चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Saturday, 20 January 2018

बाल अपराध : संवादहीनता से अवसाद की तरफ बढ़ रहा बचपन

मीडिया रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दशक में बाल अपराधों में 62% बृद्धि हुई, जिसमे 16 से 18 आयु वर्ग किशोरों की संलिप्तता सर्वाधिक है।बच्चों से संवादहीनता, संस्कारविहीन शिक्षा, और प्रतिस्पर्धा में अपेक्षा के निरन्तर दबाव के चलते अवसाद जैसी मनःस्थितियां उनमें आपराधिक वृत्ति पनपने के संकेत हैं, समय रहते सुधारने के उपाय जरूरी हैं, क्योंकि आज आने वाले कल का संकेत है।

"छुट्टी के लिए 11 वर्षीय छात्रा ने कक्षा एक के छात्र को चाकू मारा"... "विद्यालय के शौचालय में छात्र की हत्या"...विद्यालय की छत से कूद कर छात्र की मृत्यु"...समाचारों के यह शीर्षक किसी भी संवेदनशील हृदय को झकझोर देने वाले हैं , क्योंकि यह मात्र अपराध या दुर्घटना नहीं ,आज के समाज की इस मौलिक इकाई से तरुणाई में निर्मित होने वाले समाज की तस्वीर की कल्पना करें तो रक्त का रंग स्याह हो जाएगा।
बचपन का मन निर्मल, निश्छल और चंचल होना चाहिए तो फिर उसमें यह मलीनता,ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति, कैसे और कब घर कर गयी कि उसकी चंचलता षड्यंत्र कर उसे साकार करने लगे। इस दृष्टिकोण से यह भविष्य के लिए सचेत हो जाने का स्पष्ट संकेत है यदि अब भी हमारी चेतना नही जागी तो पीढ़ियों के अपराधी होने से कोई नही बचा सकता।
बच्चे अपराधी हैं ऐसा बिल्कुल नहीं , किन्तु इस अवस्था मे उनसे ऐसे अपराध हो जाएं तो यह निश्चित ही इस बात का संकेत है कि उनके मस्तिष्क में विचारों, कल्पनाओं की गति, उनकी आयु की तुलना में तीव्र है, और यही असामान्य कारण है। निर्मित होती इन परिस्थितियों का मनोवैज्ञानिक आकलन और उनके उपाय करना जरूरी है। चिकित्सकीय दृष्टि से ऐसे व्यवहार का कारण अवसाद का पाया जाना होता है। इस परिप्रेक्ष्य में एक तथ्य उल्लेखनीय है कि अधिकांशतः ऐसी घटनाएं ज्यादातर बड़े शहरों, और उच्चसुविधा सम्पन्न मंहगी फीस वाले प्राइवेट विद्यालयों में ही हुईं, अर्थात ये बच्चे उन परिवारों से सम्बंधित हैं जहां इनकी सुख सुविधा के लिए कोई कमी नहीं।
....तो क्या हमारी पीढ़ी में बच्चे भी अवसाद से प्रभावित होने लगे हैं।
विश्वसनीय तो नहीं किन्तु इस प्रासंगिक प्रश्न का एक ही उत्तर है शायद.. हां..हमारे बच्चे 8 से 15 वर्ष की आयु के साथ अवसाद की मनोवृत्ति की तरफ बढ़ रहे है।
बच्चे भी इसी समाज की मौलिक इकाई हैं , उनकी भी अपनी अभिरुचियाँ हैं, अभिव्यक्ति है, योग्यता है, अपेक्षाएं हैं, क्षमताएं हैं किन्तु यह तर्क हम स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उनके प्रति दायित्वों का निर्वहन करने हेतु आधुनिक भौतिकवादी ,अर्थयुग में समय से प्रतिस्पर्धी माता पिता के पास बच्चों को देने के लिए सुख ,सुविधाएं ,संसाधन तो बहुत हैं , कुछ नही है तो बस समय।
यूँ भी समझ सकते हैं कि इस तकनीकी युग मे बच्चों के हाथ मे मोबाइल , लैपटॉप ने उन्हें समय से पहले दुनिया की उन तमाम जानकारियो से जुड़ने का अवसर दे दिया जिसके लिए उनकी अवस्था और मानसिक ग्राहिता उपयुक्त या परिपक्व नहीं कही जा सकती।
कम समय मे दुनिया से जुड़ने का महत्वपूर्ण कारण हमारा सांस्कृतिक, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों से अलगाव भी है । पहले संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवारों ने ली, फिर परिवारों का यह बंटवारा पीढ़ियों की खाई से बढ़ गया क्योंकि बुजुर्ग अपने घर मे बेटा बहू अपार्टमेंट में और बच्चे या तो आया की जिम्मेदारी में या पालनाघर में अथवा हॉस्टल में। इसका सबसे नकारात्मक दुष्परिणाम दिखने लगा है कि जीवनकौशल का जो पाठ बच्चे दादा ,दादी ,नाना,नानी से परिवार में सीख लिया करते थे आज वे रिश्तों की इस मधुरता ,नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक मूल्यों से अपरिचित  होते जा रहे हैं और उनकी मनोदशा अनियंत्रित, किन्तु स्वभावतः कल्पित स्वरूप को वास्तविक सत्य के रूप में स्वीकार करने लगती है, जहां चिंतन, मंथन, धैर्य, विवेक का प्रयोग क्रमशः सीमित होने लगता है और आचरण व्यवहार में स्वच्छंदता आती जाती है। परिवार के बाद विद्यालय व्यक्तित्व निर्माण का मंदिर हुआ करते थे किंतु वर्तमान में अब यह स्वरूप भी व्यवसायिक होता गया, यह केवल अक्षर ज्ञान और पाठ्यक्रम पूरा कराने की कार्यशाला भर रह गए लगते है जहां संस्कृति और नैतिक आचरण को रूढ़िवादी मानकर धीरे धीरे त्याग दिया जा रहा है, सांस्कृतिक कार्यक्रमो में बच्चों के प्रतिभाग की जगह कल्चरल एक्टिविटीज में पार्टिसिपेशन ने ले ली है। बालमन पर माता पिता शिक्षकों की अपेक्षाएं उनको लक्ष्य केंद्रित परफॉर्मेंस के लिए थोप दी जाने लगी हैं।
बच्चों को लेकर देखा जाए तो ये अपेक्षाएं किसी "अर्थतंत्र के विकसित मॉडल" की तरह नजर आती हैं जहां बचपन हमारे लिए उस खिलौने जैसा होता है जिसमे हम रिमोट का जैसा बटन दबाएं वह वैसा ही प्रदर्शन करने लगे। बच्चों की स्वीकार्यता जाने बिना  उनपर अपेक्षाएं और प्रतिस्पर्धाएं थोप दी जाती हैं यह उनके मन मस्तिष्क और भावनाओं का दमन करती है। जिसकी प्रतिक्रिया में उनमे कई तरह के मानसिक और शारीरिक लक्षण उभरते हैं जिनकी पहचान समय समय पर जागरूक माता पिता या शिक्षक कर सकते हैं। किन्तु ऐसा होता तो बाल अपराध के आंकड़े यूँ न होते।
संवादहीनता से पनपता बचपन मे अवसाद
इस पूरे विचार प्रवाह में बच्चों को इस अवसाद की तरफ ले जाती मनोवृत्ति के उद्भव का  मूलकारण है संवादहीनता।
संवाद हीनता प्रमुख रूप से तीन स्तरों पर देखी जा सकती है मातापिता और बच्चों  के बीच, बच्चे और शिक्षकों के बीच, और शिक्षक व माता पिता के बीच।
संवादहीनता के कारण बच्चे अपने मन की बातें अपने ही  माता पिता से खुलकर कह पाने का अवसर नहीं पाते। जिससे माता पिता को अपने बच्चे के व्यवहार, विचार, पसन्द, नापसन्द ,अभिरुचि आदि का वास्तविक आकलन नहीं हो पाता। विद्यालय में शिक्षक छात्रों के बीच परस्पर संवाद कम ही हो पाता है जिससे छात्रों की जिज्ञासाओं को उचित समाधान नही मिल पाता साथ ही शिक्षक बच्चे की अभिरुचियों या क्षमताओं  योग्यताओं का वास्तविक आकलन नही कर पाते,और इसतरह शिक्षक मातापिता की संवादहीनता केवल रिपोर्टकार्ड पर हस्ताक्षर तक सीमित हो जाती है।
कैसे पहचाने
बच्चे का जिज्ञासु मन अपराध की तरफ किसी प्रेरणा से ही उन्मुख हो सकता है, इसलिए उसके व्यवहार का आकलन जरूरी है। मानसिक रूप से किसी बात पर जिद, उत्साह चंचलता की कमी, चिड़चिड़ापन, सामान्यतः शारीरिक लक्षणों के रूप में भूख में कमी, वजन परिवर्तन, नींद का पैटर्न बदलना, टीवी या मोबाइल पर लम्बा समय व्यतीत करना, बातचीत के तरीके, एकाग्रता में कमी, उतावला पन या आलस्य, आलस्य, यादाश्त ,पाचन तंत्र की गड़बड़ी, सक्रियता कम होने लगे तो आपके बच्चे को चिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता है।
क्या कहता है होम्योपैथी का विज्ञान
होम्योपैथी के मनोदर्शन और विज्ञान के अनुसार यह बच्चे के अंदर तेजी से सोरा मायज्म  को प्रभावित करता है और सायकोटिक अवस्था मे प्रवर्तित होते हुए सिफिलिटक स्वरूप तक विकसित हो सकता है इसलिए बच्चे के व्यक्तित्व में तीव्र मानसिक हलचलें उसे बेहद कल्पनाशील बना देती हैं जिससे वह एक काल्पनिक पृष्ठभूमि तैयार कर सकता है और क्षमतानुरूप अवसर मिलने पर बालस्वभाव वश वह उसे क्रियान्वित कर डालता है, क्योंकि उसे यह अपराध नहीं सबकुछ एक फ़िल्म की गढ़ी कहानी के फिल्मांकन जैसी अनुभूति देता होगा। संभवतः इतने अवस्था के सापेक्ष यह मनोवृत्ति के परिवर्तन की यह गति तीव्र होती है जिसे ग्रहण कर पाने या समझ पाने की क्षमता बचपन मे नही होती।
इसी बचपन की आधारशिला पर विकसित होने वाला तरुण और युवा ...उसकी दशा दिशा क्या होगी वह कितना अधीर होगा और तब समाज का स्वरूप क्या होगा ? इसलिए हमे इसी समय सचेत होने की आवश्यकता है।
क्या करना चाहिए
सबसे प्रथम आवश्यकता है कि माता पिता , परिवार, और शिक्षक या विद्यालयों सभी स्तरों पर परस्पर और स्वस्थ संवाद को व्यक्तिगत, व सामूहिक वार्ता के रूप में स्थापित और समृद्ध किया जाए।
विद्यालयों में मनोवैज्ञानिक आकलन की तकनीक अपनाते हुए छात्र संसद के गठन के माध्यम से माता पिता ,छात्र , शिक्षकों तीनो में अलग अलग व एक साथ जिज्ञासाओं के समाधान के सत्र आयोजित किये जाने चाहिए।
बच्चों पर अपनी अपेक्षाएं थोपने की बजाय उनकी अपेक्षाओं , क्षमताओं ,योग्यताओं , अभिरुचियों और अभिव्यक्ति को प्राथमिकता देकर सामंजस्य पूर्ण तरीके से सांस्कृतिक , नैतिक जीवनमूल्यों एवं आदर्शों से परिचित कराया जाना चाहिए। प्रार्थनाओं से जुड़कर ईश्वर के प्रति आस्थावान बनाये, इससे उनमे नम्रता एकाग्रता , विश्वास, आशावान और धैर्य का गुण विकसित होता है।
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथिक परामर्श चिकित्सक
महासचिव- होम्योपैथिक चिकित्सा विकास महासंघ
मो.- +91-8400003421

Sunday, 7 January 2018

ब्रिज कोर्स : स्वास्थ्य सेवाओं की दरकती उम्मीद या बंधता करार

भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य ,शिक्षा, स्वावलम्बन या रोजगार आदि बुनियादी मुद्दे सरकारों की प्राथमिकता में रहे किन्तु भारत जैसे बहुसंख्य आबादी वाले देश में आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करा पाना आज भी सरकार की बड़ी चुनौतियों में से एक है, यद्यपि इसके लिए तमाम तरह की योजनाएं घोषित की जाती रही हैं उनकी सफलता या विफलता के विषय मे जाने से पूर्व वर्तमान के कुछ आंकड़ों को समझना जरूरी है जिसके मुताबिक भारत मे प्रति 10 हजार की आबादी पर एक एलोपैथिक चिकित्सक है। देश मे लगभग 10.5 लाख (कुल 1045611) एलोपैथिक और 7.71 लाख आयुष चिकित्सक है जिसमे से मात्र 10 प्रतिशत एलोपैथिक चिकित्सक ही सरकारी सेवा दे रहे हैं जिनके सापेक्ष आयुष चिकित्सकों की संख्या बेहद कम है। पिछले दिनों मीडिया में आये एक अन्य सर्वे के आंकड़े बताते है कि देश भर के 6 लाख से अधिक गांवो में 5 में से एक ही डॉक्टर के पास निर्धारित योग्यता है क्योंकि स्वयं को एलोपैथिक चिकित्सक बताने वाले एक तिहाई केवल 12वीं पास है और इस प्रकार 57 % चिकित्सक बिना डिग्री वाले हैं। हमारी आवश्यकता, विश्वास ,उपलब्धता और उपयोगिता की दृष्टि से आकस्मिक स्थितियों में बेहतर अस्पताल प्रबंधन व सुलभ सर्जरी , अंग प्रत्यारोपण आदि के कारण एलोपैथी जीवनरक्षा व इलाज के लिये सर्वाधिक विश्वसनीय और स्वीकार्य पद्धति है किंतु इसमें इलाज मंहगा होने के कारण आम आदमी के बजट से स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च का देश की अर्थव्यवस्था पर समग्र परिणाम देखा जाए तो प्रतिवर्ष लाखों परिवार गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे। नित नए शोधों में प्रचलित पद्धति के दुष्परिणाम भी चिंता का सबब हैं  और तकनीकी विकास के साथ जनता भी जगरूक हो रही है इसलिए उसका रुझान हानिरहित और अपेक्षाकृत सस्ते इलाज की वैकल्पिक पद्धतियों की तरफ बढ़ा है।

उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर समेकित विचार समस्या के मूल, सम्भव उपाय, एवं सार्थक निवारण में विभाजित कर किया जा सकता है। जिसमे
आबादी के अनुपात में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं सुलभ करना ही प्रमुख उद्देश्य है।इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्भव विकल्प के रूप में भारत मे मान्य चिकित्सा पद्धतियां एलोपैथी , आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी व अन्य वैकल्पिक चिकित्सा उपाय जैसे योग, नैचुरोपैथी के प्रशिक्षित चिकित्सक (कुल लगभग 20लाख) हैं।फिर भी आवश्यकतानुरूप चिकित्सकों की कमी का कारण भारत मे चिकित्सा  सेवाओं का मात्र एक पैथी पर निर्भरता है और उसके भी केवल 10% चिकित्सक ही सरकारी सेवाओं के लिए उपलब्ध है जो सुविधाओं के अभाव में शहरों से बाहर जाना नही चाहते, साथ ही सरकारों द्वारा अन्य पद्धतियों के चिकित्सकों को पर्याप्त सेवा के अवसर से वंचित रखना।
यद्यपि वर्तमान सरकार ने इस तरफ ध्यान दिया और आयुर्वेद , होम्योपैथी ,योग,व यूनानी पद्धतियों का लाभ जनता तक पहुँचाने के लिए राष्ट्रीय आयुष मिशन का गठन कर आयुष विभाग एवं मंत्रालय भी बनाया।इसके बाद उम्मीद थी कि चिकित्सकों की कमी को दूर करने के लिए व्यापक स्तर पर प्रशिक्षित चिकित्सकों की नियुक्तियां की जाएंगी और अस्पतालों की स्थापना होगी, जब आपको कमी ज्ञात है तो उपलब्ध सभी साधनों का समुचित प्रयोग किया जाना चाहिए, किन्तु धरातल की वास्तविकता अब भी पृथक है।

किन्तु सरकारों को न जाने क्या सूझा कि सहज नियुक्ति के बजाय कभी वह तमाम तरह की योजनाओं के तहत कभी आरबीएसके,कभी एनआरएचएम तो कभी एनएचएम आदि योजनाओं के तहत संविदा पर रिटार्यड चिकित्सको तक को नियुक्ति दे रही हैं। इनमे भी वेतन पद मान, आदि की विसंगतिया है और पारदर्शिता के दावों कुछ भी हों किंतु संविदा की नौकरियों के लिए आमजन का विश्वास और यथार्थ अब भी यही है कि पैसा दो नौकरी लो , और यह शिष्टाचार सभी सरकारों में समानरूप से व्याप्त रहा। निकट भविष्य में आयुष चिकित्सकों की नियुक्ति को लेकर सरकार की तरफ से एक मंशा जाहिर की गई कि आयुष चिकित्सको को नियुक्ति देकर एक ब्रिज कोर्स (कुछ समाचारों के अनुसार फार्मासिस्ट और नर्सें भी शामिल) कराया जाएगा जिससे उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए कुछ एलोपैथिक दवाएं लिखने का अधिकार होगा। यद्यपि समाचार पत्रों में इसके साथ ही खबरे आयी कि चिकित्सक अपनी पद्धति में  चिकित्सा कर सकेंगे, चिकित्सकों को सेवा के अवसर मिलें इसलिए आयुर्वेद ,यूनानी, सिद्धा ने अनापत्ति पत्र सरकार को सौंप दिया, किन्तु केंद्रीय होम्योपैथी परिषद ने इसका समर्थन नही किया। सरकार की उपरोक्त तमाम योजनाओं में होम्योपैथ चिकित्सको को नियुक्ति का उपयुक्त लाभ नही मिल रहा, सम्भवतः यह असन्तोष का कारण बनता जा रहा ।

योग्यता को सिद्ध करने में टूटा "चिकित्सक की मर्यादा" का सेतु

चिकित्सा सेवा कार्य है व्यवसाय नही, और किसी भी चिकित्सा पद्धति का मूल उद्देश्य रोगी को पूर्ण आरोग्य देना ही है ,सभी पद्धतियों की अपनी उपयोगिता और सीमाएं हैं । कोई पूर्णता का दावा नहीं कर सकता, इसलिए चिकित्सक होने के नाते सभी को एक दूसरे की महत्ता को स्वीकार करना चाहिए।

विरोध या समर्थन अलग विषय हो सकते हैं किंतु शिक्षित और सभ्य समझे जाने वाले चिकित्सक वर्ग ने अपनी भाषा की मर्यादा लांघते हुए आयुष चिकित्सकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया और पर्चे बांट कर सोसल मीडिया आदि के माध्यम से आयुष चिकित्सकों पर अपमानजनक टिप्पणी व तुलनाएं करने लगे।इससे चिकित्सक समूह दो भागों में बंटा नजर आने लगा।

वायरल हुए एक वीडियो में तो एक चिकित्सक ने एक वर्ग को ही महिमामण्डित करते हुए अन्य मान्य चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों की योग्यता पर जिन शब्दों में प्रश्न उठाये हैं वह विचारों की परिधि को सीमित करती हुई बौद्धिक विपन्नता ही कही जा सकती है। एक तुलना में चिकित्सकों के एक वर्ग को जंगल का राजा सिंह बताया गया तो अन्य को गली का कुत्ता, जिससे क्षुब्ध कुछ आयुष चिकित्सकों ने उक्त के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई तो दूसरे पक्ष को क्षमा मांगनी पड़ी। यद्यपि होम्योपैथी महासंघ का मानना है कि इस तुलना का भी स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि आवेश में चिकित्सकों को वर्गीकृत करने में जिन दो जीवों की बात की गई उनमे से एक जीव की प्रवृत्ति और प्रकृति मानवता को पीड़ित और भयाक्रांत करनेवाली हिंसक है जिसे इंसानो से दूर जंगल में ही रहना चाहिए और दूसरे जीव जिसकी सीखने प्रवृत्ति और प्रकृति इसे इंसानो के सबसे भरोसेमंद साथी बनाती है जिसके साथ उनकी सुरक्षा का भी विश्वास जुड़ा होता है।

मूल समस्या को समाधान से भटकाने का भ्रमजाल

वर्तमान परिदृश्य में उद्देश्य के अनुरूप समस्या के मूल को पहचानना और उसका निराकरण तीनो अलग मार्ग पर हैं।
इसका तार्किक आधार भी है कि वर्तमान समय मे सभी मेडिकल कोर्स पांच वर्ष छः माह (चार वर्ष छः माह नियमित शैक्षणिक व एक वर्ष इंटर्नशिप) की अवधि के हैं और मंहगे है इसलिए डिग्री के बाद लगभग सभी युवा चिकित्सको की उम्मीद होती है उनके क्षेत्र में सेवा के पर्याप्त अवसर हैं, तो उन्हें समान रूप से मिलना चाहिए, इसके लिए अनावश्यक शर्तें लगाना मंशा पर सवाल खड़े करता है।

ब्रिज कोर्स क्या और क्यों आवश्यक -सरकार की मंशा प्रशिक्षित चिकित्सकों को प्राथमिक उपचार में उपयोग की जाने वाली कुछ दवाओं की छूट देना, जिसके बाद वे विशेषज्ञ चिकित्सक से इलाज प्राप्त कर सकें।

यह प्रशिक्षण नियुक्ति के बाद सरकार द्वारा कराए जाने का प्रस्ताव है न कि इसके आधार पर नियुक्ति प्राप्त की जा सकेगी।

तो समर्थन या विरोध क्यों ? -एलोपैथी चिकित्सकों का विरोध उनके अधिकार क्षेत्र को लेकर है , क्योंकि इसमें आयुष चिकित्सकों फार्मासिस्ट, नर्स को भी प्रशिक्षण दिए जाने का विचार है।

वास्तविक स्थिति आज भी यही है कि आमजनता जहां जागरूकता का अभाव है दवा या इलाज का मतलब गोली, कैप्सूल या इंजेक्शन समझती है, ऐसे में उनकी इस नादानी का लाभ अप्रशिक्षित चिकित्सा व्यवसायी या झोलाछाप ही उठाते है, इस मनःस्थिति को भांपते हुए सरकार ब्रिजकोर्स के जरिये प्राथमिक उपचार देकर रोगियों को उचित चिकित्सक के पास भेजने की योजना को आकार देने भी हो सकता है।

आयुष में रोष क्यों- आयुष में आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी चिकित्सा विधाओं में अपनी औषधियां है ,किन्तु उक्त कोर्स के जरिये सेवा के लिए विभागीय सहमति के आधार पर नियुक्ति का लाभ ज्यादातर आयुर्वेद या यूनानी को ही मिलने की संभावना और सीसीएच के एलोपैथी दवाओं के उपयोग की होम्योपैथ अस्वीकार्यता के चलते नियुक्ति के लाभ से वंचित रहने के भय या भ्रम के कारण ही बिल का समर्थन या विरोध बढ़ता गया।

क्या चाहते हैं होम्योपैथ - होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ सहित ज्यादातर संगठनों की मांग है आयुष में  सेवा के अवसर एवं अधिकारों का वितरण निष्पक्ष एवं समान होना चाहिए, जिससे होम्योपैथिक युवा चिकित्सकों को निश्चित अवसर मिलें।

नर्स या फार्मासिस्ट को नियुक्ति का लाभ दिया जाए और होम्योपैथ चिकित्सकों को उपेक्षित कर दिया जाए तो समाज में उनकी योग्यता का नकारात्मक सन्देश प्रचारित किये जाने का नया मार्ग खुल जायेगा, इसलिए प्रशिक्षण की न्यूनतम अर्हता मान्य चिकित्सा की उपाधि ही होनी चाहिए।

सरलतम निराकरण - चिकित्सकों की कमी पूरी होने तक सभी मान्य चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों की सेवा अनिवार्य रूप से ली जाए।
सभी पैथियों के चिकित्सकों में समानता का व्यवहार हो, अन्तर्संवाद बढ़े, और "कैफेटेरिया एप्रोच" अपनाते हुए एक ही चिकित्सा केंद्र पर अलग अलग पद्धतियों के चिकित्सकों की नियुक्ति कर उन्हें "पॉलीपैथी हब" के रूप में विकसित किया जा सकता है। "इन्टरपैथी रेफरल सिस्टम" शुरू कर जिन रोगों का जिस पैथी में बेहतर उपचार सम्भव हो उसमे रोगी को उपचार लेने का परामर्श दिया जाय। चिकित्सकों के ड्यूटी आवर्स बांट कर बाद में चिकित्सा केंद्र को 24 घण्टे संचालित भी करना संभव हो सकता है।

संविदा की जगह "निजी चिकित्सक व सरकार की सहभागिता आधारित हो चिकित्सा केंद्रों की स्थापना"

न्यूनतम समय मे अधिकतम जनसंख्या को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने का सबसे सरलतम उपाय है सभी मान्य पद्ध्दतियों के पंजीकृत चिकित्सकों को प्रति तीन से पांच हजार  की आबादी पर एक चिकित्सक को निजी क्लिनिक खोलने के लिए सरकारी या पट्टे पर भूमि अथवा भवन उपलब्ध करा दें ,इसके बदले उनसे ओपीडी समय में सरकारी पर्चे पर मरीजो को सेवा देने का अनुबंध करें तथा इस अनुबन्ध का सम्माजनक मानदेय चिकित्सक को दें, इससे भृष्टाचारमुक्त व्यवस्था स्थापित हो सकेगी ,जनता को निश्चित लाभ मिलेगा। यह सुझाव हमारी तरफ से सरकार को कई बार भेजा गया है।
-डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
रा. महासचिव-होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
निवर्तमान महासचिव एचएमए