बचपन का मन निर्मल, निश्छल और चंचल होना चाहिए तो फिर उसमें यह मलीनता,ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति, कैसे और कब घर कर गयी कि उसकी चंचलता षड्यंत्र कर उसे साकार करने लगे। इस दृष्टिकोण से यह भविष्य के लिए सचेत हो जाने का स्पष्ट संकेत है यदि अब भी हमारी चेतना नही जागी तो पीढ़ियों के अपराधी होने से कोई नही बचा सकता।
बच्चे अपराधी हैं ऐसा बिल्कुल नहीं , किन्तु इस अवस्था मे उनसे ऐसे अपराध हो जाएं तो यह निश्चित ही इस बात का संकेत है कि उनके मस्तिष्क में विचारों, कल्पनाओं की गति, उनकी आयु की तुलना में तीव्र है, और यही असामान्य कारण है। निर्मित होती इन परिस्थितियों का मनोवैज्ञानिक आकलन और उनके उपाय करना जरूरी है। चिकित्सकीय दृष्टि से ऐसे व्यवहार का कारण अवसाद का पाया जाना होता है। इस परिप्रेक्ष्य में एक तथ्य उल्लेखनीय है कि अधिकांशतः ऐसी घटनाएं ज्यादातर बड़े शहरों, और उच्चसुविधा सम्पन्न मंहगी फीस वाले प्राइवेट विद्यालयों में ही हुईं, अर्थात ये बच्चे उन परिवारों से सम्बंधित हैं जहां इनकी सुख सुविधा के लिए कोई कमी नहीं।
बच्चे भी इसी समाज की मौलिक इकाई हैं , उनकी भी अपनी अभिरुचियाँ हैं, अभिव्यक्ति है, योग्यता है, अपेक्षाएं हैं, क्षमताएं हैं किन्तु यह तर्क हम स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उनके प्रति दायित्वों का निर्वहन करने हेतु आधुनिक भौतिकवादी ,अर्थयुग में समय से प्रतिस्पर्धी माता पिता के पास बच्चों को देने के लिए सुख ,सुविधाएं ,संसाधन तो बहुत हैं , कुछ नही है तो बस समय।
यूँ भी समझ सकते हैं कि इस तकनीकी युग मे बच्चों के हाथ मे मोबाइल , लैपटॉप ने उन्हें समय से पहले दुनिया की उन तमाम जानकारियो से जुड़ने का अवसर दे दिया जिसके लिए उनकी अवस्था और मानसिक ग्राहिता उपयुक्त या परिपक्व नहीं कही जा सकती।
कम समय मे दुनिया से जुड़ने का महत्वपूर्ण कारण हमारा सांस्कृतिक, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों से अलगाव भी है । पहले संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवारों ने ली, फिर परिवारों का यह बंटवारा पीढ़ियों की खाई से बढ़ गया क्योंकि बुजुर्ग अपने घर मे बेटा बहू अपार्टमेंट में और बच्चे या तो आया की जिम्मेदारी में या पालनाघर में अथवा हॉस्टल में। इसका सबसे नकारात्मक दुष्परिणाम दिखने लगा है कि जीवनकौशल का जो पाठ बच्चे दादा ,दादी ,नाना,नानी से परिवार में सीख लिया करते थे आज वे रिश्तों की इस मधुरता ,नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों से अपरिचित होते जा रहे हैं और उनकी मनोदशा अनियंत्रित, किन्तु स्वभावतः कल्पित स्वरूप को वास्तविक सत्य के रूप में स्वीकार करने लगती है, जहां चिंतन, मंथन, धैर्य, विवेक का प्रयोग क्रमशः सीमित होने लगता है और आचरण व्यवहार में स्वच्छंदता आती जाती है। परिवार के बाद विद्यालय व्यक्तित्व निर्माण का मंदिर हुआ करते थे किंतु वर्तमान में अब यह स्वरूप भी व्यवसायिक होता गया, यह केवल अक्षर ज्ञान और पाठ्यक्रम पूरा कराने की कार्यशाला भर रह गए लगते है जहां संस्कृति और नैतिक आचरण को रूढ़िवादी मानकर धीरे धीरे त्याग दिया जा रहा है, सांस्कृतिक कार्यक्रमो में बच्चों के प्रतिभाग की जगह कल्चरल एक्टिविटीज में पार्टिसिपेशन ने ले ली है। बालमन पर माता पिता शिक्षकों की अपेक्षाएं उनको लक्ष्य केंद्रित परफॉर्मेंस के लिए थोप दी जाने लगी हैं।
बच्चों को लेकर देखा जाए तो ये अपेक्षाएं किसी "अर्थतंत्र के विकसित मॉडल" की तरह नजर आती हैं जहां बचपन हमारे लिए उस खिलौने जैसा होता है जिसमे हम रिमोट का जैसा बटन दबाएं वह वैसा ही प्रदर्शन करने लगे। बच्चों की स्वीकार्यता जाने बिना उनपर अपेक्षाएं और प्रतिस्पर्धाएं थोप दी जाती हैं यह उनके मन मस्तिष्क और भावनाओं का दमन करती है। जिसकी प्रतिक्रिया में उनमे कई तरह के मानसिक और शारीरिक लक्षण उभरते हैं जिनकी पहचान समय समय पर जागरूक माता पिता या शिक्षक कर सकते हैं। किन्तु ऐसा होता तो बाल अपराध के आंकड़े यूँ न होते।
बच्चे का जिज्ञासु मन अपराध की तरफ किसी प्रेरणा से ही उन्मुख हो सकता है, इसलिए उसके व्यवहार का आकलन जरूरी है। मानसिक रूप से किसी बात पर जिद, उत्साह चंचलता की कमी, चिड़चिड़ापन, सामान्यतः शारीरिक लक्षणों के रूप में भूख में कमी, वजन परिवर्तन, नींद का पैटर्न बदलना, टीवी या मोबाइल पर लम्बा समय व्यतीत करना, बातचीत के तरीके, एकाग्रता में कमी, उतावला पन या आलस्य, आलस्य, यादाश्त ,पाचन तंत्र की गड़बड़ी, सक्रियता कम होने लगे तो आपके बच्चे को चिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता है।
इसी बचपन की आधारशिला पर विकसित होने वाला तरुण और युवा ...उसकी दशा दिशा क्या होगी वह कितना अधीर होगा और तब समाज का स्वरूप क्या होगा ? इसलिए हमे इसी समय सचेत होने की आवश्यकता है।
होम्योपैथिक परामर्श चिकित्सक
महासचिव- होम्योपैथिक चिकित्सा विकास महासंघ
मो.- +91-8400003421











