गुरुकुल से शिक्षा पूरी कर चार दोस्त एकसाथ उसे समाजहित में धर्मप्रचार के संकल्प के साथ चल दिये। कुछ समय वे सब साथ ही नगर नगर भ्रमण कर प्रचार करते रहे, कहीं स्वागत समर्थन मिलता तो कहीं आलोचना किन्तु धीरे धीरे उनके कार्यों की सराहना होने लगी ।लोगो से जो सहयोग मिलता उसे वर्ष में जरूरतमन्दों की सहायता में लगा दिया जाता। फिर एक वर्ष का समय लेकर वे चारों अलग अलग दिशाओं में एक ही उद्देश्य को पूरा करने चल दिए। उनमे से दो ने अलग अलग अपना व्यवसाय जमा लिया और शेष दोनो गुरुकुल के जिस उद्देश्य को लेकर चले थे उसमे पूरी तन्मयता से लगे रहते, धीरे धीरे उनके कार्यों की चर्चा बाकी दोनो को भी पता चलता तो वे कहते हम सब ही के सहयोग से सब सेवा कार्य चल रहा लोग उनका भी आदर करते।समयावधि पूरी होने के निकट पुनः सब वार्षिक योजना में लग गए। दोनो व्यवसायी मित्रों ने इसबार वार्षिक आयोजन में लाभ की योजना बना ली और अपने मित्रों को बिना बताए धर्मार्थ आयोजन में सहयोग की राशि सभी के लिए आवश्यक कर दी , लोगो ने धर्म कार्य के लिए जमकर सहयोग किया। धर्म के नाम पर इसतरह का कदाचरण शेष दोनो को स्वीकार नहीं था, वह धर्म पर विश्वास करने वालों के विश्वास को खंडित नही करना चाहते थे और न ही मित्रों से कोई प्रतिवाद...इसलिए उन्होंने धर्म को अर्थ की आधीनता से बचाने का मार्ग सोचना शुरू किया । बहुत सोच विचार के बाद निश्चित हुआ कि अधर्म के रास्ते किया गया धर्म भी अधर्म ही है अतः अपने पथ पर चलते रहो जिनमें धर्म के पथ पर चलने की दृष्टि होगी वह आनन्द का अनुभव करते साथ चलते रहेंगे और जिन्हें आयोजन में सुख प्राप्त होता है उन्हें उस आनन्द की अनुभूति लेने दें।
यद्यपि इस निर्णय में साथी छूटने की पीड़ा तो होती है किंतु सत्यपथ कंटकाकीर्ण ही होता है और उसपर चलते रहने के लिए निस्वार्थ होना पड़ता है।
मित्रों इस कहानी से आपने क्या संदेश ग्रहण किया और आपको कैसी लगी, अवश्य बताईयेगा।
सादर आपका
डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी






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