Wednesday, 29 November 2017

मैं विचार हूँ... जन्म तो लेता हूँ.. मरता नहीं


बचपन का (80 का दशक) एक इतिहास याद आ गया जिसने मुझमे होम्योपैथी के प्रति रुचि पैदा की।
जिस शहर में रहता था वहाँ बस स्टैंड के पास एक 50 -55 वर्ष के चिकित्सक होम्योपैथी की प्रैक्टिस करते थे । सुबह 5 बजे ही 20 से 25 मरीज दुकान के सामने बैग रखकर नम्बर लगा देते। डॉ साहब 2 रुपये में 9 पुड़िया दवा तीन दिन की देते और मरीज को उसका रोग व परहेज स्थानीय भाषा मे बताते जाते । फिर हम लोग दूसरे शहर चले गए किन्तु डॉ साहब की खबर लेते रहते।  डॉ साहब ने अपने बेटे को डाक्टर तो बनाया किन्तु उसे पिताजी की प्रैक्टिस का तरीका अच्छा नही लगता जब  वह बैठता तो कहता हम मॉडर्न डॉ है तरीका बदल गया है और उसने पिता जी की अनुपस्थिति में एक मरीज से 20 रुपये लेना शुरू कर दिया फिर पहले रजिस्ट्रेशन आदि भी शुरू करवा दिया यद्यपि डॉ साहब को व्यवस्था से दिक्कत नही थी किन्तु सेवा कार्य को व्यवसाय बनाने और बेटे के व्यवहार से वे दुःखी होते कभी कभी तो मरीजो के सामने भी उन्हें कम्पाउंडर की तरह बात सुननी पड़ती, फिर उन्होंने क्लिनिक आना छोड़ दिया , इधर उनके नाम पर बेटे की दुकान चलती रही। कुछ लोगो को वह पर्चा जमा करके अगले दिन डॉ साहब से दवा लिखवा कर देने की बात कहकर भी इलाज करता।फिर डॉ साहब दुनिया को अलविदा कह गए ।किन्तु उनके जाने के बाद उनकी क्लिनिक पर भी मरीजो की संख्या कम होती गयी।
यह बात हम लोगो को 5 वर्ष बाद पता चली कि डॉ साहब की मृत्यु 3 वर्ष पहले हो गई और 2 वर्ष पहले उनकी क्लिनिक बन्द हो गयी।
आज प्रसंगवश यह घटना याद आ गई , ऐसे  उदाहरण कम ही होंगे कि पौध रोपित कर उसे फलदार पेड़ बनाने वालों को उसके फल खाने का सौभाग्य मिलता हो, हालांकि उनकी पीढियां जरूर उसका भरपूर लाभ उठाती हैं किंतु यदि उनमें नकारात्मक प्रवृत्तियां या विकार आ जाएं तो निश्चित ही वह कीमती लकड़ियों की लालच में बृक्ष ही काट डालते हैं ... अर्थ लाभ तो होता है मगर फल क्या मिलता है ..?

व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, प्रकृति सभी सन्दर्भों में यह पुनरावृति दिखाई देती है किंतु यह बुद्धिमान कहा जाने वाले मनुष्य का अभिमान है जो उसे न तो सत्य देखने देता है न समझने।

मानस में विभीषण ने जब समझाया होगा ...
"जहां सुमति तहँ सम्पत्ति नाना ।
जहां कुमति तहं बिपति निधाना।।"

तो सम्भवतः बुद्धि अभिमानी रावण को लगा हो यह सही तो कह रहा है क्योंकि सोने की लंका और समस्त सम्पत्तियां तो मेरे आधीन हैं, और वनवासी राम विपत्तियों से घिरा हुआ कुमति के  आधीन है। ठीक ऐसे ही हम अपनी मति अनुरूप प्रसङ्ग को भिन्न सन्दर्भो में जोड़ लेने के लिए स्वतंत्र हैं।

निवेदन है एक बार अवश्य पढ़ें, विचार करें, और उचित समझें तो विचार दें।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
सेवा भारती अयोध्या महानगर

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