चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Thursday, 2 May 2024

मनःस्थिति को समझ कर ही कहना उचित

 


व्यथा हो या कथा दोनों योग्य  श्रोता होने पर कल्याणकारी हो सकती है।

कथा में वक्ता ज्येष्ठ होता है जबकि व्यथा में श्रोता।

श्रोता की तीन श्रेणियां है, प्रथम एक कान से सुने दूसरे से निकाल दे, दूसरा कान से सुने और लोगो से कहता फिरे, और तीसरा सुन ले किन्तु किसी से न कहे।

कथा उसी श्रोता को सुनानी उचित जिसके हृदय में भक्ति, आस्था व समर्पण का भाव हो, जो कथा के मर्म को ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हो, कथा में कोई भी श्रोता हो सकते हैं किंतु दूसरे और तीसरे प्रकार के श्रोता उचित रहते हैं ।
किन्तु व्यथा कहने से पूर्व श्रेष्ठ श्रोता की पहचान कर लेना आवश्यक है, इसमे तीसरे प्रकार का ही श्रोता उचित है जो सुन ले और उचित समाधान के लिए सहयोगी हो सके किन्तु एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने वाले या व्यथित की सुनकर जगह जगह उसकी चर्चा करने वाले किसी भी प्रकार उचित नहीं।

रहीम जी ने भी लिखा-
रहिमन निज मन की व्यथा सकुचि न कहियो कोय,
सुनि इठलइहैं लोग सब 
बांट न लेइहैं कोय।।



डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथ

सभी नहीं कर सकते सेवा...


    पहचान पद प्रतिष्ठा सभी का त्याग कर जो सेवा भाव को हृदय में धारण कर लेते हैं वह महावीर बजरंगबली की तरह  स्वतः ही भक्ति पथ के अनुगामी बन जाते है।किन्तु सेवा सभी कर भी नहीं सकते क्योंकि सेवा तो वही कर सकता है, जिसकी स्वयं के लिए कोई कामना न हो, वाणी मृदु, आचरण विनम्र,हृदय संवेदनशील , सेवा कार्य में आस्था एवं निष्ठा हो , मन मे ईर्ष्या द्वैष न हो समदृष्टिभाव हो।
 अब प्रश्न है कि कामना रहित कौन होगा क्योंकि सेवा करने के लिये धन, संसाधन, साधन आदि पदार्थों की आवश्यकता या सेवा करनेकी अभिलाषा भी कामना ही है; क्योंकि इससे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है।

 इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।
    दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है' - ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।
    'मैं किसीको कुछ देता हूँ' - ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं?नहीं न...तो बस सेवा नर में नारायण को देखते हुए उसीके अंश में अपने अंश की युक्ति ही हमारा उस परमपिता के सानिध्य का माध्यम है।
यह परस्पर श्रेय की अभिलाषा से मुक्त बस मन चित्त और आत्मा को परम शांति आनंद और संतुष्टि प्रदान करने का माध्यम है।

जय सियाराम
        

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी,
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या महानगर