Sunday, 7 January 2018

ब्रिज कोर्स : स्वास्थ्य सेवाओं की दरकती उम्मीद या बंधता करार

भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य ,शिक्षा, स्वावलम्बन या रोजगार आदि बुनियादी मुद्दे सरकारों की प्राथमिकता में रहे किन्तु भारत जैसे बहुसंख्य आबादी वाले देश में आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करा पाना आज भी सरकार की बड़ी चुनौतियों में से एक है, यद्यपि इसके लिए तमाम तरह की योजनाएं घोषित की जाती रही हैं उनकी सफलता या विफलता के विषय मे जाने से पूर्व वर्तमान के कुछ आंकड़ों को समझना जरूरी है जिसके मुताबिक भारत मे प्रति 10 हजार की आबादी पर एक एलोपैथिक चिकित्सक है। देश मे लगभग 10.5 लाख (कुल 1045611) एलोपैथिक और 7.71 लाख आयुष चिकित्सक है जिसमे से मात्र 10 प्रतिशत एलोपैथिक चिकित्सक ही सरकारी सेवा दे रहे हैं जिनके सापेक्ष आयुष चिकित्सकों की संख्या बेहद कम है। पिछले दिनों मीडिया में आये एक अन्य सर्वे के आंकड़े बताते है कि देश भर के 6 लाख से अधिक गांवो में 5 में से एक ही डॉक्टर के पास निर्धारित योग्यता है क्योंकि स्वयं को एलोपैथिक चिकित्सक बताने वाले एक तिहाई केवल 12वीं पास है और इस प्रकार 57 % चिकित्सक बिना डिग्री वाले हैं। हमारी आवश्यकता, विश्वास ,उपलब्धता और उपयोगिता की दृष्टि से आकस्मिक स्थितियों में बेहतर अस्पताल प्रबंधन व सुलभ सर्जरी , अंग प्रत्यारोपण आदि के कारण एलोपैथी जीवनरक्षा व इलाज के लिये सर्वाधिक विश्वसनीय और स्वीकार्य पद्धति है किंतु इसमें इलाज मंहगा होने के कारण आम आदमी के बजट से स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च का देश की अर्थव्यवस्था पर समग्र परिणाम देखा जाए तो प्रतिवर्ष लाखों परिवार गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे। नित नए शोधों में प्रचलित पद्धति के दुष्परिणाम भी चिंता का सबब हैं  और तकनीकी विकास के साथ जनता भी जगरूक हो रही है इसलिए उसका रुझान हानिरहित और अपेक्षाकृत सस्ते इलाज की वैकल्पिक पद्धतियों की तरफ बढ़ा है।

उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर समेकित विचार समस्या के मूल, सम्भव उपाय, एवं सार्थक निवारण में विभाजित कर किया जा सकता है। जिसमे
आबादी के अनुपात में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं सुलभ करना ही प्रमुख उद्देश्य है।इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्भव विकल्प के रूप में भारत मे मान्य चिकित्सा पद्धतियां एलोपैथी , आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी व अन्य वैकल्पिक चिकित्सा उपाय जैसे योग, नैचुरोपैथी के प्रशिक्षित चिकित्सक (कुल लगभग 20लाख) हैं।फिर भी आवश्यकतानुरूप चिकित्सकों की कमी का कारण भारत मे चिकित्सा  सेवाओं का मात्र एक पैथी पर निर्भरता है और उसके भी केवल 10% चिकित्सक ही सरकारी सेवाओं के लिए उपलब्ध है जो सुविधाओं के अभाव में शहरों से बाहर जाना नही चाहते, साथ ही सरकारों द्वारा अन्य पद्धतियों के चिकित्सकों को पर्याप्त सेवा के अवसर से वंचित रखना।
यद्यपि वर्तमान सरकार ने इस तरफ ध्यान दिया और आयुर्वेद , होम्योपैथी ,योग,व यूनानी पद्धतियों का लाभ जनता तक पहुँचाने के लिए राष्ट्रीय आयुष मिशन का गठन कर आयुष विभाग एवं मंत्रालय भी बनाया।इसके बाद उम्मीद थी कि चिकित्सकों की कमी को दूर करने के लिए व्यापक स्तर पर प्रशिक्षित चिकित्सकों की नियुक्तियां की जाएंगी और अस्पतालों की स्थापना होगी, जब आपको कमी ज्ञात है तो उपलब्ध सभी साधनों का समुचित प्रयोग किया जाना चाहिए, किन्तु धरातल की वास्तविकता अब भी पृथक है।

किन्तु सरकारों को न जाने क्या सूझा कि सहज नियुक्ति के बजाय कभी वह तमाम तरह की योजनाओं के तहत कभी आरबीएसके,कभी एनआरएचएम तो कभी एनएचएम आदि योजनाओं के तहत संविदा पर रिटार्यड चिकित्सको तक को नियुक्ति दे रही हैं। इनमे भी वेतन पद मान, आदि की विसंगतिया है और पारदर्शिता के दावों कुछ भी हों किंतु संविदा की नौकरियों के लिए आमजन का विश्वास और यथार्थ अब भी यही है कि पैसा दो नौकरी लो , और यह शिष्टाचार सभी सरकारों में समानरूप से व्याप्त रहा। निकट भविष्य में आयुष चिकित्सकों की नियुक्ति को लेकर सरकार की तरफ से एक मंशा जाहिर की गई कि आयुष चिकित्सको को नियुक्ति देकर एक ब्रिज कोर्स (कुछ समाचारों के अनुसार फार्मासिस्ट और नर्सें भी शामिल) कराया जाएगा जिससे उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए कुछ एलोपैथिक दवाएं लिखने का अधिकार होगा। यद्यपि समाचार पत्रों में इसके साथ ही खबरे आयी कि चिकित्सक अपनी पद्धति में  चिकित्सा कर सकेंगे, चिकित्सकों को सेवा के अवसर मिलें इसलिए आयुर्वेद ,यूनानी, सिद्धा ने अनापत्ति पत्र सरकार को सौंप दिया, किन्तु केंद्रीय होम्योपैथी परिषद ने इसका समर्थन नही किया। सरकार की उपरोक्त तमाम योजनाओं में होम्योपैथ चिकित्सको को नियुक्ति का उपयुक्त लाभ नही मिल रहा, सम्भवतः यह असन्तोष का कारण बनता जा रहा ।

योग्यता को सिद्ध करने में टूटा "चिकित्सक की मर्यादा" का सेतु

चिकित्सा सेवा कार्य है व्यवसाय नही, और किसी भी चिकित्सा पद्धति का मूल उद्देश्य रोगी को पूर्ण आरोग्य देना ही है ,सभी पद्धतियों की अपनी उपयोगिता और सीमाएं हैं । कोई पूर्णता का दावा नहीं कर सकता, इसलिए चिकित्सक होने के नाते सभी को एक दूसरे की महत्ता को स्वीकार करना चाहिए।

विरोध या समर्थन अलग विषय हो सकते हैं किंतु शिक्षित और सभ्य समझे जाने वाले चिकित्सक वर्ग ने अपनी भाषा की मर्यादा लांघते हुए आयुष चिकित्सकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया और पर्चे बांट कर सोसल मीडिया आदि के माध्यम से आयुष चिकित्सकों पर अपमानजनक टिप्पणी व तुलनाएं करने लगे।इससे चिकित्सक समूह दो भागों में बंटा नजर आने लगा।

वायरल हुए एक वीडियो में तो एक चिकित्सक ने एक वर्ग को ही महिमामण्डित करते हुए अन्य मान्य चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों की योग्यता पर जिन शब्दों में प्रश्न उठाये हैं वह विचारों की परिधि को सीमित करती हुई बौद्धिक विपन्नता ही कही जा सकती है। एक तुलना में चिकित्सकों के एक वर्ग को जंगल का राजा सिंह बताया गया तो अन्य को गली का कुत्ता, जिससे क्षुब्ध कुछ आयुष चिकित्सकों ने उक्त के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई तो दूसरे पक्ष को क्षमा मांगनी पड़ी। यद्यपि होम्योपैथी महासंघ का मानना है कि इस तुलना का भी स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि आवेश में चिकित्सकों को वर्गीकृत करने में जिन दो जीवों की बात की गई उनमे से एक जीव की प्रवृत्ति और प्रकृति मानवता को पीड़ित और भयाक्रांत करनेवाली हिंसक है जिसे इंसानो से दूर जंगल में ही रहना चाहिए और दूसरे जीव जिसकी सीखने प्रवृत्ति और प्रकृति इसे इंसानो के सबसे भरोसेमंद साथी बनाती है जिसके साथ उनकी सुरक्षा का भी विश्वास जुड़ा होता है।

मूल समस्या को समाधान से भटकाने का भ्रमजाल

वर्तमान परिदृश्य में उद्देश्य के अनुरूप समस्या के मूल को पहचानना और उसका निराकरण तीनो अलग मार्ग पर हैं।
इसका तार्किक आधार भी है कि वर्तमान समय मे सभी मेडिकल कोर्स पांच वर्ष छः माह (चार वर्ष छः माह नियमित शैक्षणिक व एक वर्ष इंटर्नशिप) की अवधि के हैं और मंहगे है इसलिए डिग्री के बाद लगभग सभी युवा चिकित्सको की उम्मीद होती है उनके क्षेत्र में सेवा के पर्याप्त अवसर हैं, तो उन्हें समान रूप से मिलना चाहिए, इसके लिए अनावश्यक शर्तें लगाना मंशा पर सवाल खड़े करता है।

ब्रिज कोर्स क्या और क्यों आवश्यक -सरकार की मंशा प्रशिक्षित चिकित्सकों को प्राथमिक उपचार में उपयोग की जाने वाली कुछ दवाओं की छूट देना, जिसके बाद वे विशेषज्ञ चिकित्सक से इलाज प्राप्त कर सकें।

यह प्रशिक्षण नियुक्ति के बाद सरकार द्वारा कराए जाने का प्रस्ताव है न कि इसके आधार पर नियुक्ति प्राप्त की जा सकेगी।

तो समर्थन या विरोध क्यों ? -एलोपैथी चिकित्सकों का विरोध उनके अधिकार क्षेत्र को लेकर है , क्योंकि इसमें आयुष चिकित्सकों फार्मासिस्ट, नर्स को भी प्रशिक्षण दिए जाने का विचार है।

वास्तविक स्थिति आज भी यही है कि आमजनता जहां जागरूकता का अभाव है दवा या इलाज का मतलब गोली, कैप्सूल या इंजेक्शन समझती है, ऐसे में उनकी इस नादानी का लाभ अप्रशिक्षित चिकित्सा व्यवसायी या झोलाछाप ही उठाते है, इस मनःस्थिति को भांपते हुए सरकार ब्रिजकोर्स के जरिये प्राथमिक उपचार देकर रोगियों को उचित चिकित्सक के पास भेजने की योजना को आकार देने भी हो सकता है।

आयुष में रोष क्यों- आयुष में आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी चिकित्सा विधाओं में अपनी औषधियां है ,किन्तु उक्त कोर्स के जरिये सेवा के लिए विभागीय सहमति के आधार पर नियुक्ति का लाभ ज्यादातर आयुर्वेद या यूनानी को ही मिलने की संभावना और सीसीएच के एलोपैथी दवाओं के उपयोग की होम्योपैथ अस्वीकार्यता के चलते नियुक्ति के लाभ से वंचित रहने के भय या भ्रम के कारण ही बिल का समर्थन या विरोध बढ़ता गया।

क्या चाहते हैं होम्योपैथ - होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ सहित ज्यादातर संगठनों की मांग है आयुष में  सेवा के अवसर एवं अधिकारों का वितरण निष्पक्ष एवं समान होना चाहिए, जिससे होम्योपैथिक युवा चिकित्सकों को निश्चित अवसर मिलें।

नर्स या फार्मासिस्ट को नियुक्ति का लाभ दिया जाए और होम्योपैथ चिकित्सकों को उपेक्षित कर दिया जाए तो समाज में उनकी योग्यता का नकारात्मक सन्देश प्रचारित किये जाने का नया मार्ग खुल जायेगा, इसलिए प्रशिक्षण की न्यूनतम अर्हता मान्य चिकित्सा की उपाधि ही होनी चाहिए।

सरलतम निराकरण - चिकित्सकों की कमी पूरी होने तक सभी मान्य चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों की सेवा अनिवार्य रूप से ली जाए।
सभी पैथियों के चिकित्सकों में समानता का व्यवहार हो, अन्तर्संवाद बढ़े, और "कैफेटेरिया एप्रोच" अपनाते हुए एक ही चिकित्सा केंद्र पर अलग अलग पद्धतियों के चिकित्सकों की नियुक्ति कर उन्हें "पॉलीपैथी हब" के रूप में विकसित किया जा सकता है। "इन्टरपैथी रेफरल सिस्टम" शुरू कर जिन रोगों का जिस पैथी में बेहतर उपचार सम्भव हो उसमे रोगी को उपचार लेने का परामर्श दिया जाय। चिकित्सकों के ड्यूटी आवर्स बांट कर बाद में चिकित्सा केंद्र को 24 घण्टे संचालित भी करना संभव हो सकता है।

संविदा की जगह "निजी चिकित्सक व सरकार की सहभागिता आधारित हो चिकित्सा केंद्रों की स्थापना"

न्यूनतम समय मे अधिकतम जनसंख्या को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने का सबसे सरलतम उपाय है सभी मान्य पद्ध्दतियों के पंजीकृत चिकित्सकों को प्रति तीन से पांच हजार  की आबादी पर एक चिकित्सक को निजी क्लिनिक खोलने के लिए सरकारी या पट्टे पर भूमि अथवा भवन उपलब्ध करा दें ,इसके बदले उनसे ओपीडी समय में सरकारी पर्चे पर मरीजो को सेवा देने का अनुबंध करें तथा इस अनुबन्ध का सम्माजनक मानदेय चिकित्सक को दें, इससे भृष्टाचारमुक्त व्यवस्था स्थापित हो सकेगी ,जनता को निश्चित लाभ मिलेगा। यह सुझाव हमारी तरफ से सरकार को कई बार भेजा गया है।
-डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
रा. महासचिव-होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ
निवर्तमान महासचिव एचएमए

1 comment:

  1. अति उत्तम व्याख्यान एवम विचार ।

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