इतिहास में एक राजा पौंड्रक का उदाहरण मिलता है ,जिसने वासुदेव श्रीकृष्ण का वेश धारण कर स्वयं को ही वास्तविक श्रीकृष्ण घोषित करना प्रारंभ किया, उसकी प्रजा मंत्री मित्र सभी उसकी हां में हां मिलाते रहते ।
विचार करने वाली बात है कि उसने धर्म की रक्षा हेतु अवतरित श्री कृष्ण की तरह ही बनना और स्वयं को प्रस्तुत करना क्यो प्रारम्भ किया ?
उनसे भी अधिक श्रेष्ठ क्यों नहीं?
उत्तर सहज है कि उसकी बुद्धि और, कल्पना की सीमा के अनुसार उस समय द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण से अधिक प्रभुत्व सम्पन्न कोई राजा नहीं था, जिन्हें जनसामान्य भी साक्षात ईश्वर का अवतार मानती थी (गीता प्रवचन में उन्होंने घोषित भी किया)।
अतः अपनी बुद्धि की के अधिकतम प्रयोग के बाद भी उसकी कहानियां, उसके प्रलाप स्वयं को श्रीकृष्ण सिद्ध करने और घोषित करने में लगे रहे...क्योंकि उसकी वैज्ञानिक बुद्धि में कोई वास्तविकता नहीं थी और कल्पना में ऐसा कोई आदर्श नहीं जिसे वह साक्षात सिद्ध कर पाता।
अंततः उसके स्वयं के बुने आवरण की उन्मत्तता में उसके श्रीकृष्ण को ही चुनौती दे दी और उनसे सुदर्शन चक्र देने को कह बैठा, श्री कृष्ण ने कहा ठीक है मैं देता हूँ तुम धारण करो....।
पौंड्रक सुदर्शन चक्र को सामान्य चकरी समझ रहा था किंतु जब धारण किया तो स्वयं का विनाश कर बैठा।
आज भी ऐसे न जाने कितने प्रयोग समाज मे होते रहते हैं, जिन्हें मूक उपेक्षा या समर्थन भी मिलता रहता है किंतु परिणाम सत्य की विजय का ही सदैव रहा है। मिथ्या कल्पनाएं और नकल कभी स्थापित सत्य नही हो सकती।










