों तक प्रभाविता देखी जा रही थी।जिनके सामान्य लक्षणों में सर्दी, जुकाम, तेज बुखार, सूखी खांसी, स्वाद व सुगंध की कमी, सांस लेने में दिक्कत जैसे प्रमुख पहचान की लक्षण थे। किंतु वर्तमान समय मे विषाणु का जो वैरिएंट तेजी से पांव पसार रहा है उसे वैज्ञानिकों ने बी.1.1.1.529 ओमिक्रोन नाम दिया है जिसमे  संभवतः 30 से अधिक लगभग 34 तक म्यूटेशन पाए गए हैं और इसकी संभावित संक्रामकता  पहले से कई गुना अधिक है यह 
एक से 10-12 व्यक्तियों में फैल सकता है।

 ओमिक्रोन के वायरस सीधे फेफड़ों तक पहुँच सकता है, जिससे इसके चरम पर पहुंचने में कम समय लगता है, इसलिए हो सकता है कभी-कभी कोई लक्षण नही हो किन्तु फेफड़ों में वायरल निमोनिया के कारण तीव्र श्वसन संकट होता है।
संभावित लक्षणों के बारे में बताया कि इस बार तेज खांसी या बुखार जरूरी लक्षण नहीं बल्कि गले मे खुश्की या खराश, जोड़ों का दर्द भी नहीं या बहुत कम,किन्तु शारीरिक कमजोरी बहुत अधिक व कार्यक्षमता बहुत कम होने के साथ स्नायविक पीड़ा,भूख न लगने के साथ कोविड निमोनिया के लक्षण मिल सकते हैं। लक्षणों की तीव्रता व प्रभाविता व्यक्ति दर व्यक्ति अलग अलग हो सकती है, इसलिए मृत्यु दर कम या अधिक हो सकती है । रोगी में बुखार न होने पर भी, एक्स-रे रिपोर्ट में मध्यम छाती का निमोनिया दिखाई दे सकता है। इसके लिए अक्सर नेज़ल स्वैब नकारात्मक होता है!
 लक्षणों में इस प्रकार की अनिश्चितता व भ्रम की स्थिति का एक कारण वैक्सीन से प्राप्त इम्युनिटी भी हो सकती है जिसके विरुद्ध विषाणु की प्रभाविता में अंतर दिखाई पड़ता हो और इसीलिए भविष्य में किसी अन्य प्रभावी म्यूटेशन की संभावना को नकारा नहीं जा सकता, इसीलिए वह कहते है हमे कमसे कम छः माह तक सावधान रहना चाहिए।
पूर्ण वैक्सीनेशन के बाद शरीर की प्रतिरोधी क्षमता कारगर हो सकती है किन्तु विषाणु के वैक्सीन प्रतिरोधी गुण के अध्ययन तक हमे ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।

वायरस से बचाव के लिए तन की दूरी, रोग के डर से मन की दूरी  को कोरोना से बचाव में जरूरी मंत्र बताते हुए डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी ने कहा विषाणु की संक्रमता की चपेट में आने से बचने के लिए भीड़-भाड़ वाली जगहों से बचें, फेस मास्क पहनें, बार-बार हाथ धोएं, शारीरिक दूरी के नियम का पालन आवश्यक रूप से करना चाहिए।

क्या संक्रमण हवा से फैलता है ?

 विषाणु के हवा द्वारा फैलने के प्रमाण नहीं हैं किंतु यदि कोई संक्रमित व्यक्ति किसी खुली जगह में थूकता या छींकता है तो विषाणु सूक्ष्मबूंदों के रूप में कुछ देर हवा में रहता है, ऐसे में उस व्यक्ति के स्थान बदल देने पर शारीरिक दूरी बरतते हुए भी जब कोई दूसरा व्यक्ति उस क्षेत्र में आएगा तो विषाणु बूदों के जरिये उसके कपड़ो , हाथ या सांस के जरिए उसे संक्रमित कर सकता है। इसी प्रकार कोई वैक्सिनेटेड हुआ व्यक्ति जिसमे कोई लक्षण न हों किन्तु वह भी विषाणु का वाहक हो सकता है, इसलिए ज्यादातर लोगों से शारीरिक दूरी आवश्यक नियम है।

आत्मबल और मानसिक दूरी 

कोरोना काल में अस्पतालों में एडमिट होने वाले मरीजों के प्रबंधन के प्रोटोकाल और एक निश्चित इलाज के कारण,व मृत्यु दर की सूचनाओं , व कोविड से ठीक हुए लोगों के निजी अनुभवों ने महामारी काल मे रोग भय से एकांतवास, परिवारीजनों से विछोह, जीवन से निराशा,अपने परिवारीजनों की असमय मृत्यु, उपरांत व्यवहारिक सामाजिक पारिवारिक संस्कारों की क्षति, मृत्यु की कल्पना से अप्रत्याशित चिंता, तनाव जैसी मानसिक लक्षणों में बृद्धि व्यक्तियों को अवसाद की तरफ ले जाती दिखी। जिसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम अभी तक देखने को मिल सकते हैं। इसके साथ ही कम प्रभावित हुए या बिना प्रभावित हुए लोगों में वैक्सीनेशन के बाद निश्चिंतता का भ्रम व स्वछंद व्यवहार अथवा भिन्न मीडिया माध्यमों से अतार्किक,अत्यधिक भ्रामक जानकारियों से भी संशय, भ्रम व अतिविश्वास की मनःस्थितियाँ सामान्य जनमानस के स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं। किसी भी संशय के लिए केवल योग्य प्रशिक्षित चिकित्सक से ही उचित स्वास्थ्य परामर्श लेकर यथोचित चिकित्सा उपाय अपनाने चाहिए। महामारी के भय का फायदा उठाकर अप्रशिक्षित व्यवसायी इधर उधर से प्राप्त जानकारियों को प्रस्तुत कर चिकित्सा के दावे कर येन केन प्रकारेण मिश्रित तरीके अपनाकर केवल अपने व्यवसायिक लाभ उद्देश्य तो पूरे करते हैं किंतु शीघ्र और अधिक लाभ देने के लिए अनुचित दवाओं के अंधाधुंध प्रयोग कर आपके स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर सकते हैं। रोग की अवस्था मे उचित आवश्यक जांच, औषधि का चयन और उसकी खुराक या प्रयोग के तरीके, सेवन का समय आदि का योग्य निर्धारण केवल प्रशिक्षित चिकित्सक ही कर सकते हैं। इसलिए चिकित्सा पद्धति व चिकित्सक का चयन भी विवेकपूर्ण तरीके से करें, जो अनुचित दावों की बजाय आपके संशयों का समुचित समाधान कर सकें।प्रत्येक दशा में दवा का सेवन ही आवश्यक हो यह जरूरी नहीं, कई परिस्थितियों में आप स्वस्थ जीवनशैली के नियम अपनाकर भी स्वस्थ हो सकते हैं। अनावश्यक दवाओं का अनुचित प्रयोग भी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को नुकसान पहुँचाता है, जबकि ऐसी तमाम मनःस्थितियाँ व मानसिक अवस्थाओं में श्रेष्ठ परामर्श दवाओं के प्रयोग को सीमित कर व्यक्ति में आत्मबल को प्रबल कर उसके स्वस्थ होने की संभावना को बढ़ा देता है।

होम्योपैथी में उपचार की क्या संभावनाएं हैं

सैद्धांतिक अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि होम्योपैथी वस्तुतः प्राचीन आयुर्वेद का ही विकसित स्वरूप है, जिसमें व्यक्ति के शारीरिक मानसिक लक्षणों की समग्रता के आधार पर शक्तिकृत औषधियों का चयन किया जाता है। इस समग्रता में मानसिक लक्षण और अनुभूतियां पारिवारिक इतिहास आदि बहुत महत्वपूर्ण हैं। महामारी की स्थिति में मिल रहे सामान्य लक्षणों की समग्रता के आधार पर जन सामान्य के लिए एक औषधि का चयन किया जाता है जिसे जेनस एपिडेमिकस कहते हैं। आयुष मंत्रालय भारत सरकार ने इसी आधार पर होम्योपैथी की आर्सेनिक एलबम 30 को तीन दिन प्रातः लेने की एडवाइजरी जारी की । किन्तु इसके साथ ही किसी व्यक्ति में कोविड के लक्षणों की उपस्थिति और उनकी तीव्रता के आकलन के आधार पर चिकित्सक अन्य औषधियों जैसे ब्रायोनिया, फास्फोरस, जस्टिसिया, टिनोस्पोरा, एस्पीडोसपरमा, ऐकोनाइट, एंटीम टार्ट, युपेटोरियम, कार्बोनियम ऑक्सिजेनेटम, इंफ्लुएंजिम, आदि का भी प्रयोग पिछले कोरोना कालखण्ड में प्रभावी देखा गया।पोस्ट कोविड व पोस्ट वैक्सीनशन के लक्षणों में भी हिस्टामिनम, मैग म्यूर, अर्निका, थूजा, चायना, आर्सेनिक, बेल , जेलसेमियम आदि औषधियों से व्यक्ति के डी डायमर, कमजोरी, दर्द, पुनरावृत्ति , बुखार या स्वाद सुगंध के अन्य लक्षणों में उपयोगी रहीं।वर्तमान में भी अत्यधिक कमजोरी व तीव्रता के लक्षणों के आधार पर आर्सेनिक,ऐकोनाइट, बेल, जेलसेमियम, के साथ उपरोक्त औषधियां लक्षणों के आधार पर योग्य चिकित्सक के मार्गदर्शन में लाभदायी हो सकती हैं। किंतु कभी भी किसी भी पद्धति से उपचार के लिए किसी भी दवा का सेवन कहीं देख सुन या पढ़कर नहीं करना चाहिए,योग्य चिकित्सक के परामर्श और मार्गदर्शन में ही उचित तरीके से प्रयोग से लाभांवित हुआ जा सकता है।

डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी परामर्श चिकित्सक
HOMOEOPATHY for All
अयोध्या

कोरोना से बचाव में जरूरी :वायरस से तन की दूरी, डर से मन की दूरी

म्यूटेशन की प्रक्रिया से वायरस बनाता है नए और प्रभावी वेरिएंट

 
 कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रोन की संक्रामकता ने विश्वमानवता के सामने पुनः एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या होने पर भी भारत में रिकार्ड वैक्सीनेशन के बावजूद बढ़ते संक्रमण के आंकड़े,भारत मे कई राज्यों में घोषित चुनाव के मद्देनजर भविष्य की चिंता का विषय है।  वैक्सीन लगवा चुके लोग यह मानकर निश्चिंत हो कि वे पूर्णता सुरक्षित हैं, और बचे लोगों में अभी तक न लगवा पाने के बीच पुनः संक्रमण का भय होने, या संक्रमण को केवल सर्दी जुकाम की तरह कम खतरनाक मानकर निश्चिंतता का भाव और इस प्रकार कुल मिलाकर लापरवाही निश्चित रूप से भविष्य के खतरे का संकेत हो सकती है। डा त्रिपाठी ने तर्क दिया कि स्वयं को प्रभावी बनाये रखने के लिए विषाणु में स्वभावतः समय के साथ जेनेटिक मैटेरियल में परिवर्तन या म्यूटेशन के जरिये नए वैरिएंट बनाने का गुण पाया जाता है, इसलिए हो सकता है कि एक समय कम खतरनाक किन्तु अधिक संक्रामक वेरिएंट के प्रभाव से हम निश्चिंत हो जाएं किन्तु संभव है उसके बाद उसका कोई प्रभावी म्यूटेशन अधिक खतरनाक रूप में सामने आ जाये, इसलिए कम से कम छः माह तक हमे अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए और कोई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए।

कोविड 19- विषाणु और वैरिएंट

कोविड 19 महामारी  आरएनए विषाणु सार्स कोव 2 के साथ शुरू हुई तबसे इसके अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा वैरिएंट देखने को मिले जिसमे डेल्टा वेरिएंट ने जीवन के लिए सबसे ज्यादा अकस्मात स्थितियां पैदा की। सामान्यतः वायरस की लिपिड खोल में स्पाइक प्रोटीन हमारे ऊपरी श्वसन तंत्र  के एसीई रिसेप्टर से जुड़कर तेजी से संख्या बढ़ाता है और अंततः न्यूमोनिया जैसी स्थिति का निर्माण कर फेफड़ों को अवरुद्ध करते हुए जीवन के लिए संकट पैदा करता रहा। इस प्रक्रिया में इसके अलग अलग वैरिएंट की प्रभाविता व समय अलग अलग रही। अध्ययनों में अब तक 2 से 4 म्यूटेशन तक पाए गए और संक्रामकता के लिहाज से अल्फा वेरियंट ने एक से तीन व्यक्तियों, गामा वेरिएंट ने 2-5 व्यक्तियों तो डेल्टा वैरिएंट 1 से 7 व्यक्तियों तक में फैलता रहा है। इनमें ज्यादातर में 3-5 दिन में लक्षणों की उत्पत्ति व 10-15 दिनों तक प्रभाविता देखी जा रही थी।जिनके सामान्य लक्षणों में सर्दी, जुकाम, तेज बुखार, सूखी खांसी, स्वाद व सुगंध की कमी, सांस लेने में दिक्कत जैसे प्रमुख पहचान की लक्षण थे। किंतु वर्तमान समय मे विषाणु का जो वैरिएंट तेजी से पांव पसार रहा है उसे वैज्ञानिकों ने बी.1.1.1.529 ओमिक्रोन नाम दिया है जिसमे  संभवतः 30 से अधिक लगभग 34 तक म्यूटेशन पाए गए हैं और इसकी संभावित संक्रामकता  पहले से कई गुना अधिक है यह 
एक से 10-12 व्यक्तियों में फैल सकता है।
 
लक्षण 
 ओमिक्रोन के वायरस सीधे फेफड़ों तक पहुँच सकता है, जिससे इसके चरम पर पहुंचने में कम समय लगता है, इसलिए हो सकता है कभी-कभी कोई लक्षण नही हो किन्तु फेफड़ों में वायरल निमोनिया के कारण तीव्र श्वसन संकट होता है।
संभावित लक्षणों के बारे में बताया कि इस बार तेज खांसी या बुखार जरूरी लक्षण नहीं बल्कि गले मे खुश्की या खराश, जोड़ों का दर्द भी नहीं या बहुत कम,किन्तु शारीरिक कमजोरी बहुत अधिक व कार्यक्षमता बहुत कम होने के साथ स्नायविक पीड़ा,भूख न लगने के साथ कोविड निमोनिया के लक्षण मिल सकते हैं। लक्षणों की तीव्रता व प्रभाविता व्यक्ति दर व्यक्ति अलग अलग हो सकती है, इसलिए मृत्यु दर कम या अधिक हो सकती है । रोगी में बुखार न होने पर भी, एक्स-रे रिपोर्ट में मध्यम छाती का निमोनिया दिखाई दे सकता है। इसके लिए अक्सर नेज़ल स्वैब नकारात्मक होता है!

 लक्षणों में इस प्रकार की अनिश्चितता व भ्रम की स्थिति का एक कारण वैक्सीन से प्राप्त इम्युनिटी भी हो सकती है जिसके विरुद्ध विषाणु की प्रभाविता में अंतर दिखाई पड़ता हो और इसीलिए भविष्य में किसी अन्य प्रभावी म्यूटेशन की संभावना को नकारा नहीं जा सकता, इसीलिए वह कहते है हमे कमसे कम छः माह तक सावधान रहना चाहिए।
पूर्ण वैक्सीनेशन के बाद शरीर की प्रतिरोधी क्षमता कारगर हो सकती है किन्तु विषाणु के वैक्सीन प्रतिरोधी गुण के अध्ययन तक हमे ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।

वायरस से बचाव के लिए तन की दूरी, रोग के डर से मन की दूरी  को कोरोना से बचाव के नियम का पालन कोरोना की संक्रमता की चपेट में आने से बचने के लिए भीड़-भाड़ वाली जगहों से बचें, फेस मास्क पहनें, बार-बार हाथ धोएं, शारीरिक दूरी के नियम का पालन आवश्यक रूप से करना चाहिए।

हवा से नहीं फैलता संक्रामकता अधिक 

 विषाणु के हवा द्वारा फैलने के प्रमाण नहीं हैं किंतु यदि कोई संक्रमित व्यक्ति किसी खुली जगह में थूकता या छींकता है तो विषाणु सूक्ष्मबूंदों के रूप में कुछ देर हवा में रहता है, ऐसे में उस व्यक्ति के स्थान बदल देने पर शारीरिक दूरी बरतते हुए भी जब कोई दूसरा व्यक्ति उस क्षेत्र में आएगा तो विषाणु बूदों के जरिये उसके कपड़ो , हाथ या सांस के जरिए उसे संक्रमित कर सकता है। इसी प्रकार कोई वैक्सिनेटेड हुआ व्यक्ति जिसमे कोई लक्षण न हों किन्तु वह भी विषाणु का वाहक हो सकता है, इसलिए ज्यादातर लोगों से शारीरिक दूरी आवश्यक नियम है।

मन की मजबूती और मानसिक दूरी

 कोरोना काल में अस्पतालों में एडमिट होने वाले मरीजों के प्रबंधन के प्रोटोकाल और एक निश्चित इलाज के कारण,व मृत्यु दर की सूचनाओं , व कोविड से ठीक हुए लोगों के निजी अनुभवों ने महामारी काल मे रोग भय से एकांतवास, परिवारीजनों से विछोह, जीवन से निराशा,अपने परिवारीजनों की असमय मृत्यु, उपरांत व्यवहारिक सामाजिक पारिवारिक संस्कारों की क्षति, मृत्यु की कल्पना से अप्रत्याशित चिंता, तनाव जैसी मानसिक लक्षणों में बृद्धि व्यक्तियों को अवसाद की तरफ ले जाती दिखी। जिसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम अभी तक देखने को मिल सकते हैं। इसके साथ ही कम प्रभावित हुए या बिना प्रभावित हुए लोगों में वैक्सीनेशन के बाद निश्चिंतता का भ्रम व स्वछंद व्यवहार अथवा भिन्न मीडिया माध्यमों से अतार्किक,अत्यधिक भ्रामक जानकारियों से भी संशय, भ्रम व अतिविश्वास की मनःस्थितियाँ सामान्य जनमानस के स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं। किसी भी संशय के लिए केवल योग्य प्रशिक्षित चिकित्सक से ही उचित स्वास्थ्य परामर्श लेकर यथोचित चिकित्सा उपाय अपनाने चाहिए। महामारी के भय का फायदा उठाकर अप्रशिक्षित व्यवसायी इधर उधर से प्राप्त जानकारियों को प्रस्तुत कर चिकित्सा के दावे कर येन केन प्रकारेण मिश्रित तरीके अपनाकर केवल अपने व्यवसायिक लाभ उद्देश्य तो पूरे करते हैं किंतु शीघ्र और अधिक लाभ देने के लिए अनुचित दवाओं के अंधाधुंध प्रयोग कर आपके स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर सकते हैं। रोग की अवस्था मे उचित आवश्यक जांच, औषधि का चयन और उसकी खुराक या प्रयोग के तरीके, सेवन का समय आदि का योग्य निर्धारण केवल प्रशिक्षित चिकित्सक ही कर सकते हैं। इसलिए चिकित्सा पद्धति व चिकित्सक का चयन भी विवेकपूर्ण तरीके से करें, जो अनुचित दावों की बजाय आपके संशयों का समुचित समाधान कर सकें।प्रत्येक दशा में दवा का सेवन ही आवश्यक हो यह जरूरी नहीं, कई परिस्थितियों में आप स्वस्थ जीवनशैली के नियम अपनाकर भी स्वस्थ हो सकते हैं। अनावश्यक दवाओं का अनुचित प्रयोग भी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को नुकसान पहुँचाता है, जबकि ऐसी तमाम मनःस्थितियाँ व मानसिक अवस्थाओं में श्रेष्ठ परामर्श दवाओं के प्रयोग को सीमित कर व्यक्ति में आत्मबल को प्रबल कर उसके स्वस्थ होने की संभावना को बढ़ा देता है।


डा उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी परामर्श चिकित्सक
HOMOEOPATHY for All
अयोध्या

Monday, 3 January 2022

सर्दियों में बुजुर्गों के स्वास्थ्य की करें देखभाल

कोरोना काल मे यूं तो आम जनजीवन भी अपने स्वास्थ्य को लेकर सजग हुआ है किंतु खतरा कम होते ही लापरवाही स्वास्थ्य के लिए अनेक संकट पैदा कर सकती है। सर्दियों में प्रौढ़ अवस्था के लोगों को ब्रेन स्ट्रोक व हर्ट अटैक के खतरे से बचने के लिए भी अपनी जीवनशैली में कुछ आवश्यक बातों का ध्यान रखना चाहिए।  हम यह मानते है इस दिनों कुछ भी खाओ पियो सब हजम हो जायेगा, और इसी विश्वास के चलते  खान पान अनियमित या असन्तुलित हो जाता है। इसी निश्चिन्तता के चलते कई बार हम स्वास्थ्य की हल्की फुल्की समस्याओं को नजरंदाज कर जाते है जो कभी कभी किसी गम्भीर स्थिति का संकेत हो सकती हैं। सर्दियों मे हम पानी भी कम पीते हैं, जबकि शरीर मे वाष्पन की क्रिया चलती रहती है अतः पानी व ताप नियंत्रण क्रियाओं के चलते खून कुछ गाढ़ा हो जाता है जिससे रक्तचाप भी बढ़ने की संभावना रहती है। साथ ही तन्दुरुस्ती बढ़ाने के लिए अधिक वसा व कैलोरी युक्त भोजन लेने से कॉलेस्ट्रॉल काफी तेजी से बढ सक़ता है, जो रक्त प्रवाह में अवरोध उत्पन्न कर सकता है। इसलिए यदि कभी आपको ऐसा लगे कि अचानक कुछ देर के लिए आपके शरीर का कोई अंग सुन्न या कमजोर हो गया , तेज चक्कर या सिरदर्द आ गया, आंखों के सामने अँधेरा सा छा गया ,अथवा बोलने में आवाज लड़खड़ा गयी, या चेहरे का एक हिस्सा टेढ़ा सा हो गया। यह सभी या इनमे से कोई भी लक्षण एक दो मिनट के लिए नज़र आते है फिर सब सामान्य लगने लगे तो इन्हे बिलकुल नज़रअंदाज नही करना चाहिए, क्योंकि यह दिमाग के किसी हिस्से की हलचल का संकेत हो सकते हैं, तुरन्त चिकित्सकीय परामर्श लेना चाहिए। 


 हमारे मस्तिष्क की किसी खून की नलिका में थक्का बन जाये या उस हिस्से में खून का संचार कम हो जाये  तो उससे जुड़े शरीर के भागों के काम प्रभावित होने लगते हैं। इसे चिकित्सकीय भाषा में ब्रेन स्ट्रोक कहते हैं जिससे सर्दियों में गर्मियों की अपेक्षा अधिक लोग प्रभावित होते हैं।जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि ब्रेन स्ट्रोक अर्थात "मस्तिष्क पर प्रहार" किन्तु यह मस्तिष्क के अंदर ही खून की नलियों में हुए परिवर्तनों का प्रभाव होता है न कि बाहरी कोई चोट या दुर्घटना, और इसीलिए अक्सर जानकारी के आभाव में इसके संकेतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
व्यक्ति को शरीर के किसी एक ओर के हिस्से में लकवा जैसी स्थिति होना, स्ट्रोक आने के बाद मरीज विकलांग हो सकते है या देखने सुनने की क्षमता खो देते है।मधुमेह और  हृदय रोगियों को खास सावधानी रखनी चाहिए।
ब्रेन स्ट्रोक की संभावनाओं के बारे में बताते हुए डा त्रिपाठी ने कहा वसा की अधिक मात्रा खून की नलियों की अंदर दीवार पर जमा होने से वहां खून के प्रवाह रुकावट पैदा कर दे तो ईशचिमिक , या ब्लड प्रेशर बढ़ने से ब्रेन के अन्दर ही नलिकाओं में लिकेज आ जाने से ब्रेन हेमरेज हो सकता है। 
दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति को एक घण्टे के भीतर ही अस्पताल पहुंचाना, और सी टी स्कैन जाँच जरूरी है जिससे उसे होने वाले अधिक नुकसान से प्रभावी तरीके से बचाया जा सके। ऐसे मरीजों को 2 से 3 दिन तक नियमित चिकित्सकीय देखरेख बहुत जरूरी है।
जानकारी के आभाव में लोग इसे हृदयाघात जैसी गम्भीरता से नही लेते जबकि यह उससे अधिक गम्भीर समस्या है। अध्ययनों में पाया गया है कि हर छठे सेकंड में एक व्यक्ति की मौत स्ट्रोक से होती है। और भारत में हर साल लगभग 16 लाख लोग इसका शिकार होते हैं। 

क्या बरतें सावधानियां 

हाई ब्लड प्रेशर, डायबीटीज, हाई कोलेस्ट्रॉल वाले मरीजों को नियमित जांच कराते रहनी चाहिए साथ ही  तनाव मुक्त रहे, सही व संतुलित आहार लें, नियमित व्यायाम से शारीरिक सक्रियता बनाएं रखें।
सिगरेट-तंबाकू , शराब या अन्य नशे की आदत से दूर रहें।
भोजन में अधिक तली भुनी व संतृप्त वसा जैसे वनस्पति घी , डालडा आदि का उपयोग न करें। पानी पर्याप्त मात्रा में पीते रहें, सर्दियों में गुनगुना पानी भी लिया जा सकता है। अधिक सर्दी या सुबह सुबह टहलने से बचें हल्की धुप हो जाये तो निकलें, कान को ढक कर रखें, क्योंकि नाक और कान से सर्दी का असर सीधा होता है।
 नहाने में हल्का गर्म पानी ही प्रयोग करे बहुत अधिक ठंडा या गर्म दोनों ही तरह के जल से स्नान के ठीक बाद शरीर ताप नियंत्रण में कुछ समय लगता है।नहाते समय पहले पैरों पर पानी डालें फिर क्रमशः शरीर के ऊपरी हिस्सो पर और अंत मे सिर पर पानी डालकर स्नान करें। इसीप्रकार प्रातः बिस्तर से तुरंत न उठें कुछ समय बैठें, हाथ पैरों को रगड़ कर चेहरे पर हाथ फेर कर तब कुछ देर बाद बाहर आएं।

डा. उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथी परामर्श चिकित्सक
HOMOEOPATHY for All
अयोध्या