चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Saturday, 21 May 2022

पथिक हो पग पग चलते जाना

पथिक हो पग पग चलते जाना
बिना रुके बिना थके बिना आस 
बिना सहारे बिना आसरे 
कोई वाहन यात्री होगा 
कोई होगा रथ यात्री
उनके होंगे सारथी भी
कहीं प्रेम कहीं विरक्ति मिलेगी
कहीं मान अपमान कहीं
कहीं अपेक्षित दृष्टि झुकेगी
कहीं उपेक्षित अभिमान वहीं
फिर भी तुम पग पग चलते जाना
स्वाभिमान के साथ चलो
अपने सम्मान के साथ चलो
अकेले हो फिर भी न रुको न डरो
उसकी परीक्षा में वही सारथी
साथ तुम्हारे ईश्वर होंगे सहयात्री।।


डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी

Wednesday, 4 May 2022

चिंतन करें हम ; एक ही है राम , कृष्ण और परशुराम

प्रकृति, संस्कृति,मानव कल्याण व  सामाजिक समानता व न्याय के संस्थापक हैं भगवान परशुराम

गांवों की स्थापना, प्रकृति रक्षा, पशु संरक्षण, कृषि, नारी उत्थान ,कन्या सामूहिक विवाह, आदि समाजिक उन्नयन के कार्य 

धर्म और आस्था के विषयों पर पौराणिक ग्रन्थो के तथ्य ही प्रमाण 

महापुरुषों और अवतारों में तुलना की बौद्धिक संकीर्णता है, समाज मे अंतर पैदा करती है

बैसाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया कहा जाता है, पौराणिक सन्दर्भो से ज्ञात इतिहास के अनुसार कालक्रम में इसी दिन ब्रह्म के पुत्र अक्षय कुमार , गंगा मैया ,व त्रेतायुग में भृगुकुल में ऋषि जमदग्नि के पुत्रेष्टि यज्ञ से इंद्र के वरदान स्वरूप भगवान विष्णु के छठवें अवशेषावतर चिरंजीवी भगवान राम का प्राकट्य माता रेणुका के गर्भ से हुआ।जिनकी प्राथमिक शिक्षा ऋषि विश्वामित्र व ऋषि ऋचीक के आश्रम में हुई।अपनी प्रखर मेधा के कारण शीघ्र ही उन्होंने समस्त शास्त्र कंठस्थ  कर लिए, किन्तु शस्त्र में रुचि के कारण ऋचीक ऋषि ने उनकी योग्यता के आधार पर दिव्य वैष्णव धनुष सारंग प्रदान किया, कश्यप ऋषि से ववैष्ण मंत्र, व शिव जी से विद्युदभि नामक परशु  ,त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्त्रोत व मंत्र कल्पतरु प्राप्त हुए, तदनुरूप ही उन्हें परशुराम कहा जाने लगा।
परशुराम मातृ पितृ गुरुभक्त बालक थे जो किसी की आज्ञा की कभी अवहेलना नहीं करते थे, इसलिए अपने पिता की आज्ञा पर अपनी माता का सिर काट दिया ,क्योंकि उन्हें अपने पिता की तपोबल पर विश्वास था। वह परम तपस्वी थे इसका अर्थ यह भी है कि निरन्तर शोध व चिंतन सृष्टि समूची प्रकृति के लिए जीवंत बनी रहे इसलिये उनके द्वारा अनेक अमोघ, आयुधों का निर्माण करना, सदैव प्रकृति, पशु, पक्षियों,जल,पर्यावरण, कृषि, पुष्प, फल, आदि के उन्नयन व प्राकृतिक संतुलन के लिए अनेक कार्य किये। उन्होंने चावल की प्रजातियों का अविष्कार किया। 
वह योग्य गुरु थे और सुपात्रों को ही शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देने के पक्षधर थे इसका प्रमाण है कि उनके प्रमुख शिष्यों भीष्म, द्रोण, व कर्ण थे किंतु विद्या की उपयोगिता को दृष्टिगत रखते हुए ही उन्होंने कर्ण को इसलिए समय पर भूल जाने का श्राप दिया क्योंकि उसने गुरु के साथ ही विश्वासघात किया। पारिवारिक सामाजिक व मानवीय मूल्यों पर उनकी दृष्टि में एकपत्नी व्रत के पालन की पक्षधर रही और अनुसुइया, लोपामुद्रा, अपने शिष्य अकृतवण के साथ विराट नारी जागृति अभियान का संचालन किया। भगवान परशुराम  के अनुसार राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है न कि प्रजा से आज्ञापालन करवाना।

हमारे सनातन धर्म ग्रंथो में प्रत्येक जगह वर्णित है कि जब जब अधर्म अन्याय बढ़ता है तब ईश्वर शाश्वत मानवीय धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं, और सभी में भगवान विष्णु के मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध,का उल्लेख मिलता है।
किन्तु वर्तमान समय मे समाज में स्वयं को प्रबुद्ध दर्शाने की लोकेषणा या स्वार्थ के वशीभूत कुछ लोग मनमानी व मनगढ़ंत व्याख्या कर पौराणिक तथ्यों में छेड़छाड़ कर आधारहीन व कुतार्किक प्रसंग व प्रश्न खड़े करते हैं और ज्यादातर लोग  शिक्षा अध्ययन,ज्ञान, वास्तविक चिंतन, विश्लेषण की तार्किक क्षमता के कारण उचित प्रतिकार नहीं करते, हां स्वस्थ संवाद की जगह विवाद को जन्म देते रहना ही उनकी प्रवृत्ति बन जाती है। ऐसे में हमें अध्ययनशील होना चाहिए किसी भी विषयवस्तु के संदर्भ का तार्किक विश्लेषण करना चाहिए किन्तु तुलना करते समय स्वयं के गुणों क्षमताओं और समाज व मानव के लिए अपने अथवा उस व्यक्ति के भी योगदान का आकलन कर लेना चाहिए, जो कुतर्क प्रस्तुत कर रहा हो। निष्पक्ष विचार करना चाहिए हम आज जिसका भी अनुकरण करते हैं उसमें किंतने मानवीय गुण हैं और उसका वास्तविक सामाजिक योगदान क्या है ? और इतने गुणों पर क्या वह पूज्य बन सकता है। आज से पूर्व कितने ही आदर्श गुणों वाले व्यक्ति  महापुरुषों की श्रेणी में स्वीकार्य किये होंगे फिर भी आमजनमानस उनमें देवत्व की स्वीकृति नहीं दे पाया किन्तु गुणों कार्यों और सृष्टि के सामने आदर्शों के आधार पर ही जिन्हें धर्म संस्कृति का प्रतीक माना गया जिनमे प्राकृतिक भाव से आस्था पनपी उन मानदंडों पर प्रश्नचिन्ह लगाने से पूर्व हमे निश्चित ही विचार करना चाहिए कि हमारी आस्था और भावना धर्म अनुरूप है फिर भी यदि ईश्वर के भिन्न अवतारों में अंतर का दृष्टिकोण क्या ईश्वर का अपमान नहीं । भगवान परशुराम का किसी क्षत्रिय से जातीय संघर्ष नही हुआ। चंद्रवंशी सम्राट सहस्त्रार्जुन उनके मौसा थे और पौराणिक तथ्य देखे जाएं तो इसे उनका घरेलू अथवा पारिवरिक विवाद ही कहा जा सकता है। उन्होंने शिव धनुष खंडित होने पर स्वभाव वश क्रुद्ध होने पर भी संशय मिटाकर  भगवान राम से क्षमा मांगते हुए उन्हें वैष्णव धनुष कोदण्ड प्रदान किया ,जबकि उन्हें श्रीराम अवतार का उद्देश्य ज्ञात था। और अपना दायित्व पूर्ण कर पुनः तपस्या को चले गए बाद में द्वापर युग मे श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। इसप्रकार यदि आज हम मानव होकर राम कृष्ण और परशुराम को जातियों में बांटने का प्रयास करते हैं तो स्पष्ट है हमारी आस्था पर हमारा स्वार्थ अज्ञान और आडम्बर प्रभावी है ।

(विचार संकलन का उद्देश्य सकारात्मक भाव जागरण एवं चिंतन ही है)

डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी

Monday, 2 May 2022

मुक्त भाव से संयुक्त : आत्मसम्मान

एक किसान के चार बेटे थे। सबकी शादी व्याह के बाद किसान ने सोंचा अब जिम्मेदारी से मुक्त हुए चारधाम को चलना चाहिए। परिवार में सभी भाईयों बहुओं में आपस मे बड़ा स्नेह था, सब एकदूसरे के साथ हाथ बटाते, और रात्रि का भोजन एक साथ ही करते। किसान ने सोंचा एक बार इनकी परीक्षा लेनी चाहिए। उसने पुत्रों से कहा एक एक महीने के लिए तुम चारों को घर का मुखिया बनना होगा तब तक हम लोग यात्रा से वापस आ जाएंगे।
पिता की आज्ञानुसार बड़ा बेटा मालिक बना तो उसने महीने भर का राशन आदि सभी व्यय तय करके उनकी व्यवस्था कर दी और सभी भाईयों की बराबर जिम्मेदारी बांट दी, आपस मे विमर्श करके ही कुछ नया करते। इसमें सबसे छोटा भाई अपने भाईयों के कहे को पूरी तरह पालन करता और सभी को सम्मान देता। धीरे धीरे दूसरे महीने जब दूसरा भाई मालिक बना तो पहले उसने घर की सारी व्यवस्थाओं की धीरे धीरे पहचान करनी शुरू की फिर चालाकी से तीसरे नम्बर के भाई को अपने अनुरूप मिलाना शुरू किया ।रात का भोजन अब एक साथ नहीं कमरों में जाने लगा । सबसे छोटे भाई ने एक बार सबसे बड़े भाई को सचेत किया किन्तु उसने कहा समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।फिर तीसरे भाई का नम्बर आया और जब वह मालिक बना तो परिवार की सारी व्यवस्थाएं वैसी ही चलती रहीं किन्तु इस बार उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से बड़े भाई को बड़े बड़े सपने दिखाकर छोटे के हिस्से में जाने वाले अवसर को आपस मे बांट लेने की योजना बना ली गयी। चौथे महीने जब उसका नम्बर आया तो बीचवाले दोनों ने एक दिन साथ बैठकर बातचीत में ही कहा क्यों न बड़े भैया को ही मालिक बना रहने दिया जाय। छोटा भाई शुरू से ही सब कुछ देख और समझ रहा था , इसलिए उसने अपने बड़े भाई को सचेत किया किन्तु अब वह देख रहा था कि बड़ा भाई भी इन दोनों के झांसे में है तो उसने उन्हें समझाने या प्रतिकार करने की जगह पिताजी के आने तक चुपचाप स्वयं को पृथक रखा जो भाई लोग कहते वह करता । इधर बड़े भाईयों को लगा वाह यह तो बड़ा अच्छा हुआ फ्री का नौकर मिल गया। यह महीना भी पूर्ण हुआ और  उनके पिता माता यात्रा से वापस आये।सभी भाईयों बहुओं ने स्वागत किया। बीच वाली बहू का स्वर और सक्रियता सास को कुछ ज्यादा ही नजर आयी और उन्होंने अपनी पति से बताया कुछ ठीक नही मंझली और लहुरी बहु  अचानक इतना प्यार क्यों बरसा रही हैं? यात्रा के बाद भोज कराना था तो किसान ने कहा भोज के बाद देखेंगे, लेकिन उसने आकलन करना शुरू किया तो पाया कि रुपये पैसे के हिसाब लेन देन संबन्धी कार्यों में तीनों छोटे को कहीं नही भेजते बाकी सारे काम उसी से कराते हैं। अनुभवी आंखों ने सारा मंजर तीन चार हफ़्तों में भांप लिया। सबसे छोटे बेटा भी इसकी ही प्रतीक्षा कर ही रहा था कि पिताजी स्वयं अनुभवी हैं उसे लगा भोज तक रुकना चाहिए। भोज में मेहमानों से मिलने, स्वागत, भोजन में तीनों ही भाई सबसे मिलते समय यह जताना  नही भूलते कि वह किंतने मातृ पितृ भक्त हैं, किस तरह उन्होंने अपने माता पिता को चार धाम कराया और अब भोज कर रहे हैं। दूसरी तरफ छोटा सबसे मिलता उन्हें आदर आए बैठाता और भोजन जलपान आदि पूछता  करवाता ।
कुछ समय और बीता तो बेटे ने सोचा अब पिताजी कुछ बात अवश्य करेंगे मगर ऐसा हुआ नहीं। एकदिन किसान ने बेटों से बातचीत में ही सीख दी 
जब परस्पर स्नेह, सम्मान, विश्वास,सामंजस्य, व पारदर्शिता,  उपेक्षित होने लगे और हम का स्थान मैं और मेरा लेने लगे तो समझो तुम्हारी एकता में क्षरण होने लगा है, और इसका लाभ कोई बाहरी अवश्य उठा लेगा। पद प्रतिष्ठा और पैसे का लालच या अहंकार तुम्हे अज्ञानी बना देगा ऐसी स्थिति में व्यक्ति किसी को अपने बराबर का ज्ञानी, चतुर नहीं समझता और यहीं वह धोखा खाने लगता है। इसलिए जब कभी ऐसी स्थिति बने तो खुले दिल से बात कर आपस मे ठीक कर लेना वरना हमारा क्या चला चली की वेला है।
किसान के बड़े बेटों ने इसे उपदेश जानकर हवा में उड़ा दिया किन्तु बात छोटे बेटे को जांच गयी और उसने तय किया कि वह पिता की सीख का उलंघन नहीं करेगा। समय के साथ छोटे ने अपनी मेहनत करता रहता किन्तु संयुक्त कार्यों में कोई सलाह मशविरा नही देता लेता जो सहयोग मांगा जाता वह कर देता।उसके बड़े भाईयों को लगता तो था कि छोटे को उनकी गलतियों की जानकारी है किंतु ढिठाई नहीं छोड़ते। एक दिन पिता ने छोटे से पूछा तुमने हमसे कभी क्यों नहीं कहा, तो उसने बताया मुझे कहने की जरूरत ही क्या बाबूजी , भाईयों और भाभियों के कार्यों ने तो आपको स्वयं ही सब बता दिया, और आपने जाना भी, सुझाव भी दिया। और आपके कहे के अनुसार ही मैने अपने परिवार के और आपके सम्मान की रक्षा हेतु ही  मुक्त भाव से संयुक्त रहने का निश्चय किया है जिससे आपकी आज्ञा भी रहे, परिवार की मर्यादा भी और मेरा आत्मसम्मान भी।

किसान की आंखों में संतुष्टि के भाव दिख रहे थे।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
अयोध्या