विपत्ति, विपदा और आपदा मिलते जुलते शब्द हैं किंतु इनके भाव व प्रस्तुतियां भिन्न हैं।
विपत्ति या विपदा किसी व्यक्ति या परिवार का विषय है जैसे आर्थिक संकट, रोग, नौकरी व्यवसाय में हानि, फसल खराब हो जाना आदि किन्तु आपदा अचानक समाज के बड़े हिस्से को हानि पहुँचाने वाली घटनाएं हैं जिनसे मानव जीवन, और संपत्ति की विनाशकारी क्षति के साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संरचनाएं तक प्रभावित हो जाती हैं।
ऐसी घटनाओं की प्रकृति प्रवृत्ति और उत्पत्ति के आधार पर यह प्राकृतिक और मानव निर्मित दो प्रकार की हो सकती हैं।
प्राकृतिक आपदाएं - बाढ़, चक्रवात, सूखा, भूकम्प, भूस्खलन,सुनामी, ज्वालामुखी विस्फोट, टिड्डी दल का हमला, महामारी, समुद्री तूफान, गर्म हवाएं ,शीत लहर आदि।
मानव निर्मित आपदाएं - दंगे, आगजनी, विस्फोट, वायु रेल सड़क दुर्घटना, युध्द आदि।
भारत की भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियां भी कई बार प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील प्रतीत होती हैं।
आपदा प्रबंधन -
आपदा पूर्व ,
आपदाकाल में व
आपदा पश्चात प्रबंधन।
वैश्विक स्तर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन व यूनिसेफ जैसी संस्थाएं संभावित खतरों का निरन्तर आकलन , किसी हिस्से में प्रबंधन का अध्ययन और तदनुरूप सभी देशों को आवश्यक सूचनाएं जानकारियां समय समय पर उपलब्ध कराते ही रहते हैं किंतु
किसी भी राष्ट्र में आपदकाल में प्रबंधन मुख्यतः सरकार का दायित्व होता है और सामान्यतः तीन मुख्य स्तर होते हैं -
केन्द्रीय स्तर,राज्य स्तर, व स्थानीय अथवा जिलास्तर पर कार्य संपदित किये जाने की व्यवस्था होती है।
आपदा प्रबंधन के चरण-
बचाव :
घटना के तुरंत बाद की अवधि है जो कुछ घण्टो से लेकर लगभग दो सप्ताह तक चलती है। लोग, पीड़ित और अन्य ,समान रूप से परोपकार भावना से जीवन और संपत्ति के नुकसान को रोकने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, करने के लिए हाथ मिलाते हैं।
राहत :
यह आपदा के लगभग दो से छह महीने बाद तक समुदाय, स्वयंसेवी संगठन और सरकार से भारी मात्रा में राहत आपूर्ति एवं सहायता।
पुनर्वास : यह अवधि आपदा के एक से दो वर्ष या उससे अधिक समय तक जारी रहती है।
पुनर्निर्माण : वर्षों तक या जीवन भर अथवा पीढ़ियों तक भी जारी रह सकता है।
*********************
आपदा प्रबंधन के इस कार्य मे विशेष बल, सेना,पुलिस, प्रशासन, के साथ स्वयंसेवी संगठन, चिकित्सक , नर्स, आदि की भी महत्वपूर्ण भूमिका व योगदान रहता ही है। किंतु व्यक्ति के तौर पर हमारा भी सजग सचेत व जागरूक रहना आवश्यक है।
आपदाकल में व्यक्ति के तौर पर हमारी भूमिका-
भूकम्प के समय क्या करें-
बाहर की ओर न भागें, अपने परिवार के सदस्यों को दरवाजे के पास टेबल, पलंग के नीचे पहुँच जाएं।
घर से बाहर हों तो इमारतों, ऊँची दीवारों या बिजली के लटकते हुए तारों से दूर रहें, क्षतिग्रस्त इमारतों में प्रवेश न करें।
वाहन में हो तो किनारे रोककर वाहन के भीतर ही रहें।
आग लगने पर घरों में -बिजली के उपकरण चूल्हे, गैस व पानी बन्द कर दें। यदि घर में आग लग गई हो और उसे तत्काल बुझाना सम्भव न हो तो तत्काल बाहर निकल जायें। पालतू जानवरों को खोल दें।
बाढ़ के समय क्या करें -
मीडिया या संचार माध्यमों से बाढ़ की पूर्व सूचना चेतावनी पर ध्यान दें या आशंका हो तो बिजली के सभी उपकरणों के कनेक्शन अलग कर दें तथा अपने सभी मूल्यवान और घरेलू सामान कपड़े आदि को बाढ़ के पानी की पहुँच से दूर कर दें। खतरनाक प्रदूषण से बचने के लिये सभी कीटनाशकों को पानी की पहुँच से दूर ले जायें। वाहनों, खेती के पशुओं और ले जा सकने वाले सामान को निकट के ऊँचे स्थान पर ले जायें, घर के बाहरी दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दें।
*******************
आपात स्थितियों में सबसे महत्वपूर्ण विषय है आपदाग्रस्त महिलाओं बच्चों व परिवारों की व्यक्तिगत, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक ,व भावनात्मक क्षति जिससे बाहर लाकर उन्हें जीवन समाज व राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना।
अनपेक्षित और अचानक आयी किसी भी आपदा के लिए सामान्यतः हम मानसिक रूप से तैयार नहीं होते, सभी अपने दैनिक, निजी, पारिवारिक या अन्य जिम्मेदारी के कार्यों में सक्रिय रहते हैं, अचानक हमारी गतिशीलता पर विराम सा लग जाता है,अपनों को खो चुके हैं, अनाथ बच्चे, महिलाएं व लोग जो अपना सब कुछ गवां चुके होते है वह उनके लिए अपंगता, अकेलापन, अपनो की पीड़ा, जीवन के लिए रोटी कपड़ा और आवास के साथ स्वास्थ्य और दुख से उबरने की स्थितियों में धैर्य कहने लिखने में तो सरल प्रतीत होता है किंतु सामान्य जीवन से जुड़ पाने में बहुत कठिन होता है। आत्मबल तो टूट ही जाता है , ईश्वर, धर्म संस्कृति व समाज आदि विषयों से भी विश्वास हटने लगता है, व्यथा अव्यक्त और जीवन जीते हुए भी लक्ष्यहीन लगने लगता है, ऐसे में उनकी सामान्य मानवीय संवेदनाएं, प्रतिक्रियाएँ, सोंचने के तरीक़े ,व्यवहार ,बातचीत करने के तरीके में अंतर आने लगता है।
और हम इससे स्वयं को सम्बद्ध नही कर पाते, यह मनोवृत्ति डिनायल या अस्वीकार्यता कहलाती है, जो एंग्जायटी का ही व्यवहारिक दोष है। यह सदमा हमारी बुद्धि विवेक धैर्य में ऐसी हलचल पैदा कर देता है कि व्यक्ति बदहवास सा घोर दुख संताप, निराशा से होते हुए क्रोध के विस्फोटक स्वरूप में प्रदर्शित हो सकता है।
मजबूत इच्छाशक्ति वाले कुछ लोग हो सकते हैं जो समय के साथ स्वयं को इस आघात से निकाल पाने में सफल हो सकते हों किन्तु ज्यादातर को सामाजिक, प्रशासनिक, चिकित्सकीय और सबसे ज्यादा स्नेह सहयोग की आवश्यकता होती है।
और ऐसी ही आपात परिस्थितियों में श्रेष्ठ प्रबंधन का सूत्र हमे हमारे ग्रंथो से भी मिलता है।
रहीम ने लिखा-
रहिमन विपदा ऊ भली जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय।।
और तुलसीदास जी ने लिखा-
आपदकाल परखिए चारी ।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।।
यहां तुलसीदास जी का प्रबंधन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से व्यवहारिक है जहां
बचे हुए लोगों को समाज व सरकार का मैत्रीपूर्ण स्नेह सहयोग ही उनके बाधित जीवन में धैर्य धारण कर पुनर्वास व पुनर्निर्माण की लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया में बल प्रदान करती है।
बचाव, राहत , पुनर्वास और निर्माण के प्रयासों में सांस्कृतिक पहलुओं और सामयिक आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए प्रभावित जनसंख्या के बड़े हिस्से के मानसिक स्वास्थ्य हेतु स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के साथ-साथ स्थानीय लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय तंत्र को मजबूत कर ही पूरा किया जा सकता है ।
भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील होना ही श्रेष्ठ प्रबंधन का आधार है।
आपदाकाल में मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक -
आपदा काल मे या इससे पूर्व से चली आ रही जीवन पद्धति के अनुसार महिलाओं बच्चों व पीड़ितों के साथ होने वाले व्यवहार अथवा आपदा में अवसर तलाशने की दुष्प्रवृत्तियों जैसे चोरी, बच्चों महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, उत्पीड़न आदि के परिप्रेक्ष्य में संभावित स्थितियों का आकलन करें तो निम्न कारण हो सकते जो दीर्घकाल में मानसिक विकारों दुष्प्रवृत्तियों का कारण बन सकते हैं।
आपदा से पूर्व के कारक -
व्यक्ति में निरन्तर जीवन का तनाव, निम्न सामाजिक आर्थिक,शैक्षिक स्तर, सामाजिक सहयोग या समर्थन की कमी, पहले से मौजूद मानसिक विकार, प्रतिकूल बचपन, अंधविश्वासी या मानसिक विकारों का पारिवारिक इतिहास, अनुचित या नकारात्मक शिक्षण प्रशिक्षण आदि अवांछित दुर्घटनाओं या आपदाओं के कारण बन सकते हैं।
आपदा आघात से सम्बंधित कारक:
इसका अर्थ है आपदा के कारण गम्भीर व्यक्तिगत क्षति या आपदा समय मे समूहों में व्यक्तिगत या सामाजिक कुठाराघात से होने वाली क्षति जैसे प्रताड़ना, उत्पीड़न, बंधक बनाना, बाल मजदूरी,बाल तस्करी, व्यभिचार, हमला,आदि जिनसे व्यक्ति का मन मस्तिष्क विदीर्ण सा हो जाता है और उसमे अवसाद या क्रोध जनित बदले की भावना भर जाती है। दुष्परिणाम यह होता है कि व्यक्ति युवा या बच्चे धीरे धीरे समाज विरोधी भावना से भरते जाते है।
आघात के बाद के कारक:
जीवन के तनाव के बीच सामाजिक उपेक्षा व असहयोग, शोक, आवास , बच्चों का भविष्य, जीवनसाथी का विछोह, आजीविका के संसाधनों का अभाव, यह सब ऐसे कारक हैं जो व्यक्ति समूह के मन मस्तिष्क को दीर्घकाल तक निरन्तर चोटिल करते रहते हैं।
आपदा के मनोवैज्ञानिक प्रभाव-
भावनात्मक प्रभाव: सदमा, आतंक, चिड़चिड़ापन, क्रोध, अपराधबोध, शोक या उदासी, भावनात्मक पीड़ा, विवशता, असहायता, खुशी आनंद की अनुभूतियों का अभाव।
मानसिक प्रभाव : एकाग्रता, निर्णयात्मक क्षमता, स्मृति एवं विश्वास में कमी, भ्रम, बुरे सपने, आत्म-सम्मान में कमी, आत्मग्लानि के विचार।
शारीरिक प्रभाव: थकान, अनिद्रा, हृदय क्षेत्र में भारीपन, बेचैनी, चौंकना, शरीर या सिर में चलते रहने वाला दर्द, प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में कमी, चयापचयी व पाचन विकार, भूख, प्यास, कामेच्छा में कमी, रोग प्रवणता।
पारस्परिक प्रभाव: व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संबंधपरक तनाव संघर्ष, अविश्वास, पृथक्करण, उपेक्षा,हीनता,के परित्यक्त भाव।
समान्यकाल व आपदाकाल की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं में अंतर
सामान्य जीवन की समस्याओं संकटों के समय व्यक्ति शारीरिक मानसिक व भावनात्मक रूप से
धीरे धीरे ग्रहण कर उसका निदान खोजने के लिए आशावान व संघर्षशील होता है अर्थात उसकी जीवनपद्धति में 50 से 75 प्रतिशत सकारात्मकता विद्यमान रहती है । यह विपदा होती है जहां रहीम कहते है हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय, अर्थात व्यक्ति की निर्भरता किसी पर पूर्णतः नहीं होती अपेक्षा अवश्य होती है किंतु वह कुछ समय मे संकट की स्थिति से बाहर आने में स्वयं को सक्षम बना ही लेता है। किंतु संकट की यही तीव्रता जब विनाशकारी स्वरूप में आती है तो वह 75 से 100 प्रतिशत समाज सरकार के घटकों पर निर्भर हो जाता है और यही असहाय स्थिति गम्भीरता की सूचक है।
दीर्घकालिक मनोरोग का दुष्परिणाम व्यक्ति की क्रियात्मक क्षमता पर पड़ता है ।उनमें अवसादग्रस्तता , चिंता विकार, और पोस्टट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर व अन्य साइको सोमैटिक डिसऑर्डर की संभावना बढ़ जाती है।
आपदा के बाद साइको-सोसल प्रबंधन
बहुत पहले राहत सामग्री पहुँचाना और शिविर व आवास प्रबंधन ही प्राथमिकता हुआ करता था किंतु लगातार अध्ययनों के बाद यह अनुभव किया गया कि आपदा का प्रभाव लंबे समय तक रहता है, 'सामान्य स्थिति' में लौटने के समय में व्यक्तियों में सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक गतिविधियां आवश्यक होती हैं।
सामान्यतः विद्यालयों को किसी भी आपदा के समय प्रथम आश्रय स्थल के रूप में चुना जाता है। ऐसी स्थिति में सभी बच्चों की पृथक शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और पानी और स्वच्छता का प्रबंधन आवश्यक हो जाता है।
भारतीय परिदृश्य में इस तरह के प्रबंधन के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाता चिकित्सकों के साथ समाज के प्रबुद्ध वर्ग को भी अकस्मात स्थिति में प्राथमोपचार विधियों में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे कि वह समय पर सहयोगी बन सकें। जैसे आरोग्य भारती द्वारा आरोग्य मित्र प्रशिक्षण, एवं अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा दिया जा सकने वाला द्वारा आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण।सामाजिक न्याय, समंवित संस्कृति ,योग-अध्यात्म को प्रोत्साहन और नशाखोरी ड्रग्स पर नजर बनाए रखना, संभावित नागरिक संघर्ष की स्थितियों को कम करना, सांस्कृतिक, रोजगारपरक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य संबंधी संवाद प्रशिक्षण को बढ़ाना। आपदाओं का असर पीढ़ियों तक न जाए इसलिए इसके प्रबंधन में सरकार, समुदाय, और स्वयंसेवी संस्थाओं व जागरूक नागरिकों का समन्वय सबसे महत्वपूर्ण है। समग्र स्वास्थ्य अर्थात शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक की कल्पना से ही समग्र विकास व पुनर्निर्माण की सिद्धि हो सकती है ।
डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी फ़ॉर आल










