चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Tuesday, 25 June 2024

अपेक्षा और उपेक्षा

अपेक्षा और उपेक्षा दोनों अपने वर्णक्रम का पालन करती है, किन्तु निरपेक्षता में व्यंजना है।अपेक्षा समय परिस्थिति के अनुरूप व्यक्त होती है, उपेक्षा मौन।
निरपेक्ष दोनों ही स्वरों की एकात्म व्यंजना.... यही प्रकृति का व्याकरण है।
सामान्य मनुष्य स्वयं को कितना भी श्रेष्ठ व ज्ञानी  समझता रहे किन्तु प्रकृति के व्याकरण को नहीं बदल सकता।
मूल को जाने बिना वह अपनी बुद्धि विवेक से तर्क अर्थ लगाता रहता है, किन्तु प्रकृति का भावार्थ  अब तक मनुष्य के लिए अपेक्षित विषय है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथ

सभी नहीं कर सकते सेवा...

पहचान पद प्रतिष्ठा सभी का त्याग कर जो सेवा भाव को हृदय में धारण कर लेते हैं वह महावीर बजरंगबली की तरह  स्वतः ही भक्ति पथ के अनुगामी बन जाते है।किन्तु सेवा सभी कर भी नहीं सकते क्योंकि सेवा तो वही कर सकता है, जिसकी स्वयं के लिए कोई कामना न हो, वाणी मृदु, आचरण विनम्र,हृदय संवेदनशील , सेवा कार्य में आस्था एवं निष्ठा हो , मन मे ईर्ष्या द्वैष न हो समदृष्टिभाव हो।
 अब प्रश्न है कि कामना रहित कौन होगा क्योंकि सेवा करने के लिये धन, संसाधन, साधन आदि पदार्थों की आवश्यकता या सेवा करनेकी अभिलाषा भी कामना ही है; क्योंकि इससे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है।

 इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।
    दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है' - ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।
    'मैं किसीको कुछ देता हूँ' - ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं? नहीं न...तो बस सेवा नर में नारायण को देखते हुए उसीके अंश में अपने अंश की युक्ति ही हमारा उस परमपिता के सानिध्य का माध्यम है।
यह परस्पर श्रेय की अभिलाषा से मुक्त बस मन चित्त और आत्मा को परम शांति आनंद और संतुष्टि प्रदान करने का माध्यम है।


        

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

श्रोता की मनःस्थिति को समझ कर ही कहना उचित

व्यथा हो या कथा दोनों योग्य  श्रोता होने पर कल्याणकारी हो सकती है।

कथा में वक्ता ज्येष्ठ होता है जबकि व्यथा में श्रोता।

श्रोता की तीन श्रेणियां है, प्रथम एक कान से सुने दूसरे से निकाल दे, दूसरा कान से सुने और लोगो से कहता फिरे, और तीसरा सुन ले किन्तु किसी से न कहे।

कथा उसी श्रोता को सुनानी उचित जिसके हृदय में भक्ति, आस्था व समर्पण का भाव हो, जो कथा के मर्म को ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हो, कथा में कोई भी श्रोता हो सकते हैं किंतु दूसरे और तीसरे प्रकार के श्रोता उचित रहते हैं ।
किन्तु व्यथा कहने से पूर्व श्रेष्ठ श्रोता की पहचान कर लेना आवश्यक है, इसमे तीसरे प्रकार का ही श्रोता उचित है जो सुन ले और उचित समाधान के लिए सहयोगी हो सके किन्तु एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने वाले या व्यथित की सुनकर जगह जगह उसकी चर्चा करने वाले किसी भी प्रकार उचित नहीं।

रहीम जी ने भी लिखा-
रहिमन निज मन की व्यथा सकुचि न कहियो कोय,
सुनि इठलइहैं लोग सब ,बांट न लेइहैं कोय।।


डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

निंदक नियरे रखिये....

विचार कीजिये जीवन मे
किसका हमारे आस पास होना प्रिय लगता है? और हम किससे दूरी बनाये रखते हैं या बचते हैं ?
उत्तर सहज है सभी अपने आत्मीय प्रियजन प्रशंसक मित्र को ही निकट चाहते हैं किंतु जो आपकी आलोचना करता हो या निंदा करने में हिचक नहीं करे उससे दूरी बनाए रखना उचित समझते हैं, कारण यह भय होना कि कहीं असमय वह आपकी कमियों को व्यक्त न कर दे और आपको अपमानित होना पड़े अथवा आपकी प्रतिष्ठा या छवि को धूमिल न कर दे, जबकि हमारे समक्ष हमारा ही गुणगान करने वाले , तर्थ्यों में हमारी महिमा पिरो कर प्रशंसा ही करने वाले मित्र आपको अधिक प्रिय लगते हैं,  हम उसे सदैव सन्निकट रखना पसंद करते हैं जो अच्छी प्रशंसा कर हमारी छवि गढ़ने में कुशल होता है।
किन्तु विचार कीजिये हमारे लिए अधिक उपयोगी कौन है वह प्रशंसक जिसके कारण हमारा जयगान होता है और हम काल्पनिक श्रेष्ठता के भ्रम में कर्महीन होते जाते हैं अथवा वह निंदक जो हमारी कमियों को उजागर कर हमें उनमें सुधार की संभावना दिखाता है, और यदि हम सुधार लाना प्रारम्भ कर देते हैं तो हमारा व्यक्तित्व और अधिक श्रेष्ठ होता जाता है।

कबीरदास जी ने बड़े ही सरल शब्दों में स्पष्ट कहा-

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, 
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

जोंक का समर्पण

जोंक एक ऐसा जीव है , जो स्वभाब से परजीवी है, किन्तु जिससे जुड़ता है प्रदर्शन एकात्म भाव सा रहता है किंतु उसका स्वाभाविक स्वार्थ रक्त है। अतः वह अपनी परिधि में आने वाले किसी भी ऐसे जीव से सहजता से जुड़ जाता है जिससे उसकी आवश्यकता पूर्ति होती रहे, और जब वह कमजोर होने लगता है या उसकी आवश्यकतापूर्ति का कोई श्रेष्ठ विकल्प मिल जाता है तो बिना अवसर गंवाए नए शरीर पर चिपक जाता है।
समाज मे भी ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जहां समर्पित निष्ठुस बड़े जीव की तरह होती है और समरस जीव उस जोंक की तरह।
सजग सचेत जाग्रत रहना चाहिए