चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Monday, 19 September 2022

लम्पी त्वचा रोग से पीड़ित गौमाता की सेवा में होम्योपैथी


लम्पी वायरस त्वचा रोग और होम्योपैथी की संभावनाएं


प्रकृति और जीवन के यथार्थ व  रहस्यों का परिचय समय के साथ नित नए रूप में मिलता रहता है। कुछ समय पूर्व तक कोरोना वायरस जनित कोविड महामारी से विश्व मानवता अभी उबर ही रही थी कि एक और वायरस ने हमारे मवेशियों में लम्पी त्वचा रोग का प्रसार कर जीवन का संकट उत्पन्न करना प्रारम्भ कर दिया।
 पालतू पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेंड़, बकरियों में विषाणु जनित एक संक्रामक त्वचा रोग जिसमे पशुओं की त्वचा पर गोटियां या ढेलेदार गांठे ; जिन्हें लम्प कहते हैं, के रूप में प्रदर्शित होने के कारण इसे लम्पी स्किन डिसीज या एलएसडी कहा जाता है। इसका कोई विशिष्ट उपचार अभी ज्ञात नहीं है, और  आनुपचारित रह जाने पर पशुओं की मृत्यु भी हो जाती है। 

विश्व मे सबसे पहले 1929 में जाम्बिया में इस तरह के रोग की पहचान हुई,और इसके बाद यह समाप्त सा हो गया था। 1957 में केन्या में भेड़ो में पुनः इस तरह के रोग की पहचान हुई जिसके  बाद दक्षिण अफ्रीका , इजरायल आदि देशों में भी इसके मामले पहचान में आये। भारत मे 2019 में पहली बार इस रोग का प्रवेश हुआ। वर्तमान में गुजरात राजस्थान सहित देश के अनेक राज्यों में लम्पी त्वचारोग से गौ माताओं व अन्य पशुओं के प्रभावित होने के समाचार तमाम मीडिया माध्यमों से मिलने लगे हैं।  यद्यपि संक्रमण होने से पूर्व ही वैक्सीनेशन से बचाव संभव है किंतु संक्रमित पशु का भाषारहित होना और ऐसे में उपचार प्रबंधन यदि सही समय पर न हुआ तो यह उसके जीवन का संकट तो उत्पन्न ही करता है साथ ही पशुधन के नुकसान से,इससे जुड़ी देश प्रदेश की अर्थ व्यवस्था के लिए भी चिंता का विषय बन जाता है। नवजात शिशु की तरह मनुष्यों के लिए पशुओं की भाषा से विषमता, उनकी  पीड़ा की अभिव्यक्ति, और हमारी अनुभूति के अंतर व सामंजस्य पर ही नैदानिक संभावना की तलाश भी बड़ा विषय है।

लम्पी त्वचा रोग : कारण, और रोग की उत्पत्ति

हम सभी विषाणु रोग चिकन पॉक्स, स्माल पॉक्स, कॉऊपॉक्स, मोलस्कम कंटाजियोसम , मंकी पॉक्स आदि से परिचित हैं या इनके बारे में कुछ सुना पढा अवश्य होगा,उपलब्ध जानकारी के अनुसार  इसी परिवार- पॉक्सविरिडी, का एक सदस्य जिसे कैप्रिपॉक्स या नीथलिंग विषाणु कहते हैं, इस गाँठयुक्त त्वचा रोग का कारण है।

 विषाणु से कैसे पनपता है रोग ?

मनुष्य हो या पशु , त्वचा सभी के शरीर का सबसे बड़ा अंग और बाहरी आवरण है जिसकी बाहरी परत किरेटिन प्रोटीन की होती है, साथ ही इसमे कम पीएच, व फैटी एसिड , प्रतिरक्षा के अन्य घटक  त्वचा की अखंडता बनाये रखते हुए किसी भी बाहरी जीवाणु , विषाणु के शरीर मे प्रवेश को रोकते हैं। हल्का फुल्का घर्षण या छिलने से जब त्वचा की यह अखंडता भंग होती है तो संक्रमण की स्थानीय संभावना बन जाती है। किंतु रक्त चूसने वाले कीट पतंगे मक्खी,मच्छर  जो त्वचा को डर्मिस या सबक्यूटिस स्तर तक भेद पाते हैं, जहां रक्त व लसिका की समृद्ध आपूर्ति होती है, तो यह विषाणु के प्रसार मार्ग के रूप में कार्य करती है, और ये कीट संक्रमण के संवाहक की भूमिका निभाते हैं।
गर्मी के मौसम में जब अत्यधिक ताप से पसीना हो या वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आ रही हो तो मौसम की आर्द्रता वाली जलवायु, एवं  पानी गंदगी  का ठहराव वाली जगह जहां मच्छर मक्खी जैसे रक्त चूसने वाले कीट पैदा होते हैं यह काल और वातावरण संक्रमण के प्रसार के लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है।

 अनुकूल गंदगी व जलभराव से पनपे यह मच्छर या कीट किसी संक्रमित पशु का रक्त चूसते है और संवाहक बन जाते हैं, फिर जब वे किसी स्वस्थ पशु को काटते हैं तो यह विषाणु उनकी त्वचा के सब्क्यूटेनियस स्तर में उपलब्ध रक्त व लसिका में प्रवेश पाकर अपनी संख्या बृद्धि करता है, उनके शरीर द्रव्यों से मिलकर उन्हें भी संक्रमणशील बना देता है, फिर किसी संवेदनशील पशु को इनका सम्पर्क आसानी से संक्रमित कर सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोग का प्रसार या तो मच्छर आदि कीट के काटने से अथवा संक्रमित पशु के शरीर द्रव्य जैसे लार, थूक, बलगम, मल, मूत्र , पसीने के माध्यम से भी संभव है।

क्या होते हैं लक्षण 

किसी पशु में विषाणु के प्रवेश के 7-10 दिनों बाद लक्षणों का दिखना शुरू होता है,अतः इसे इंक्यूबेशन पीरियड कहते है।
पशु चिकित्सा विशेषज्ञों से प्राप्त जानकारी के आधार पर
एक सप्ताह बाद जब शरीर मे विषाणुओं की पर्याप्त विषाक्तता हो जाती है तो पशु में सुस्ती, सिहरन दिखती है सम्भवतः उसे ठंडी भी लगती हो किन्तु तब उसे लगभग 106 डिग्री फारेनहाइट तक तेज बुखार आता है। जिससे उसका पूरा शरीर तपने लगता है, आंखें लाल सी ,आंख, नाक, मुंह से पानी जैसा स्राव दिखने लगता है। यह बुखार एक सप्ताह तक या अधिक समय तक लगातार अथवा रुक रुक कर आ सकता है। बुखार के समय उसकी प्यास बढ़ सकती है या नहीं हो सकती है।हो सकता है पूरे शरीर मे दर्द भी होता हो जो उसकी ऐंठन या सुस्ती से पहचाना जा सकता है। रक्त की यह विषाक्तता जब  लसिका नलियों में प्रवेश कर जाती है तो मुंह, गले, आगे पीछे के पैरों के पास की ग्रथियों में सूजन आ जाती है। शरीर की सभी म्यूकस मेंब्रेन पर सूजन अल्सर या घाव और लम्प से गाढ़ा स्राव यह महत्वपूर्ण लक्षण देखने को मिलते हैं।
इसी समय 7-15 दिनों बाद तक त्वचा पर बड़े छाले जैसे उद्भेद पनपते हैं जो बाद में कड़े हो जाते हैं, अथवा गोटियों की सूरत में दाने या गठानें उभर आती हैं। रोग की अवस्था बढ़ने के साथ इनमें पस भी बन सकता है और पीला पन लिए गाढ़ा मवाद भी, खंडित होकर त्वचा में अल्सर की संभावना हो सकती है। ऐसे ही आंख, नाक , मुह से होने वाला पनीला स्राव भी गाढ़ा पीवयुक्त, चिपकने वाला या कभी कभी सूतदार हो सकता है,जो सुबह आंखों में कीचड़ की तरह या नाक में जमी पपड़ी की तरह दिख सकता है। यदि जानवर अपनी पूछ से शरीर पर रगड़ता है या जीभ से अंगों व नाक को चाटता है तो यह संकेत दानों, छालों, या स्राव में खुजली होने का भी हो सकता है। पैरों में भी सूजन आ सकती है।
बुखार और ग्रन्थियों में सूजन के कारण चबाने व निगलने की दिक्कत के कारण भूख होने पर भी पशु चारा नहीं खा पता, अथवा उसकी भूख में कमी भी आ सकती है। यदि उपचार व देखरेख में पशु स्वस्थ भी हो गया तो त्वचा का यह विकार स्थायी विकृति के रूप में भी हो सकता है, उसकी दुग्ध उत्पादन व प्रजनन क्षमता में बहुत कमी आ जाती है, गर्भस्त पशु का गर्भपात भी हो सकता है।चलने में दिक्कत होती है।

इसी प्रकृति का एक और विषाणु जनित रोग जिसे स्यूडो लम्पी स्किन डिसीज के नाम से वर्गीकृत किया जाता है , जिसका संक्रमण काल 5-9 दिन होता है और इसमे पशु को हल्का बुखार, अचानक त्वचा पर दाने या गठानें उभर आती हैं।



बचाव -

संक्रमित पशु को सभी स्वस्थ पशुओं से एकदम अलग, साफ जगह पर रखना।
आस पास गंदगी व जलभराव नही हो। संक्रमण शरीर द्रव्यों के माध्यम से फैलता है इसलिए बछड़े को दूध न पिलाया जाय।
वैक्सीनेशन बचाव का संभव उपाय है, माता पशु के जरिये उसके बछड़े को भी कोलेस्ट्रम के साथ प्रथम 6-8  माह के लिए प्राकृतिक प्रतिरक्षा मिल सकती है।
यद्यपि मनुष्यों में तो इस वायरस का कोई प्रभाव अब तक नहीं देखा गया है फिर भी संक्रमित पशु से दूरी व दूध से बचना चाहिए।

उपचार -
किसी चिकित्सा पद्धति में एलएसडी का कोई विशिष्ट ज्ञात अथवा सर्वमान्य उपचार का ज्ञान अभी न होने से लाक्षणिक उपचार और प्रबंधन कर अपने पशु की पीड़ा को न्यूनतम करने और जीवन बचने का उपाय करते हैं।उपचार के लिए पशुचिकित्सक का मार्गदर्शन आवश्यक है।

होम्योपैथी में उपचार की संभावनाएं

 होम्योपैथी मानसिक व शारीरिक लक्षणों की समग्रता पर वैशिष्ट्य औषधि चयन कर उपचार की पद्धति है, इसलिए पशुओं में नवजात की भांति मानसिक व शारीरिक संकेतो के गहन आकलन के बाद ही कुशल प्रशिक्षित होम्योपैथी चिकित्सक ही सम्बंधित केस के लिए निर्दिष्ट औषधि का चयन कर सकते हैं। होम्योपैथी दवाएं सभी सजीवों पर समानरूप से व्यवहार करती हैं।  

अभी तक ज्ञात सामान्य लक्षणों के होम्योपैथिक वर्गीकरण के आधार पर एलएसडी के दो स्वरूप मिलने की संभावना है।पहला और सबसे अधिक प्रभावी कारण सोरा सिफिलिटिक मायज्म ,जिसमे रोगी पशु में छाले गठानों के बाद पक कर फूट जाते हैं अथवा दूसरा सोरा सायकोटिक मायज्म की मिश्रित प्रभाविता के लक्षण , जिसमे शरीर पर कड़ी गठानें मिलती हैं।

होम्योपैथी दृष्टि से उचित औषधि चयन में सहायक हो पाने वाला लक्षण समूह संभव हो सकता है

गर्मी व बरसात के मौसम में रोगजनकता,
बुखार के साथ आंख नाक मुंह की म्यूकस मेंब्रेन से गाढ़े या पानी जैसे स्राव की अधिकता,
बुखार के साथ दाने या गठानों की उत्पत्ति,
स्माल पॉक्स जैसे ज्वर और ग्रंथियों की सूजन ,

और उपरोक्त लक्षण समूह के आधार पर मर्करी समूह की औषधियां समस्त लक्षणों पर प्रभावी पाई जाती हैं। इनमें भी मर्क बिन आयोड पशुओं के अधिकांश लक्षणों को समर्थन करती है, इसके बाद मर्क साल, लैकेसिस, रस टॉक्स व हिपर सल्फ महत्वपूर्ण हैं।
 रोग की अलग अलग अवस्थाओं और लक्षणों की प्रभाविता के आधार पर भी यदि औषधियों का चयन करना हो तो पशुओं के लम्पी त्वचा रोग में संक्रमण की शुरुआती पहचान होते ही गांठे बन जाने पर काली आयोड , तेज बुखार, लसिका ग्रन्थियों की सूजन, मुंह, आंख, नाक से जलन युक्त पनीला स्राव व शरीर पर घाव हों तो मर्क साल,  शरीर पर गठानों के साथ नाक से गाढ़ा हरा पानी और घाव होने पर थूजा,नाक आंख,  बड़े लाल आधार वाले दाने व बुखार पर रस टॉक्स, दानों के आधार नीला या काला पन लिए हुए हों, चारा निगलने में तकलीफ तो लैकेसिस,  अचानक बुखार , लालिमा के साथ गठानों पर बेलाडोना,प्यास रहित तेज बुखार व पीलापन लिए मवाद वाली दानों की अवस्था मे पल्स, बड़े मवाद के घाव होने पर वैरियोलिनम, बीमारी के कारण मूत्र या अल्सर में दुर्गंध होने पर यूरेनियम नाइट्रिकम, घाव से दुर्गंध व पैरों में सूजन होने पर नाइट्रिक एसिड, मवाद बनने पर स्पर्श की संवेदनशीलता होने पर हिपर सल्फ, घाव भरने व सूखने के लिए साइलीशिया,आदि दवाओं का कुशलतापूर्वक निर्देशन में स्वच्छता की उचित व आवश्यक सावधानियों के साथ प्रयोग किया जाय तो बहुत से पशुओं को जीवन के संकट से उबारने में होम्योपैथी मददगार साबित हो सकती है।यद्यपि होम्योपैथी दवाओं का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता फिर भी शीघ्र व सहज लाभ के लिए एवं  पशु हमारी तरह अपने लक्षणों व पीड़ा को व्यक्त नहीं कर सकते इसलिए भी उपचार के लिए किसी भी पद्धति को अपनाते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उचित औषधि उसकी शक्ति मात्रा या पुनरावरत्ति का निर्धारण चिकित्सक ही अपने कुशल ऑब्जर्वेशन के बाद कर सकता है अतः हमें मीडिया माध्यमों पर उपलब्ध जानकारी को जागरूकता के स्रोत के रूप में ही लेना चाहिए किन्तु अपने पशु की जीवनरक्षा के लिए उपचार चिकित्सक के ही मार्गदर्शन में करना श्रेयस्कर है।


डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथी चिकित्सक
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या

महासचिव-होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
सहसचिव -आरोग्य भारती अवध प्रान्त

Friday, 16 September 2022

दिल की बात, होम्योपैथी के साथ

हमारे शरीर मे मस्तिष्क और हृदय दो ऐसे अंग हैं जिनका निरन्तर क्रियाशील रहना हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। हृदय का मुख्य कार्य पूरे शरीर मे रक्त प्रवाह को बनाये रखना है, इसके लिए इसकी संरचना में चार कक्ष होते हैं दो अलिंद व दो निलय होते हैं। दाएं अलिंद में शरीर के अंगों से ,शिराओं के माध्यम से रक्त प्राप्त कर दाएं निलय में भेज दिया जाता है वहां से फेफड़ों में रक्त भेजकर उसमे ऑक्सीजन मिश्रित कर शुद्धि के बाद बाएं अलिंद में वापस लिया जाता है और बाएं निलय को भेज दिया जाता है वहां से धमनियों द्वारा शरीर के अन्य अंगों में भेजा जाता है।  इसी तरह हृदय की मांसपेशियों को कोरोनरी धमनियों द्वारा रक्तापूर्ति की जाती है जिससे उनकी क्रियाशीलता बनी रहती है। असामान्य परिस्थितियों में जब यह कार्य प्रभावित होता है तो हृदय रोग के लक्षण हृदयशूल, हृदयाघात प्रकट होने लगते हैं। विश्व सहित भारत मे हृदयाघात मृत्यु का दूसरा सबसे प्रमुख कारण है, जिससे प्रतिवर्ष 70000 से अधिक लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं।कोरोना महामारी के बाद हृदयाघात से होने वाली मृत्युदर में अचानक बृद्धि देखी जा सकती है। अब तो कम उम्र के बच्चों में भी ऐसी सूचनाएं मीडिया माध्यमों में पढ़ने सुनने को मिलने लगी हैं। इस लेख के माध्यम से हम सरलरूप में हृदय में होने वाली असामान्य परिस्थितियों के निर्माण और उनसे बचाव के तरीके व सम्भव उपाय उपचार को समझने का प्रयास करेंगे।

इस दृष्टि से सबसे पहले उन लक्षणों पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है जिनसे हम हृदयरोगी की सरलता से समय पर पहचान कर सकते हैं। जिनमे सबसे प्रमुख लक्षण है सीने में वक्ष अस्थि के थोड़ा सा बाई तरफ ह्र्दयस्थल में अचानक शुरू होने वाला तीव्र दर्द , जिससे व्यक्ति सांस लेने में भी कठिनाई अनुभव करता है, घबराहट, बेचैनी, व पसीने के साथ छाती पकड़ कर बैठ जाता है, ठीक से बोल भी नहीं पता, दर्द सीने से ऊपर की तरफ कंधों से होते हुए बाएं हाथ की दो उँगलियों , गर्दन और जबड़े तक महसूस होता है। इसके साथ छाती में जलन, भारीपन, उल्टी, चक्कर,  कमजोरी जैसे अन्य लक्षण भी मिल सकते हैं। यदि यह लक्षण किसी भी व्यक्ति में मिलें तो उसे अविलम्ब कुछ संभव जरूरी घरेलू उपायों के साथ चिकित्सकीय जांच व परामर्श के लिए ले जाना चाहिए।
हृदयाघात की उत्पन्न यह परिस्थिति अकस्मात भी हो सकती है अथवा क्रमिक विकास का परिणाम भी हो सकती है। जो हृदय की मांसपेशियों को रक्त संचार करने वाली कोरोनरी धमनियों में रक्त प्रवाह में आई बाधा से व्युत्पन्न ऑक्सीजन की कमी, जिसे इश्चीमिया कहते हैं ,के कारण संभव होता है। और रक्त प्रवाह में यह अवरोध उत्पन्न होंने का कारण नलियों में थक्के का निर्माण या जमाव होता है,जिससे रक्तनलियों की सामान्य लचक में भी कमी आती है , इसे धमनिकला काठिन्य रोग या आरटेरियोस्क्लेरोसिस एथिरोस्कलेरोसिस कहते हैं।  सामान्यतः रक्तनली में थक्का नहीं जम सकता यह उन्हीं स्थानों पर संभव हो पाता है जहां धमनियों में वसीय पदार्थ के व्युत्पन्न कलेस्ट्रॉल व अन्य पदार्थों के जमाव से सिकुड़न की स्थिति बन रही हो। 
धमनी कला काठिन्य रोग की प्रगति से धमनियां रक्त प्रवाह को सामान्य रूप से नियमित नहीं कर पाती हैं और सम्बंधित हृदय पेशियों को पर्याप्त मात्रा में पोषकतत्व व ऑक्सीजन नहीं पहुँच पाती है। इस स्थिति को स्थानिक अरक्तता या इश्चिमिक हार्ट डिसीज कहते हैं जो बाद में हृदयपेशिरोधगलन (myocardial infarction) जैसे उपद्रव पैदा होते हैं।

रोग प्रवर्तक कारक और कारण

व्यक्ति हृदय रोगों की उत्पत्ति के लिए जीवनशैली में धूम्रपान, तम्बाकू सेवन, अत्यधिक शराब, मांस, तैलीय खाद्य पदार्थों के सेवन और कोलेस्ट्रॉल के बढ़े स्तर, उच्चरक्तचाप, मोटापा, तनाव , अत्यधिक श्रम आदि को जिम्मेदार बताया जाता है किंतु होम्योपैथी के अनुसार यह रोग के मूल कारण नहीं, रोग को बढ़ाने में सहयोगी अवश्य हैं। यदि ऐसा ही होता तो विदेशों में हृदयरोग सर्वाधिक होने चाहिए।
वस्तुतः इसके पीछे हमारे मानसिक, पारिवारिक, भावनात्मक, उद्वेग भी उत्प्रेरक कारण की तरह होते हैं जो रक्त प्रवाह में  अचानक उच्च या निम्न रक्तचाप जैसी हलचल पैदा करते हैं जिससे रक्त वाहिकाओं की अंतः कला को आंशिक नुकसान पहुचता है।
होम्योपैथी के सिद्धांत अनुसार व्यक्ति में रोग प्रवृत्ति के मूल कारण सोरा सिफिलिस और साइकोसिस मयाज्म की परिस्थितिजन्य निरन्तर सक्रियता के प्रभाव में जीवनीशक्ति एथिरोस्क्लिरोसिस की प्रवृत्ति को जन्म देती है अथवा यह एक छोटे अबुर्द (atheroma) के बाद रुक जाती है जो कालांतर में पृथक होकर थ्रामबस या एम्बोलाई के रूप में भी प्रकट होता है। चिकित्सकीय दृष्टि से यह उत्क्रमणीय किन्तु प्रगामी अवस्था है जिसे होम्योपैथी अषधियों के प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता है।रक्त प्रवाह में अवरोध थक्का बनने के कारण होता है इसलिए थक्के बनने की प्रक्रिया और प्रवृत्ति को समझना आवश्यक है।

रक्तनली में थक्के बनने की प्रवृत्ति, प्रक्रिया व प्रकृति : मयजमैटिक दृष्टिकोण

नागपुर के प्रसिद्ध होम्योपैथी विशेषज्ञ डॉ कासिम चिमथनवाला   रोगों के मूल कारण तीनो मायज्म में से सोरा साइकोसिस व सोरा सिफिलिस की मिश्रित प्रभाविता को ट्यूबरकुलर मायज्म के रूप में परिभाषित करते हैं। इस दृष्टिकोण से धमनियों की अन्तःकोशिकाएं अनियमित हों या परिधीय रूधिर परिवहन में अवरोध से अंतः दीवारों पर कोई यांत्रिक क्षति पहुचती है तो ऐसे क्षत केंद्रों (nidus) पर दो प्रक्रियाओं से थक्के बनने की शुरआत होती है।
पहला सोरा सायकोटिक मायज्म की प्रभाविता में -
तंतुमय ऊतकों के निर्माण के साथ लिपिड्स का जमाव शुरू होता है, माईक्रोफेज कोशिकाओं द्वारा लिपिड का अवशोषण कर फोम सेल्स जिन्हें जॉन-स्टिनॉटिक फैटी स्ट्रीक्स बनते है और तंतुवत आवरण (फाइब्रोसिस) के साथ इनके आकार में बृद्धि होती है और सायकोटिक मायज्म के प्रभाव में कैल्शियम व मैग्नीशियम खनिज जमा होने से सायकोटिक चकत्ते /थक्के (plaque) बनते हैं। यह थक्के कठोर व अन्तःकला से चिपके हुए होते हैं जिनमे खनिजों का अनुपात लिपिड से अधिक होता है।  इस प्रकार के थक्कों के प्रभाव से नलियों में संकीर्णता, क्षरण, प्रगामी समावरोध (embolism) , विदर, या एक्यूट हृदयपेशीरोधगलन (AMI) हो सकते हैं।

दूसरे प्रकार के थक्के जो सोरा-सिफिलिटिक मायज्म के प्रभाव में विकसित होते हैं उसमे धमनियों की अन्तःकला में कोई जीवाणु संक्रमण से शीघ्र न भरने वाला घाव हो सकता है, अतः वहां हीलिंग प्रकियान्तर्गत मृत रक्त कोशिकाओं व प्लेटलेट्स आदि होते हैं जिनका अवशोषण मैक्रोफेज व मोनोसाइट्स द्वारा कर जॉन स्टिनॉटिक फैटी स्ट्रीक्स का निर्माण अपेक्षाकृत पतले तंतुमय आवरण के साथ  सिफिलिटक थक्के का विकास होता है और यहां अपजनन के साथ लिपिड्स का जमाव होता है इसलिए थक्के पनीर जैसे मुलायम बनते हैं जो आसानी से अपना स्थान छोड़कर रक्त प्रवाह के साथ तैर सकते हैं। इनके प्रभाव से अस्थायी हृदय शूल व एक्यूट हृदयपेशीरोधगलन हो सकता है।

रोग लक्षण-
प्राथमिक- श्वासकष्ट, सीने में दर्द, धड़कन, कनपटी में दर्द, चक्कर।
द्वितीयक- शोथ (oedema), खांसी, हृदयअतालता (arrhythmia).

जांच एवं पुष्टि-
उपरोक्त वर्णित प्रथमिक लक्षणों के आधार पर पुष्टि हेतु हृदय रोगों की जांच के लिए
एक्स रे,
 इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम से हृदय की मांसपेशियों की गति, अनियमितता मरमर आदि का परीक्षण किया जाता है।
इकोकार्डियोग्राफी द्वारा जन्मजात विकृति,  वाल्व की स्थिति आदि की जानकारी मिलती है।
कोरोनरी एंजियोग्राफी - हृदयशूल से पीड़ित व्यक्ति के सर्वोत्तम जांच मानी जाती है।
इसके अतिरिक्त सिटी स्कैन,  एम आर आई व अल्ट्रासोनोग्राफी व रक्त परीक्षण भी अन्य प्रमुख जांचे हैं जिनके आकलन के आधार पर उचित उपचार पद्धति के चयन में सहायता मिलती है।

आधुनिक चिकित्सकीय प्रबंधन में  शल्य क्रिया योग्य मामलों में एंजियोप्लास्टी, स्टेंट लगाना या प्लेसमेंट थरेपी का प्रयोग करते हैं।

होम्योपैथी उपचार -
होम्योपैथी में उपचार के दौरान व्यक्ति के व्यक्तिगत, पारिवारिक, इतिहास के साथ सम्पूर्ण लक्षणों के आधार पर क्रेटेगस,एडोनिस, अर्जुन, मकरध्वज, डिजिटेलिस, सुम्बुल,  कैक्टस, एपॉसायनम,  फास्फोरस, काली कार्ब, आदि दवाएं महत्वपूर्ण और अरोग्यदायिनी हैं।
बीमारी की अवस्था मे आवश्यकता अनुरूप उपचार की उचित पद्धति व औषधि चुनना ही चाहिए किन्तु उससे ज्यादा आवश्यक है जीवन परिवार व समाज मे तनाव पूर्ण स्थितियों का निर्माण होने से रोकें , स्वयं प्रसन्न रहें दूसरों से हंसकर मिलें, जीवन में नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों की समझ विकसित करें उन्हें स्वीकारें।। जीवन मे सर्वत्र  सकारात्मकता हो मन मस्तिष्क को अनावश्यक दबाव तनावमुक्त रहेगा और जीवनीशक्ति प्रबल रहेगा मयजमैटिक विचलन से बचेंगे और स्वस्थ रह सकेंगे।

डॉ उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
परामर्श होम्योपैथी चिकित्सक
होम्योपैथी फ़ॉर ऑल
 अयोध्या