चिकित्सा, लेखन एवं सामाजिक कार्यों मे महत्वपूर्ण योगदान हेतु पत्रकारिता रत्न सम्मान

अयोध्या प्रेस क्लब अध्यक्ष महेंद्र त्रिपाठी,मणिरामदास छावनी के महंत कमल नयन दास ,अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी,डॉ उपेंद्रमणि त्रिपाठी (बांये से)

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Saturday, 23 December 2017

संकल्प से सिद्धि के मार्ग में बायपास नहीं हो सकते

गुरुकुल से शिक्षा पूरी कर चार दोस्त एकसाथ उसे समाजहित में धर्मप्रचार के संकल्प के साथ चल दिये। कुछ समय वे सब साथ ही नगर नगर भ्रमण कर प्रचार करते रहे, कहीं स्वागत समर्थन मिलता तो कहीं आलोचना किन्तु धीरे धीरे उनके कार्यों की सराहना होने लगी ।लोगो से जो सहयोग मिलता उसे वर्ष में जरूरतमन्दों की सहायता में लगा दिया जाता। फिर एक वर्ष का समय लेकर वे चारों अलग अलग दिशाओं में एक ही उद्देश्य को पूरा करने चल दिए। उनमे से दो ने अलग अलग अपना व्यवसाय जमा लिया और शेष दोनो गुरुकुल के जिस उद्देश्य को लेकर चले थे उसमे पूरी तन्मयता से लगे रहते, धीरे धीरे उनके कार्यों की चर्चा बाकी दोनो को भी पता चलता तो वे कहते हम सब ही के सहयोग से सब सेवा कार्य चल रहा लोग उनका भी आदर करते।समयावधि पूरी होने के निकट पुनः सब वार्षिक योजना में लग गए। दोनो व्यवसायी मित्रों ने इसबार वार्षिक आयोजन में लाभ की योजना बना ली और अपने मित्रों को बिना बताए धर्मार्थ आयोजन में सहयोग की राशि सभी के लिए आवश्यक कर दी , लोगो ने धर्म कार्य के लिए जमकर सहयोग किया। धर्म के नाम पर इसतरह का कदाचरण शेष दोनो को स्वीकार नहीं था, वह धर्म पर विश्वास करने वालों के विश्वास को खंडित नही करना चाहते थे और न ही मित्रों से कोई प्रतिवाद...इसलिए उन्होंने धर्म को अर्थ की आधीनता से बचाने का मार्ग सोचना शुरू किया । बहुत सोच विचार के बाद निश्चित हुआ कि अधर्म के रास्ते किया गया धर्म भी अधर्म ही है अतः अपने पथ पर चलते रहो जिनमें धर्म के पथ पर चलने की दृष्टि होगी वह आनन्द का अनुभव करते साथ चलते रहेंगे और जिन्हें आयोजन में सुख प्राप्त होता है उन्हें उस आनन्द की अनुभूति लेने दें।
यद्यपि इस निर्णय में साथी छूटने की पीड़ा तो होती है किंतु सत्यपथ कंटकाकीर्ण ही होता है और उसपर चलते रहने के लिए निस्वार्थ होना पड़ता है।

मित्रों इस कहानी से आपने क्या संदेश ग्रहण किया और आपको कैसी लगी, अवश्य बताईयेगा।

सादर आपका

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Monday, 18 December 2017

त्यागें आदतों की आधीनता

सभ्यता का विकास हमारे सामाजिक जीवन में बदलते हुए तरीकों के समानांतर चलता है। हमारी वर्तमान जीवन पद्धति का एक आधुनिक पक्ष आरामपसंद और तात्कालिक लाभ प्राप्त करने का दृष्टिकोण अपनाता सा दिखता है, अतः ऐसी सभी वृत्तियों प्रवृत्तियों की तरफ हमारा तीव्र आकर्षण होता है, जो तत्काल आनंददायी हों किन्तु  इसके परिणाम के बारे में सोचने के लिए हमारे पास समय नहीं होता। इसकी तुलना आप नशे की आदत से कर सकते हैं जहां तत्काल संतुष्टि तो है किंतु कोई विचार नही। आदतें अक्सर हमारे जीवन में शांति और सुख की क्षणिक अनुभूति से सन्तुष्टि और  स्वतंत्रता का बोध तो कराती हैं जबकि ज़िंदगी व्यसन के साथ धीमी गति से आगे बढ़ने लगती है। दूसरे शब्दों में कहें तो आदते हमें उस वस्तु के आधीन कर रही होती हैं जिनमे हम खुशी तलाश रहे होते हैं। यद्यपि खुशी की चाहत सहज मानव व्यवहार है किन्तु इसे प्राप्त करने का मार्ग सहज नहीं यह संघर्ष से होकर गुजरता है जहां कुछ पीड़ा भी हो सकती है किन्तु सन्तुष्टि का भाव स्थायी होता है। जबकि क्षणिक सन्तुष्टि की अधिकतम प्राप्ति के लिए आदतें सदैव  अस्थिर आंतरिक मांग को पूरा करने के लिए ऐसा मानसिक संघर्ष पैदा करती है कि व्यक्ति न्यूनतम स्तर तक गिर जाता है। यह कैसा जीवन है ? जीवन तो दोनों सीमाओं के बीच एक संतुलन है,  अक्सर समग्रता में समझ के अभाव में हम एकल कारक पर निर्णय लेते हैं। राहत तत्काल एक पेलिएटिव मोड के रूप में आती है लेकिन बाद में बढ़ जाती है। इस तरह के आकर्षण का निरंतर तरीका हमें नशे की ओर ले जाता है। जो कि पहले उदाहरण पर राहत देता है, लेकिन बाद में अधिक समस्याएं बढ़ जाती है।
इसलिए चिंतन की आवश्यकता है जिससे स्वस्थ जीवन पद्धति को अपनाया जा सके और स्वस्थ मानस के समाज का निर्माण हो सके।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
होम्योपैथी चिकित्सक
स्वास्थ्य सेवा प्रमुख-सेवा भारती अयोध्या महानगर

Saturday, 16 December 2017

सेमिनार के लाभ : कितने शैक्षणिक या व्यवसायिक

सेमिनार शब्द का उल्लेख आते ही मस्तिष्क में एक चित्र उभरता है कि विद्वानों का ऐसा सानिध्य का अवसर जहां विषय से जुड़ी नवीन जानकारियां और अनुसंधान पर ज्ञानवर्धन होता हो ..वस्तुतः यही वास्तविक उद्देश्य भी होना चाहिए। उपयोगिता की दृष्टि से यदि आमजन की सहभागिता हो सकती हो तो यह अपने उद्देश्यों के साथ सामाजिक जागरूकता का भी साधन हो सकते हैं। होम्योपैथी का विद्यार्थी होने के नाते मेरे विचारों के केंद्र में होम्योपैथी जगत में आयोजित होने वाले सेमिनारों का विश्लेषण स्वाभाविक ही हो जाता है।

मैं होम्योपैथी में भी सेमिनार को आवश्यक मानता हूँ यदि यह भी उपरोक्त चित्रित मापदण्ड रखें तो छात्र , चिकित्सक और समाज सभी के लिए निसन्देह उपयोगी होने चाहिए, इससे जो सबसे अधिक लाभ होगा वह जनसामान्य से होम्योपैथी के प्रति भ्रांतिया और दुष्प्रचार है उन्हें दूर करते हुए जनविश्वास को बढ़ावा और मांग बढ़ेगी, इससे चिकित्सकों का सम्मान, मांग, तो बढ़ेगा ही स्वस्थ समाज के निर्माण की सामाजिक व नैतिक भूमिका निभाकर राष्ट्र निर्माण में चिकित्सकों का योगदान बढ़ सकता है, किन्तु इसका जो प्रायोजित और व्यवसायिक स्वरूप दिखाई देता उसका समर्थन कदापि नही किया जा सकता।

वर्तमान समय मे सेमिनार के आयोजन के लिए एक तय मानक गढ़ दिया गया है जिनका दो पृथक वर्गों में विश्लेषण करते है। जिसके प्रथम पक्ष के अंतर्गत इसकी प्राथमिक आवश्यकता और उसकी पूर्ति के लिए संभावनावों पर, एक चर्चित  संगठन का नाम , आयोजन स्थल, तय किया जाता है फिर उसे राष्ट्रीय नाम देने के लिए एक से अधिक प्रदेशों के चिकित्सकों छात्रों के एक दल का कार्ड छपवाना होता है, जिसमे प्रदर्शित नामों की सहमति या आयोजन में कोई भूमिका हो यह जरूरी नहीं।फिर उसीमें कई तरह की समितियां घोषित हो जाती हैं, जबकि आयोजन के केंद्रबिंदु में दो चार लोग ही पर्याप्त होते हैं।अब इसके बाद कुछ विशिष्ठ वक्ता,मंच की शोभा के लिए अतिथि, सम्मानित किए जाने के लिए कुछ प्रतिष्ठित नाम, और उपकृत किये जाने लिए एक मण्डल, एक न्यूनतम अपेक्षित संख्या, और उसकी उपलब्धि के लिए अधिकतम प्रचार ,कम से कम 2 या 3 माह की समयावधि।

इसे यूँ समझ लें कि एक पारिवारिक आयोजन को सामाजिक या शैक्षणिक लिबास पहना दिया जाए।अब इस आयोजन में श्रेष्ठतम प्रदर्शन के लिए न्यूनतम सम्भावित व्यय और अधिकतम सहभागिता सुनिश्चित करनी होती है ,इसलिए जो अंतर स्पष्ट होता है इतना कि यहाँ सम्मिलित होने का शुल्क पहले वसूल लिया जाता है जिसमे हम पर सम्भव समस्त व्यय जुड़े होते हैं, अर्थात हम उस आयोजन का हिस्सा है जिसमे कुछ आयोजन समिति के लिए कुछ अधिक शुल्क प्रदर्शित किया गया होता है। यदि यह इतने ही में निपट जाए तो कोई प्रश्न नहीं किया जाना चाहिए किन्तु हमसे शुल्क वसूलते समय एक लाभ और बताया जाता है और वह है इस निवेश के बदले मिलने वाला इतने ही मूल्य या इससे अधिक राशि का रिटर्न गिफ्ट...और यही वह पक्ष है जिसपर अधिक चर्चा नहीं की जाती।

कुशल व्यवसायी की तरह हमे इस निवेश के बदले , बड़े नामचीन लोंगो को सुनने उनसे सीखने , पर्यटन , रिटर्न गिफ्ट सबको जोड़कर उनका लाभ गिना दिया जाता है, और हम इसीमे सन्तोष कर लेते है ।
मुख्यबिन्दु की तरफ बढ़ने से पूर्व इसके दूसरे पक्ष पर भी दृष्टि डालनी चाहिए जहां इतने बड़े आयोजन का आकर्षण नीलाम किया जाता है, अर्थात भिन्न क्षेत्रों से आये  एक साथ इतने चिकित्सकों से कम्पनियों को सम्पर्क का अवसर सुलभ कराना और यह भी निशुल्क नहीं होता, सेमिनार की पत्रिका, पत्रक,सभागार के प्रमुख स्थल पर प्रचार के प्रदर्शन, व्यवस्थाओ में सहयोग, जलपान, भोजन, सभीकुछ प्रायोजित, इतना ही नहीं यदि संभव हुआ तो उपलब्ध योजनाओं से सरकारी अनुदान भी प्राप्त होते होंगे, और माननीयों की आगवानी, स्वागत, सम्मान सब प्रायोजित होता जाता है, और इसकी पुष्टि के लिए किसी का भी ब्रॉशर लें और ध्यान से पढ़ें।

अब इसके बाद थोड़ा सा श्रम और करें कि उसकी  गणना न्यूनतम में ही करें अनुमानित संख्या के अनुरूप अब अपेक्षित आय और इतनी ही व्यवस्था के लिए आवश्यक व्यय की राशि की तुलना करें।

सेमिनार में उपस्थित होने वाले चिकित्सकों के अतिरिक्त जुटने वाली भीड़ को देखें जिनमे अधिकतम छात्र सम्मिलित हैं, उनके कोर्स और उस विषय की तुलना करें क्या प्रथम द्वितीय या तृतीय वर्ष के छात्र प्रस्तुत किये गए विषयो के सापेक्ष व्यवहृत है।
अब जिस मूलबिदु पर हमें विचार करना चाहिए वह ये कि भोजन, जलपान, हाल के अंदर बाहर प्रचार, पत्रिका आदि सब प्रयोजित या विज्ञापित, तो
डेलिगेशन फीस की वसूली क्यों ?
मान लिया डेलिगेशन फीस भी जरूरी तो छात्रों से यह शुल्क क्यों..?

इस प्रश्न के पीछे का तर्क यह कि जब छात्र जीवन  में सीनियर अपने जूनियर से शुल्क नही लेने की संस्कृति अपनाते हैं...तो यहाँ वरिष्ठ होने के साथ कमाई कर रहे चिकित्सक अपने जूनियर या छात्रों का व्यय वहन क्यों नही कर सकते ?

अपेक्षित या उपस्थित संख्या, के अनुरूप आयोजन के व्यय का आकलन और उपरोक्त साधनों से होने वाली आय में इतना बड़ा अंतर क्यों, और इस राशि से होम्योपैथी का विकास कैसे किया जाता होगा.... सम्भवतः कोई होम्योपैथिक अस्पताल तो संचालित नही किया जाता होगा जहां एक भी चिकित्सक को नियुक्ति दी जा रही हो, या किसी गरीब छात्र की किसी तरह सहायता की जाती हो।

मौसम का लुत्फ उठाने की आज़ादी सभी को है , किन्तु ऐसी ही कोई उत्साहजनक एकता की भीड़ होम्योपैथ के हितों के लिए कटिबद्धता प्रदर्शित करती नही दिखती जितनी इन सेमिनारों में प्रतिबद्ध नजर आती है। इनकी स्वीकार्यता ही यह बताती है कि ऐसे ही प्रयोजनों को समर्थन खूब मिलते है भले ही हम उसे उपयोगी मानते हों या नहीं। वहां हम धन देकर उसका हिस्सा तो बनते हैं किंतु अपने हित का सवाल तक उठाने की हिम्मत नही कर सकते। प्रश्न वहां पूछते हैं जहां कोई आपसे धन नही समय और सहयोग मांगता हो... चिंतन का विषय यही है कि आपकी प्राथमिकता क्या है ...?

सेमिनार होम्योपैथी के लिए उद्देश्यपूर्ण तब होंगे जब वे छात्रों के लिए उपयोगी हों, उनके अनुरूप हों, उनकी प्रतिभागिता के प्रोत्साहन से युक्त हों, जनजागरूकता हेतु आमजन की उपस्थिति में हों, भ्रांतियों को जवाब देने वाले हों,जनविश्वास को स्थापित करने वाले हों, चिकित्सकों को नवीन जानकारियां उपलब्द्ध कराने वाले हों, तार्किक सत्य तथ्य पर आधारित हों।इनका आयोजन भिन्न महाविद्यालयों में भी न्यूनतम लागत या उपलब्द्ध संसाधनों में किया जा सकता है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
स्वास्थ्य प्रमुख-सेवा भारती अयोध्या महानगर
-होम्योपैथी चिकित्सा विकास महासंघ

Wednesday, 29 November 2017

मैं विचार हूँ... जन्म तो लेता हूँ.. मरता नहीं


बचपन का (80 का दशक) एक इतिहास याद आ गया जिसने मुझमे होम्योपैथी के प्रति रुचि पैदा की।
जिस शहर में रहता था वहाँ बस स्टैंड के पास एक 50 -55 वर्ष के चिकित्सक होम्योपैथी की प्रैक्टिस करते थे । सुबह 5 बजे ही 20 से 25 मरीज दुकान के सामने बैग रखकर नम्बर लगा देते। डॉ साहब 2 रुपये में 9 पुड़िया दवा तीन दिन की देते और मरीज को उसका रोग व परहेज स्थानीय भाषा मे बताते जाते । फिर हम लोग दूसरे शहर चले गए किन्तु डॉ साहब की खबर लेते रहते।  डॉ साहब ने अपने बेटे को डाक्टर तो बनाया किन्तु उसे पिताजी की प्रैक्टिस का तरीका अच्छा नही लगता जब  वह बैठता तो कहता हम मॉडर्न डॉ है तरीका बदल गया है और उसने पिता जी की अनुपस्थिति में एक मरीज से 20 रुपये लेना शुरू कर दिया फिर पहले रजिस्ट्रेशन आदि भी शुरू करवा दिया यद्यपि डॉ साहब को व्यवस्था से दिक्कत नही थी किन्तु सेवा कार्य को व्यवसाय बनाने और बेटे के व्यवहार से वे दुःखी होते कभी कभी तो मरीजो के सामने भी उन्हें कम्पाउंडर की तरह बात सुननी पड़ती, फिर उन्होंने क्लिनिक आना छोड़ दिया , इधर उनके नाम पर बेटे की दुकान चलती रही। कुछ लोगो को वह पर्चा जमा करके अगले दिन डॉ साहब से दवा लिखवा कर देने की बात कहकर भी इलाज करता।फिर डॉ साहब दुनिया को अलविदा कह गए ।किन्तु उनके जाने के बाद उनकी क्लिनिक पर भी मरीजो की संख्या कम होती गयी।
यह बात हम लोगो को 5 वर्ष बाद पता चली कि डॉ साहब की मृत्यु 3 वर्ष पहले हो गई और 2 वर्ष पहले उनकी क्लिनिक बन्द हो गयी।
आज प्रसंगवश यह घटना याद आ गई , ऐसे  उदाहरण कम ही होंगे कि पौध रोपित कर उसे फलदार पेड़ बनाने वालों को उसके फल खाने का सौभाग्य मिलता हो, हालांकि उनकी पीढियां जरूर उसका भरपूर लाभ उठाती हैं किंतु यदि उनमें नकारात्मक प्रवृत्तियां या विकार आ जाएं तो निश्चित ही वह कीमती लकड़ियों की लालच में बृक्ष ही काट डालते हैं ... अर्थ लाभ तो होता है मगर फल क्या मिलता है ..?

व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, प्रकृति सभी सन्दर्भों में यह पुनरावृति दिखाई देती है किंतु यह बुद्धिमान कहा जाने वाले मनुष्य का अभिमान है जो उसे न तो सत्य देखने देता है न समझने।

मानस में विभीषण ने जब समझाया होगा ...
"जहां सुमति तहँ सम्पत्ति नाना ।
जहां कुमति तहं बिपति निधाना।।"

तो सम्भवतः बुद्धि अभिमानी रावण को लगा हो यह सही तो कह रहा है क्योंकि सोने की लंका और समस्त सम्पत्तियां तो मेरे आधीन हैं, और वनवासी राम विपत्तियों से घिरा हुआ कुमति के  आधीन है। ठीक ऐसे ही हम अपनी मति अनुरूप प्रसङ्ग को भिन्न सन्दर्भो में जोड़ लेने के लिए स्वतंत्र हैं।

निवेदन है एक बार अवश्य पढ़ें, विचार करें, और उचित समझें तो विचार दें।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
सेवा भारती अयोध्या महानगर

Monday, 27 November 2017

सेवा भारती : बचपन

तुम चढ़ावा लेकर मंदिरों के अंदर
भगवान से मांगते हो ..वो देता है ?
हम मंदिरों के बाहर तुमसे ,उससे ,सबसे मांगते हैं
कोई देता है कोई दुत्कार देता है...
तुम रोते हो तो चुप करा लेता है कोई
हम रोते है तो मार देता है,

अब हाथ नही फैलाएंगे हम भी पढ़ने जाएंगे।
सेवा बस्ती चिथरिया में चिकित्सा शिक्षा एवं संस्कार शिविर।

Tuesday, 14 November 2017

संगठन में सुलझन या उलझन

हमारे विचार में जब संगठन की कल्पना एक तस्वीर का स्वरूप लेने लगती है तो उसका उद्देश्य, संरचना  , कार्यपद्धति और विस्तार जैसे अनेक बिंदु प्रश्न बनकर खड़े दिखाई देते हैं।

क्योंकि भविष्य में इन्ही पर संगठन की पहचान उसका विश्वास और उसकी दृढ़ता से उसकी उम्र तय होती है।
किसी संगठन के उद्भव के पीछे एक प्रमुख कारण और एक मूल उद्देश्य अवश्य होता है, जिसके पूरक कई सारे कारण और बहुआयामी उद्देश्य जुड़ते होंगे।

इसके बाद संगठन के अस्तित्व में आने के लिए एक से अधिक समान विचारधारा के विश्वस्त व्यक्तियों का होना जरूरी है जिनके आगे संगठन का विस्तार और कार्यपद्धति के नियोजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है।वस्तुतः यही वे लोग है जो केंद्रीय भूमिका में होते हैं इसलिए इनमे कुशल नेतृत्व के गुण होने आवश्यक हैं जिनमे स्पष्टवादी,सत्यनिष्ठा , समर्पण, परस्पर सम्मान सद्भाव, धैर्यवान श्रोता, कुशल वक्त, निष्पक्ष, एवं पारदर्शी , दूरदृष्टि के साथ समय समय पर कठोर निर्णय क्षमता होना बेहद जरूरी है।

इस संरचना के बाद विस्तार में समग्र समावेशी होने की बजाय चयन आधारित होना अधिक उपयोगी होता है ।
ऐसा इसलिए भी जरुरी है कि संगठन कभी व्यक्तिगत हित साधने की भावना का माध्यम नहीं समाज को कुछ देने का भाव होता है इसलिए ऐसे व्यक्ति संगठन को नित नई ऊंचाइयों तक ले जाना स्वयं की जिम्मेदारी समझते हैं , यह सुलझा हुआ संगठन होता है जो निरन्तर और उत्तरोत्तर उन्नतिशील , दृढ़ और दीर्घजीवी होता है। दूसरी तरफ जो व्यक्ति किसी निहित स्वार्थ में संगठन से जुड़ते हैं वह आवश्यकता पड़ने पर नजर नही आते किन्तु उनके स्वार्थ पूर्ति के लिए संगठन से अपेक्षा जरूर रखते हैं अवसर मिलने पर वह इससे अर्जित शक्तियों का मनचाहा प्रयोग करने में किसी मर्यादा को लांघ सकते हैं, यही संगठन की उलझन हुआ करती है, संगठन उनकी महत्वकांक्षा को साधने का एक माध्यम मात्र हुआ करता है, कालांतर में ऐसे संगठन का पतन सुनिश्चित है।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
चिकित्सक होम्योपैथ
चिकित्सा प्रमुख- सेवा भारती अयोध्या महानगर

Saturday, 11 November 2017

अभिव्यक्ति की आजादी अर्थ आदर्शों पर प्रहार नहीं

भारत सांस्कृतिक देश है, हमारे यहां पूर्वजों और अपने इतिहास की गाथाएं बच्चों को संस्कारवान बनाने की प्रेरणास्रोत की तरह सुनाई जाती रही हैं। हम अपने ही पूर्वजों का सम्मान इस तरह करते हैं कि यदि उनका कोई काला अतीत भी रहा हो तो बच्चों को उनके उजले पक्ष से परिचित कराते हैं जिससे वे प्रेरणा ले सकें, पहले यह कार्य दादी नानी की कहानियां करती थीं, किंतु कालांतर में यह प्रभाव सिनेमा और मीडिया के पक्ष में चला गया।
ऐसे में इतिहास के वे प्रतिमान जो हमारे सांस्कृतिक गौरव के आदर्श के रूप में स्थापित है या जो हमारी आस्था के स्वरूप हैं मनोरंजन , एवं रचनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर तथ्यों से किसी भी स्तर पर छेड़छाड़ कोई नासमझी से हुई गलती नहीं पूरी तरह निर्देशित चित्रण है।
मनोरंजन या रचनात्मकता के लिए तमाम विषय हैं जितना चाहे चित्रण कीजिये किन्तु आदर्शों को व्यवसायिक लाभ या मनोरंजन के लिए क्षतिग्रस्त कर भावनात्मक ज्वार पैदा करने की कोशिश किसी को करने की आजादी नहीं होनी चाहिए। मैं इतिहास का छात्र नहीं इसलिए तथ्यों की प्रमाणिकता में भटकने की बजाय सिर्फ इतना कहूंगा कि रानी पद्मावती काल्पनिक हों या वास्तविक कोई फर्क नहीं पड़ता किन्तु वे भारतीय नारीत्व के गौरव का चरित्र हैं , किसी रचनाकार की क्षमता उनके कद को मापने की नहीं।

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी

Friday, 10 November 2017

मोटापा : संतुलन या उपचार क्या चुनें

आकर्षक काया किसकी चाहत नही होती किन्तु कुछ लोगों पर यही तन्दुरुस्ती भार (बोझ) बन जाती है, सामान्यतः बढ़ी चर्बी से हम मोटापे की तस्दीक करते हैं। और उससे निजात पाने के लिए लोग डायटिंग या अन्य तरह के तरीके अपनाते हैं।
मोटापे से सम्बंधित जानकारियों को प्राप्त करने में आमजन के कुछ मूलभूत किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं , यह आलेख उन्ही प्रश्नों का सरलतम समाधान  देने का प्रयास है। वस्तुतः सर्वप्रथम स्वाभाविक प्रश्न है कि मोटापा क्या है ?

मोटापा एक ऐसी चिकित्सकीय स्थिति है जिसमें शरीर में अतिरिक्त वसा की मात्रा इतनी सीमा तक  जमा हो जाती  है कि उसका स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

कैसे जानें कि हम मोटे हैं या नहीं ?

यूँ तो हम किसी व्यक्ति को देखकर ही उसके मोटे होने का अंदाज लगा लेते हैं , किन्तु इसका एक सरल तरीका भी बताया गया है कि सीधे लेट कर अपने पैर के अंगूठो को देखने का प्रयास करें, यदि आप सरलता से उन्हें देख पाते हैं तो ठीक अन्यथा आपको सावधान होना चाहिए।
चिकित्सकीय परीक्षणों में यह 25 से अधिक शरीर-द्रव्यमान सूचकांक (Body-Mass Index) के पैमाने से मापा जाता है।

शरीर द्रव्यमान सूचकांक (बीएमआई), व्यक्ति की ऊंचाई (मीटर)के वर्ग के द्वारा किसी व्यक्ति के वजन को विभाजित करके प्राप्त माप होती है।

वजन बढ़ने के क्या कारण हो सकते हैं ?

प्रमुख रूप से वाह्य कारण के रूप में अनियंत्रित खानपान व जीवनशैली एवं आंतरिक कारण के रूप में अंतःस्रावी ग्रन्थियो की असामान्य क्रियाशीलता, जैसे एड्रिनल की अतिकार्यता, या अंडकोष, अंडाशय या थायरायड की अल्पकार्यता, में ही सभी कारण समहित हो सकते हैं फिर भी आनुवंशिक,अपर्याप्त निष्कासन, मानसिक तनाव मोटापा बढ़ने के महत्वपूर्ण कारण है।
आज के भौतिकवादी एवं सुविधाभोगी युग में हम घण्टों कम्प्यूटर आदि पर बैठकर कार्य करते है, समय पर भोजन, या नींद तक नहीं लेते। घर के सात्विक आहार की जगह बाजार के तामसिक आहार  या जंक फूड ने ले ली है। यह सब मोटापे की प्रवृत्ति को बढ़ाने वाले है।

वर्तमान में यह जनस्वास्थ्य की तमाम गम्भीर बीमारियों के प्रमुख कारण के रूप में सामने आने लगा है और भारत मे 15 से 20% आबादी इसकी चपेट में है। इसीलिए विज्ञान ने इसे भी बीमारी की श्रेणी में स्वीकार कर लिया है।

कैसे बढ़ता है मोटापा ?

मोटापे के उपरोक्त बताए गए कारणों के अनुरूप मोटापा या वजन बढ़ने की क्रिया को समझा जा सकता है।

पैंक्रियास में अधिक इंसुलिन का उत्पादन कार्बोहाइड्रेट को वसा (चर्बी) में बदल देता है, इससे  दिमाग को आवश्यकता से कम ग्लूकोज मिलता है, किन्तु इसके कारण मनोभावों में अचानक परिवर्तन, निरन्तर थकान व अत्यधिक भूख  मोटापा बढ़ने का कारण हो सकता है। इसी प्रकार अत्यधिक खाने की जिद भी एक तरह के जन्मजात रोग के कारण होता है जिसे प्रेडर विली सिंड्रोम कहते हैं।

इसीप्रकार महिलाओं में यौवनारम्भ के समय इस्ट्रोजन स्राव में वृद्धि अथवा गर्भनिरोधक गोलियों के प्रयोग, गर्भावस्था, धूम्रपान, लसिका वाहिनियों व यकृत की अपर्याप्त क्रिया के कारण शरीर का ऊपरी भाग तो सामान्य बना  रहता है किन्तु नितम्ब व जांघे मोटी हो जाती हैं।

मोटापा के नकारात्मक प्रभाव क्या हैं?

मोटापा शरीर में कई प्रणालियों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। इस कारण जो गंभीर स्थितियां विकसित हो सकती हैं उनमें हृदय रोग , द्वितीय प्रकार का मधुमेह, प्रतिरोधी स्लीप एपनिया, कुछ प्रकार के कैंसर, ऑस्टियोआर्थराइटिस और अवसाद प्रमुख हैं।

मोटापे के पहचान के लक्षण क्या हैं?

मोटापा शारीरिक और मानसिक स्तर पर जीवन में कई सारे परिवर्तन लाता है। जिनके कारण व्यक्ति में इसके लक्षण परिलक्षित होते हैं।
मोटे व्यक्तियों में सांस फूलना, अचानक और बार-बार पसीना आना, नींद में खर्राटे, शारीरिक गतिविधि के साथ सामंजस्य करने में अचानक असमर्थता का अनुभव करना, प्रतिदिन बहुत थकान महसूस करना, पीठ और जोड़ों में दर्द , शारीरिक समस्याओं के कारण किसी भी काम को करने की क्षमता में कमी जिससे कमजोर आत्म विश्वास आत्मसम्मान में भी कमी के लक्षण देखने को मिलते हैं। ऐसा व्यक्ति अकेलापन भी महसूस करता है।

क्या डायटिंग मोटापे का उचित उपचार का तरीका है ?

अत्यधिक डायटिंग मोटापे से निजात दिलाने की बजाय एनोरेक्सिया नर्वोसा व बुलिमिया जैसे रोग उत्पन्न कर सकती है।

मोटापे को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं?

इसका एक ही सरल सूत्र है आहार, विहार, और व्यवहार का संतुलन।
मोटापे को रोकना जरूरी है क्योकि जब एक बार वसा कोशिकाएं बन जाती हैं, वे आपके शरीर में हमेशा के लिए रहते हैं। हालांकि आप वसा कोशिकाओं के आकार को कम कर सकते हैं, आप उनसे छुटकारा नहीं पा सकते हैं।

इसलिए तेजी से वजन घटाने के स्वास्थ्य के विपरीत प्रभावों से बचते हुए धीमी और स्थिर गति से वजन घटाने का लक्ष्य (प्रति सप्ताह 1 से 2 पाउंड) निर्धारित करें।कैलोरी संतुलन से स्वस्थ भोजन करें, शारीरिक रूप से सक्रिय होने के लिए श्रम, योग, व व्यायाम अपनी दिनचर्या में शामिल करे।

इन खाद्य और पेय पदार्थों का सीमित उपयोग करें या बचें-

शुगर-मिठाई वाले पेय (सोडा, फल पेय, स्पोर्ट्स ड्रिंक) फलों का रस (प्रति दिन न्यूनतम मात्रा से अधिक नहीं) परिशोधित अनाज (सफेद रोटी, सफेद चावल, सफेद पास्ता) और मिठाई। आलू (बेक्ड या तला हुआ) लाल मांस (बीफ़ , पोर्क, मेमने) और संसाधित मीट ।

बचाव या उपचार के लिए क्या करें उपाय ?

मोटापे के उपचार के लिए आवश्यक है कि उसका सही कारण ज्ञात हो।इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर ही औषधि का प्रयोग किया जाना चाहिए।  साथ भी कम वसा /कैलोरी का भोजन, गहरे हरे रंग की सब्जियां व फल, त्वचारहित मांस, सूखे मटर, दाल का सेवन करें।
बाजार के जंक फूड की जगह घर के बने शुद्ध सात्विक शाकाहार को प्राथमिकता दें।

प्रतिदिन कम से कम एक मील पैदल चले, ।
भोजन के साथ हल्का गुनगुना पानी लें, और भोजन के आधे घण्टे बाद पानी पिएं।
प्रातः गुनगुने पानी के साथ शहद लेना भी लाभदायक है।
निराहार या अधिक डायटिंग से बचें, यह हानिकारक हो सकती है।

अनावश्यक मानसिक तनाव न लें, समय पर पर्याप्त नींद लें, ।

क्या होम्योपैथी में उपचार संभव है?

होम्योपैथिक चिकित्सा मोटापा एवं उसके विभिन्न पहलुओं का उपचार करता है। होम्योपैथी में भी वजन कम करने के लिए दवाओं के अलावा डाइट कंट्रोल और एक्सरसाइज पर पूरा जोर दिया जाता है।  इन दवाओं से पाचन क्रिया सुदृढ़ होती है, चयापचय की क्रिया अच्छी होती है जिसकी वजह से मोटापा कम होता है। यह सभी उम्र के लोगों के लिए कारगर एवं उपयुक्त है और आमतौर पर इनका शरीर पर कुप्रभाव नहीं होता। 

वजन घटाने से पूर्व एक महत्वपूर्ण बात पर विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि आप कितने मोटे हैं तथा आपको कितना वजन घटाने की जरूरत है। होम्योपैथी में वैसे तो मोटापे के लिये सैकड़ों दवाएँ है किन्तु उपयुक्त दवा का चुनाव योग्य चिकित्सक ही मरीज को देखकर कर सकता है, इसलिए कभी भी दवा का प्रयोग स्वयं की जानकारी या किसी के बताए नुस्ख़े की बजाय चिकित्सक के परामर्श के अनुसार ही करना चाहिए। होम्योपैथिक औषधियां फाइटोलक्का बेरी, फ़्यूकस, ग्रेफाइटिस, कैलोट्रोपिस, एंटीमोनियम  क्रूडम, अर्जेन्टम नाइट्रीकम, कैल्केरिया कार्बोनिका, कॉफिया क्रूडा, कैप्सिकम,  आदि वजन घटाने के लिए प्रभावी उपाय हैं। 

डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी
द प्रतिष्ठा होम्योपैथी
चिकित्सा प्रमुख- सेवा भारती अयोध्या महानगर
कृष्ण विहार कालोनी फैज़ाबाद
Twitter- @DrUpendraMani1
Mob- 8400003421