अपेक्षा और उपेक्षा दोनों अपने वर्णक्रम का पालन करती है, किन्तु निरपेक्षता में व्यंजना है।अपेक्षा समय परिस्थिति के सापेक्ष व्यक्त होती है, उपेक्षा मौन।
निरपेक्ष दोनों ही स्वरों की एकात्म व्यंजना.... यही प्रकृति का व्याकरण है।
सामान्य मनुष्य स्वयं को कितना भी श्रेष्ठ व ज्ञानी समझता रहे किन्तु प्रकृति के व्याकरण को नहीं बदल सकता।
मूल को जाने बिना वह अपनी बुद्धि विवेक से तर्क अर्थ लगाता रहता है, किन्तु प्रकृति का भावार्थ अब तक मनुष्य के लिए अपेक्षित विषय है।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथ
अयोध्या










