पहचान पद प्रतिष्ठा सभी का त्याग कर जो सेवा भाव को हृदय में धारण कर लेते हैं वह महावीर बजरंगबली की तरह स्वतः ही भक्ति पथ के अनुगामी बन जाते है।किन्तु सेवा सभी कर भी नहीं सकते क्योंकि सेवा तो वही कर सकता है, जिसकी स्वयं के लिए कोई कामना न हो, वाणी मृदु, आचरण विनम्र,हृदय संवेदनशील , सेवा कार्य में आस्था एवं निष्ठा हो , मन मे ईर्ष्या द्वैष न हो समदृष्टिभाव हो।
अब प्रश्न है कि कामना रहित कौन होगा क्योंकि सेवा करने के लिये धन, संसाधन, साधन आदि पदार्थों की आवश्यकता या सेवा करनेकी अभिलाषा भी कामना ही है; क्योंकि इससे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है।
इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।
दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है' - ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।
'मैं किसीको कुछ देता हूँ' - ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं? नहीं न...तो बस सेवा नर में नारायण को देखते हुए उसीके अंश में अपने अंश की युक्ति ही हमारा उस परमपिता के सानिध्य का माध्यम है।
यह परस्पर श्रेय की अभिलाषा से मुक्त बस मन चित्त और आत्मा को परम शांति आनंद और संतुष्टि प्रदान करने का माध्यम है।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी