लम्पी वायरस त्वचा रोग और होम्योपैथी की संभावनाएं
प्रकृति और जीवन के यथार्थ व रहस्यों का परिचय समय के साथ नित नए रूप में मिलता रहता है। कुछ समय पूर्व तक कोरोना वायरस जनित कोविड महामारी से विश्व मानवता अभी उबर ही रही थी कि एक और वायरस ने हमारे मवेशियों में लम्पी त्वचा रोग का प्रसार कर जीवन का संकट उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया।
पालतू पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेंड़, बकरियों में विषाणु जनित एक संक्रामक त्वचा रोग जिसमे पशुओं की त्वचा पर गोटियां या ढेलेदार गांठे ; जिन्हें लम्प कहते हैं, के रूप में प्रदर्शित होने के कारण इसे लम्पी स्किन डिसीज या एलएसडी कहा जाता है। इसका कोई विशिष्ट उपचार अभी ज्ञात नहीं है, और आनुपचारित रह जाने पर पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है।
विश्व मे सबसे पहले 1929 में जाम्बिया में इस तरह के रोग की पहचान हुई,और इसके बाद यह समाप्त सा हो गया था। 1957 में केन्या में भेड़ो में पुनः इस तरह के रोग की पहचान हुई जिसके बाद दक्षिण अफ्रीका , इजरायल आदि देशों में भी इसके मामले पहचान में आये। भारत मे 2019 में पहली बार इस रोग का प्रवेश हुआ। वर्तमान में गुजरात राजस्थान सहित देश के अनेक राज्यों में लम्पी त्वचारोग से गौ माताओं व अन्य पशुओं के प्रभावित होने के समाचार तमाम मीडिया माध्यमों से मिलने लगे हैं। यद्यपि संक्रमण होने से पूर्व ही वैक्सीनेशन से बचाव संभव है किंतु संक्रमित पशु का भाषारहित होना और ऐसे में उपचार प्रबंधन यदि सही समय पर न हुआ तो यह उसके जीवन का संकट तो उत्पन्न ही करता है साथ ही पशुधन के नुकसान से,इससे जुड़ी देश प्रदेश की अर्थ व्यवस्था के लिए भी चिंता का विषय बन जाता है। नवजात शिशु की तरह मनुष्यों के लिए पशुओं की भाषा से विषमता, उनकी पीड़ा की अभिव्यक्ति, और हमारी अनुभूति के अंतर व सामंजस्य पर ही नैदानिक संभावना की तलाश भी बड़ा विषय है।
लम्पी त्वचा रोग : कारण, और रोग की उत्पत्ति
हम सभी विषाणु रोग चिकन पॉक्स, स्माल पॉक्स, कॉऊपॉक्स, मोलस्कम कंटाजियोसम , मंकी पॉक्स आदि से परिचित हैं या इनके बारे में कुछ सुना पढा अवश्य होगा,उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसी परिवार- पॉक्सविरिडी, का एक सदस्य जिसे कैप्रिपॉक्स या नीथलिंग विषाणु कहते हैं, इस गाँठयुक्त त्वचा रोग का कारण है।
विषाणु से कैसे पनपता है रोग ?
मनुष्य हो या पशु , त्वचा सभी के शरीर का सबसे बड़ा अंग और बाहरी आवरण है जिसकी बाहरी परत किरेटिन प्रोटीन की होती है, साथ ही इसमे कम पीएच, व फैटी एसिड , प्रतिरक्षा के अन्य घटक त्वचा की अखंडता बनाये रखते हुए किसी भी बाहरी जीवाणु , विषाणु के शरीर मे प्रवेश को रोकते हैं। हल्का फुल्का घर्षण या छिलने से जब त्वचा की यह अखंडता भंग होती है तो संक्रमण की स्थानीय संभावना बन जाती है। किंतु रक्त चूसने वाले कीट पतंगे मक्खी,मच्छर जो त्वचा को डर्मिस या सबक्यूटिस स्तर तक भेद पाते हैं, जहां रक्त व लसिका की समृद्ध आपूर्ति होती है, तो यह विषाणु के प्रसार मार्ग के रूप में कार्य करती है, और ये कीट संक्रमण के संवाहक की भूमिका निभाते हैं।
गर्मी के मौसम में जब अत्यधिक ताप से पसीना हो या वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आ रही हो तो मौसम की आर्द्रता वाली जलवायु, एवं पानी गंदगी का ठहराव वाली जगह जहां मच्छर मक्खी जैसे रक्त चूसने वाले कीट पैदा होते हैं यह काल और वातावरण संक्रमण के प्रसार के लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है।
अनुकूल गंदगी व जलभराव से पनपे यह मच्छर या कीट किसी संक्रमित पशु का रक्त चूसते है और संवाहक बन जाते हैं, फिर जब वे किसी स्वस्थ पशु को काटते हैं तो यह विषाणु उनकी त्वचा के सब्क्यूटेनियस स्तर में उपलब्ध रक्त व लसिका में प्रवेश पाकर अपनी संख्या बृद्धि करता है, उनके शरीर द्रव्यों से मिलकर उन्हें भी संक्रमणशील बना देता है, फिर किसी संवेदनशील पशु को इनका सम्पर्क आसानी से संक्रमित कर सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोग का प्रसार या तो मच्छर आदि कीट के काटने से अथवा संक्रमित पशु के शरीर द्रव्य जैसे लार, थूक, बलगम, मल, मूत्र , पसीने के माध्यम से भी संभव है।
क्या होते हैं लक्षण
किसी पशु में विषाणु के प्रवेश के 7-10 दिनों बाद लक्षणों का दिखना शुरू होता है,अतः इसे इंक्यूबेशन पीरियड कहते है।
पशु चिकित्सा विशेषज्ञों से प्राप्त जानकारी के आधार पर
एक सप्ताह बाद जब शरीर मे विषाणुओं की पर्याप्त विषाक्तता हो जाती है तो पशु में सुस्ती, सिहरन दिखती है सम्भवतः उसे ठंडी भी लगती हो किन्तु तब उसे लगभग 106 डिग्री फारेनहाइट तक तेज बुखार आता है। जिससे उसका पूरा शरीर तपने लगता है, आंखें लाल सी ,आंख, नाक, मुंह से पानी जैसा स्राव दिखने लगता है। यह बुखार एक सप्ताह तक या अधिक समय तक लगातार अथवा रुक रुक कर आ सकता है। बुखार के समय उसकी प्यास बढ़ सकती है या नहीं हो सकती है।हो सकता है पूरे शरीर मे दर्द भी होता हो जो उसकी ऐंठन या सुस्ती से पहचाना जा सकता है। रक्त की यह विषाक्तता जब लसिका नलियों में प्रवेश कर जाती है तो मुंह, गले, आगे पीछे के पैरों के पास की ग्रथियों में सूजन आ जाती है। शरीर की सभी म्यूकस मेंब्रेन पर सूजन अल्सर या घाव और लम्प से गाढ़ा स्राव यह महत्वपूर्ण लक्षण देखने को मिलते हैं।
इसी समय 7-15 दिनों बाद तक त्वचा पर बड़े छाले जैसे उद्भेद पनपते हैं जो बाद में कड़े हो जाते हैं, अथवा गोटियों की सूरत में दाने या गठानें उभर आती हैं। रोग की अवस्था बढ़ने के साथ इनमें पस भी बन सकता है और पीला पन लिए गाढ़ा मवाद भी, खंडित होकर त्वचा में अल्सर की संभावना हो सकती है। ऐसे ही आंख, नाक , मुह से होने वाला पनीला स्राव भी गाढ़ा पीवयुक्त, चिपकने वाला या कभी कभी सूतदार हो सकता है,जो सुबह आंखों में कीचड़ की तरह या नाक में जमी पपड़ी की तरह दिख सकता है। यदि जानवर अपनी पूछ से शरीर पर रगड़ता है या जीभ से अंगों व नाक को चाटता है तो यह संकेत दानों, छालों, या स्राव में खुजली होने का भी हो सकता है। पैरों में भी सूजन आ सकती है।
बुखार और ग्रन्थियों में सूजन के कारण चबाने व निगलने की दिक्कत के कारण भूख होने पर भी पशु चारा नहीं खा पता, अथवा उसकी भूख में कमी भी आ सकती है। यदि उपचार व देखरेख में पशु स्वस्थ भी हो गया तो त्वचा का यह विकार स्थायी विकृति के रूप में भी हो सकता है, उसकी दुग्ध उत्पादन व प्रजनन क्षमता में बहुत कमी आ जाती है, गर्भस्त पशु का गर्भपात भी हो सकता है।चलने में दिक्कत होती है।
इसी प्रकृति का एक और विषाणु जनित रोग जिसे स्यूडो लम्पी स्किन डिसीज के नाम से वर्गीकृत किया जाता है , जिसका संक्रमण काल 5-9 दिन होता है और इसमे पशु को हल्का बुखार, अचानक त्वचा पर दाने या गठानें उभर आती हैं।
बचाव -
संक्रमित पशु को सभी स्वस्थ पशुओं से एकदम अलग, साफ जगह पर रखना।
आस पास गंदगी व जलभराव नही हो। संक्रमण शरीर द्रव्यों के माध्यम से फैलता है इसलिए बछड़े को दूध न पिलाया जाय।
वैक्सीनेशन बचाव का संभव उपाय है, माता पशु के जरिये उसके बछड़े को भी कोलेस्ट्रम के साथ प्रथम 6-8 माह के लिए प्राकृतिक प्रतिरक्षा मिल सकती है।
यद्यपि मनुष्यों में तो इस वायरस का कोई प्रभाव अब तक नहीं देखा गया है फिर भी संक्रमित पशु से दूरी व दूध से बचना चाहिए।
उपचार -
किसी चिकित्सा पद्धति में एलएसडी का कोई विशिष्ट ज्ञात अथवा सर्वमान्य उपचार का ज्ञान अभी न होने से लाक्षणिक उपचार और प्रबंधन कर अपने पशु की पीड़ा को न्यूनतम करने और जीवन बचने का उपाय करते हैं।उपचार के लिए पशुचिकित्सक का मार्गदर्शन आवश्यक है।
होम्योपैथी में उपचार की संभावनाएं
होम्योपैथी मानसिक व शारीरिक लक्षणों की समग्रता पर वैशिष्ट्य औषधि चयन कर उपचार की पद्धति है, इसलिए पशुओं में नवजात की भांति मानसिक व शारीरिक संकेतो के गहन आकलन के बाद ही कुशल प्रशिक्षित होम्योपैथी चिकित्सक ही सम्बंधित केस के लिए निर्दिष्ट औषधि का चयन कर सकते हैं। होम्योपैथी दवाएं सभी सजीवों पर समानरूप से व्यवहार करती हैं।
अभी तक ज्ञात सामान्य लक्षणों के होम्योपैथिक वर्गीकरण के आधार पर एलएसडी के दो स्वरूप मिलने की संभावना है।पहला और सबसे अधिक प्रभावी कारण सोरा सिफिलिटिक मायज्म ,जिसमे रोगी पशु में छाले गठानों के बाद पक कर फूट जाते हैं अथवा दूसरा सोरा सायकोटिक मायज्म की मिश्रित प्रभाविता के लक्षण , जिसमे शरीर पर कड़ी गठानें मिलती हैं।
होम्योपैथी दृष्टि से उचित औषधि चयन में सहायक हो पाने वाला लक्षण समूह संभव हो सकता है
गर्मी व बरसात के मौसम में रोगजनकता,
बुखार के साथ आंख नाक मुंह की म्यूकस मेंब्रेन से गाढ़े या पानी जैसे स्राव की अधिकता,
बुखार के साथ दाने या गठानों की उत्पत्ति,
स्माल पॉक्स जैसे ज्वर और ग्रंथियों की सूजन ,
और उपरोक्त लक्षण समूह के आधार पर मर्करी समूह की औषधियां समस्त लक्षणों पर प्रभावी पाई जाती हैं। इनमें भी मर्क बिन आयोड पशुओं के अधिकांश लक्षणों को समर्थन करती है, इसके बाद मर्क साल, लैकेसिस, रस टॉक्स व हिपर सल्फ महत्वपूर्ण हैं।
रोग की अलग अलग अवस्थाओं और लक्षणों की प्रभाविता के आधार पर भी यदि औषधियों का चयन करना हो तो पशुओं के लम्पी त्वचा रोग में संक्रमण की शुरुआती पहचान होते ही गांठे बन जाने पर काली आयोड , तेज बुखार, लसिका ग्रन्थियों की सूजन, मुंह, आंख, नाक से जलन युक्त पनीला स्राव व शरीर पर घाव हों तो मर्क साल, शरीर पर गठानों के साथ नाक से गाढ़ा हरा पानी और घाव होने पर थूजा,नाक आंख, बड़े लाल आधार वाले दाने व बुखार पर रस टॉक्स, दानों के आधार नीला या काला पन लिए हुए हों, चारा निगलने में तकलीफ तो लैकेसिस, अचानक बुखार , लालिमा के साथ गठानों पर बेलाडोना,प्यास रहित तेज बुखार व पीलापन लिए मवाद वाली दानों की अवस्था मे पल्स, बड़े मवाद के घाव होने पर वैरियोलिनम, बीमारी के कारण मूत्र या अल्सर में दुर्गंध होने पर यूरेनियम नाइट्रिकम, घाव से दुर्गंध व पैरों में सूजन होने पर नाइट्रिक एसिड, मवाद बनने पर स्पर्श की संवेदनशीलता होने पर हिपर सल्फ, घाव भरने व सूखने के लिए साइलीशिया,आदि दवाओं का कुशलतापूर्वक निर्देशन में स्वच्छता की उचित व आवश्यक सावधानियों के साथ प्रयोग किया जाय तो बहुत से पशुओं को जीवन के संकट से उबारने में होम्योपैथी मददगार साबित हो सकती है।यद्यपि होम्योपैथी दवाओं का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता फिर भी शीघ्र व सहज लाभ के लिए एवं पशु हमारी तरह अपने लक्षणों व पीड़ा को व्यक्त नहीं कर सकते इसलिए भी उपचार के लिए किसी भी पद्धति को अपनाते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उचित औषधि उसकी शक्ति मात्रा या पुनरावरत्ति का निर्धारण चिकित्सक ही अपने कुशल ऑब्जर्वेशन के बाद कर सकता है अतः हमें मीडिया माध्यमों पर उपलब्ध जानकारी को जागरूकता के स्रोत के रूप में ही लेना चाहिए किन्तु अपने पशु की जीवनरक्षा के लिए उपचार चिकित्सक के ही मार्गदर्शन में करना श्रेयस्कर है।
डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथी चिकित्सक
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या
महासचिव-होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
सहसचिव -आरोग्य भारती अवध प्रान्त










