सत्य सर्वथा श्रेष्ठ है, सत्य को हम सभी अपनी पृथक दृष्टि से देखते हैं, इसलिए सत्य को स्वीकार करने के स्थान पर अपने तर्कों से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लग जाते हैं जबकि तर्क करने की अपेक्षा जिज्ञासा करना ज्यादा श्रेष्ठ है। तर्क से तात्पर्य गलत में सही जानने की इच्छा और जिज्ञासा से तात्पर्य दूसरे के सत्य को जानने की इच्छा, है।
सत्य को पहचानना, फिर जानना, और स्वीकारना जितना आवश्यक है उतना ही महत्वपूर्ण है उसके समर्थन में खड़े रहना, इतना भी न हो सके तो कम से कम निरपेक्ष रहना चाहिए, अर्थात मौन रहना श्रेयस्कर है ।किसी भी परिस्थितिवश जाने अनजाने असत्य का समर्थन सदा व्यक्ति और समाज या व्यापक परिदृश्य में राष्ट्र के लिए भी हानिकारक ही होता है।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी










