चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Monday, 4 November 2024

मिथ्या कल्पनाएं स्थापित सत्य नहीं हो सकती

इतिहास में एक राजा पौंड्रक का उदाहरण मिलता है ,जिसने  वासुदेव श्रीकृष्ण का वेश धारण कर स्वयं को ही वास्तविक श्रीकृष्ण घोषित करना प्रारंभ किया, उसकी प्रजा मंत्री मित्र सभी उसकी हां में हां मिलाते रहते ।
विचार करने वाली बात है कि उसने धर्म की रक्षा हेतु अवतरित श्री कृष्ण की तरह ही बनना और स्वयं को प्रस्तुत करना क्यो प्रारम्भ किया ?
उनसे भी अधिक श्रेष्ठ क्यों नहीं?

उत्तर सहज है कि उसकी बुद्धि और, कल्पना की सीमा के अनुसार उस समय  द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण से अधिक प्रभुत्व सम्पन्न कोई  राजा नहीं था, जिन्हें जनसामान्य भी साक्षात ईश्वर का अवतार मानती थी (गीता प्रवचन में उन्होंने घोषित भी किया)। 
अतः अपनी बुद्धि की के अधिकतम प्रयोग के बाद भी उसकी कहानियां, उसके प्रलाप स्वयं को श्रीकृष्ण सिद्ध करने और घोषित करने में लगे रहे...क्योंकि उसकी  वैज्ञानिक  बुद्धि में कोई वास्तविकता नहीं थी और कल्पना में ऐसा कोई आदर्श नहीं जिसे वह साक्षात सिद्ध कर पाता।
अंततः उसके स्वयं के बुने आवरण की उन्मत्तता में उसके श्रीकृष्ण को ही चुनौती दे दी और उनसे सुदर्शन चक्र देने को कह बैठा, श्री कृष्ण ने कहा ठीक है मैं देता हूँ तुम धारण करो....।
पौंड्रक सुदर्शन चक्र को सामान्य चकरी समझ रहा था किंतु जब धारण किया तो स्वयं का विनाश कर बैठा।

आज भी ऐसे न जाने कितने प्रयोग समाज मे होते रहते हैं, जिन्हें मूक उपेक्षा या समर्थन भी मिलता रहता है किंतु परिणाम सत्य की विजय का ही सदैव रहा है।  मिथ्या कल्पनाएं और नकल कभी स्थापित सत्य नही हो सकती।

Friday, 6 September 2024

सदा श्रेष्ठ चुने सत्य चुने

सत्य सर्वथा श्रेष्ठ है, सत्य को हम सभी अपनी पृथक दृष्टि से देखते हैं, इसलिए सत्य को स्वीकार करने के स्थान पर अपने तर्कों से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लग जाते हैं जबकि तर्क करने की अपेक्षा जिज्ञासा करना ज्यादा श्रेष्ठ है। तर्क से तात्पर्य गलत में सही जानने की इच्छा और जिज्ञासा से तात्पर्य  दूसरे के सत्य को जानने की इच्छा, है।
सत्य को पहचानना, फिर जानना, और स्वीकारना जितना आवश्यक है उतना ही महत्वपूर्ण है उसके  समर्थन में खड़े रहना, इतना भी न हो सके तो कम से कम निरपेक्ष रहना चाहिए, अर्थात मौन रहना श्रेयस्कर है ।किसी भी परिस्थितिवश जाने अनजाने असत्य का समर्थन सदा व्यक्ति और  समाज या व्यापक परिदृश्य में राष्ट्र के लिए भी हानिकारक ही होता है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Friday, 30 August 2024

स्वर्ग धरती पर उतर आए



स्वर्ग धरती पर उतर आए
यदि मनुज हृदय करुणा से भर जाए।।

महाभारत युद्ध के बहुत समय बाद एकबार कौरव पांडव से श्रीकृष्ण स्वर्ग में मिले सभी ने उन्हें प्रणाम किया । श्री कृष्ण ने कहा जैसे यहां स्वर्ग में सभी 106 भाई एकसाथ हैं ऐसे ही धरती पर रहते तो धरती को स्वर्ग बना सकते थे।

जीवन मे युध्द अंतिम प्रयास होना चाहिए प्रथम प्रयास मात्र प्रेम होना चाहिए, क्योंकि प्रेम से सम्ब्रह्म जन्म लेता है , सम्ब्रह्म से आदर और आदर से करुणा। जब मनुष्य में करुणा होती है तो वह दूसरे की आवश्यकताएं समझता है, उसकी पीड़ा की अनुभूति कर सकता है, उसके निर्णयों का सम्मान करता है, और जहां एक दूसरे का सम्मान हो वहां युद्ध का कोई स्थान नहीं।

स्वस्थ चिंतन स्वस्थ व्यक्ति-समाज-राष्ट्र


डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथी फ़ॉर आल 
अयोध्या

Thursday, 15 August 2024

अमृतकाल में संरक्षित पोषित हों स्वर्णकाल की परंपराएं

अमृतकाल में स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ  हम सभी भारतवासियों के लिए गर्व के साथ चिंतन और संकल्पों का भी अवसर है-
हम पाश्चात्य के राजनैतिक प्रभुत्व से अवश्य स्वतंत्र हुए किन्तु पाश्चात्य के आकर्षण ने हमारी जीवनशैली, आहार, परिधान आदि में अंधानुकरण , शिक्षा पद्धति ने सबसे अधिक नुकसान हमारे आत्मबल नैतिक बल व प्रज्ञाबल में कमजोरी ही दी, पीढ़ियों के परिवर्तन का असर अब दिखने लगा है..जारी. नैतिक क्षरण की पराकाष्ठा दिखने लगी है,।
अमृतकाल में हम अपने अतीत के स्वर्णकाल को याद करते है तभी हमारा कर्तव्यबोध यह संकेत करता है कि ऐसे अवसरों पर अपनी सांस्कृतिक विरासत और ज्ञान अनुसंधान की परंपराओं के संरक्षण के साथ अपने कर्तव्यों के दायित्व निर्वहन के लिए संकल्पित हों, अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों में संस्कार पोषण करें...वर्तमान राष्ट्रीय पर्व हम ऐसे भी मनाएं ---और इस प्रकार एक दूसरे को दें
स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या

Saturday, 20 July 2024

वर्षा ऋतु में रोगो से बचाती है भारतीय जीवनशैली व होम्योपैथी


अब तक जलाने वाली तेज धूप गर्मी फिर बरसात से मौसम में नमी किन्तु साथ ही होने वाली उमस और पसीने की  जलन , कई तरह के संक्रामक रोगों के खतरे का भी संकेत देते हैं। इस मौसम में जरा सी लापरवाही आपके स्वास्थ्य के लिए भारी पड़ सकती है।
पृथ्वी पर भारत ही ऐसी धन्य भूमि है जहां प्रकृति की छः ऋतुओं का आनन्द लिया जा सकता है ।यह मौसम धान्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सनातनी धर्म की मान्यतानुसार चातुर्मास का प्रारम्भ होने के साथ जीवन शैली के जो नियम बताये गए हैं वह वैज्ञानिक दृष्टि से भी बेहद उपयोगी हैं।
सावन की रिमझिम फुहारों के साथ जगह जगह जल भराव एवं उचित प्रबन्धन न होने पर गन्दगी एकत्र होने लगती है और उसके कारण जिस तरह तमाम उपयोगी अनुपयोगी वनस्पतियां पनपने लगती हैं ठीक वैसे ही शरीर में रोगों के पनपने की सम्भावना बढ़ जाती है। अतः इस काल को शरीर और प्रकृति दोनों का संक्रमण काल कह सकते हैं।

मौसम की नमी, उमस और चिपचिपा पसीना यह तीनो कई प्रकार के जीवाणुओं ,फंगस,आदि के पनपने और रोग पैदा कर सकने के लिए सबसे मुफ़ीद वातावरण तैयार कर देते हैं। इस ऋतु में साँस, पाचन,त्वचा, एवं जोड़ो के रोगों में खासी बृद्धि हो सकती है।
पाचन रोग- पल पल बदलते वातावरण के ताप के अनुरूप शरीर को ढलने में समय लगता है इसलिए व्यक्ति की जठराग्नि अपेक्षाकृत मन्द पड़ जाने से अपच, गैस, कब्ज़, दस्त, अतिसार, पेचिश, फ़ूड पॉयजनिंग आदि रोग हो सकते हैं। बासी रखा हुआ या संक्रमित भोजन करने के 2-4घण्टे के भीतर ही व्यक्ति को पेट में मरोड़ व उल्टियाँ हो सकती हैं।

श्वांस रोग-घरों में छतों पर या आस पास एकत्र पानी के कारण होने वाली सीलन साँस के रोगियों की तकलीफ बढ़ा सकती है, जिसमें दमा के रोगियों को अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। इस समय होने वाले सर्दी, जुकाम, खांसी में जकड़न बढ़ने की सम्भावना  बढ़ जाती है।
त्वचा रोग-त्वचा शरीर का सुरक्षा कवच है , साफ स्वच्छ स्वस्थ त्वचा हमारे उत्तम स्वास्थ्य और सौंदर्य का भी पैमाना है किन्तु बरसात में गन्दे पानी के कारण होने वाले संक्रमण से दाने, फुंसी,फोड़े, त्वचा मोड़ पर होने वाली गीली या सूखी दाद, खाज, खुजली, पीबदार मुंहासे, जलन वाले छाले, घमौरियां, आदि हो सकती हैं। इस मौसम में कुछ बच्चों में नकसीर फूटने की भी शिकायत मिलती है।
बरसात में जहरीले जीव जन्तुओ के डंक या दंश का खतरा भी बना रहता है। कई बार रक्त दूषित होने से कई एलर्जिक लक्षण मिलते है जिनमे पहले हल्की खुजली के बाद त्वचा लाल हो जाती है फिर उभर आती है ऐसा रक्त में मास्ट सेल के बढ़ जाने से होता है इसे पित्ती या अर्टिकेरिया कहते हैं।
संक्रामक रोग- जगह जगह गन्दगी व पानी एकत्र होने के कारण मच्छरों मख्खियों की संख्या उनसे होने वाले संक्रामक रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है। जिसमें पीलिया, टायफायड, डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया रोग आदि प्रमुख हैं। 
जोड़ों के दर्द  -नमी के चलते पुरानी चोट मोच या वात रोगों में भी बृद्धि के कारण जोड़ो के दर्द उभर आते हैं।

क्या बरतें सावधानियां

भारतीय सनातन धर्म में सावन महीने में भगवान शिव के अभिषेक का विधान समय, प्रकृति, जीवन, स्वास्थ्य आध्यात्म की दृष्टि से वैज्ञानिक प्रतीत होता है , सावन में होने वाली वनस्पतियां , शाक आदि प्रदूषित और कुछ सीमा तक विषाक्त हो सकती हैं जिन्हें खाने के बाद दुग्ध उत्पादन करने वाले पशुओं का दूध भी स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत उत्तम नही माना जाता इसीलिए मदार, भांग, गांजा, धतूरा आदि विषैली प्रकृति की वनस्पतियों के साथ दूध से भी भगवान शिव का अभिषेक किया जाना तर्कसंगत लगता है क्योंकि शिव में ही विषपान कर सकने की शक्ति की मान्यता है।बहरहाल स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस ऋतु में हरी पत्तेदार शाक सब्जियों का सेवन नहीँ करना चाहिए। स्वच्छ सादे रंग के सूती और ढीले वस्त्र पहने , सिंथेटिक, नायलान,टेरीकॉट, चटख रंगीन और कसे वस्त्रों के प्रयोग से बचें। प्रतिदिन स्नान करें और त्वचा , बालों ,शरीर के अंगों की सफाई का ध्यान रखेँ और उन्हें सूखा रखें। गीले वस्त्र देर तक न पहनें। गरिष्ठ ,तेल ,मसालेदार, बाजार की टिकिया, चाट , बर्गर व अन्य जंक फ़ूड का सेवन न करें। भोजन में नीबू, तुलसी, अदरक, शहद, जामुन का प्रयोग करें। इससे प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है एवं मधुमेह के रोगियों को भी लाभ मिलता है। मच्छरदानी में सोएं और घर व आस पास नाली आदि जगहों पर पानी न इकट्ठा होने दें। यदि ऐसा हो भी तो उसमे समय समय पर मिट्टी का तेल या कीटनाशक का छिड़काव कराते रहें। फल सब्जियां अच्छी तरह धोकर ही खाएं।

क्या है होम्योपैथी में उपचार-

होम्योपैथी स्वयं प्रकृति के चिकित्सा नियम पर आधारित पद्धति है, इस समय प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हो रहे तमाम औषधीय पौधे मनुष्य को संजीवनी भी प्रदान करते हैं। स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता , उचित सावधानी , नियमित दिनचर्या, संतुलित खानपान से हम अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों, परजीवियों से होने वाले रोगों, विषैले कीटों के डंक आदि से स्वयं को अस्वस्थ होने से बचा सकते हैं अथवा किसी भी अपरिहार्य स्थिति में कुशल प्रशिक्षित होम्योपैथ के मार्गदर्शन में उचित औषधियों का सेवन कर स्वास्थ्यलाभ प्राप्त कर सकते हैं। वर्षा ऋतु की ज्यादातर समस्याओं के लिए होम्योपैथी की रसटाक्स, डल्कामारा, नेट्रम सल्फ,  आर्सेनिक, बेल, युपेटोरियम, जेल्स, ग्लोनीयन, सल्फ, फॉस, लिडम, एपिस, ब्रायोनिया, नाजा, चायना , आदि दवाईयां कारगर होती हैं। औषधियों का चयन चिकित्सक ही कर सकते हैं सुन या पढ़ कर उचित औषधि का चयन नही हो सकता।

डा उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या

Wednesday, 10 July 2024

काल केवल कर्म देखता है



तथाकथित शिक्षित लोग स्वयं की विद्वता भगवान के अस्तित्व को अपने कुतर्को से सिद्ध करने में ही समझते हैं ,  वस्तुतः ऐसे लोग अल्पज्ञानी ही होते है किंतु उनकी प्रवृत्ति अधजल गगरी छलकत जाय जैसी ही होती है ....। 
ध्यान रहे-

 काल कर्म देखता है डिग्री नहीं।...सफलता की ऊँचाई पर संतुलन और धैर्य आवश्यक  है,आकाश कितना ही ऊँचा हो,बैठने की जगह किसी को नहीं देता।

              
डा. उपेन्द्रमणि त्रिपाठी
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या

Tuesday, 25 June 2024

अपेक्षा और उपेक्षा

अपेक्षा और उपेक्षा दोनों अपने वर्णक्रम का पालन करती है, किन्तु निरपेक्षता में व्यंजना है।अपेक्षा समय परिस्थिति के अनुरूप व्यक्त होती है, उपेक्षा मौन।
निरपेक्ष दोनों ही स्वरों की एकात्म व्यंजना.... यही प्रकृति का व्याकरण है।
सामान्य मनुष्य स्वयं को कितना भी श्रेष्ठ व ज्ञानी  समझता रहे किन्तु प्रकृति के व्याकरण को नहीं बदल सकता।
मूल को जाने बिना वह अपनी बुद्धि विवेक से तर्क अर्थ लगाता रहता है, किन्तु प्रकृति का भावार्थ  अब तक मनुष्य के लिए अपेक्षित विषय है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथ

सभी नहीं कर सकते सेवा...

पहचान पद प्रतिष्ठा सभी का त्याग कर जो सेवा भाव को हृदय में धारण कर लेते हैं वह महावीर बजरंगबली की तरह  स्वतः ही भक्ति पथ के अनुगामी बन जाते है।किन्तु सेवा सभी कर भी नहीं सकते क्योंकि सेवा तो वही कर सकता है, जिसकी स्वयं के लिए कोई कामना न हो, वाणी मृदु, आचरण विनम्र,हृदय संवेदनशील , सेवा कार्य में आस्था एवं निष्ठा हो , मन मे ईर्ष्या द्वैष न हो समदृष्टिभाव हो।
 अब प्रश्न है कि कामना रहित कौन होगा क्योंकि सेवा करने के लिये धन, संसाधन, साधन आदि पदार्थों की आवश्यकता या सेवा करनेकी अभिलाषा भी कामना ही है; क्योंकि इससे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है।

 इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।
    दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है' - ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।
    'मैं किसीको कुछ देता हूँ' - ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं? नहीं न...तो बस सेवा नर में नारायण को देखते हुए उसीके अंश में अपने अंश की युक्ति ही हमारा उस परमपिता के सानिध्य का माध्यम है।
यह परस्पर श्रेय की अभिलाषा से मुक्त बस मन चित्त और आत्मा को परम शांति आनंद और संतुष्टि प्रदान करने का माध्यम है।


        

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

श्रोता की मनःस्थिति को समझ कर ही कहना उचित

व्यथा हो या कथा दोनों योग्य  श्रोता होने पर कल्याणकारी हो सकती है।

कथा में वक्ता ज्येष्ठ होता है जबकि व्यथा में श्रोता।

श्रोता की तीन श्रेणियां है, प्रथम एक कान से सुने दूसरे से निकाल दे, दूसरा कान से सुने और लोगो से कहता फिरे, और तीसरा सुन ले किन्तु किसी से न कहे।

कथा उसी श्रोता को सुनानी उचित जिसके हृदय में भक्ति, आस्था व समर्पण का भाव हो, जो कथा के मर्म को ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हो, कथा में कोई भी श्रोता हो सकते हैं किंतु दूसरे और तीसरे प्रकार के श्रोता उचित रहते हैं ।
किन्तु व्यथा कहने से पूर्व श्रेष्ठ श्रोता की पहचान कर लेना आवश्यक है, इसमे तीसरे प्रकार का ही श्रोता उचित है जो सुन ले और उचित समाधान के लिए सहयोगी हो सके किन्तु एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने वाले या व्यथित की सुनकर जगह जगह उसकी चर्चा करने वाले किसी भी प्रकार उचित नहीं।

रहीम जी ने भी लिखा-
रहिमन निज मन की व्यथा सकुचि न कहियो कोय,
सुनि इठलइहैं लोग सब ,बांट न लेइहैं कोय।।


डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

निंदक नियरे रखिये....

विचार कीजिये जीवन मे
किसका हमारे आस पास होना प्रिय लगता है? और हम किससे दूरी बनाये रखते हैं या बचते हैं ?
उत्तर सहज है सभी अपने आत्मीय प्रियजन प्रशंसक मित्र को ही निकट चाहते हैं किंतु जो आपकी आलोचना करता हो या निंदा करने में हिचक नहीं करे उससे दूरी बनाए रखना उचित समझते हैं, कारण यह भय होना कि कहीं असमय वह आपकी कमियों को व्यक्त न कर दे और आपको अपमानित होना पड़े अथवा आपकी प्रतिष्ठा या छवि को धूमिल न कर दे, जबकि हमारे समक्ष हमारा ही गुणगान करने वाले , तर्थ्यों में हमारी महिमा पिरो कर प्रशंसा ही करने वाले मित्र आपको अधिक प्रिय लगते हैं,  हम उसे सदैव सन्निकट रखना पसंद करते हैं जो अच्छी प्रशंसा कर हमारी छवि गढ़ने में कुशल होता है।
किन्तु विचार कीजिये हमारे लिए अधिक उपयोगी कौन है वह प्रशंसक जिसके कारण हमारा जयगान होता है और हम काल्पनिक श्रेष्ठता के भ्रम में कर्महीन होते जाते हैं अथवा वह निंदक जो हमारी कमियों को उजागर कर हमें उनमें सुधार की संभावना दिखाता है, और यदि हम सुधार लाना प्रारम्भ कर देते हैं तो हमारा व्यक्तित्व और अधिक श्रेष्ठ होता जाता है।

कबीरदास जी ने बड़े ही सरल शब्दों में स्पष्ट कहा-

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, 
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

जोंक का समर्पण

जोंक एक ऐसा जीव है , जो स्वभाब से परजीवी है, किन्तु जिससे जुड़ता है प्रदर्शन एकात्म भाव सा रहता है किंतु उसका स्वाभाविक स्वार्थ रक्त है। अतः वह अपनी परिधि में आने वाले किसी भी ऐसे जीव से सहजता से जुड़ जाता है जिससे उसकी आवश्यकता पूर्ति होती रहे, और जब वह कमजोर होने लगता है या उसकी आवश्यकतापूर्ति का कोई श्रेष्ठ विकल्प मिल जाता है तो बिना अवसर गंवाए नए शरीर पर चिपक जाता है।
समाज मे भी ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जहां समर्पित निष्ठुस बड़े जीव की तरह होती है और समरस जीव उस जोंक की तरह।
सजग सचेत जाग्रत रहना चाहिए

Thursday, 2 May 2024

मनःस्थिति को समझ कर ही कहना उचित

 


व्यथा हो या कथा दोनों योग्य  श्रोता होने पर कल्याणकारी हो सकती है।

कथा में वक्ता ज्येष्ठ होता है जबकि व्यथा में श्रोता।

श्रोता की तीन श्रेणियां है, प्रथम एक कान से सुने दूसरे से निकाल दे, दूसरा कान से सुने और लोगो से कहता फिरे, और तीसरा सुन ले किन्तु किसी से न कहे।

कथा उसी श्रोता को सुनानी उचित जिसके हृदय में भक्ति, आस्था व समर्पण का भाव हो, जो कथा के मर्म को ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हो, कथा में कोई भी श्रोता हो सकते हैं किंतु दूसरे और तीसरे प्रकार के श्रोता उचित रहते हैं ।
किन्तु व्यथा कहने से पूर्व श्रेष्ठ श्रोता की पहचान कर लेना आवश्यक है, इसमे तीसरे प्रकार का ही श्रोता उचित है जो सुन ले और उचित समाधान के लिए सहयोगी हो सके किन्तु एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने वाले या व्यथित की सुनकर जगह जगह उसकी चर्चा करने वाले किसी भी प्रकार उचित नहीं।

रहीम जी ने भी लिखा-
रहिमन निज मन की व्यथा सकुचि न कहियो कोय,
सुनि इठलइहैं लोग सब 
बांट न लेइहैं कोय।।



डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथ

सभी नहीं कर सकते सेवा...


    पहचान पद प्रतिष्ठा सभी का त्याग कर जो सेवा भाव को हृदय में धारण कर लेते हैं वह महावीर बजरंगबली की तरह  स्वतः ही भक्ति पथ के अनुगामी बन जाते है।किन्तु सेवा सभी कर भी नहीं सकते क्योंकि सेवा तो वही कर सकता है, जिसकी स्वयं के लिए कोई कामना न हो, वाणी मृदु, आचरण विनम्र,हृदय संवेदनशील , सेवा कार्य में आस्था एवं निष्ठा हो , मन मे ईर्ष्या द्वैष न हो समदृष्टिभाव हो।
 अब प्रश्न है कि कामना रहित कौन होगा क्योंकि सेवा करने के लिये धन, संसाधन, साधन आदि पदार्थों की आवश्यकता या सेवा करनेकी अभिलाषा भी कामना ही है; क्योंकि इससे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है।

 इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।
    दूसरेको सुख पहुँचाकर सुखी होना, 'मेरे द्वारा लोगोंको सुख मिलता है' - ऐसा भाव रखना, सेवाके बदलेमें किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलनेपर राजी होना वास्तवमें भोग है, सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करनेसे सेवा सुख-भोगमें परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुखके लिये हो जाती है। अगर सेवा करनेमें थोड़ा भी सुख लिया जाय, तो वह सुख धनादि पदार्थोंमें महत्त्व-बुद्धि पैदा कर देता है, जिससे क्रमशः ममता और कामनाकी उत्पत्ति होती है।
    'मैं किसीको कुछ देता हूँ' - ऐसा जिसका भाव है, उसे यह बात समझमें नहीं आती तथा कोई उसे आसानीसे समझा भी नहीं सकता कि सेवामें लगनेवाले पदार्थ उसीके हैं, जिसकी सेवा की जाती है। उसीकी वस्तु उसे ही दे दी, तो फिर बदलमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है? उसीकी धरोहर उसीको देनेमें एहसान कैसा? अपने हाथोंसे अपना मुख धोनेपर बदलेमें क्या हम कुछ चाहते हैं?नहीं न...तो बस सेवा नर में नारायण को देखते हुए उसीके अंश में अपने अंश की युक्ति ही हमारा उस परमपिता के सानिध्य का माध्यम है।
यह परस्पर श्रेय की अभिलाषा से मुक्त बस मन चित्त और आत्मा को परम शांति आनंद और संतुष्टि प्रदान करने का माध्यम है।

जय सियाराम
        

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी,
होम्योपैथी फ़ॉर आल
अयोध्या महानगर

Monday, 22 April 2024

अपेक्षा उपेक्षा और सापेक्ष निरपेक्षता

अपेक्षा और उपेक्षा दोनों अपने वर्णक्रम का पालन करती है, किन्तु निरपेक्षता में व्यंजना है।अपेक्षा समय परिस्थिति के सापेक्ष व्यक्त होती है, उपेक्षा मौन।
निरपेक्ष दोनों ही स्वरों की एकात्म व्यंजना.... यही प्रकृति का व्याकरण है।
सामान्य मनुष्य स्वयं को कितना भी श्रेष्ठ व ज्ञानी  समझता रहे किन्तु प्रकृति के व्याकरण को नहीं बदल सकता।
मूल को जाने बिना वह अपनी बुद्धि विवेक से तर्क अर्थ लगाता रहता है, किन्तु प्रकृति का भावार्थ  अब तक मनुष्य के लिए अपेक्षित विषय है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी 
होम्योपैथ
अयोध्या